नरेगा

29 Oct 2010
0 mins read

खास बात



• अर्जी देने के १५ दिनों के अंदर न्यूनतम निर्धारित मजदूरी की दर पर प्रत्येक वित्तीय वर्ष में किसी ग्रामीण परिवार के एक व्यस्क सदस्य को(बशर्ते वह हाथ के काम करने को तैयार हो) १०० दिनों तक रोजगार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम को भारत की संसद ने साल २००५ में लागू किया किया।*

• वित्तवर्ष २००९-१० में जुलाई तक २.५३ करोड़ घरों को नरेगा के अन्तर्गत रोजगार दिया गया और कुल ८७.०९ मानव कार्यदिवसों का सॉजन हुआ। साल २००८-०९ में नरेगा के कामों में महिलाओं की भागीदारी ४८ फीसदी थी जो साल २००९-१० के जुलाई तक बढ़कर ५२ फीसदी हो गई है।@

• नरेगा के बाद से गुजरे तीन सालों में न्यूनतम मजदूरी बढ़ी है और औसत मजदूरी-दर ७५ रुपये से बढ़कर वित्तवर्ष २००९-१० के जुलाई तक ८७ रुपये हो चुकी है।@

• अभी तक नरेगा के अन्तर्गत ७.३३ करोड़ खाते बैंकों और डाकखानों में खोले गए हैं।@

• वित्तीय वर्ष २००९-१० में जुलाई महीने के ९ तारीख तक नरेगा के अन्तर्गत २१.७६ लाख काम हाथ में लिए गए जिसमें ५१ फीसदी काम जल-संरक्षण से संबंधित हैं।@

• नरेगा की एक खास पहचान है ग्रामीण गरीबों की आजीविका के लिए संसाधनों को मजबूत आधार देना और उनका सृजन करना। *

• साल २००६-०७ में नरेगा के अन्तर्गत ३ करोड़ ८१ लाख घर पंजीकृत हुए। इसमें २ करोड़ १२ लाख लोगों ने काम के लिए अर्जी दी और २ करोड़ १० लाख लोगों को काम दिया गया। **

• नरेगा के आंकड़ों में गड़बड़ी की आशंका है क्योंकि पंचायत स्तर पर आंकड़ों के रिकार्ड समुचित तरीके से तैयार नहीं किए गए हैं। **

• ऐसे कई मामले प्रकाश में आये हैं जब मेहनताने का भुगतान देरी से हुआ और इस देरी के लिए कोई मुआवजा नहीं दिया गया जबकि मुआवजे का प्रावधान है। **

* पिनाकी चक्रवर्ती(२००७): इम्पलीमेंटेशन ऑव द नेशनल इम्पलॉयमेंट गारंटी एक्ट इन इंडिया-स्पैटियल डायमेंशन एंड फिस्कल इम्पलीकेशन, बार्ड कॉलेज @ हाईलाइट ऑफ क्वाटर्ली प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑन नेशनल रुरल एम्पलॉयमेंट गारंटी एक्ट, ग्रामीण विकास मंत्रालय। http://www.pib.nic.in/release/release.asp?relid=52639

** परफारमेंस ऑडिट ऑव द नरेगा- कंपट्रोलर एंड ऑडिटर जेनरल, भारत सरकार

एक नजर


नरेगा को लेकर पक्ष और विपक्ष से अतिवादी प्रतिक्रियाएं आती हैं।साल 2005 में यह योजना 200 जिलों में शुरु की गई (और बाद के दिनों में इसका विस्तार पूरे देश में हुआ), थी तो इस योजना के समर्थकों ने कहा कि यह ग्रामीण भारत में एक नये युग की शुरुआत है। बहरहाल, नरेगा से नव-उदारवादी खेमे के प्रभावशाली अर्थशास्त्री इतने नाराज थे कि उनमें से एक ने कहा-पैसा ही बर्बाद करना है तो इससे बेहतर तरीका है कि हेलिकॉप्टर से नोटों की बरसात कर दी जाय। आज स्थिति दूसरी है और नरेगा पर अंगुलि उठाने वाले मुख्यतः तीन वजहों से चुप हैं-(क) योजना को आम तौर पर सफल हुआ बताया जा रहा है, (ख) माना जा रहा है कि यूपीए के दोबारा सत्तासीन होने में नरेगा की महत्त्वपूरण भूमिका है और (ग) मंदी की मारी पश्चिमी दुनिया अब लोक-कल्याणकारी कामों में सरकारी खर्च की दुहाई देने लगी है। नरेगा के आलोचक अब इस योजना में जारी भ्रष्टाचार और गड़बड़ घोटाले की ही बात कर रहे हैं और सच पूछें तो नरेगा में भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर हो रहा है मगर इतना नहीं कि पानी के सर कुजरने की नौबत आन पड़ी हो।

नरेगा गरीबी उन्मूलन की अधिकतर योजनाओं से एक बुनियादी अर्थ में भिन्न है। नरेगा में इस बात की पहचान की गई है कि व्यक्ति को रोजगार का वैधानिक अधिकार होता है।नरेगा के फुटकल फायदों में शामिल है-ग्रामीण गरीबों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ना, सामुदायिक संपदा का जिर्णोद्धार और स्त्री-पुरुष की बराबरी।नरेगा को जब याद किया जाएगा तो यह भी कहा जाएगा कि नरेगा ने भारत में नागरिक समूहों की आवाज को एक नई धार दी।कल्पनालोक में आदर्श की हांडी में पकायी गई खिचड़ी जान पड़ने वाला एक विचार कई नागरिक-समूहों, प्रतिबद्ध विशेषज्ञों और तृणमूल स्तर के संगठनों के साल-दर-साल चलने वाले प्रयासों के बूते आखिरकार हकीकत की जमीन पर नमूदार हुआ। इनमें से कई कार्यकर्ता अब कारगर सामाजिक अंकेक्षण(सोशल ऑडिट) और मजदूरी के भुगतान में हुई देरी के लिए मुआवजा देने की मांग उठा रहे हैं और इसके लिए काम कर रहे हैं।

छत्तीसगढ़, राजस्थान और आंध्रप्रदेश के कुछ प्रमुख स्वयंसेवी संस्थाओं ने अग्रणी विश्वविद्यालयों के स्नातकों और शहरी युवाओं को अपने काम से जोड़कर नरेगा से संबद्ध हेल्पडेस्क चलाना शुरु किया है। कुछ जगहों पर ये युवा सोशल-ऑडिट के काम में बी मदद कर रहे हैं। मिसाल के लिए दिल्ली विस्वविद्यालय के स्वयंसेवकों की मदद एक महीने तक संघर्ष चलाने के बाद झारखंड के खूंटी और मूरहू प्रखंड के 174 ग्रामीणों को साल 2009 के जून में 2-2 हजार रुपये का मुआवजा हासिल हुआ जिसे एक साथ जोड़ दें तो यह रकम 3 लाख 48 हजार रुपये की बैठती है। मुआवजा हासिल करने वाले ग्रामीणों को नरेगा के अंतर्गत किए गए काम का भुगतान नहीं किया गया था जो इसके प्रावधानों को घनघोर उल्लंघन है।

नरेगा के लागू होने से आशाए भले परवान चढ़ी हों मगर इसके साथ एक आशंका यह भी लगी है कि स्थानीय स्वशासन और सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराने वाले तंत्र में अगर व्यापक सुधार नहीं होते तो यह योजना कहीं सरकारी धर्मखाते से दी गई एक और खैरात ना साबित होकर रह जाय।अनेक विशेशज्ञों का तर्क है कि नरेगा को प्रभावकारी ढंग से लागू करने के लिए पर्याप्त धन और कार्यदिशा के साथ कार्यकर्ताओं की एक टोली तैयार की जाय जो पंचायत स्तर पर नरेगा के काम की जिम्मेवारी ले।

नरेगा

पिनाकी चक्रवर्ती द्वारा प्रस्तुत आलेख इम्पलिमेंटेशन ऑव द रुरल एम्पलायमेंट गारंटी एक्ट इन इंडिया-स्पैशियल डायमेंशन एंड फिस्कल इम्पलिकेशन(बोर्ड कालेज) के अनुसार- http://papers.ssrn.com/sol3/papers.cfm?abstract_id=1000215

भारत की संसद ने साल 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी नरेगा को लागू किया।इसके अन्तर्गत एक वित्तीय वर्ष के भीतर सौ दिनों के रोजगार की गारंटी प्रदान की गई है।इस गारंटी का लक्ष्य ग्रामीण परिवारों के बेरोजगार व्यस्क सदस्यों को रोजगार प्रदान करना है बशर्ते वे अकुशल श्रम के अन्तर्गत आने वाले हाथ के काम करने को तैयार हों।

इस अधिनियम से पहले भी लोक-रोजगार के कार्यक्रम चलाये गए थे लेकिन इन कार्यक्रमों का लक्ष्य गरीबी उन्मूलन से जुड़ा हुआ था।नरेगा सिर्फ गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं है।इसमें रोजगार को वैधानिक अधिकार का दर्जा दिया गया है।नरेगा से पहले भारत में सरकार द्वारा चलाए गए रोजगार गारंटी कार्यक्रम का एकमात्र उदाहरण महाराष्ट्र रोजगार गारंटी स्कीम है।महाराष्ट्र में साल 1970-73 के दौरान भयंकर सूखा पडा था।इसी गैरमामूली हालात में गरीबी उन्मूलन के लिए यह कार्यक्रम चलाया गया था।

नरेगा का लक्ष्य गरीबी को दूर करने के साथ-साथ रोजगार को एक वैधानिक अधिकार का दर्जा प्रदान करना भी है।इस कार्यकर्म को शक की नजर से देखने वाले लोगों का कहना है कि यह एक लोक-लुभावन उपाय है जबकि इस कार्यक्रम के प्रशंसक इसे गरीबी उन्मूलन और गरीबों के सशक्तीकरण की दिशा में ऐतिहासिक कदम के रुप देखते हैं।

साल 1980 और 1990 के दशक में,दसवीं पंचसाला योजना के दौरान रोजगार वृद्धि की दर बहुत ज्यादा कम हो गई थी। 1993-94 और 1999-2000 के बीच ग्रामीण रोजगार की बढ़ोत्तरी की दर 0.5 फीसदी थी जबकि साल 1983 और 1993-94 के बीच यह दर 1.7 फीसदी थी।यही नहीं साल 1993-94 और 1999-2000 के बीच ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी की दर(करेंट डेली स्टेटस्) 5.63 फीसदी से बढ़कर 7.21 फीसदी हो गई।

एक तरफ बरोजगारी की दर में इजाफा हुआ दूसरे ग्रामीण रोजगार कार्यक्रमों में इन सालों के दौरान सरकारी खर्चे में कटौती की गई।इस लिहाज से नरेगा को लागू करना एक उचित और समय की कसौटी पर खड़ा उतरने वाला कदम था। हालांकि रोजगार के सकल आंकड़े रोजगार वृद्धि में कमी की सूचना देते हैं परंतु राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का बेरोजगारी की दर से संबंधित आकलन कहता है कि 1999-2000 के दौरान पुरूष कामगारों में सिर्फ दो फीसदी और महिला कामगारों में दो फीसदी से भी कम लोग अमूमन बेरोजगार(यूजवली अनएम्पलायड) की कोटि में थे।

बेरोजगारी की दर कम होने के बावजूद ग्रामीण इलाकों मे आयगत निर्धनता की परिघटना बरोजगारी की तुलना में चार गुना ज्यादा है।इसका मतलब यह कि जो लोग काम नहीं मिलने के कारण गरीब हैं उनकी तुलना में गरीबों की संख्या कहीं ज्यादा है।

नरेगा के प्रावधान


नरेगा के विविध प्रावधानों में से कुछ इस प्रकार हैं-: (i)इसके अन्तर्गत हर वित्तीय वर्ष में प्रत्येक ग्रामीण परिवार के कम से कम एक व्यस्क व्यक्ति को राज्य सरकार द्वारा तय की गई मजदूरी की दर पर सौ दिनों तक काम प्रदान करने की व्यवस्था है बशर्ते काम करने वाला अकुशल दर्जे के भीतर आने वाले काम करने को तैयार हो। ; (ii) इस योजना का एक लक्ष्य ग्रामीण इलाके के गरीब लोगों के लिए जीविका के संसाधनों को मजबूत आधार प्रदान करना है।राज्य सरकार इसके लिए ऐसे कामों की सूची तैयार करेगी जिन्हें करने की अनुमति दी जा सकती है और ऐसे कामों की भी सूची तैयार की जाएगी जिन्हें वरीयता देकर करवाया जाना है। (iii)जहां तक संभव हो इस कार्यक्रम में अकुशल श्रमिक का दर्जा प्राप्त मजदूरों को कौशल बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण दिया जाएगा। (iv) मजदूरी का भुगतान नकद भी किया जा सकता है या नकद सहित अनाज आदि के रुप में भी लेकिन इस सूरत में नकद मजदूरी कुल मजदूरी के एक चौथाई से कम नहीं होनी चाहिए।; (v) काम के लिए आवेदन करने वाला आवेदन करते समय जहां का निवासी है उस स्थान से पाँच किलोमीटर के दायरे में ही उसे काम दिया जाएगा।अगर काम इस दायरे से बाहर दिया जाता है तो हर हालत में यह काम आवेदनकर्ता के प्रखंड के अन्तर्गत ही होना चाहिए, साथ ही उसे आने-जाने और रहने के मद में 10 फीसदी मजदूरी अलग से दी जानी चाहिए। (vi) अगर कार्यस्थल पर आयी महिलाओं के साथ छह साल से कम उम्र के पाँच से ज्यादा बच्चे हों तो ऐसे बच्चों की देखभाल के लिए एक व्यक्ति कार्यस्थल पर अलग से नियुक्त किया जाना चाहिए और इस व्यक्ति को न्यूनतम मजदूरी की तय दर के हिसाब से भुगतान किया जाना चाहिए । (vii)मजदूरों के लाभ के लिए चलायी जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं मसलन स्वास्थ्य बीमा,दुर्घटना बीमा,उत्तरजीवी के लाभार्थ चलने वाली योजना,मातृत्व लाभ और सामाजिक सुरक्षा योजना के मद में मजदूरी का एक हिस्सा काटा जा सकता है लेकिन किसी भी सूरत में यह कटौती मजदूरी के लिए भुगतान की जाने वाली रकम के पाँच प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगी।

कंपट्रोलर एंड आँडिटर जेनरल आँव इंडिया द्वारा प्रस्तुत द पर्फार्मेंस ऑडिट ऑव द इम्पलीमेंटेशन ऑव नरेगा नामक दस्तावेज के अनुसार-

http://cag.gov.in/html/reports/civil/2008_PA11_nregacivil/Exe-sum.pdf

साल 2007 के मई-सितंबर महीने में नरेगा के कामकाज की परख के लिए एक निरीक्षण किया गया।यह निरीक्षण 200 जिलों में हुआ जहां नरेगा को शुरुआती तौर पर चलाया गया था। इस जांच के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय ने अनुरोध किया था ताकि पता चल सके कि नरेगा के अन्तर्गत जो प्रावधान किए गए हैं उनका अनुपालन राज्य सरकारों द्वारा सही रीति से हो रहा है या नहीं।

मार्च 2007 की अवधि तक 12074 करोड़ की रकम इस योजना के लिए हासिल हुई थी जिसमें राज्यों द्वारा किया गया 813 करोड़ का अंशदान शामिल है।इस रकम में से राज्य सरकारों ने 73 फीसदी राशि यानी 8823 करोड़ रुपये नरेगा के मद में खर्च किए थे।

ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार नरेगा अधिनियम के अन्तर्गत 3.81 करोड़ घरों का पंजीकरण किया गया था।इसमें 2.12 करोड़ घरों से काम मांगने की अर्जी आयी थी जबकि साल 2006-07 में काम प्रदान किया गया 2.10 करोड़ घरों को।

काम के लिए अर्जी मुख्य रुप से ग्राम-पंचायत के स्तर पर देने की बात कही गई है।इस वजह से ग्राम पंचायत में इस आशय के आंकड़े का होना बहुत जरुरी है कि कितने लोगों ने रोजगार मांगे,कितने लोगों को रोजगार मुहैया कराया गया,कितने दिनों के रोजगार का सृजन हुआ और मजदूरी का भुगतान किस रीति से तथा कितना किया गया।निरीक्षण के दौरान मौका मुआयना से यह बात सामने आयी कि ग्राम पंचायत के स्तर पर आंकड़ों को व्यापक रुप से नहीं सहेजा गया है और इससे आंकड़े के दस्तावेजों की विश्वनीयता पर संदेह उठते हैं। आंकड़ों की अव्यवस्था के कारण निरीक्षण के दौरान यह जान पाना मुश्किल हो गया कि काम मांगने वाला परिवार वाकई काम न मिल पाने की सूरत में बेरोजगारी भत्ता पाने योग्य है भी या नहीं क्योंकि काम की मांग के साथ आयी हुई अर्जियों का तारीखवार संकलन नहीं हुआ है और अधिकांश मामलों में इन अर्जियों की प्राप्ति की रसीद तारीखवार नहीं दी गई है। इन बातों से संकेत मिलते हैं कि काम की जितनी संख्या में काम की मांग की गई उसकी तुलना में कम लोगों को काम दिया जा सका।

निरीक्षण के दौरान देर से मजदूरी भुगतान करने के अनेक मामले सामने आए और मजदूरी ना देने की एवज में कोई मुआवजा दिया गया हो इस बात के भी कोई संकेत नहीं मिले।इस बात की संभावना तो है ही कि जितनी तादाद में लोगों ने काम की मांग की उतनी तादाद में लोगों को काम मिला नहीं, साथ ही इस बात के भी उदाहरण हैं कि बेरोजगारी भत्ता नहीं दिया गया जबकि रोजगार मांगने वाले का नाम रिकार्ड में दर्ज है और उससे पता चल रहा है कि काम मांगने की अर्जी के आए हुए 15 दिन से ज्यादा हो गए हैं।ऐसी दशा में नियम के उल्लंघन की साफ साफ स्थिति बनती है लेकिन नियम की अवहेलना के लिए दोषी व्यक्ति पर किसी किस्म का जुर्माना नहीं किया गया।इस बात से पता चलता है कि नरेगा के क्रियान्वयन में शिकायतों की सुनावाई और उनके निपटारे की व्यवस्था कारगर नहीं है और इसकी वजह से गरीब ग्रामीण परिवार के व्यस्क व्यक्तियों को सौ दिनों के रोजगार की वैधानिक गारंटी देने के उद्देश्य की ही हार हो रही है।

आंकड़ों को सहेज कर ना रखने के कारण नरेगा अधिनियम के उद्देश्य की कई तरह से हानि हुई है। चूंकि काम देने की गुजारिश करने वाली अर्जियों का लेखा जोखा तारीखवार मौजूद नहीं है इसलिए अर्जी देने वाला इस बात का भी दावा नहीं कर सकता कि उसने काम मांगा है पर दिया नहीं गया और इस वजह से उसे बेरोजगारी भत्ता दिया जाये।

सीएजी की जांच में यह बात भी सामने आयी कि नरेगा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबंधन भी लचर है।नरेगा के मद में दी जाने वाली राशि का प्रबंधन विभिन्न स्तरों पर पारदर्शिता बनाए रखने के लिए व्यवस्थित तरीके से करने की बात कही गई है लेकिन कई मामलों में ऐसा नहीं किया गया।जांच का निष्कर्ष है कि ना तो काम दिया गया है इसकी जांच के लिए कदम उठाए गए और नहीं ग्राम सभा द्वारा सोशल आँडिट(सामाजिक अंकेक्षण) का काम कारगर तरीके से सम्पन्न हो पाया।

सीएजी के दल ने सोशल आँडिट के बाद कुछ चुने हुए जिलों में इस बात की जांच के लिए साल 2008 के फरवरी-मार्च में दौरा किया कि रिकार्ड रखने के काम में कहां तक सुधार हुआ है।यह दौरा 6 राज्यों के 12 जिलों के 12 प्रखंडों में हुआ और इसमें 24 ग्राम पंचायतों का जायजा लिया गया। इससे पता चला कि उत्तरप्रदेश में रिकार्ड रखने के कामकाज में सुधार आया है-खासकर सोशल आँडिट होने के बाद लेकिन ग्राम-पंचायत के स्तर पर रोजगार की पंजी में आंकड़ों को दर्ज करने के काम में अब भी बहुत कुछ सुधार की गुंजाइश बची हुई है।

मौजूदा स्थिति



कंपट्रोलर एंड ऑडिटर जेनरल द्वारा प्रस्तुत साल २००८ की रिपोर्ट संख्या ११ के अनुसार-

http://cag.gov.in/html/reports/civil/2008_PA11_nregacivil/introduction.pdf:

अरुणाचलप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, मणिपुर , पंजाब, राजस्थान और तमिलनाडु यानी तेरह राज्यों की सरकार ने साल २००७ के मार्च महीने तक नरेगा के प्रावधानों को लागू करने के लिए नियम नहीं बनाए थे।

अरुणाचलप्रदेश, आंध्रप्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, केरल. मध्यप्रदेश, मणिपुर, नगालैंड, उड़ीसा, पंजाब, सिक्किम, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल यानी सोलह राज्यों की सरकार के पास ग्राम पंचायत के स्तर पर नरेगा के अन्तर्गत काम देने ,काम का परीक्षण और अनुमोदन करने की कोई समय सारणी तैयार नहीं थी।

कुल अट्ठारह राज्यों ने ग्रामीण रोजगार गारंटी आयुक्त के नाम से अधिकारी की नियुक्ति की थी लेकिन अरुणाचलप्रदेश, हिमाचलप्रदेश, कर्नाटक, नगालैंड,त्रिपुरा और उत्तरप्रदेश यानी कुल सात राज्यों में इस अधिकारी की नियुक्ति २००७ के मार्च तक नहीं हो पायी थी।

अरुणाचलप्रदेश, असम, बिहार, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र,मेघालय, नगालैंड, उड़ीसा, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडु,त्रिपुरा उत्तरप्रदेश,उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल यानी कुल बीस राज्यों के १०२ प्रखंडों में पूर्णकालिक प्रोग्राम ऑफिसर की नियुक्ति नहीं हुई थी।इन प्रखंडों को नमूने के तौर पर जांच के लिए चुना गया था। इन प्रखंडों में प्रखंड विकास पदाधिकारी यानी बीडीओ को ही नरेगा के प्रोग्राम ऑफिसर की जिम्मेदारी सौंप दी गी थी।

नमूने के तौर पर कुल ६८ जिलों की जांच में पाया गया कि असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश. झारखंड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र , मणिपुर, पंजाब, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल यानी कुल १४ राज्यों के ४० जिलों में डिस्टि्रकिक्ट परस्पेक्टिव प्लान(डीपीपी) की तैयारी नहीं हो पायी थी।

जांच में पाया गया कि आंध्रप्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, मणिपुर, नगालैंड, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल यानी कुल बीस राज्यों के ३२३ ग्राम पंचायतों में इस आशय का कोई सर्वेक्ष घर-घर घूमकर नहीं किया गया था कि कौन व्यक्ति नरेगा के अन्तर्गत काम पाने के लिए अपने नाम का पंजीकरण करवाना चाहता है और कौन नहीं।

जांच के दौरान पाया गया कि आंध्रप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, सिक्किम, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल यानी कुल सोलह राज्यों के १९६ प्रखंडों में जॉब कार्ड जारी करने में देरी की गई।

जांच के दौरान पाया गया कि आंध्रप्रदेश, असम,बिहार छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल यानी तेरह राज्यों के कुल २५१ प्रखंडों में जॉब-कार्ड जारी करते समय आवेदनकर्ता की तस्वीर जॉबकार्ड पर नहीं साटी गई।

बिहार छत्तीसगढ़, हरियाणा,हिमाचलप्रदेश,झारखंड,उड़ीसा, और उत्तरप्रदेश, यानी सात राज्यों में जिलास्तर पर मजदूरी और साजो-सामान के बीच ६0:४0 के अनुपात का पालन नहीं किया गया।

अरुणाचलप्रदेश, असम, बिहार, हरियाणा, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल., मणिपुर, मेघालय, पंजाब, सिक्किम, त्रिपुरा उत्तरप्रदेश, और उत्तराखंड की सरकारों ने नरेगा के लिए जिला स्तर पर मजदूरी के दरों की अनुसूचि (डिस्ट्रिक्ट वाइज शिड्यूल ऑव रेटस्) नहीं तैयार किये थे।

आंध्रप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल.,मध्यप्रदेश,महाराष्ट्र,मणिपुर,उड़ीसा,पंजाब,राजस्थान और तमिलनाडु यानी बारह राज्यों के ७९ ग्राम पंचायतों में सात घंटे काम करने के बावजूद मजदूरों को निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम भुगतान किया गया।

आंध्रप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश, मणिपुर, उड़ीसा, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के यानी १७ राज्यों के २१३ ग्राम पंचायतों में मजदूरों को समय पर(यानी काम जिस दिन किया गया उसके एक पखवाड़े के भीतर) मजदूरी नहीं मिली। देरी से मजदूरी के भुगतान के एवज में कोई मुआवजा भी नहीं दिया गया।

जांच के दौरान पाया गया कि अरुणाचलप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, हिमाचलप्रदेश, झारखंड,कर्नाटक,केरल,.,मणिपुर,मेघालय , नगालैंड, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, त्रिपुरा उत्तरप्रदेश,और उत्तराखंड यानी कुल १७ राज्यों में मजदूरों को काम मांगने के १५ दिन के अंदर काम मुहैया ना कराने पर दिया जाने वाला बेरोजगारी भत्ता, नहीं दिया जा सका।

असम, बिहार,हरियाणा,हिमाचलप्रदेश,झारखंड,कर्नाटक,केरल,,मणिपुर,मेघालय, नगालैंड, उड़ीसा,पंजाब, उत्तरप्रदेश,उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल यानी कुल १५ राज्यों २४६ ग्राम पंचायतों में मस्टर रोल सार्वजनिक जांच-परख के लिए उपलब्ध नहीं था।

नरेगा


सेंटर फॉर साईंस एंड एन्वायरन्मेंट के अनुसार- www.cseindia.org,

सरकार ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की संभावनाओं को साकार करने में असफल रही है। नरेगा के अन्तर्गत चलाए जा रहे कार्यक्रम का क्रियान्वयन और मूल्यांकन रोजगार सृजन को पैमाना मानकर किया जा रहा है जबकि ध्यान बात पर होना चाहिए कि स्थानीय स्तर पर ग्रामीणों के लिए जीविका के उत्पादक आधार तैयार हुए या नहीं।

मजदूरी की गणना में युक्तिसंगत ना होने के कारण जल-संरक्षण जैसी परियोजनाएं कम लाभकारी साबित हो रही हैं।

कुल ७६९,५८२ काम प्रगति पर हैं।इसमें केवल १५८,२७७ को यानी लगभग बीस फीसदी को पूरा किया जा सका है। २००७ के अगस्त तक नरेगा के अन्तर्गत जल संरक्षण के कुल १४ फीसदी कामों को ही अंजाम दिया जा सका था।

सड़क निर्माण की परियोजनाएं अपेक्षाकृत ज्यादा तेजी से पूरी हो रही हैं।

जल संरक्षण के लिए जिन ढांचों का निर्माण किया जा रहा है इसमें किसी सुव्यवस्थित दृष्टि का अभाव है और इस वजह से ढांचों का निर्माण हो जाने के बावजूद वे बेकार पड़े रहते हैं। मिसाल के लिए वर्षा-जल जमा करने के लिए अगर किसी किस्म का निर्माण हुआ है तो उसमें इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि संग्रहित जल किस तरीके से सुरक्षित रहेगा। सबसे बड़ी बात तो यह कि ऱख-रखाव का जिम्मा नरेगा से जुड़े कामों के अन्तर्गत नहीं आता।नतीजतन कुछ जिलों में पानी को संरक्षित रखने के ढांचे पहले से बड़ी तादाद में मौजूद हैं और इन जिलों में असल समस्या इन ढांचों के रख-रखाव की है मगर प्रावधान ना होने के कारण नरेगा की रकम इस मद में खर्च नहीं की जा रही है।

पब्लिक इन्ट्रेस्ट फाऊंडेशन और नेशनल काऊंसिल ऑव अपलॉयड इकॉनॉमिक रिसर्च के दस्तावेज इवैल्यूएटिंग परफार्मेंस ऑव नेशनल रुरल एम्पलॉयमेंट गारंटी एक्ट के अनुसार-

http://www.publicinterestfoundation.com/index.php?option=com_content&task=view&id=47&Itemid=49

http://www.hindustantimes.com/StoryPage/StoryPage.aspx?sectionName=NLetter&id=afbf7ea0-234e-4572-ba5c-5404e635d3b7&Headline=Shady+data%2c+sloppy+work%3a+study+slams+NREGA

आंकड़ों में हेरफेर के जरिए इस योजना के अन्तर्गत सृजित रोजगार की एक सुनहरी तस्वीर पेश की गई है।

आधिकारिक आंकड़ों में शुरुआती चरण में दस फीसदी परिवारों को रोजगार मुहैया कराने की बात कही गई है लेकिन इस पर संदेह उठता है क्योंकि स्वतंत्र रीति से कराये गए शोध,सोशल ऑडिट,और फील्ड स्टडीज से खुलासा हुआ है कि कई मायनों में आंकड़े दुरूस्त नहीं हैं और ठीक इसी कारण प्रान्तीय अथवा राष्ट्रीय स्तर पर एक अच्छी तस्वीर पेश की जा रही है कि जितने लोगों ने रोजगार मांगे हैं उसे देखते हुए रोजगार मुहैया कराने की कोशिशें सराहनीय कही जा सकती हैं।

कई राज्यों में ऐसे अनेक जिले पाये गए जहां कुल परिवारों की जितनी संख्या आबाद है उसकी तुलना में कहीं ज्यादा संख्या में जॉब-कार्ड जारी कर दिए गए।

इस अध्ययन में निम्नलिखित सुझाव दिए गए हैं-:
भारत सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह आसान और सरल तरीके से नरेगा के लिए धन मुहैया कराये-

नरेगा के लिए धन मुहैया कराने की मौजूदा प्रणाली में भारत सरकार मजदूरी के मद में दी जाने वाली पूरी रकम और काम के साजो सामान के मद में होने वाले खर्च की ७५ फीसदी राशि राज्यों को मुहैया कराती है। यह राशि सीधे राज्यों को ना देकर जिलों में भेजी जाती है।इस प्रकिया में मजदूरी,साजो-सामान और कर्मचारियों के मद में होने वाले खर्चे का आकलन कई चरणों में करना पड़ता है। साथ ही जिलावार आंकड़ा रखने के प्रावधान के चलते काम का बोझ भी बढ़ता है। इस प्रक्रिया में जिला स्तर के अधिकारियों को कई दफे दिल्ली का चक्कर लगाना पड़ता है ताकि उनके प्रस्ताव के अनुकूल राशि दी जा सके।

इस पूरी प्रक्रिया को आसान बनाया जा सकता है।धन देने की नई प्रणाली कुछ इस प्रकार की हो सकती है कि केंद्र राज्यों को मजदूरी के मद में दी जाने वाली पूरी राशि दे और इस राशि का पचास फीसदी हिस्सा साजो-सामान आदि के खर्च के मद में दे दे। अगर धन प्रदान करने की ऐसी प्रणाली अपनायी जाय तो फिर राज्यों को साजो-सामान पर होने वाले खर्च,कर्मचारियों पर होने वाले खर्च और मजदूरों पर होने वाले खर्च को अलग-अलग नहीं जोड़ना होगा और ना ही उन खर्चों के बीच किसी किस्म के अनुपात का आकलन करना होगा।दूसरे,धन सीधे राज्यों को दिया जाय ना कि जिलों को और राज्यों से जिलों को रकम देने के क्रम में आधार यह बनाया जाय कि उन्होंने पिछली दफे दी गई रकम में से कितना खर्च किया है। इस प्रकार केंद्र को छह सौ जिलों का रिकार्ड अलग अलग रखने के बजाय बस राज्यों का रिकार्ड रखना होगा।

•धन देने की इस प्रणाली के साथ उसके जांच की भी व्यवस्था की जानी चाहिए।नरेगा के मद में दिया जाने वाला धन जब राज्यों को हासिल हो जाय तो केंद्र इसकी पावती की जांच के लिए अपना दल भेजे।नरेगा के मद मिले धन की जांच राज्यों द्वारा भी अर्ध-वार्षिक आधार पर करायी जाय और कंपट्रोलर एंड ऑडिटर जेनरल द्वारा इसकी जांच सालाना आधार पर की जाय।

अन्ना मैक्कोर्ड और जॉन परिंग्टन द्वारा प्रस्तुत आलेख- डिगिंग होल्स एंड फीलिंग देम अगेन?हाऊ फॉर डू पब्लिक वर्क्स इनहेन्स लाइवलीहुड के अनुसार-

http://www.odi.org.uk/resources/download/2571.pdf

नरेगा को लागू करने में निम्नलिखित बाधाओं का सामना करना पड़ा है -

उपलब्ध राशि का पूरा इस्तेमाल ना होना-: केंद्र सरकार नरेगा के मद में नब्बे फीसदी राशि का अंशदान करती है लेकिन वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्यों ने केंद्र से मिली राशि का महज इकहत्तर फीसदी इस्तेमाल किया।कुछ राज्यों में तो पचास फीसदी राशि का भी इस्तेमाल नहीं हो पाया।

कम संख्या में रोजगार दे पाना-२००६-०७ के वित्तीय वर्ष में नरेगा से लाभान्वित प्रति परिवार को औसतन ४३ दिनों का काम हासिल हुआ है। नरेगा के अन्तर्गत प्रावधान है कि लाभान्वितों में एक तिहाई महिलाएं होनी चाहिए लेकिन सत्ताइस राज्यों में से ग्याहर राज्य यह लक्ष्य पाने में असफल रहे।

नरेगा को लागू करने में कुछ लापरवाहियां भी हुई हैं, मसलन- सोशल ऑडिट कराने में कोताही बरती गई, जल-संरक्षण के काम अथवा वृक्षारोपण के काम को नरेगा के अन्तर्गत वरीयता दी जानी चाहिए थी लेकिन इस पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया,कार्य-स्थल पर मजदूरों को कामकाज की सुविधाएं मिलें इस बात पर जोर नहीं रहा और बेरोजगारी की एवज में भत्ता देने में कोताही बरती गई।

ज्यादातर लाभार्थियों को यह बात तो पता थी कि नरेगा के अन्तर्गत सौ दिनों का काम मिलेगा लेकिन इस बात के अलावा बाकी प्रावधानों की उन्हें जानकारी नहीं थी।

नरेगा के अन्तर्गत मुहैया कराए गए धन को अनधिकृत कामों में लगाये जाने की घटनाएं हुई हैं और जॉब-कार्ड जारी करने की प्रक्रिया में अथवा किसी कास काम के लिए मजदूरों का पंजीकरण करते वक्त संख्या के हेरफेर से धन का बेजा इस्तेमाल किया गया है।

नरेगा की मुख्य विशेषताएं


ग्रामीण रोजगार की गारंटी देने वाला यह अधिनियम सितंबर २००५ में पारित हुआ ।इसका दूरगामी लक्ष्य ग्रामीण इलाके में जीविका की सुरक्षा प्रदान करना है।नरेगा के लक्ष्यों में ग्रामीण इलाके में जीविका की आधारभूत स्थितियां तैयार करना,पर्यावरण की सुरक्षा,महिलाओं का सशक्तीकरण तथा सामाजिक सुरक्षा को बढ़ावा देना भी शामिल है।

२००६-०७ के वित्तीय वर्ष में नरेगा के मद में एक सौ तेरह अरब की राशि प्रदान की गई और वित्तीय वर्श २००७-०८ में यह राशि बढ़कर १२० अरब हो गई।नरेगा का लक्ष्य पांच करोड़ ४० लाख की तादाद में मौजूद ग्रामीण गरीबों को लाभ पहुंचाना है।पहले यह योजना कुल २०० जिलों में चालू की गई जिसे अप्रैल २००७ में विस्तार देकर ३३० जिलों तक कर दिया गया।

नरेगा को तैयारी महाराष्ट्र में लागू की गई रोजगार गारंटी की योजना के अनुभवों के आलोक में हुई है। नरेगा रोगार के अधिकार की वैधानिक गारंटी देता है साथ ही इसमें व्यवस्था की गई है कि गरीब व्यक्ति मिलने वाले काम के बारे में फैसले ले सके ताकि उसके द्वारा किया जा रहा काम उसकी जीविका की समस्या को हल करे।

नरेगा के अन्तर्गत कोई अकुशल मजदूर अपने निकटवर्ती स्थानीय सरकारी निकाय में पंजीकरण करवा के जॉब-कार्ड हासिल कर सकता है।यह कार्ड पांच साल की अवधि के लिए वैध होगा।

प्रावधान के अनुसार मजदूर का जहां पजीकरण हुआ है उसके पांच किलोमीटर के दायरे में उसे काम दिया जाएगा साथ ही एक परिवार से एक ही आदमी को काम दिया जाएगा और यह काम सौ दिनों से अधिक का नहीं होगा।

नरेगा के अन्तर्गत ध्यान रखा जाएगा कि जिन मजदूरों को काम मिल रहा है उनमें कम से कम एक तिहाई महिलाएं हों।

महिलाओं और पुरुषों को समान काम के लिए समान मजदूरी मिलेगी और यह मजदूरी राज्यों द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी की दर के हिसाब से होगी।

काम में ठेकेदार नहीं रखे जाएंगे और ना ही ऐसी मशीनों का इस्तेमाल होगा जिससे मजदूरों की तादाद घटती हो।स्थानीय शासन के द्वारा मंजूर काम ही कराए जाएंगे।

यदि काम मांगने वाले व्यक्ति को अर्जी देने के पन्द्रह दिनों के अंदर काम नहीं मिलता तो उसे बेरोजगारी भत्ता दिया जाना चाहिए।

काम करने की जगह पर साफ पानी मुहैया कराया जाएगा,मजदूरों के बच्चों के देखभाल की व्यवस्था होगी साथ प्राथमिक उपचार के सामान भी रहेंगे। यदि कोई मजदूर काम के दौरान दुर्घटना का शिकार होता है तो उसका निशुल्क उपचार कराया जाएगा।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading