नर्मदा अंचल के वन एवं वन्य जैवविविधता

नर्मदा नदी
नर्मदा नदी

नर्मदा अंचल के वनों और नदियों के प्रवाह के बीच नाजुक रिश्ते के बारे में जानकारी दे चुकने के बाद नर्मदा अंचल के वनों और वन्य जैव विविधता के बारे में संक्षिप्त जानकारी देना प्रासंगिक होगा। यहाँ कैसे जंगल हैं और उनमें वन्य जैवविविधता कैसी है इसी विषय पर संक्षिप्त जानकारी आगे दी गई है। प्राचीन भारतीय साहित्य में नर्मदा को बड़ा महत्त्व दिया गया है। कूर्म पुराण, मत्स्य पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, वामन पुराण, नारद पुराण तथा भागवत पुराण आदि में नर्मदा के बारे में विवरण के साथ ही इसके अंचल में पाये जाने वाले वनों की शोभा भी बखानी गई है।

प्रसिद्ध स्कंद पुराण के पूरी तरह नर्मदा को ही समर्पित रेवा खण्ड में नर्मदा की उत्पत्ति, अमरकंटक के वनों, ओंकार पर्वत शूलभेद आदि क्षेत्रों के बारे में जानकारी के साथ-साथ पृथ्वी पर पड़े प्रलयकारी सूखे और अकाल के युगों में भी नर्मदा के अक्षय रहने का विवरण मिलता है। नर्मदा पुराण में भी नर्मदा अंचल के वनों की शोभा बताई गई है। इसी तरह कई अन्य प्राचीन धर्म ग्रंथों व अन्य साहित्य में उपलब्ध रोचक विवरणों से नर्मदा अंचल के वनों की प्राचीन दशा पर भी प्रकाश पड़ता है।

स्कंद पुराण के रेवा खण्ड में तथा नर्मदा पुराण के द्वितीय अध्याय में विवरण है कि पाण्डव द्रौपदी के साथ उत्तम काम्यक वन में ब्राम्हणों सहित निवास करते हुए विंध्याचल पर्वत की ओर गए जो कि चम्पा, कनेर, नागकेशर, पुन्ना-सुल्ताना, चम्पा, मौरसरी, बकुल, दाड़िम (अनार), कचनार, पुष्पित धवल-कहू, बिल्व, केतकी, कदम्ब, आम्र, मधूक, नीम, नींबू, जम्वीर, तेन्दू, नारियल, कपित्थ (कैथा), खजूर पनस (कटहल) आदि नाना प्रकार के वृक्षों एवं गुल्म लताओं से युक्त पुष्पित फल से परिपूरित कुबेर के चैत्ररथ के समान था।

इसी आख्यान में ऋषि आश्रम की जैवविविधता का वर्णन करते हुए उल्लेख है कि वह अनेक सुन्दर जलाशयों से पूर्ण था, कुमुदनी से मंडित और नील, पीत, श्वेत, लाल कमलों से आच्छादित एवं हंस के कारण्डव, चकवा, चकवी, आड़ि, काक, बगुलों की पंक्ति एवं कोकिल आदि से सुशोभित था। सिंह, बाघ, शूकर, हाथी, विशालकाय वन भैंसे, सुरभि, सारंग, भालू आदि जानवरों से युक्त था। कोक, मयूर और नाना प्रकार के पशुओं से सुशोभित हो रहा था।

इस तरह की बाधाओं से मुक्त और अतीव उत्कृष्ट सत्व गुण के कारण परम सुन्दर प्रतीत होता था। भूख-प्यास जैसी बाधाएँ वहाँ नहीं सताया करती थीं। वह वन परम सुन्दर एवं सभी तरह की व्याधियों से रहित था। उस आश्रम के वन में स्वाभाविक बैर भी नाम मात्र को नहीं था और कुरंग (हिरन) के बच्चे बड़े ही स्नेह से सिंहनी के स्तन को पीया करते थे, मार्जार (बिल्ली) और मूषक दोनों परस्पर में उन्मुख होकर अवलेहन किया करते थे। सिंहनी के पुत्रों से वह स्नेह करते और मयूर एवं सर्प भी एक दूसरे के साथ बड़े ही स्नेह से रहते। उस परमोत्तम एवं अतीव सुन्दर विपिन को देखकर पाण्डु के पुत्रों ने उसमें प्रवेश किया था।

मत्स्य पुराण में विवरण आता है कि कलिंग देश से पिछले पश्चिमी अर्ध भाग में अमरकण्टक पर्वत में प्रकटी नर्मदा तीनों लोकों में अतीव मनोरम और रमणीय है। इसी पुराण में अन्यत्र कहा गया है कि नर्मदा के तट पर कपिला नामक महानदी है जो अर्जुन के वृक्षों से ढँकी हुई है तथा खदिर वृक्षों से सुशोभित है। यह कपिला नदी माधवी अमरबेल और अन्य लताओं से भी सुशोभित गरजने वाले सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक तथा शृंगाल वानर आदि जीवों से और सुन्दर पक्षिओं से नित्य ही शब्दायमान रहती है। इस प्रकार पुराणों और अन्य प्राचीन ग्रंथों में नर्मदा के विषय में उपलब्ध विवरण से इस अंचल के वनों की रमणीयता और विविधता का पता चलता है।

नर्मदा अंचल में वनों की किस्में तथा उनका विस्तार


नर्मदा जलागम में आने वाले जिलों में असंख्य वनस्पतियों तथा प्राणियों की विविधता से युक्त मनोहारी छटा वाले वन हैं। नर्मदा बेसिन के कुल भू-भाग में 32,483.29 वर्ग किमी क्षेत्र में वन है जो पूरे बेसिन के कुल क्षेत्रफल का 32.88 प्रतिशत भाग है। इन वनों को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है। एक प्रकार का वर्गीकरण तो वैधानिक आधार पर है जबकि दूसरी विधि में वनों में पाई जाने वाली मुख्य प्रजातियों के आधार पर वनों का वर्गीकरण किया जाता है।

वैधानिक वर्गीकरण की दृष्टि से वनों के दो प्रमुख वर्ग हैं- आरक्षित वन तथा संरक्षित वन। भारतीय वन अधिनियम 1927 के अन्तर्गत आरक्षित घोषित किये गए वनों में अपेक्षाकृत कठोर कानून लागू होते हैं और इनमें बिना अनुमति प्रवेश, वृक्ष कटाई, आग लगाना, पशु चराई, पत्थरों की खुदाई या खेती के लिये जंगलों की सफाई जैसी गतिविधियाँ प्रतिबन्धित रहती हैं। संरक्षित वनों में भी शासन का नियंत्रण रहता है पर इनसे सम्बन्धित कानून थोड़े लचीले हैं। इन दोनों श्रेणियों के बाहर भी कुछ अवर्गीकृत वन भी हैं।

वनों के वर्गीकरण की दूसरी विधि में मुख्य प्रजातियों के आधार पर नर्मदा जलागम के वनों को तीन प्रमुख वर्गों में बाँटा जा सकता है- साल वन, सागौन वन तथा मिश्रित वन। जिन वनों में साल प्रजाति के वृक्षों की अधिकता होती है उन्हें साल वनों की श्रेणी में, जिन वनों में सागौन प्रजाति के वृक्षों की अधिकता होती है उन्हें सागौन वनों की श्रेणी में तथा ऐसे वन जिनमें विविध वृक्ष प्रजातियों व अन्य वनस्पतियों का मिश्रण रहता है उन्हें मिश्रित वन की श्रेणी में रखा जाता है।

नर्मदा अंचल में साल वन अमरकंटक, डिंडोरी तथा मण्डला के अतिरिक्त पचमढ़ी में भी पाये जाते हैं और एक मोटे अनुमान के अनुसार पूरे नर्मदा जलागम क्षेत्र में आने वाले वनों का लगभग 10 प्रतिशत साल वनों का है। सागौन वन यहाँ का एक प्रमुख वन प्रकार है और एक मोटे अनुमान के अनुसार नर्मदा जलागम में आने वाले कुल वनक्षेत्र का लगभग 35-40 प्रतिशत भाग इसी वर्ग का है। प्रमुख वृक्ष प्रजातियों की अधिकता के आधार पर नर्मदा के तीसरे प्रकार के वनों-मिश्रित वनों को भी सलई वन, खैर-सिस्सू वन, अंजन वन जैसे उप-प्रकारों में बाँटा जाता है। नर्मदा जलागम में आने वाले कुल वनक्षेत्र का लगभग आधा भाग विभिन्न प्रकार के मिश्रित वनों से आच्छादित है। इन तीन प्रकार के वनों में मिलने वाली वनस्पतियों का विवरण तथा नर्मदा अंचल में भौगोलिक वितरण आगे बताया गया है।

साल वन (Sal Forest)


नर्मदा अंचल में पाये जाने वाले तीन मुख्य वन प्रकारों में से एक, सदा हरे रहने वाले साल वन हैं। नर्मदा अंचल में ये साल वन केवल मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य के कुछ भागों में मिलते हैं। किसी वन क्षेत्र में साल, जिसका वैज्ञानिक नाम शोरिया रोबस्टा (Shorea robusta) है, के वृक्षों का आयतन कुल वृक्षों के 20 प्रतिशत से अधिक होने पर उसे तकनीकी तौर पर साल वन कहा जाता है। साल वृक्ष की प्रमुखता वाले इन वनों में साल के वृक्ष आमतौर पर बीज से पैदा होकर सघन अवस्था में पाये जाते हैं जिसमें 60-90 प्रतिशत तक उच्च वितान (Top canopy) 26-40 मीटर ऊँचे साल के वृक्षों का होता है।

गर्मी के प्रारम्भिक समय में 5-15 दिनों के लिये साल के पत्ते झड़ जाते हैं पर इस अवधि को छोड़कर साल वृक्ष सदाहरित ही रहता है जिसके कारण ये वन काफी आर्द्र व ठंडे रहते हैं। घने उच्च वितान के साल वनों में मध्य वितान (Middle canopy) तथा अधोवितान अन्य वनों की अपेक्षा कम विकसित होते हैं व झाड़ियाँ और गुल्म आंशिक रूप से सदाहरित होते हैं। साल वनों में बाँस आमतौर पर शुष्क भागों के खुले हिस्सों को छोड़कर अन्दरूनी भागों में नहीं मिलता है। मध्य प्रदेश के साल वनों की गुणवत्ता श्रेणी द्वितीय तथा तृतीय है और इनमें प्राकृतिक पुनरुत्पादन पर्याप्त है।

नर्मदा अंचल में साल के वन प्रमुखतः दक्षिण-पूर्वी व मध्य भाग में तथा छत्तीसगढ़ के उत्तरी पश्चिमी भाग में नर्मदा के दक्षिणी ओर पाये जाते हैं। नर्मदा अंचल के कुल वन क्षेत्र का लगभग 10 प्रतिशत साल वन हैं। ये वन प्रमुखता से अनूपपुर (पुराने शहडोल जिले का भाग), मण्डला, डिंडोरी, होशंगाबाद, छिन्दवाड़ा, बालाघाट आदि जिलों में पाये जाते हैं।

नर्मदा के उद्गम के निकट मैकल पर्वत श्रेणी साल के वन कुछ हिस्सों में पाये जात हैें। यहाँ के साल वन तृतीय से चतुर्थ-ब श्रेणी के हैं। बालाघाट जिले में साल वन कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से लगी हुई बैहर तहसील के उत्तरी भागों तक सीमित हैं। नरसिंहपुर जिले में भी बहुत हल्के किस्म के साल वन खैरी क्षेत्र में मिलते हैं जिनमें साल कुल संनिधि का लगभग तीन चौथाई है।

यहाँ साल वन पठारी भूमि पर, नालों से दूर, अच्छी तरह अपवाहित क्षेत्रों में मिलते हैं। इस क्षेत्र में साल के वृक्ष आमतौर पर चतुर्थ श्रेणी की गुणवत्ता के हैं जिनमें मध्यम गोलाई वाले साल वृक्ष कम हैं और अधिकांश विकृत हैं। ये वन लगभग मध्य वयस्क हैं। होशंगाबाद में साल वन नागद्वारी नदी के जलग्रहण क्षेत्र में पचमढ़ी के दक्षिण-पश्चिम में तथा कुछ अन्य स्थानों पर सीमित है जिनमें से अधिकांश भाग वर्तमान में सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान का हिस्सा है। यह प्रायद्वीप में साल की धुर पश्चिमी सीमा है। नर्मदा अंचल में उपरोक्त क्षेत्रों को छोड़कर मध्य प्रदेश में साल के वन अन्यत्र नहीं पाये जाते हैं।

सागौन वन (Teak Forests)


सागौन वृक्ष जिसका वैज्ञानिक नाम टेक्टोना ग्रैन्डिस (Tectona grandis) है, नर्मदा अंचल के वनों की एक प्रमुख प्रजाति है। यह डिप्टेरोकारपेसी वानस्पतिक कुल (Family Dipterocarpaceae) का सदस्य है। सागौन के लिये मध्य प्रदेश की मिट्टी, पानी और जलवायु बहुत उपयुक्त है जिसके कारण इस प्रजाति का मध्य प्रदेश में व्यापक प्राकृतिक फैलाव है।

सागौन लगभग 80-100 वर्षों में परिपक्व होने वाला वृक्ष है। इसके विशालकाय रोएँदार पत्तों, ऊँचे-मोटे तनों और विशिष्ट प्रकार के छत्र के कारण इसे दूर से ही आसानी से पहचाना जा सकता है। इसकी लकड़ी भवन निर्माण और फर्नीचर आदि बनाने में बहुत अच्छी मानी जाती है और काफी ऊँची कीमत पर बिकती है। इस वृक्ष प्रजाति की अधिकता को देखते हुए कुछ लोग मध्य प्रदेश को सागौन प्रदेश या ‘टीक स्टेट’ (Teak State) भी कहते हैं। वैसे तो सागौन के वृक्ष नर्मदा अंचल के काफी हिस्सों में फैले हैं परन्तु जहाँ-जहाँ वनों में इस प्रजाति के वृक्षों का आयतन 20 प्रतिशत से अधिक होता है उन्हें तकनीकी तौर पर ‘सागौन वन’ कहा जाता है।

इस प्रकार के वनों में प्रमुख प्रजाति सागौन ही होती है जो कि बहुत अच्छी विकसित अवस्था में पाई जाती है। इन वनों में पर्णपाती प्रजातियों की प्रमुखता है। सागौन वनों में जहाँ हल्दू वृक्ष की अधिकता वाले खण्ड पाये जाते हैं वे अपेक्षाकृत शुष्क दशाओं के संकेत देते हैं। साजा, बीजा, लेण्डिया, धावड़ा, तेन्दू तथा शीशम इस प्रकार के वनों में अक्सर मिलते हैं। बाँस इनमें हमेशा नहीं मिलता परन्तु जहाँ मिलता है वहाँ अधिकांशतः देशी बाँस है, यद्यपि पश्चिमी भाग के कुछ क्षेत्रों में कटंग बाँस भी मिलता है। नर्मदा जलग्रहण क्षेत्र में मौजूद कुल वनों का लगभग 35-40 प्रतिशत सागौन वनों से आच्छादित है।

मिश्रित वन (Mixed Forest)


जैसा कि नाम से स्वतः स्पष्ट है साल या सागौन की प्रमुखता वाले दो वन प्रकारों से भिन्न मिश्रित वनों में विविध वनस्पति प्रजातियों का मिश्रण रहता है तथा कुछ अपवादों को छोड़कर साल या सागौन वनों की भाँति कोई एक वृक्ष प्रजाति अन्य प्रजातियों पर हावी नहीं होती। मिश्रित वन पर्यावरण की दृष्टि से अधिक उपयोगी और जैवविविधता से भरपूर होते हैं। इनके अतिरिक्त मिट्टी की विशेषता जिसे मृदीय चरमावस्था कहते हैं, के कारण छोटे-छोटे खण्डों में अंजन, सलई, पलाश, खैर, सिस्सू, करधई, बाँस इत्यादि की अधिकता वाले वन क्षेत्र आंचलिक रूप से भी पाये जाते हैं। नर्मदा अंचल में पाये जाने वाले वन प्रकारों में से सागौन और साल वनों की श्रेणी से इतर सभी प्रकार के वनों को मिश्रित वनों की श्रेणी में रखा जा सकता है।

अच्छे मिश्रित वनों में इतनी विविधता और तरह-तरह की इतनी प्रजातियों का मिश्रण होता है कि किसी प्रजाति विशेष या स्थान विशेष को लेकर इनके बारे में सारी बात एक साथ कहना बड़ा कठिन है। प्रजातिगत विशेषताओं के कारण अलग-अलग स्थानों में मिश्रित वन अलग-अलग प्रकार के विविधतापूर्ण वनस्पति मिश्रण प्रस्तुत करते हैं।

प्रकृति में विविध छटाएँ बिखेरते हुए मिश्रित वन न केवल देखने में हर प्रकार से सुन्दरता प्रस्तुत करते हैं बल्कि एक जटिल पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण भी करते हैं जिसमें एक-दूसरे पर निर्भर अनेक प्रजातियों के जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों और सूक्ष्म जीवों का सम्मिश्रण होता है तथा परस्पर पूरक खाद्य शृंखलाएँ होती हैं। नर्मदा अंचल के जिलों में आने वाले मिश्रित वनों का विस्तृत विवरण उन जिलों के जिला गजेटियर और सम्बन्धित वन मण्डलों की कार्य आयोजनाओं में देखा जा सकता है। हम इस विषय पर यहाँ बहुत विस्तार में जाने के बजाय केवल इतना ही विवरण देना चाहेंगे जिससे इनके बारे में पाठक को मोटा-मोटा आभास हो जाये।

बनावट तथा घनत्व की दृष्टि से मिश्रित वन बड़े बेतरतीब हैं और जहाँ मिट्टी की गहराई थोड़ी अधिक है वहाँ वृक्षों की बहुत अच्छी बढ़त देखने में आती है। आमतौर पर ये वन चतुर्थ (ब) स्थल गुणवत्ता के हैं परन्तु नालों के आस-पास और सघन घाटियों में जहाँ अच्छी मिट्टी भी मिल जाती है, कुछ बेहतर किस्म के मिश्रित वन भी मिलते हैं जिन्हें चतुर्थ (अ) श्रेणी में रखा जा सकता है। मिश्रित वनों में साज, सलई तथा खैर इत्यादि के वृक्ष काफी संख्या में पाये जाते हैं। पश्चिमी निमाड़ के खरगौन तथा बड़वानी जिलों में जहाँ वनों का घनत्व काफी कम हो गया है इधर-उधर बिखरे हुए वृक्षों वाले मिश्रित वन मिलते हैं। उथली मिट्टी वाले अत्यधिक सूखे क्षेत्रों में भी इनका अच्छा विकास देखने में आता है।

निमाड़ में खरगौन, भीकनगाँव, पीपलझोपा, बिस्टान, चिरिया, तितरान्या आदि इलाकों में मिश्रित वनों के क्षेत्र वन अतिक्रमण की समस्या के कारण काफी बुरी दशा में हैं। इसी प्रकार की दशा बड़वानी जिले में पाटी बोकराटा, निवाली, धनोरा व पानसेमल में तथा धार जिले के कुक्षी, डही क्षेत्रों में तथा अलीराजपुर जिले के सोण्डवा, ककराना, मथवाड़, शकरजा आदि क्षेत्रों में भी है।

इस प्रकार के मिश्रित वनों में सागौन नहीं होता या कम होता है तथा झिंगन, रोहन, कुल्लू, गलगल तथा पांगरा का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक होता है। यहाँ अधोवन में खैर जैसी कंटीली प्रजातियों का प्रतिशत अधिक है। घटिया किस्म के बाँस केवल कुछ अप्रवेश्य तंग बेहड़ों में ही होते हैं, जहाँ वे फैल गए हैं। प्रतिवर्ष आग लगने से प्राकृतिक पुनरुत्पादन बहुत कम होता है। पिछले कुछ दशकों में मिट्टी का बहुत अधिक क्षरण होने से इन वनों में पुनरुत्पादन की सम्भावनाएँ भी कम हो रही हैं।

नर्मदा अंचल के वनों की जैवविविधता


नर्मदा अंचल जैवविविधता की दृष्टि से करोड़ों वर्षों से अत्यन्त समृद्ध रहा है। उस समय की सुखद पुरा जलवायु के कारण यहाँ रहने वाले नाना प्रकार के जीवाश्म मिले हैं जिनसे यहाँ की प्राचीन जैवविविधता की पुष्टि होती है। नर्मदा अंचल के आज के वन भी न केवल जैवविविधता की दृष्टि से समृद्ध हैं बल्कि कुछ मायनों में अद्वितीय भी हैं। यह क्षेत्र भारत में साल के वनों की दक्षिणी सीमा बनाता है। और यहाँ साल व सागौन के वन यहाँ एक साथ मिलते हैं अतः दोनों प्रकार के वनों की जैवविविधता यहाँ मिलती है। इसी प्रकार मिश्रित वनों में भी तरह-तरह की वनस्पतियाँ और जीव-जन्तु पाये जाते हैं।

इस अंचल में विशेषकर सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के वनों में वन्य जैवविविधता की भरमार है। यह पूरा क्षेत्र प्राकृतिक सौन्दर्य, वनस्पतियों, वन्य प्राणियों और खनिजों की अपार सम्पदा से भरा पड़ा है। जैविक विविधता से परिपूर्ण सतपुड़ा तथा विंध्य पर्वत शृंखलाओं के पहाड़ नर्मदा घाटी को न केवल प्राकृतिक ऐश्वर्य बल्कि समृद्धि और पर्यावरणीय सुरक्षा भी प्रदान करते हैं। वन्य जन्तुओं की दृष्टि से भी यह पूरा अंचल काफी समृद्ध है।

नर्मदा के रहस्यमय अतीत की पुरा जैवविविधता


नर्मदा धरती की प्राचीनतम नदियों में से एक है। इसका अतीत बड़ा रहस्यमय है। यहाँ जीवन के क्रमिक विकास की पटकथा करोड़ों वर्षों की अवधि में लिखे जाने के दौरान जैवविविधता के अनेक रूप समय-समय पर प्रगट और विलुप्त हुए। नर्मदा घाटी में करोड़ों वर्ष पुरानी वनस्पतियों और जन्तुओं के जीवाश्म बड़ी संख्या में मिले हैं जिनसे यहाँ की पुरा जलवायु और तत्कालीन जैवविविधता का पता चलता है।

लगभग 6 करोड़ वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में अनेक भूकम्पों तथा भूगर्भीय उथल-पुथल के कारण पृथ्वी की सतह पर पिघले हुए गर्म लावा की सपाट परतें बिछ गईं और झील तथा जलाशयों के बीच की वनस्पतियों को खनिज पदार्थों से युक्त भूचालिक राख ने ढँक लिया। लाखों वर्षों में इन जन्तुओं तथा वनस्पतियों का पाषाणीकरण हो गया तथा लावा की परतों के बीच दब गए वृक्षों के तने फल-फूल, बीज, लताएँ व पत्तियाँ सबके सब ज्यों-के-त्यों कठोर होकर जीवाश्मों में परिवर्तित हो गए।

तत्कालीन वनों में पाई जाने वाली वनस्पतियों के जीवाश्मों की बहुतायत डिंडोरी जिले के शाहपुरा के निकट घुघुवा गाँव में पाई गई है जहाँ मध्य प्रदेश शासन द्वारा एक जीवाश्म राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की गई है। इसी प्रकार घुघुवा में पाये गए पुष्पधारी पौधों के अनेक जीवाश्मों से कहीं अधिक पुराने अनावृतबीजी प्रजातियों के विशालकाय वृक्षों व अन्य वनस्पतियों के जीवाश्मों का जखीरा धार जिले में मनावर-जीराबाद के आस-पास के कई गाँवों में मिला है।

नर्मदा घाटी में पाये गए जन्तु जीवाश्मों में हाथी, घोड़े, हिप्पोपोटेमस व जंगली भैंसे के जीवाश्म के साथ-साथ सीहोर जिले के हथनौरा गाँव में पाये गए प्राचीन मानव के कपाल के अवशेष भी हैं। हथनौरा में नर्मदा के तट पर खुदाई से प्राप्त हुए मानव के कपाल का नाम ‘नर्मदा-कपाल’ अर्थात ‘नर्मदा-स्कलकैप’ रखा गया है तथा इस प्राचीन मानव को ‘नर्मदा मानव’ का नाम दिया गया है जिसे वैज्ञानिक मानव पूर्वज होमो इरेक्टस नर्मदेन्सिस (Homo erectus narmadensis) कहते हैं। हथनौरा के पास ही में ग्राम धांसी में नर्मदा के उत्तरी तट से प्राचीनतम विलुप्त हाथी (स्टेगोडॉन) के दोनों दाँत तथा ऊपरी जबड़े के अंश का जीवाश्म भी मिला है।

नरसिंहपुर नगर से 9 किमी दूर नर्मदा और शेर नदी के संगम के निकट भी प्राचीनतम पशुओं के अस्थि-जीवाश्म भारी संख्या में मिलने के साथ-साथ एक हाथी के मस्तक का जीवाश्म भी मिला है। जबलपुर के समीप नर्मदा की सहायिका गौर नदी के तट पर स्टेगोसॉरस नामक विशालकाय डायनोसोर के पीठ के एक काँटे का पाषाण में परिवर्तित खण्ड पाया गया है। जबलपुर में ही राजासॉरस नर्मदेन्सिस डायनोसोर के ऊपरी जबड़े का एक हिस्सा भी पाया गया था।

कुछ वर्ष पहले धार जिले में कुक्षी के निकट डायनोसोर के 104 अंडों के जीवाश्म पाये गए हैं जिन्हें 40-90 फुट आकार के शाकभक्षी सॉरोपोड के अंडे माना जा रहा है। धार जिले में ही लगभग 8 करोड़ साल पुराने सॉरोपोड की दो बड़ी फीमर हड्डियाँ भी पाई गई हैं। नर्मदा घाटी की परतदार चट्टानों के समग्र संग्रह में पिछले 1.7 अरब वर्ष से लेकर कुछ हजार वर्ष पहले तक के जीवों के अवशेष मिलते हैं। यहाँ वनस्पतियों में समुद्री, स्वच्छ जलीय और थलीय वनस्पतियाँ, आवृतबीजी-अनावृतबीजी, पुष्पधारी-पुष्परहित पौधे, झाड़ी से लेकर गगनचुम्बी अनावृतबीजी, शंकुधारी वृक्षों के जीवाश्म मिलते हैं।

नर्मदा अंचल में साल वन अमरकंटक, डिंडोरी तथा मण्डला के अतिरिक्त पचमढ़ी में भी पाये जाते हैं और एक मोटे अनुमान के अनुसार पूरे नर्मदा जलागम क्षेत्र में आने वाले वनों का लगभग 10 प्रतिशत साल वनों का है। सागौन वन यहाँ का एक प्रमुख वन प्रकार है और एक मोटे अनुमान के अनुसार नर्मदा जलागम में आने वाले कुल वनक्षेत्र का लगभग 35-40 प्रतिशत भाग इसी वर्ग का है। प्रमुख वृक्ष प्रजातियों की अधिकता के आधार पर नर्मदा के तीसरे प्रकार के वनों-मिश्रित वनों को भी सलई वन, खैर-सिस्सू वन, अंजन वन जैसे उप-प्रकारों में बाँटा जाता है।

जन्तुओं में समुद्री सीपी-शंख, जमीनी कीड़े-मकोड़ों से लेकर अनेक वन्य प्राणियों सहित दैत्याकार डायनासोरों के अनेक जीवाश्म भी मिले हैं। जीवाश्मों की इन खोजों से इस बात की पुष्टि होती है कि इस क्षेत्र में करोड़ों वर्ष पूर्व इन वनों में विशाल सरीसृपों का राज था। उपरोक्त पौराणिक तथा प्रागैतिहासिक विवरण से इन वनों के विविध पहलुओं पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। धार जिले में विभिन्न प्रकार की शार्क मछलियों के 5000 से अधिक दन्त जीवाश्मों का मिलना भी इस इलाके के रहस्यमय और रोमांचक अतीत पर प्रकाश डालता है। ये सभी जीवाश्म यहाँ की पुरा जैवविविधता के प्रमाण हैं। नर्मदा घाटी के विविध जीवाश्मों पर अधिक जानकारी के लिये लेखक की अन्य दुर्लभ, संग्रहणीय पुस्तक ‘प्रकृति के रहस्य खोलते नर्मदा घाटी के जीवाश्म, (2011)’ पढ़ी जा सकती है जिसमें नर्मदा घाटी में पाये गए आज की वनस्पतियों और प्राणियों के लाखों-करोड़ों वर्ष पुराने जीवाश्मों पर नामचीन वैज्ञानिकों द्वारा शोधपरक मौलिक लेख प्रस्तुत किये गए हैं।

नर्मदा अंचल की वानस्पतिक विविधता


नर्मदा अंचल के वन विविध प्रकार की वनस्पतियों से आच्छादित हैं। इनमें अनेक औषधीय प्रजातियाँ भी सम्मिलित हैं। विन्ध्य तथा सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के वनों में अनेक प्रकार की औषधीय वनस्पतियाँ मिलती हैं। विश्व प्रकृति निधि द्वारा संवेदनशील पारिस्थितिक अंचलों के वर्गीकरण में नर्मदा घाटी शुष्क पर्णपाती वन (Narmada Valley Dry Deciduous Forest) को एक विशिष्ट पहचान देते हुए इको रीजन कोड क्रं. IM 0207 आवंटित किया गया है। यह क्षेत्र रोजर्स और पवार (1988) द्वारा दिये गए जैविक-भू वर्गीकरण (Bio geographic classification) के जैवीय अंचल (Biotic province) 6E- सेंट्रल हाईलैण्ड्स (6E-Central Highlands) से मिलता जुलता है।

नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकंटक तो अपनी प्रचुर और विशिष्ट वानस्पतिक जैवविविधता के लिये विख्यात है ही, नर्मदा बेसिन के मध्य में स्थित पचमढ़ी का पठार व छिंदवाड़ा जिले की पातालकोट घाटी भी समृद्ध वानस्पतिक विविधता के लिये जानी जाती है। अमरकंटक के वनों में अनेक प्रकार के औषधीय पौधों की भरमार है। यहाँ अन्य अनेक किस्म के वृक्षों, लताओं, कंद मूल, फल, फूल व नाना प्रकार के औषधीय पौधों के साथ-साथ परम्परागत भारतीय तथा चीनी उपचार पद्धति के अन्तर्गत नेत्र उपचार में अत्यन्त लाभदायक गुल-बकावली (Hedychiaum coronarium) का प्रसिद्ध पौधा भी मिलता है जिसके अर्क को आँखों के रोगों में, विशेषकर मोतियाबिन्द के इलाज में काफी प्रभावशाली बताया जाता है।

पचमढ़ी और छिंदवाड़ा में देलाखारी के पास पाया जाने वाला साल वन यहाँ की उल्लेखनीय विशेषता है। इस क्षेत्र की एक अन्य विशेषता यह है कि यहाँ मध्य प्रदेश के प्रमुख वन प्रकारों में से दो, साल तथा सागौन दोनों का मिलन स्थल निर्मित होता है। साल की विशेष उल्लेखनीय उपस्थिति के साथ-साथ पचमढ़ी क्षेत्र से लगभग 1200 वनस्पति प्रजातियाँ दर्ज की गई हैं जिनमें से कुछ प्रजातियों की प्रकृति हिमालय पर्वत की वनस्पतियों जैसी है जबकि कुछ अन्य पश्चिमी घाट के वनों जैसी। पचमढ़ी की वनस्पति में कुछ ऐसे विशिष्ट पौधे भी हैं जिनके वानस्पतिक कुल में वही एक प्रजाति है।

यहाँ पर कई दुर्लभ प्रकार के आर्किड्स, टेरीडोफाइट्स तथा औषधीय पौधे मिलते हैं। जीवित जीवाश्म कहे जाने वाले पौधे साइलोटम न्यूडम (Psilotum nudum) के प्राकृतिक अवस्था में मध्य प्रदेश में मिलने का एकमात्र स्थान यही है। ट्री फर्न साइथिया जाइजेन्टिआ (Cyathea gigantea) व अन्य कई दुर्लभ फर्न प्रजातियाँ भी यहाँ मिलती हैं। यहाँ दुलर्भ बाँस प्रजाति बेम्बूसा पॉलीमार्फा (Bambusa polymorpha) भी बोरी के वनों में पाई जाने वाली विशेषता है।

छिंदवाड़ा जिले में स्थित पातालकोट घाटी जैवविविधता की दृष्टि से नर्मदा घाटी का दूसरा अति समृद्ध क्षेत्र है। पठार की ऊँचाई से 300-400 मीटर गहराई में बसी हुई पातालकोट घाटी से नर्मदा की सहायक दूधी नदी निकलती है। यहाँ भारिया आदिम जनजाति के लोग रहते हैं। यहाँ साल, सागौन और मिश्रित तीनों प्रकार के वन पाये जाते हैं जिनमें 83 वानस्पतिक कुलों की 265 से अधिक औषधीय प्रजातियाँ मिलती हैं। इनमें से कई प्रजातियों के औषधीय गुणों पर अभी शोध भी नहीं हुई है। इस प्रकार नर्मदा अंचल के वनों में ज्ञात से कहीं अधिक संख्या में अज्ञात जड़ी-बूटियाँ पाई जाती हैं।

सतपुड़ा पर्वत श्रेणी की वन्य जैवविविधता सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के वन न केवल जैवविविधता की दृष्टि से काफी समृद्ध हैं बल्कि कुछ मायनों में अद्वितीय भी हैं। उदाहरण के लिये भारत में साल (Shorea robusta) के सदाबहार वनों की दक्षिणी सीमा और सागौन (Tectona grandis) के वन यहाँ एक साथ मिलते हैं। ये वन हिमालय और पश्चिमी घाट के बीच में स्थित जैवविविधता से परिपूर्ण गलियारे जैसे हैं।

यहाँ अचानकमार से पेंच तक तथा सतपुड़ा-बोरी से मेलघाट तक फैले बाघ के 2 बड़े रहवास क्षेत्रों का भाग पड़ता है जिनमें अनेक प्रकार के दुर्लभ वन्यप्राणी और वनस्पतियाँ आज भी पाये जाते हैं। इन वनों में पाये जाने वाले अनेक औषधीय पौधे आज भी गाँवों की परम्परागत चिकित्सा पद्धति का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इस प्रकार नर्मदा अंचल और विशेषकर इसका पूर्वी भाग अभी भी अपनी वानस्पतिक जैवविविधता की दृष्टि से काफी समृद्ध कहा जा सकता है।

नर्मदा अंचल की वन्यप्राणी विविधता


इस क्षेत्र में स्तनधारी वर्ग के वन्य प्राणियों की 76 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें बाघ, गौर (भारतीय बॉयसन), जंगली कृष्णमृग आदि सम्मिलित हैं। यहाँ 276 प्रजातियों के पक्षी भी मिलते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ सरीसृपों, कीटों व अन्य जलीय व स्थलीय प्राणियों की प्रचुर विविधता है। विश्व प्रकृति निधि ने इस पारिस्थितिक अंचल को संकटापन्न की श्रेणी में रखा है। सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के पूर्वी और मध्य खण्ड के वनों में वन्य जैवविविधता की भरमार है। इस अंचल को बाघ संरक्षण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्षेत्र माना गया है। यह पूरा क्षेत्र प्राकृतिक सौन्दर्य, वनस्पतियों, वन्य प्राणियों और खनिजों अपार सम्पदा से भरा पड़ा है। जैविक विविधता से परिपूर्ण विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत शृंखला के पहाड़ नर्मदा घाटी को न केवल प्राकृतिक ऐश्वर्य बल्कि समृद्धि और पर्यावरणीय सुरक्षा भी प्रदान करते हैं।

वन्य जैवविविधता के संरक्षण के लिये स्थापित किये गए नर्मदा अंचल के कुल 12 वन्य प्राणी संरक्षण क्षेत्रों में से गुजरात के शूलपाणेश्वर अभयारण्य को छोड़कर शेष 11 मध्य प्रदेश में पड़ते हैं। मध्य प्रदेश में पड़ने वाले इन संरक्षित क्षेत्रों का क्षेत्रफल 5418.27 वर्ग किमी है जो नर्मदा बेसिन के कुल क्षेत्रफल का लगभग 5.5 प्रतिशत तथा प्रदेश के समस्त संरक्षित क्षेत्रों के कुल क्षेत्रफल का लगभग 30.2 प्रतिशत है। जैवविविधता के संरक्षण को मजबूती देने के लिये शासन द्वारा कुछ वर्ष पहले मध्य प्रदेश जैवविविधता बोर्ड का गठन किया गया है जो इस विषय पर कार्यरत है।

नीर नर्मदा का…


नर्मदा का नीर नर्मदा घाटी के वासियों के लिये अमृत जैसा है। नर्मदांचल के वन यहाँ की नदियों को साफ रखने में फेफड़ों व गुर्दों जैसे अन्दरूनी छन्नों सा काम करते हैं। अनगिनत खेतों व कारखानों से बहकर आने वाले जहरीले रसायनों को छानने और मिट्टी का कटाव रोककर जलाशयों में जाने वाले गाद पर अंकुश लगाने में भी नर्मदा घाटी के वनों की चमत्कारी भूमिका है। इसलिये नर्मदांचल में वनों का होना न होना इस पवित्र नदी के प्रवाह की निरन्तरता और जल की गुणवत्ता से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ मुद्दा है। इन वनों के कमजोर होने से यदि नदियों के प्रवाह में कमी आ जाती है तो नर्मदा घाटी में विकास की राह में बड़े अवरोध पैदा हो जाएँगे। अपनी नदियों को न केवल जिन्दा बल्कि स्वस्थ भी रखना हो तो हमें नर्मदा घाटी के तार-तार होते वन आवरण को बचाना ही पड़ेगा। इसी मुद्दे की ओर ध्यान खींचता गीत।

कंकर में बसे शंकर, बूँदों में बसा जीवन;
भारत की कर्धनी सा है, शरीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।

बूँदों की बाँध गठरी, हरियाली की चादर में;
जंगल खड़े हैं, झरनों और नदियों के आदर में।
बर्फीले हिमनदों का, मिलता नहीं सहारा;
है पर्वतों के जंगलों से, नर्मदा की धारा।
दक्षिण दिशा में, सतपुड़ा पर्वत की छटाएँ हैं।
उत्तर दिशा में विंध्य है, प्राचीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।

खेतों से रसायन भी, नदियों में जा रहे हैं;
निर्मल प्रवाह को, जहरीला बना रहे हैं।
शहरों का मल भी, नालों से नदियों में जा रहा है;
आस्था का असर भी नदियों को मैला बना रहा है।
श्रद्धा भी पड़ रही है, नर्मदा के लिये भारी;
अब हो चला प्रदूषण, गम्भीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।

हैं नर्मदा की सखियाँ, वनवासी अंचलों में;
इन सबके प्राण बसते हैं, पर्वत में जंगलों में।
जंगल मिटे तो, नदियों का जीना मुहाल होगा;
काँपेगी रूह सबकी, ऐसा वो हाल होगा।
नदियों को जिलाना हो तो, जंगल को बचाएँ हम;
अब तार-तार हो चला, ये चीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।

कंकर में बसे शंकर, बूँदों में बसा जीवन;
भारत की कर्धनी सा है, शरीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।


Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading