
सामान्य रूप में ‘नर्मदा बेसिन’ या ‘नर्मदा कछार’ तकनीकी रूप से उस जलग्रहण क्षेत्र को कहा जाता जिसमें गिरने वाला वर्षा का जल नदी-नालों के तंत्र से होकर अन्ततः नर्मदा में जा मिलता है। जल ग्रहण क्षेत्र एक कटोरे की तरह होता है जिसके ऊपरी किनारे पर्वतों की ऊँची कगारों के रूप में और तली नदी घाटियों के रूप में होती है।
इस दृष्टि से देखें तो हर नदी का कछार या नदी बेसिन पर्वतों और घाटियों से मिलकर बनता है। तकनीकी शब्दावली की जटिलता में न जाया जाये तो बोलचाल की सामान्य भाषा में ‘नर्मदा घाटी’ से आशय बेसिन के पर्वतीय क्षेत्र से शेष रहे मैदानी और निचले क्षेत्र से लगाया जाता है।
नर्मदा के सन्दर्भ में कछार का स्वरूप एक लम्बी नौका जैसा है जिसके सतही भूगोल को देखें तो उत्तरी कगार विंध्याचल पर्वत श्रेणी की पहाड़ियों और दक्षिणी कगार सतपुड़ा पर्वतमाला की शृंखलाबद्ध पहाड़ियों से बनता है। विंध्याचल पर्वत श्रेणी नर्मदा के उत्तरी और सतपुड़ा श्रेणी दक्षिणी किनारे पर प्राय समानान्तर चलती है। विंध्याचल पर्वत अनेक पठारों से मिलकर बना है जो पूर्व में बिहार के सासाराम से लेकर पश्चिम में गुजरात के निकट जोबट तक फैले हैं।
नर्मदा घाटी में इनका विस्तार मैकल पर्वत के कगार से लेकर नर्मदा के उत्तरी तट के साथ-साथ चलता है। सामान्यतः इनकी ऊँचाई (450 से 600 मी. तक है परन्तु कुछ भाग 900 मी. तक ऊँचे हैं। ये पूर्वी भाग में दक्कन ट्रैप्स की आग्नेय चट्टानों से ढँके हुए, हैं जबकि पश्चिमी भाग में चूना पत्थर तथा बलुआ पत्थर की प्रधानता है।

विंध्य पर्वत को धरती के प्राचीनतम पर्वतों में गिना जा सकता है। शास्त्रीय धारणा के अनुसार यह आर्यावर्त और दक्षिणावर्त के बीच सीमा बनाता है। भूगर्भशास्त्र की अवधारणा के अनुसार विंध्याचल पर्वतमाला पश्चिम में मध्य प्रदेश के नवगठित अलीराजपुर जिले के जोबट नामक स्थान से प्रारम्भ होकर पूर्व में बिहार राज्य के दक्षिण-पश्चिम भाग में स्थित सासाराम नगर तक प्रायः 1135 किलोमीटर लम्बाई में फैली है नवीनतम विश्लेषणों के आधार पर विंध्य पर्वतमाला के कुछ भागों की आयु 172 करोड़ वर्ष तक आँकी गई है (रे, 2006) जबकि सतपुड़ा पर्वत शृंखला की पर्वतन क्रिया 105 से 95 करोड़ वर्ष पूर्व के बीच हुए होने का अनुमान है।
महज 4-5 करोड़ वर्ष पुराने हिमालय पर्वत की तुलना में विंध्य और सतपुड़ा पर्वत बहुत-बहुत पुराने हैं और धरती पर हुई अनेक भूगर्भीय, हलचलों, जलवायु के विध्वंसकारी उतार-चढ़ावों और जीवन के पनपने तथा विलुप्त होने के गवाह रहे हैं। विंध्य और सतपुड़ा पर्वतों की इन चट्टानों से बनी विशाल द्रोणी के आकार की नर्मदा घाटी पूर्व में समुद्र तल से 3407 फीट की ऊँचाई पर अमरकंटक (220 40’ 20” N अक्षांश व 810 46’ 24” E देशान्तर) से लेकर गुजरात राज्य में भरूच (210 36’ 04” N अक्षांश व 720 35’ 48” E देशान्तर) के निकट अरब सागर तक फैली है। नर्मदा के उद्गम से सागर संगम तक कुल लम्बाई 1312 किमी है व इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र 98796 वर्ग किमी. है।

नर्मदा बेसिन का सामान्य भूगोल दर्शाता प्राकृतिक नक्शा चित्र- 1.3 ब. में तथा बेसिन की शैल संरचना चित्र 1.3 स में दर्शाई गई है। चित्र- 1.4 अ. में नर्मदा की प्रमुख सहायक नदियाँ व अपवाह तंत्र, चित्र- 1.4 ब. में वनों के प्रकार तथा विस्तार और चित्र 1.4 स. में भूकम्प संवेदी क्षेत्र दर्शाए गए हैं। भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशीलता नर्मदा घाटी के भूगर्भ और भूगोल का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। यह घाटी धरती की सतह में हुए भ्रंशन के कारण ही बनी है अतः यहाँ भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र है। प्राचीन काल में दक्कन ट्रैप्स के बनने के समय तो यहाँ लम्बे समय तक भूकम्प आते रहे।
नर्मदा घाटी में बने नए बाँधों के परिप्रेक्ष्य में भी इस क्षेत्र की भूकम्पों की दृष्टि से संवेदनशीलता को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं। चित्र- 1.4 में विगत 100 वर्षों में नर्मदा घाटी में आये भूकम्पों को दर्शाया गया है जिससे यहाँ भूकम्प की तीव्रता और आवृत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। चित्र- 1.5 में नर्मदा घाटी में प्रमुख जीवाश्म खोज स्थल मोटे तौर पर दिखाए गए हैं।
नर्मदा घाटी की परतदार चट्टानों के समग्र समुच्चय में पिछले है 1.7 अरब वर्ष से लेकर कुछ हजार वर्ष पहले तक के जीवों के अवशेष मिलते हैं। यहाँ वनस्पतियों में समुद्री, स्वच्छ जलीय और थलीय वनस्पतियाँ आवृतबीजी-अनावृतबीजी, पुष्पधारी--पुष्परहित पौधे, झाड़ी से लेकर गगनचुम्बी अनावृतबीजी, शंकुधारी वृक्षों के जीवाश्म मिलते हैं। जन्तुओं में समुद्री सीपी-शंख, जमीनी कीड़े-मकोड़ों से लेकर अनेक वन्यप्राणियों सहित दैत्याकार डायनासोरों के अनेक जीवाश्म भी मिले हैं।

युगों-युगों से नर्मदा क्षेत्र की जलवायु सुखद रहे होने के कारण वैज्ञानिकों ने इस अंचल को जीवन के लिये प्रागैतिहासिक स्वर्ग (Prehistoric Heaven) की उपमा दी है। आगे के अध्ययन में हमें नर्मदा घाटी के भूगोल और भूगर्भ की इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना पड़ेगा तभी विभिन्न जीवाश्मों के बारे में ठीक से समझा जा सकेगा जिससे पूरी नर्मदा घाटी के जीवाश्म खजाने पर एक समग्र दृष्टि डालना सम्भव होगा जो इस पुस्तक की रचना का मुख्य उद्देश्य है।







