नर्मदा घाटी: नहरों से बर्बाद होती खेती

7 Nov 2011
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बिना समझबूझ का विकास कैसे विनाश का कारण बनता है इसे नर्मदा घाटी के बांधों से सिंचाई के लिए हो रहे नहर निर्माण में साफ देखा जा सकता है। पहले से सिंचित क्षेत्र को नहरों से डुबाने की इस करामात में शासन, प्रशासन और ठेकेदार तीनों शामिल हैं। इस विरोधाभासी स्थिति की विवेचना करता महत्वपूर्ण आलेख।

नर्मदा नदी पर बन रहे बड़े बांधों की डूब के साथ ही मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र की खेती भी ओंकारेश्वर व इंदिरा सागर परियोजनाओं की नहरों से बर्बाद हो रही है। दोनों बांधों की नहरों के लिए 10,000 हेक्टेयर खेती की भूमि अधिग्रहण होना है लेकिन प्रत्यक्ष में बड़ी नहर (मुख्य), शाखा नहर, वितरिका, मायनर, सब मायनर और खेतनाली इन सभी प्रकार की नहरों से कुल कितनी भूमि की खुदाई होगी, इसकी निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। खेत नालियों के लिए तो बिना भूअर्जन और मुआवजे के ही जमीन देनी होगी। लेकिन ‘नहर ग्रस्त’ गांवों को या परिवारों को भी सिंचाई का लाभ मिलना सुनिश्चित नहीं है क्योंकि जिसके खेत में आखिरी खेतनाली जाएगी, केवल उसी को यह लाभ मिलेगा, बाकी तो अपनी भूमि नहर के लिए दे देंगे वह भी बिना लाभ के।

वास्तव में यह भयावह स्थिति है कि एक ओर मध्यप्रदेश शासन ने उच्च न्यायालय में शपथपत्र देकर कहा कि किसी सिंचित भूमि को नहरों से सिंचाई का लाभ नहीं दिया गया। लेकिन जहां नर्मदा किनारे पट्टी के ऐसे 8 किलोमीटर (नदी से दूरी) तक के गांव में नदी से सीधी पाइप लाईन से पानी मिलाते हुए, पूर्व सिंचित क्षेत्र में नहरें क्यों लाई जा रही हैं? नदी से नीचे बसे गांव जो स्वयं अपने खेत में सिंचाई कर सकते थे वहां खेती खराब करके नहरें क्यों लाई गई? परियोजना की रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 1982 में ओंकारेश्वर लाभ क्षेत्र में 22,000 हेक्टेयर और इंदिरा सागर के लाभक्षेत्र में 29,000 हेक्टेयर सिंचित भूमि रही है। आज यह 50,000 से 80,000 हेक्टेयर तक पहुंच गई है। लाभक्षेत्र में सिंचित भूमि होते हुए नर्मदा पट्टी में तो नहरों के लिए बड़ी मात्रा में जमीन को खुदाई से बर्बाद करने की जरूरत ही नहीं है। म.प्र. उच्च न्यायालय के नवंबर 2009 के आदेश में भी यही कहा गया कि इस भूमि को बचाने एवं फिजूल खर्च टालने की दृष्टि से इस निर्णय पर तत्काल पुनर्विचार जरूरी है। नर्मदा किनारे के किसान अपनी जमीन को धांधलीपूर्ण व गैरकानूनी भू-अर्जन के बाद भी बर्बाद कर देने के पक्ष में नहीं हैं। इस संबंध में नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की रिपोर्ट पर जबलपुर उच्च न्यायालय में नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा दायर मुकदमा अभी भी जारी है।

प्रत्येक तहसील के नहर प्रभावित क्षेत्र में जलजमाव से बिना निकास की व्यवस्था के व नहरों का जल आगे बढ़ाने से क्षेत्र की मनावर, बड़वाह, राजपुर जैसी तहसीलों में बरसात के पानी से भी सैंकड़ों एकड़ जमीन में जलजमाव से कपास, सोयाबीन, मिर्ची जैसी फसलें बर्बाद हुई हैं। अतः हमें सचेत रहना होगा कि यह समस्या भाखड़ा नंगल बांध जैसा विनाश निमाड़ की समृद्ध खेती में नहीं लाए। इसलिए आवश्यक है कि किसान बिना निकास की व्यवस्था व पर्यावरण मंत्रालय की शर्तों का पालन करते हुए जमीन नहीं खोदने दें।

नर्मदा घाटी की उपजाऊ खेती को किसान मातेसरी (माता) मानते हैं। उसी के पानी से सिंचित गेंहू, मक्का, ज्वार जैसे खाद्यान्न से ही नहीं बल्कि कपास, सोयाबीन, मिर्ची जैसी नगदी फसलें तथा केला, पपीता, संतरा जैसे फलों की खेती से भी यह इलाका समृद्ध है। क्षेत्र में नर्मदा नदी पर बिना विनाश व विस्थापन किए पाइप लाइनों से, कुएं और तालाबों से सिंचाई करने वाले किसानों ने जल और जमीन के संतुलित उपयोग का प्रयोग 70-80 के दशक से ही कर दिखाया है। इसी आधार पर यहां के कृषि व्यापार से गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश एवं यहां तक कि दिल्ली की मंडियां भी समृद्ध हुई हैं। यहां खेती आधारित कुछ उद्योग भी हैं, जिनके विकास और सर्वव्यापकता की संभावनाएं आज भी मौजूद हैं।

बड़े बांधों से गांव की पारम्परिक खेती को सबसे बडा धक्का लगा है। उपजाऊ खेती, शासकीय व गांवों की सार्वजनिक जमीन और नदी का बहाव तथा आदिवासियों को वनोपज (जिससे आम लोगों की जरूरत पूर्ति भी होती है) दिलाने वाले जंगल, जो यहां कि प्राकृतिक धरोहर हैं, बडे़ पैमाने पर बांधो से प्रभावित हो गए हैं।

पर्यावरण सुरक्षा कानून, 1986 के तहत केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की यह जिम्मेदारी है कि वह इन संसाधनों का विनाश न होने दे। इसीलिए कई एक प्रतिबंध या पुननिर्माण एवं विकास, स्वास्थ्य संबंधी कार्य आदि की शर्तें डालकर ही प्रत्येक बांध को मंजूरी दी गई है। लेकिन उन्हें पूरा करने के बजाए बांध और अन्य निर्माण कार्य को आगे बढ़ाने वाले निहित स्वार्थ और राजनैतिक लाभ या अर्थिक कमाई देखने वाले राजनीतिज्ञ, अधिकारी व ठेकेदार इन शर्तों के प्रति बिल्कुल गंभीर नहीं हैं। देवेन्द्र पांडे की अध्यक्षता में गठित केंद्रीय समिति की रिपोर्टों से शर्तों के उल्लंघन की बात स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी है। इसमें दर्शाई गई लापरवाहियों को जनता, किसान, मजदूर, कुम्हार, मछुआरे, छोटे व्यापारी और शहरवासी सभी भुगत रहे हैं।

डूब की मात्रा का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सरदार सरोवर बांध में 40,000 हेक्टेयर भूमि और इंदिरा सागर बांध में 93,000 हेक्टेयर भूमि केवल जलाशय से प्रभावित याने डूब से बर्बाद होने वाली है। इसके अलावा नहरों से पुर्नबसाहटों से और हजारों हेक्टेयर भूमि प्रभावित हो गयी है या होने जा रही है। सांस्कृतिक धरोहरें, मंदिर, मस्जिद, जैन मंदिर, धर्मशालाएं, पारम्परिक कुएं, तालाब आदि का पुनर्स्थापन भी असंभव सा है। इनमें से कईयों की गिनती तक नहीं की गई है। इस समस्या की गंभीरता, इससे भी साबित होती है कि इंदिरासागर के लाभ क्षेत्र के बारे में सन् 1984 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के श्री अहवाल ने बताया था कि क्षेत्र में जलजमाव से बचने के लिए 27,000 बोरवेल खोदकर उनसे जमीन के नीचे का पानी निकालकर व बाहर फेंककर निकासी करनी होगी। ओंकारेश्वर नहर लाभ क्षेत्र के लिए इस प्रकार का अध्ययन किया ही नहीं गया है। लाभक्षेत्र विकास की जो योजना इंदिरा सागर बांध के लिए वर्ष 1989 में और ओंकारेश्वर के लिए 1994 में बननी थी वह 2010 में और वह भी नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा दायर करने के बाद लाखों रुपये खर्च कर देनी पड़ी। इन योजनाओं में भी काफी त्रुटियां व अपूर्णता तथा ऊपरी स्तर की बातें हैं, जिससे पर्यावरणीय असरों को रोकने का कोई भरोसा नहीं मिल सकता। यह भी तय नहीं है कि इन पर अमल खुदाई के पहले हुआ भी है या नहीं। सन् 2010 में विशेषज्ञों की रिपोर्ट में बताया गया कि केवल 1 प्रतिशत लाभक्षेत्र में कुछ अमल हुआ है।

यही कारण रहा है कि कई बांधों जैसे सरदार सरोवर से गुजरात के लाभक्षेत्र में भी किसान नहरों के लिए जमीन देने से इंकार करते रहे हैं। सैंकड़ों बार नहरों का फूटना, दूर-दूर तक जलजमाव से बिना अर्जित, अच्छी खेती का नुकसान और वैकल्पिक अ-विनाशकारी सिंचाई साधन की उपलब्धता अब किसान समझ चुके हैं। इसी कारण गुजरात में केवल 20 प्रतिशत नहरों का उपयोग हो पाया है।

गौरतलब है नहर प्रभावितों के पक्ष में पुनर्वास नीति लागू होने का फैसला सर्वप्रथम मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने 2009 में दिया था और मध्यप्रदेश शासन/ नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण द्वारा अपील याचिका दायर करने के बाद उसमें थोड़ा बदलाव करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी आदेश दिया कि 60 प्रतिशत जमीन खोने वाले प्रत्येक परिवार को जमीन के बदले जमीन का लाभ मिले। जिसके तहत पहले ग्राम के समीप या नहर लाभ क्षेत्र में या शासकीय भूमि खेती लायक बनाकर देनी होगी और तीनों विकल्प संभव या मंजूर (विस्थापित/प्रभावितों) न हो तो ‘बाजार मूल्य’ देना होगा। मध्यप्रदेश शासन ने व्यवस्थित खेती लायक जमीन, गांव के पास या लाभ क्षेत्र में, प्रस्तावित न करते हुए केवल पथरीली, अनुपयोगी और अतिक्रमित जमीन नहर प्रभावितों को देने की प्रक्रिया चलाकर मई 2010 से न्यायालयीन आदेश की अवमानना सतत जारी रखी हुई है।

परिचय - सुश्री मेधा पाटकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख कार्यकर्ता हैं।

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