नर्मदा जयंती या पुण्यतिथि

4 Mar 2016
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देश की सबसे सौंदर्यपरक कही जाने वाली नर्मदा नदी अब एक विशाल तालाब में बदलती जा रही है। इसमें विकसित होने वाली वनस्पतियाँ और जलचर दोनों धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। विकास के नए प्रतिमान हमारे प्राकृतिक संसाधनों के साथ जो खिलवाड़ कर रहे हैं नर्मदा नदी और नर्मदा घाटी उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

नर्मदा जयंती का उत्साह समूची नर्मदा घाटी में पिछले महीने भरपूर, उमड़ता दिखा। ऐसी मान्यता है कि नर्मदा सबको संकट पार भी करेगी। जन्म से मृत्यु तक नर्मदा याने सुख देने वाली इस नदी को सबसे पवित्र व सबसे सुन्दर मानने वाले पूरी दुनिया में बसे हैं। आदिवासी किसानों, मेहनतकष समाजों की उपस्थिति नर्मदा जयंती पर भी नदी के हर घाट, राजघाट, खलघाट से लेकर अमरकंटक तक दिखाई दी।

प्रश्न है धार्मिक या आध्यात्मिक क्रियाओं से उभरता, नर्मदा पुराण में छाया हुआ नर्मदा का चित्र क्या आज भी कायम है? ‘नहीं’। सदियों पुरानी, दुनिया की सबसे आदिम नर्मदा घाटी की संस्कृति और प्रकृति दोनों ही आज अभूतपूर्व संकट की स्थिति में हैं। सबका बेड़ा पार कराने वाली इस नदी माता को संकट से कौन बचाएगा? राजनेता पूँजीपति और अधिकारी तो नर्मदा का पानी ही नहीं, बल्कि नदी घाटी की अति उपजाऊ जमीन-खेती, काॅर्पोरेट्स की ओर मोड़ने का एक भी मौका नहीं गवाना चाहते हैं। खेती ही नहीं, खेतीहरों की जिन्दगी भी इससे बर्बादी भुगत रही हैं और भुगतेगी।

नर्मदा घाटी की इसी समृद्धि हस्तांतरित करने में लगी म.प्र. सरकार ने 30 बड़े बाँधों को माध्यम बनाया है। हर बाँध में लाखों विस्थापितों ने वर्षों के संघर्ष से ही पुनर्वास का अधिकार पाया है। परन्तु केवल सरदार सरोवर में ही अभी तक 48000 से अधिक विस्थापित परिवारों को पूरा हक नहीं मिला है। इनको और हर बाँध के विस्थापितों को उनकी आबादी और भूमि, लाखों पेड़, मंदिर, मस्जिद, शाला, दवाखाना, दुकानों सहित डुबोना तथा न्यायालय के आदेशों का भी उल्लंघन करने के साथ, संवैधानिक जीने के अधिकार के भी हनन की हकीकत इस जयंती पर शासन-प्रशासन को क्या याद आई?

नर्मदा किनारे बसे पीढ़ियों पुराने गाँव, नगर (जैसे अब धरमपुरी, पहले हरसूद) डुबोकर, किसे लाभ होगा? सरदार सरोवर का लाखों लीटर पानी गुजरात में कोकाकोला और मोटर उद्योगों को दिया जा रहा है। म.प्र. को एक बूँद पानी पर भी हक नहीं दिलाया जा रहा है। मान बाँध का पानी अल्ट्राटेक कम्पनी को देने के कारण ‘लाभार्थी’ आदिवासी गाँव बर्बाद किये जा रहे हैं। ओंकारेश्वर योजना का पानी नर्मदा-क्षिप्रा, नर्मदा-गम्भीर और नर्मदा कालीसिंध जैसी नदी जोड़ पाइप लाइनों से भी बड़ी मात्रा में, मूल योजना के विपरीत ले जा रहे हैं। यह सब रतलाम, उज्जैन, नीमच, मंदसौर में आ रहे 10,000 और 20,000 हेक्टेयरों के औद्योगिक क्षेत्रों के लिये हैं, जो अवैध और अन्याय पूर्ण है। इससे नर्मदा घाटी के लोगों का सिंचाई का अधिकार भी छिनता जा रहा है। बड़े बाँधों से निकली बड़ी नहरों जाल के अपने असर हैं। लाभ क्षेत्र विकास कार्य की पूर्व शर्त पूरा न करने के कारण, हर तहसील में खुदाई या जलप्रवाह छोड़ने के बाद भूमि बर्बाद हो रही हैं। न्यायालयीन आदेश के बावजूद, न भरपाई मिली है, न ही निकासी कार्य से सबको राहत मिली है। सिंचाई कम देने की तैयारी इससे भी नजर आती है कि अडानी व एन.टी.पी.सी. तापविद्युत गृहों (थर्मल पाॅवर) जैसी परियोजनाओं के लिये जगह-जगह पर, जैसे खण्डवा, खरगोन जिलों में नहरों के इर्द गिर्द में, पानी और जमीन, दोनों संसाधनों का दान धर्म करने की हिम्मत म.प्र. शासन दिखा रही है। नदी में तैरती मंत्री परिषद की बैठक में, नर्मदा में पर्यटन योजना पूर्णतः निजी हाथों में सौंप कर क्या राज्य, जनता और नदी के हित में कुछ भी कार्य कर रहा है?

भूमि अधिग्रहण की साम्राज्यवादी कानूनी धारा बदलकर कुछ न्यायपूर्ण प्रक्रिया के साथ पारित किये गये 2013 के नये कानून में जनविरोधी बदलाव तो किसानों के आंदोलनों द्वारा दी गई सशक्त चुनौती और कुछ दलीय राजनीतिक समर्थन के बाद नहीं हो पाया। लेकिन म.प्र. सरकार खेती की जमीन गैर खेती कार्य के लिये आसानी से हस्तांतरित करने के अधिनियम अपनाकर फिर चुनौती खड़ी करती जा रही है। पाँच-पाँच बार उजाड़े गये सिंगरौली के किसान या पहले बाँध और फिर उसी से लाभान्वित अडानी पाॅवर प्लाण्ट से उजाड़े जाने वाले छिंदवाड़ा के आदिवासी किसानों की तरह नर्मदा घाटी में कई बार, नये-नये दौर और कार्य में गाँवों को उजाड़ना याने यहाँ की खेतीधारित संस्कृति को खत्म करना अभी भी जारी है। खेती को उपज के सही दाम न देने से घाटे का सौदा बनाकर बेचने के लिये मजबूर करने वाली सरकार अनाज भी विदेश से लाने की बात कर रही है। इससे आने वाले सालों में खाद्य स्वावलंबन क्या, यहाँ के रोजगार पर भी हमला होना ही है। ‘मेक इन इंडिया’ का ढिंढोरा पीटते हुए हू विल मेक इट? एंड व्हाॅट? कौन करेगा निर्माण, भारत में? और किन चीजों का निर्माण होगा?

किस तकनीक से होगा? इन सवालों पर से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश अधिक समय तक नहीं चलेगी। यदि रोजगार निर्माण उद्देश्य हो तो खेती में उपलब्ध 60 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या का रोजगार बर्बाद न करते हुए बंजर जमीन पर स्थानीय संसाधनों के आधार पर और श्रम-आधारित तकनीक से उद्योग लगाने होंगे। अन्य नदियों की तुलना में नर्मदा का पानी आज तक तो कम प्रदूषित है। उसे बचाकर उद्योग या विद्युत परियोजनाएँ कारखानों या पर्यटन योजनाएँ भी नर्मदा घाटी की आबादी व प्रकृति, को सुरक्षित रखकर ही लगाने की सोच आज की शासकीय विकास नीति में कहीं नहीं झलकती। इन सिद्धान्तों का दखल हो तो बरगी और अन्य नर्मदा परियोजनाओं के बिल्कुल किनारे 15 ताप विद्युत परियोजनाएँ और चुटका में अणु ऊर्जा परियोजना नहीं लगाई जाती। अब जब कि जनता का प्रतिनिधित्व इस राज्य में कमजोर विरोधी दल भी नहीं करता तो जन-संघर्ष का ही एक मात्र रास्ता बचता है।

नर्मदा... जिसकी सुंदरता पाॅल अॅटकिन्सन की ‘पेंग्विन’ द्वारा प्रकाशित सात नदियों सम्बन्धी किताब में वर्णित है, अब विद्रूप होती जा रही है। अवैध रेत खनन... तो अब महात्मा गाँधीजी की समाधि के पास, राजघाट, बड़वानी में भी होने लगा है। पिछले 4 सालों से आक्रोषित नर्मदा आंदोलनकारियों के मैदानी और कानूनी संघर्ष को शासन का जवाब नहीं मिला है। खनिज, राजस्व और पुलिस प्रशासन मिलकर भी न तो कोई चेक पोस्ट लगाते हैं और न ही निगरानी रखते हैं। कभी कभार छापा मारकर जब्त किये वाहन और रेत मालिकों पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशा अनुसार दण्ड संहिता की धारा 379 में चोरी का प्रकरण दर्ज न करते हुए छोड़े जाना, उसी का नतीजा है। कभी कभार कार्यवाही हुई भी तो केवल ड्रायवरों पर होती है, न ही वाहन मालिकों पर। यह रास्ता इस ‘गठजोड़’ ने निकाला है जिस पर से प्रतिदिन हजारों टन अवैध रेत खनन होता जाये और नर्मदा को अविरत, सालभर बहती रखने वाला जलचक्र एवं भूजल के स्रोत बर्बाद हो जाएँ। पानी, नदी और मछली बर्बाद करने तक इसका असर आये।

अखण्ड ज्योति का जय-घोष करने वाले, नर्मदा जल पर महोत्सव मनाने वाले, अ-खण्डित नर्मदा, उसकी प्राकृतिक व्यवस्था और सांस्कृतिक परम्परा के साथ बचाने के लिये न तो उत्सुक है और न ही विनाश और विस्थापन के बारे में चिंतित।

यह विचारणीय है कि पावन नर्मदा नदी क्या ‘संकट विमोचनी’ न रहकर यमुना या गंगा जैसी ही ‘पापवाही प्रदूषिणी’ नदी बनकर रह जाएगी ?

सुश्री मेधा पाटकर सुविख्यात समाजकर्मी हैं एवं नर्मदा बचाओ आंदोलन की वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं।

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