नर्मदा की जान जंगल

नर्मदा नदी
नर्मदा नदी

नर्मदा या हिमविहीन ऐसी ही किसी भी दूसरी नदी के लिये जंगल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में यदि कहा जाये कि जलग्रहण क्षेत्र के वनों में नर्मदा की जान बसती है और जंगल उसके प्राणदाता हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या जंगल वास्तव में हिमविहीन नदियों के लिये प्राणदाता की भूमिका निभाते हैं? या यह केवल एक भावनात्मक वक्तव्य है?

वैज्ञानिक तथ्यों के आलोक में यह स्पष्ट होता है कि जंगल सीधे-सीधे नर्मदा के प्रवाह को जितना प्रभावित नहीं करते उससे कहीं अधिक परोक्ष रूप से सहायक नदियों को प्रभावित करके करते हैं। वनों का घनत्व, वनस्पति प्रजातियों की संरचना और भूगर्भीय शैल संरचना नदियों के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण हैं। हम पिछले अध्याय में बता चुके हैं कि वन नदियों में प्रवाह की मात्रा, उसकी निरन्तरता और गुणवत्ता, तीनों को प्रभावित करके तिहरा काम करते हैं और जलधाराओं को सबल, अविरल और निर्मल बनाते हैं।

नर्मदा बेसिन में होने वाली कुल वर्षा का भविष्य तय करने में वन आवरण चमत्कारी काम करता है। जहाँ वन का घनत्व व स्वास्थ्य अच्छा होता है वहाँ जल का जमीन की सतह के नीचे बहाव अच्छा होने से नदियाँ सदानीरा और निर्मल बनी रहती हैं जबकि वन उजड़ जाने के बाद नदियाँ जल्दी ही सूख जाया करती हैं। इस अर्थ में विंध्य और सतपुड़ा पर्वतों व नर्मदा घाटी में मौजूद घने जंगलों को नर्मदा की जान कहना न केवल साहित्यिक व अलंकारिक दृष्टि से बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी बिल्कुल उपयुक्त है।

जुगलबंदी नदियों की और वनों की


जंगलों के रहने और नर्मदा के बहने के बीच की अदृश्य जुगलबंदी को समझने और नर्मदा व इसकी सहायक नदियों में प्रवाह की निरन्तरता तथा जल की गुणवत्ता बनाए रखने में वनों की भूमिका का वैज्ञानिक आधार समझना आवश्यक है। इस अध्याय में हम नर्मदा अंचल के जंगल, पानी, मिट्टी, जैवविविधता और जन-जीवन की पारस्परिक निर्भरता को वैज्ञानिक तथ्यों के आइने में देखने का एक संक्षिप्त प्रयास करेंगे।

‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ के रचयिता श्री अमृतलाल वेगड़ तो जंगलों को एक अनूठी उपमा देते हुए कहते हैं कि जंगल बादलों के उतरने के हवाई अड्डे हैं। देखने में भी आता है कि जहाँ घने वन होते हैं वहाँ उनकी आर्द्रता से द्रवित होकर बादलों का बरसना अधिक होता है परन्तु वायुमण्डल के जल को खींचकर वर्षा कराने में वनों की भूमिका को लेकर वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं।

वनों की मौजूदगी और वर्षा की मात्रा में आमतौर पर सीधा-सीधा सम्बन्ध होने की मान्यता जनमानस में है परन्तु अधिक वनों के कारण अधिक वर्षा होना या वनों का नाश हो जाने के कारण वर्षा की मात्रा में कमी हो जाने की धारणा वैज्ञानिकों के समुदाय में लम्बे समय से बहस का कारण रही है। ली (1980) के अनुसार वनों की अधिकता वाले क्षेत्रों में आमतौर पर अधिक वर्षा होने के कारण आम धारणा बन गई है कि वर्षा को आकर्षित करके वन वर्षा की मात्रा में वृद्धि करते हैं, जिससे यह मान्यता भी बनी है कि वनों के कट जाने से वर्षा में कमी आ जाती है, परन्तु उनके अनुसार यह सार्वभौमिक सत्य नहीं है। वनों की उपस्थिति के कारण स्थानीय तौर पर वर्षा का वितरण भी कुछ सीमा तक प्रभावित होता है।

बादलों को आकर्षित करके बारिश कराने और जल उपलब्ध कराने की क्षमता की दृष्टि से वनों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- मेघ वन (cloud forest) तथा गैर-मेघ वन (non-cloud forest)। मेघ वन कुहरे या बादलों को रोककर वातावरण में मौजूद उस नमी को जमीन में सोखने में मददगार होते हैं जो अन्यथा वातावरण में ही रह जाती। इसके विपरीत गैर-मेघ वनों की भूमिका सामान्य तौर पर वर्षा से प्राप्त जल के प्रवाह को नियंत्रित करने तक ही सीमित रहती है। इस प्रकार मेघ वनों और गैर-मेघ वनों की जल उत्पादन सम्बन्धी क्षमताएँ अलग-अलग होती हैं नर्मदा अंचल के वनों में विशुद्ध रूप से मेघ वन जैसी स्थितियाँ प्रायः नहीं पाई जाती हैं।

अमरकंटक व पचमढ़ी और इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में वर्षा ऋतु में मेघ वन जैसी स्थितियाँ दिखती अवश्य हैं परन्तु वर्षा कराने में इनकी भूमिका के सम्बन्ध में नर्मदा पर वैज्ञानिक अध्ययनों का अभाव होने से अभी इतना ही कहा जा सकता है कि यहाँ पर्वतों की ऊँचाई कम होने के कारण बादलों को रोककर वर्षा कराने में इन वनों की भूमिका सीमित हैं परन्तु धरातल पर गिरे जल को सोखकर भूजल स्तर बढ़ाने में ये वन अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सबल धारा - नदियों में जल की मात्रा


वैज्ञानिक अनुसन्धान से अब तक मिली जानकारी के आधार पर ठोस रूप से यह कह पाना कठिन है कि वनों के कारण नदियों में जल की मात्रा शुद्ध रूप से बढ़ती है या नहीं। सघन वन क्षेत्रों में अधिक बारिश को आधार मानें तो यह अनुमान होता है कि वनों के कारण नदियों में जल की कुल मात्रा नदी बेसिन के परिप्रेक्ष्य में कम या ज्यादा हो सकती है। परन्तु यह मात्रा भी अन्ततः किसी इलाके में होने वाली वर्षा की कुल मात्रा के ऊपर ही निर्भर करती है और कुल वर्षा से अधिक तो नहीं ही हो सकती जो क्षेत्र विशेष की जलवायु से अधिक प्रभावित होती है।

वाष्प के रूप में मौजूद ये बारीक फुहारें वृक्षों के छत्र में पत्तियों के बीच जमे रहकर लम्बे अरसे तक नमी बनाए रखती हैं। भारतीय वन अनुसन्धान संस्थान, देहरादून में किये गये प्रयोगों से स्पष्ट हुआ है कि औसत घनत्व के वनों में लगभग 25 मिमी वर्षा प्रत्येक बार की बारिश में वृक्षों के छत्रों में अन्तावरोधित हो जाती है। वृक्षों के छत्र द्वारा जल के अन्तावरोधन की प्रक्रिया वन के घनत्व से प्रभावित होती है। यदि वन में वृक्षों का वितान सघन नहीं है तो अन्तावरोधन कम हो जाता है जबकि वृक्षों के सघन वितान होने की स्थिति में अन्तावरोधन बढ़ जाता है।इस अर्थ में हिमविहीन किसी नदी बेसिन में गिरने वाली वर्षा का कुल जल वह अधिकतम मात्रा है जो नदियों में आ सकती है। यद्यपि कुछ वैज्ञानिकों का मत यह भी है कि वनों के कारण काफी बड़ी मात्रा में जल वाष्पोत्स्वेदन (evapotranspiration) के माध्यम से वातावरण में वापस उड़ जाता है, अतः वन कट जाने से आस-पास की जलधाराओं में जल की उपलब्ध मात्रा में पहले तो आकस्मिक वृद्धि दिखाई देती है परन्तु यह आकस्मिक बाढ़ (flash floods) पैदा करके जल्दी ही चुक जाती है जबकि धीरे-धीरे चलने वाले प्रवाह की अवधि असामान्य रूप से घट जाती है।

एंडरसन हूवर तथा रीन्हार्ट (1976) के अनुसार धरती पर पहुँचने वाले जल के भविष्य का निर्धारण करने में अन्य वनस्पतियों की तुलना में वन प्रमुख भूमिका निभाते हैं। परन्तु यह भी सच है कि वाष्पोत्स्वेदन द्वारा हवा में जल वाष्प मुक्त करने व भूमि की निचली सतहों में जल सोखकर भूजल बढ़ाने के वनों के प्राकृतिक गुण के कारण सैद्धान्तिक रूप से किसी भी क्षेत्र में वर्षा का समस्त जल नदियों में नहीं आ सकता। इसमें से कुछ-न-कुछ नीचे या ऊपर की दिशा में गमन करता ही है। इस अर्थ में नदियों में प्रवाह की मात्रा को एक सरल समीकरण से दिखना हो तो इसे कुछ निम्न अनुसार व्यक्त किया जा सकता है :-

वर्षा में प्राप्त जल- (वाष्पोत्स्वेदन + भूजल पुनर्भरण) = नदियों के प्रवाह में उपलब्ध जल


इस परिप्रेक्ष्य में यह अवश्य कहा जा सकता है कि नदियों में जल की मात्रा में उतार-चढ़ाव वनों के घनत्व से सीधे जुड़ा हुआ होता है और वन इस उतार-चढ़ाव को उसी तरह नियंत्रित कर जलधाराओं को सदानीरा और स्वस्थ बनाए रखते हैं जिस तरह इन्सुलिन हार्मोन का स्राव हमारे रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित रखता है।

अविरल धारा - नदियों में जल के प्रवाह की निरन्तरता


नर्मदा के प्रवाह को निरन्तरता में अविरल बनाए रखने में नर्मदा अंचल के वनों की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ हिमालय से निकलने वाली नदियों की तरह बर्फीले हिमनदों (ग्लेशियरों) के पिघलने से लगातार जल प्राप्त नहीं होता और यहाँ जल आपूर्ति का एकमात्र स्रोत मानसूनी वर्षा है। अर्थात मानसूनी वर्षा के दौरान मिले पानी से ही यहाँ के नदी नालों को साल भर काम चलाना पड़ता है।

नर्मदा और इसके अपवाह तंत्र में आने वाले सभी नदी-नालों को जल की सारी आपूर्ति मानसूनी वर्षा के समय केवल कुछ महीनों में ही होती है। मानसून के समय ये नदी-नाले भीषण उफान पर रहते हैं जबकि मानसून गुजर जाने के बाद इनमें से ज्यादातर लगभग पूरी तरह सूख जाते हैं। वर्षा के दौरान जलागम में आये जल का रिसाव धीरे-धीरे करके इन नदी-नालों को बारहमासी बनाए रखने में नर्मदा अंचल के वन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सतपुड़ा और विंध्य पर्वतमालाओं में फैले ये वन स्वयं तो पानी पैदा नहीं करते हैं परन्तु पानी के रिसाव को नियंत्रित करने में भगवान शंकर की जटाओं जैसी भूमिका निभाकर वर्षाजल को संचित करने और बाढ़ के रूप में व्यर्थ बहने से रोककर बाद में कई महीनों तक धीरे-धीरे मुक्त करते हुए अंचल की अनेक सरिताओं को सदानीरा बनाए रखने में जो भूमिका निभाते हैं वह पानी का उत्पादन करने से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।

वर्षा से प्राप्त जल को भूमि में सोखने और जलधाराओं में प्रवाह बनाए रखने की भूमिका वन अपनी विशिष्ट संरचना के कारण ही निभा पाते हैं। जंगल एक विशाल शामियाने जैसी भूमिका निभाते हुए वर्षा के पानी की बौछार को अपने ऊपर झेल लेता है और बहते हुए पानी के वेग को कम करके उसे जमीन की निचली सतहों में उतारने में मदद करता है। वनों का यह गुण हिमविहीन नदियों के प्रवाह को मानसून के बाद भी निरन्तर जारी रखने में काम आता है। वर्षापूरित नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के मामले में भी यह तथ्य अत्यन्त प्रासंगिक है।

सबसे पहले तो वर्षाजल का काफी भाग वृक्षों के छत्र (Tree canopy) में अन्तावरोधित (Intercept) हो जाता है। वृक्षों के छत्र द्वारा अन्तावरोधन वर्षा के जल को व्यर्थ बह जाने से रोकने में काफी मददगार होता है। बादलों से लम्बी दूरी तय करके पूरी ताकत से धरती पर प्रहार करने को तत्पर वर्षा की बूँदें जब वृक्षों के पत्तों के रूप में मौजूद ढाल से टकराती हैं तो वे मंद फुहारों और छींटों में बदल जाती हैं और उनकी संहारक क्षमता बहुत कम हो जाती है।

वाष्प के रूप में मौजूद ये बारीक फुहारें वृक्षों के छत्र में पत्तियों के बीच जमे रहकर लम्बे अरसे तक नमी बनाए रखती हैं। भारतीय वन अनुसन्धान संस्थान, देहरादून में किये गये प्रयोगों से स्पष्ट हुआ है कि औसत घनत्व के वनों में लगभग 25 मिमी वर्षा प्रत्येक बार की बारिश में वृक्षों के छत्रों में अन्तावरोधित हो जाती है। वृक्षों के छत्र द्वारा जल के अन्तावरोधन की प्रक्रिया वन के घनत्व से प्रभावित होती है। यदि वन में वृक्षों का वितान सघन नहीं है तो अन्तावरोधन कम हो जाता है जबकि वृक्षों के सघन वितान होने की स्थिति में अन्तावरोधन बढ़ जाता है।

सघन वनों में वृक्षों के साथ-साथ जमीन पर उगी झाड़ियाँ, छोटे पौधे व घास आदि वन धरातल पर पानी की धारा के प्रवाह को तोड़कर तेजी से बहने में अवरोध पैदा करती हैं तथा पानी सोखने में मदद करती हैं। वन धरातल की वनस्पति जल के प्रवाह को नालियाँ बनाकर धारा में बहने देने की बजाय सतह पर परत के रूप में फैल जाने के लिये विवश कर देती है। इस प्रकार तेज बहती जलधारा के अवरुद्ध होकर पतली परत में फैल जाने से जल के अन्तः रिसाव के लिये अधिक बड़ी सतह और अधिक समय मिल जाता है।

भूमि की सतह के नीचे-नीचे बहने वाली अदृश्य जलधाराओं के इस अधोसतहीय अपवाह के कारण ही वर्षा के बहुत समय बाद तक भी पानी रिस-रिसकर नदी-नालों में मिलता रहता है और धाराओं को अवरिल बनाता है। इसी कारण सघन वनक्षेत्रों से लगे हुए आबादी वाले इलाकों में भूजल स्तर बढ़ जाता है और नलकूपों तथा कुओं में कम गहराई पर ही लम्बे समय तक जल उपलब्ध रहता है। इस प्रकार वैज्ञानिक अनुसन्धानों से प्राप्त जानकारी के आलोक में हम यह निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि हिमविहीन नदियों में अविरल धारा बनाए रखने का सबसे व्यावहारिक, कारगर और प्राकृतिक नुस्खा घने वन ही हैं।नर्मदा अंचल में भी पहाड़ी सघन वनों से युक्त इलाकों में छोटी-छोटी जलधाराएँ लम्बे समय तक अविरल बहती रहतीं हैं जबकि वनविहीन क्षेत्रों में वर्षा में आने वाला जल भूमि में सोखे जाने की बजाय सतही जल के रूप में तेजी से बहकर चला जाता है और अधोसतहीय अपवाह नहीं हो पाने से बड़े नदी-नाले भी वर्षाऋतु समाप्त होने के बाद जल्दी ही सूख जाते हैं। किसी क्षेत्र के वन आवरण के घनत्व में जैसे-जैसे कमी आती जाती है उसी अनुपात में नदी-नालों में प्रवाह की अवधि घटती जाती है। इसी कारण नर्मदा अंचल के वनाच्छादित पूर्वी भाग में सहायक नदियों में पानी की उपलब्धता की मात्रा और अवधि वनविहीन पश्चिमी भाग की अपेक्षा काफी बेहतर है।

चार माह की चाँदनी - असमय सूखती नदियों का दर्द


नर्मदा अंचल में नदियों नालों के स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ करने पर आमतौर पर एक मोटी बात उभरती है कि लगभग 25-30 वर्ष पहले यहाँ के नालों में प्रवाह लम्बे समय तक बना रहता था। घने वन प्रांतरों में बहने वाली अनेक सरिताओं में प्रवाह बारहमासी होता था जबकि अन्य बहुत सी नदियाँ मार्च-अप्रैल तक बहती रहती थीं। अब यह अवधि घट चली है और नवम्बर-दिसम्बर आते-आते अनेक नदियाँ प्रायः पूरी तरह सूख जाया करती हैं। इन असमय सूखती नदियों का दर्द व उनके दर्द का इलाज वनों के स्वास्थ्य और सघनता के आइने में देखने पर साफ हो जाता है।

वन आवरण की सघनता और सरिताओं में जल की उपलब्धता की अवधि के बीच सम्बन्ध का आकलन करने के लिये मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के सघन वन आवरण वाले पचमढ़ी वन्य प्राणी अभयारण्य की तुलना पश्चिमी मध्य प्रदेश के अपेक्षाकृत वनविहीन जिले बड़वानी से की गई (श्रीवास्तव, 2007)। लगभग 300 किमी की दूरी पर बसे इन दोनों जिलों में चयनित अध्ययन क्षेत्र से वर्ष 2006 तथा 2007 के आँकड़ों का संकलन, वर्गीकरण और विश्लेषण किया गया।

इस अध्ययन के लिये पचमढ़ी वन्य प्राणी अभयारण्य के पचमढ़ी परिक्षेत्र में दिनांक 1 मई से 15 मई की अवधि के बीच 116 स्थलों के लिये तथा बड़वानी जिले के वरला परिक्षेत्र में 22 स्थानों से संकलित सतही जल उपलब्धता की जानकारी का विश्लेषण व उनकी आपस में तुलना की गई। इस अध्ययन में पाया गया कि अच्छे सघन वन आवरण की अधिकता वाले पचमढ़ी अभयारण्य में वर्ष 2006 व 2007 में मई के सूखे महीने में भी 97 प्रतिशत से अधिक जलधाराओं में पानी मिला जबकि विरल वन आवरण वाले बड़वानी जिले के वरला क्षेत्र में मई 2006 में केवल 27 प्रतिशत तथा मई 2007 में केवल 18 प्रतिशत जलधाराओं में पानी मिला।

यद्यपि इस अध्ययन में औसत वर्षा, तापमान, आर्द्रता और मिट्टी जैसे कारकों की भूमिका पर बहुत गहराई से दीर्घकालिक शोध नहीं किया जा सका और कई बिन्दु परीक्षण के लिये शेष रह गए, पर जितनी जानकारी मिल सकी उससे मोटे तौर पर इतना तो स्पष्ट हुआ ही कि जलधाराओं में प्रवाह की निरन्तरता पर वनों का सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस अध्ययन के सम्बन्ध में लेखक की अन्य पुस्तक ‘पानी के लिये वन प्रबन्ध’ (2009) में जानकारी दी गई है।

वैज्ञानिक शोध से यह भी स्पष्ट हुआ है कि सघन वन भूमि में सतही अपवाह तो कम होता है परन्तु वृक्षों की जड़ों के साथ भूमि की निचली सतहों में पहुँचे पानी के कारण अधोसतहीय अपवाह की मात्रा अधिक होती है। यह अपवाह काफी धीमी गति से और सतह के नीचे होने के कारण इसका वेग भी रुक जाता है और भूमि का क्षरण भी नहीं होता। इस प्रकार तेज बहती जलधारा के अवरुद्ध होकर पतली परत में फैल जाने से जल के अन्तःरिसाव (Infiltration) के लिये अधिक बड़ी सतह और अधिक समय मिल जाता है। इसके फलस्वरूप जमीन में पानी का अन्तःरिसाव बढ़ जाने से भूजल स्तर में तेजी से वृद्धि होती है।

यही कारण है कि घने वनों से लगे गाँवों-बस्तियों में कुओं व नलकूपों आदि में भूजल स्तर अपेक्षाकृत काफी ऊँचा पाया जाता है। भूमि की सतह के नीचे-नीचे बहने वाली अदृश्य जलधाराओं के इस अधोसतहीय अपवाह के कारण ही वर्षा के बहुत समय बाद तक भी पानी रिस-रिसकर नदी-नालों में मिलता रहता है और धाराओं को अवरिल बनाता है। इसी कारण सघन वनक्षेत्रों से लगे हुए आबादी वाले इलाकों में भूजल स्तर बढ़ जाता है और नलकूपों तथा कुओं में कम गहराई पर ही लम्बे समय तक जल उपलब्ध रहता है। इस प्रकार वैज्ञानिक अनुसन्धानों से प्राप्त जानकारी के आलोक में हम यह निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि हिमविहीन नदियों में अविरल धारा बनाए रखने का सबसे व्यावहारिक, कारगर और प्राकृतिक नुस्खा घने वन ही हैं।

निर्मल धारा - जंगल और नदियों में जल की गुणवत्ता


नदियों में प्रवाह की निर्मलता का वनों के घनत्व से सीधा सम्बन्ध है। इस मामले में वैज्ञानिक प्रायः एकमत हैं कि वन आच्छादित पहाड़ी जलग्रहण क्षेत्र शुद्ध पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने में बहुत मददगार होते हैं। शुद्ध जल एक महत्त्वपूर्ण वन उत्पाद हैं। सघन जलग्रहण क्षेत्रों से आती जल धाराओं का पानी खेतों और नगरीय क्षेत्रों से आते पानी की तुलना में काफी साफ होता है। वन एक प्राकृतिक छन्ने की तरह जल में घुली हुई गन्दगी को छानकर धारा को निर्मल बना देते हैं।

नर्मदा के जल की गुणवत्ता बनाए रखने में नर्मदा अंचल के वनों द्वारा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया जाता है। यह एक स्थापित तथ्य है कि उच्च गुणवत्ता के शुद्ध जल प्रदाय में वन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नर्मदा का जल आज भी यदि अन्य नदियों की तुलना में काफी स्वच्छ एवं निर्मल है तो इसका एक बड़ा कारण इसके जलग्रहण क्षेत्र के वन हैं। जल को शुद्ध करने की क्षमता वनों में अपने कई गुणों के कारण आती है। वनों की भूमि पर मौजूद जैविक द्रव्य (ह्यूमस) पानी को सोखकर नीच जाने में सहायता करता है और मिट्टी प्रदूषक तत्वों को सोख लेती है। इस प्रकार भूमि में नीचे जाने वाला जल छन-छनकर लगातार निर्मल और शुद्ध होता रहता है।

अपने इसी गुण के कारण ही नदी तटीय क्षेत्रों में मौजूद वन एक सोख्ता बफर पट्टी जैसे काम करते हुए तलछट, पोषक तत्वों और विषैले प्रदूषक तत्वों को रोककर जलधाराओं के सतही प्रवाह में मिलने से बचाते हैं जिससे जल की गुणवत्ता में सुधार होता है। नदी तटीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली वनस्पति जलधारा के प्रवाह को मन्द कर देती है और अवांछित तत्वों को धीरे-धीरे छानते हुए जल की गुणवत्ता सुधारने में काफी मदद करती है। जलधारा की तीव्रता में कमी आने के कारण पानी को जमीन के अन्दर रिसने के लिये पर्याप्त समय मिल जाता है और अवसाद के बारीक कणों का जमाव वनस्पति में ही हो जाता है।

नदी तटीय वन बफर में पाई जाने वाली वनस्पति के कारण इन क्षेत्रों में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ जाती है और सूक्ष्म जीवों, केचुओं व अन्य कृमियों के पनपने के लिये अनुकूल स्थितियाँ बन जाती हैं। इन कारणों से डी-नाइट्रीकरण तथा अन्य जैव रासायनिक प्रक्रियाएँ तेज हो जाती हैं जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाती है और भूमि में जल रिसाव की दर बढ़ जाती है। इन प्रक्रियाओं में जल की गुणवत्ता में प्राकृतिक रूप से ही काफी सुधार हो जाता है। जल की गुणवत्ता सुधारने में वनों की भूमिका को मुख्यतः पोषक तत्वों और हानिकारक रासायनिक कीटनाशकों की अधिकता पर नियंत्रण के रूप में समझा जा सकता है।

जल में पोषक तत्वों की असामान्य अधिकता पर वनों का नियंत्रण


पोषक तत्व जल की गुणवत्ता से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण कारक हैं। ये जलीय पारिस्थितिक तंत्र के अनिवार्य तत्व होते हैं परन्तु इनकी असामान्य रूप से अधिक मात्रा जलीय वातावरण में अनेक अवांछित बदलाव ला देती है जिनके कारण यह जल मानव के लिये उपयोग लायक नहीं रह जाता। खेतों में उपयोग होने वाले विभिन्न रासायनिक उर्वरक, मल तथा अपशिष्ट पदार्थ, जहरीले कीटनाशक इत्यादि वर्षा के जल के प्रवाह के साथ बह-बहकर जलधाराओं तथा तालाबों को प्रदूषित करते रहते हैं।

प्रदूषण के कारण जल की गुणवत्ता बिगड़ती है और मानव जीवन तथा स्वास्थ्य को दुष्प्रभावित करती है। जहरीले पदार्थों के जलधाराओं में मिश्रित होने से दूषित जल पीने, तैरने, नहाने या संक्रमित मछलियाँ खाने पर मनुष्यों को अनेक बीमारियाँ हो सकती हैं। जॉनसन व अन्य द्वारा किये गए शोध से इस बात के संकेत मिले हैं कि नदी तटीय वन बफर अनेक प्रकार के प्रदूषक तथा विषैले तत्वों के प्रवाह को जल प्रवाह में जाने से रोक लेते हैं और उन्हें जमाकर मिट्टी या कार्बनिक पदार्थों में अवशोषित करा देते हैं अथवा सूक्ष्म जैविक प्रक्रियाओं या रासायनिक क्रियाओं द्वारा अन्य अहानिकारक तत्वों मे बदल देते हैं।जलधाराओं के किनारे मौजूद जंगल प्रदूषकों को सोखकर जलधारा के लिये एक विषपायी छन्ने या बफर का काम करते हैं। नदी तटीय वन बफर (Riparian forest buffer) नाइट्रोजन, फास्फोरस, कैल्शियम, पोटैशियम, सल्फर तथा मैग्नीशियम जैसे पोषक तत्वों की अपशिष्ट मात्रा को छानकर जलधाराओं में पहुँचने से पहले ही रोकने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

अधिकांश प्रदूषकों में नाइट्रोजन तत्व की मात्रा काफी अधिक होती है जो आमतौर पर खेतों से आने वाले पानी के साथ घुले हुए यूरिया जैसे रासायनिक उर्वरक के रूप में आता है। इसी प्रकार पानी के साथ बहकर आने वाले कार्बनिक पदार्थों में फास्फेट और मिट्टी के कणों पर सतह-शोषित (adsrobed) रूप में फास्फोरस रहता है।

जलधाराओं में इन पोषक तत्वों की अत्यधिक मात्रा से यूट्रोफिकेशन (eutrophication) नामक क्रिया प्रारम्भ हो जाती है जिसमें ज्यादा पोषक तत्व प्राप्त होने से जलीय शैवालों तथा अन्य जलीय वनस्पतियों की मात्रा में बड़ी तेजी से वृद्धि होने लगती है। जब ऐसी जलीय वनस्पतियों की मात्रा में असामान्य वृद्धि होती है तो पानी में घुली ऑक्सीजन की खपत (Biological Oxygen Demand) में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है और बुरी दिखने वाली शैवाल तथा सड़ते हुए कार्बनिक पदार्थों की तैरती हुई कालीन जैसी परतें बन जाती हैं जो जल की सतह को ढँक लेती हैं। इसके फलस्वरूप जल में अवांछनीय रंग और गन्ध पैदा हो जाते हैं, स्वाद बिगड़ जाता है और वह प्राणियों के उपयोग लायक नहीं रह जाता। हाल के वर्षों में यह स्थिति नर्मदा के किनारे भी कई क्षेत्रों में अक्सर दिखाई देने लगी है।

वर्ष 2015 में नर्मदा के मध्य भाग में काफी क्षेत्रों में आश्चर्यजनक रूप से एजोला नामक जलीय फर्न की अप्रत्याशित बढ़त देखी गई। यह वृद्धि इतने बड़े पैमाने पर और इतने कम समय में हुई कि इसने मध्य नर्मदा उप-बेसिन के कई खण्डों में नर्मदा जल की सतह को लगभग पूरा का पूरा ढँक लिया। फतेहगढ़-जोगा के निकट एजोला की वृद्धि से पूरी नर्मदा किसी नदी की बजाय हरे फुटबॉल मैदान जैसी दिखाई दे रही थी जिसके चित्र समाचार पत्रों में भी छपे।

यह स्थिति, शाहपुर, बुदनी, छीपानेर, नेमावर, किटी और आस-पास के क्षेत्रों में भयावह रूप में देखी गई जिसके कारण नौका चालन और मछली पकड़ने के लिये जाल फेंकना भी दुश्वार हो गया। यह सोचने और शोध का विषय है कि बाँधों के कारण ठहरे हुए पानी वाले खण्डों में जहाँ खेती से रासायनिक उर्वरकों की अपशिष्ट मात्रा जल में बढ़ रही है कहीं यह उसका सीधा परिणाम तो नहीं है? इस विषय पर निरन्तर शोध और अनुश्रवण किये बिना नर्मदा घाटी में बसे समाज का दीर्घकालिक कल्याण सुनिश्चित करना कठिन है।

जल में विषैले पदार्थों के मिलने पर वनों की चौड़ी बागड़ द्वारा नियंत्रण
प्रदूषण के कारण जल की गुणवत्ता बिगड़ती है और मानव जीवन तथा स्वास्थ्य को दुष्प्रभावित करती है। जहरीले पदार्थों के जलधाराओं में मिश्रित होने से दूषित जल पीने, तैरने, नहाने या संक्रमित मछलियाँ खाने पर मनुष्यों को अनेक बीमारियाँ हो सकती हैं। जॉनसन व अन्य (1984) द्वारा किये गए शोध से इस बात के संकेत मिले हैं कि नदी तटीय वन बफर अनेक प्रकार के प्रदूषक तथा विषैले तत्वों के प्रवाह को जल प्रवाह में जाने से रोक लेते हैं और उन्हें जमाकर मिट्टी या कार्बनिक पदार्थों में अवशोषित करा देते हैं अथवा सूक्ष्म जैविक प्रक्रियाओं या रासायनिक क्रियाओं द्वारा अन्य अहानिकारक तत्वों मे बदल देते हैं।

लॉरसेन तथा उनके सहयोगियों (1984) ने पाया कि केवल दो फुट चौड़ी बफर पट्टी भी बीमारी पैदा करने वाले हानिकारक फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया (Faecal Coliform Bacteria) को 83 प्रतिशत तक रोक लेती है जबकि 7 फुट की बफर पट्टी तो लगभग 95 प्रतिशत फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया को पानी में जाने से रोकने में सक्षम है। यंग तथा उनके साथियों (1980) ने मिनीसोटा में आकलन किया कि 118 फीट चौड़ी बफर पट्टी से छनकर आने के बाद पानी में फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा इतनी कम हो जाती है कि वह जल मानव उपयोग के लायक हो जाता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि नदी तटीय वन बफर जल की गुणवत्ता सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

घने वनों में मौजूद वानस्पतिक बागड़ पोषक तत्वों को छानने में कारगर


अमेरिकी कृषि विभाग के शोधकर्ताओं लॉरेन्स तथा उनके सहयोगियों (1984) ने टिफटन, जॉर्जिया में एक लम्बे अध्ययन में पाया कि पर्णपाती वन बफर खेतों से बहकर आने वाले नाइट्रोजन की मात्रा में 68 फीसदी तक कमी कर देते हैं। इसी प्रकार मेरीलैण्ड में चैसापीक खाड़ी में पश्चिमी किनारे पर पीटरजॉन तथा कौरल (1984) द्वारा किये गए प्रयोगों में पाया गया कि खेतों से बहकर आने वाली लगभग 89 प्रतिशत नाइट्रोजन तटीय बफर पट्टी के पहले 62 फीट में ही छनकर रुक जाती है।

जॉर्डन तथा अन्य ने मेरीलैण्ड के पूर्वी समुद्री तट पर पाया कि खेतों से बहकर आने वाले नाइट्रेट्स की 95 प्रतिशत मात्रा तटीय बफर वनों द्वारा छानकर रोक ली जाती है। अध्ययनों से यह भी पुष्टि हुई है कि नदी तटीय वन हानिकारक नाइट्रेट को डी-नाइट्रीकरण की क्रिया द्वारा गैसीय नाइट्रोजन तथा नाइट्रस ऑक्साइड में बदलकर उन्हें वातावरण में मुक्त कर देते हैं और खेतों से बहकर आने वाले जल में से नाइट्रोजन की मात्रा में कमी करने में प्रभावी हैं।

इसी प्रकार नदी तटीय वन बफर फॉस्फोरस के लिये भी महत्त्वपूर्ण सोख्ते (सिंक) का काम करते हैं क्योंकि अवसाद (मिट्टी के महीन कण) के साथ जुड़ा हुआ फास्फोरस बफर पट्टी में ही जमा हो जाता है जिसकी कुछ मात्रा पौधों के ऊतकों द्वारा सोख ली जाती है और काफी मात्रा मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवों द्वारा इस्तेमाल कर ली जाती है। उत्तरी कैरोलिना में कूपर तथा गिलियम (1987) द्वारा किये गए अध्ययन में पाया गया कि फास्फोरस की लगभग आधी मात्रा नदी तटीय वन बफर में शोषित हो जाती है।

मेरीलैण्ड में पीटरजॉन तथा कौरल (1984) ने पाया कि पर्णपाती काष्ठीय वन बफर खेतों के पानी के साथ आने वाले फास्फोरस की मात्रा में 80 प्रतिशत तक की कमी कर देते हैं। भले ही अध्ययनों के अभाव के कारण हमें आँकड़ों के रूप में स्थानीय जानकारी न हो, नर्मदा अंचल के वन भी यहाँ की सरिताओं के लिये निश्चित रूप से इसी प्रकार की भूमिका लगातार अदा कर रहे हैं। आधुनिक खेती में रासायनिक उर्वरकों व घातक विषैले कीटनाशकों का व्यापक पैमाने पर प्रयोग होने के बावजूद नर्मदा का जल अभी भी अपेक्षाकृत साफ होने का एक प्रमुख कारण यहाँ के वन ही हैं।

इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता कि नदी तटीय वन बफर के रूप में घास या वृक्ष किसे अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए क्योंकि अब तक किये गए अध्ययन भिन्न-भिन्न स्थानीय परिस्थितियों में किये गए होने के कारण सही तुलना सम्भव नहीं है परन्तु दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ और उपयोग हैं। घास और वृक्ष दोनों के बफर पोषक तत्वों और तलछट को छान (फिल्टर) करके रोकने और जल में नाइट्रेट की मात्रा को घटाने में मदद करते हैं। वृक्ष बफर में डी-नाइट्रीकरण की दर तो अधिक होती है परन्तु इन्हें स्थापित करने में अधिक समय लगता है। इसके विपरीत घास बफर काफी जल्दी स्थापित किया जा सकता है और तलछट के बारीक कणों को रोकने और उन्हें जल प्रवाह से अलग करके जमा करने के लिये अधिक सतह उपलब्ध कराता है। वन बफर की संरचना चित्र 3.5 में दर्शाई गई है।

भू-क्षरण व जलाशयों में अवसाद जमाव पर नियंत्रण में वनों की भूमिका


नदियों के सन्दर्भ में वनों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका पानी के बहाव के कारण होने वाले मिट्टी के कटाव और भू-क्षरण को काबू में रखने की है। इस तरह के भू-क्षरण के फलस्वरूप जलाशयों में होने वाले अवसाद के जमाव (sedimentation) को नियंत्रित करने में वन बड़ी कारगर भूमिका निभाते हैं। अवसाद मिट्टी के वे कण हैं जो क्षरण से प्रभावित भूमियों (जैसे वन विहीन हो चुकी पहाड़ियाँ जुते हुए खेत, निर्माण क्षेत्र, वनों की कटाई वाले क्षेत्र तथा अपरदन प्रभावित नदी तट आदि) से उत्पन्न होकर जलधाराओं, झीलों व अन्य खुले जलस्रोतों में मिल जाते हैं।

जलप्रवाह की तीव्रता को घटाकर भूमि का क्षरण रोकने में वनों की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। वन आच्छादित भूमि की पारगम्यता अधिक होने के कारण इस पर गिरने वाला वर्षा का जल ह्यूमस और जैविक द्रव्य के कचरे में सोखकर धीरे-धीरे भूमि में प्रवेश कर जाता है। इसके फलस्वरूप भूमि की सतह पर स्वतंत्र रूप से बहने के लिये अपेक्षाकृत कम पानी शेष बचता है। इस कारण वन अच्छादित भूमि पर प्राप्त होने वाले वर्षाजल का सतही अपवाह बहुत कम हो जाता है जिसके फलस्वरूप भूमि का क्षरण होने की क्रिया पर अंकुश लगता है।वन रहित क्षेत्रों में जल का सतही अपवाह धीरे-धीरे छोटी-छोटी नालियों का निर्माण कर देता है जो ढलवाँ क्षेत्रों में बड़ी नालियों व गली और होते-होते बीहड़ों का रूप धारण कर लेता है। ये सभी नालियाँ, गलियाँ व बीहड़ किसी-न-किसी नदी से जुड़े होते हैं। वनस्पति विहीन क्षेत्रों में वर्षा में आने वाले जल प्रवाह के साथ मिट्टी की ऊपरी सतह का नियमित रूप से क्षरण होता रहता है और उपजाऊ मिट्टी, रेत, कंकड़ व गाद (सिल्ट) आदि जलधारा के साथ बहते और जलाशयों में एकत्र होते रहते हैं। मिट्टी की ऊपरी सतह के क्षरित होकर बह जाने के कारण भूमि की उत्पादकता में कमी आने लगती है और भूमि धीरे-धीरे बंजर होती जाती है।

जहाँ की भूमि पर वन आवरण होता है वहाँ पौधों की जड़ें मिट्टी को बाँधकर रखती हैं जिससे मिट्टी के क्षरण पर अंकुश लगता है। जलप्रवाह की तीव्रता को घटाकर भूमि का क्षरण रोकने में वनों की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। वन आच्छादित भूमि की पारगम्यता (permieability) अधिक होने के कारण इस पर गिरने वाला वर्षा का जल ह्यूमस और जैविक द्रव्य के कचरे में सोखकर धीरे-धीरे भूमि में प्रवेश कर जाता है। इसके फलस्वरूप भूमि की सतह पर स्वतंत्र रूप से बहने के लिये अपेक्षाकृत कम पानी शेष बचता है। इस कारण वन अच्छादित भूमि पर प्राप्त होने वाले वर्षाजल का सतही अपवाह बहुत कम हो जाता है जिसके फलस्वरूप भूमि का क्षरण होने की क्रिया पर अंकुश लगता है।

जलधाराओं में अवसाद की अधिकता जल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने के साथ-साथ जलाशयों की जल भराव क्षमता में कमी करके उनकी उपयोगी आयु घटा देती है। कई अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि वन काफी प्रभावी तरीके से अवसाद छन्नी (sediment trap) का काम करते हैं।

जलधाराओं के समीपवर्ती क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खेती तथा तटीय वनों की दुर्दशा जलाशयों में अवसाद इकट्ठा होने की गति को तेजी से बढ़ा सकती है। तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों में जब खेती या अन्य कारणों से जल में अवसाद की मात्रा तथा बहाव बढ़ जाता है तो जगह-जगह अवसाद के जमाव से छोटे-छोटे टापू बनने लगते हैं और जलधारा का प्रवाह बाधित होने लगता है। स्वस्थ नदी तटीय वन मिट्टी के क्षरण के माध्यम से आने वाले अवसाद को छानकर रोक लेते हैं और नदियों के कगारों को स्थायित्व देते हैं।

स्वस्थ वनों से युक्त जलग्रहण क्षेत्रों में अन्य किसी भी प्रकार की वनस्पति आवरण की अपेक्षा सबसे कम गाद एकत्रित होती है। इसीलिये वनों को बहुधा जलाशयों में गाद की मात्रा नियंत्रित करने वाली कुदरती प्रणाली के रूप में देखा जाता है। इस सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रयोगों के निष्कर्ष वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करते हैं।

एरिजोना में विलसन (1967) ने पाया कि जलधारा के किनारे मौजूद घास के बफर रेत के कणों को बहुत कम दूरी (प्रारम्भ से लगभग 10 फीट तक) में ही रोक लेते हैं जबकि गाद के महीन कणों को हटाने के लिये लगभग 50 फीट चौड़ी बफर पट्टी आवश्यक है। वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि नदी तटीय घास बफर रेत जैसे बड़े कणों को रोकने में तो बहुत कारगर हैं परन्तु चिकनी मिट्टी के महीन कणों को रोकने में ये उतने प्रभावी नहीं हैं।

जॉर्जिया में लिटिल रिवर के तटीय क्षेत्रों में किये गए कुछ अध्ययनों में लॉरेन्स तथा उनके सहयोगी वैज्ञानिकों (1986) ने पाया कि एक नदी तटीय वन में 311600 से 471000 पौंड प्रति एकड़ की मात्रा तक गाद प्रतिवर्ष लगभग पिछले 100 वर्षों में एकत्र हुआ है। उत्तरी कैरोलिना में कूपर व अन्य वैज्ञानिकों (1987) ने पाया कि उत्पादक कृषि क्षेत्रों में खेतों से आने वाली अवसाद का 84-90 प्रतिशत तक समीपवर्ती नदी तटीय पर्णपाती वनों द्वारा रोक लिया जाता है। उत्तरी कैरोलिना में ही पीडमॉन्ट इलाके में डेनियल्स तथा उनके सहयोगियों (1996) द्वारा अपने अध्ययन में पाया गया कि केवल घास अथवा घास-वन की तटीय छन्नी पट्टियाँ अवसाद को 60-90 प्रतिशत तक रोकने में समान रूप से प्रभावी हैं।

ब्लैक्सबर्ग, वर्जिनिया डिलाहा तथा उनके साथी शोधकर्ताओं (1989) ने पाया कि 30 फीट चौड़ी ऑचर्ड घास की पट्टी जल के प्रवाह के साथ आये अवसाद तथा घुलनशील पदार्थों को 84 प्रतिशत तक कम कर देती है जबकि 15 फीट चौड़ी पट्टी से जलधारा में जाने वाले अवसाद की मात्रा 70 प्रतिशत तक कम हो जाती है। प्रयोगों में यह भी पाया गया है कि घास की बफर पट्टी की अवसाद को छानकर रोक लेने की क्षमता समय के साथ क्रमशः कम होती जाती है क्योंकि बफर पट्टी धीरे-धीरे जमा हुए अवसाद से भर जाती है।

वर्जिनिया में डिलाहा तथा उनके सहयोगियों (1989) द्वारा अध्ययन में पाया गया कि घास की एक बफर पट्टी जो प्रारम्भ में 90 प्रतिशत तक अवसाद को रोक लेती थी, 6 बार के बाद केवल 5 प्रतिशत तक ही कारगर रही। गुरमेल सिंह, रामबाबू तथा उनके सहयोगियों (1992) द्वारा पाया गया कि 40 प्रतिशत से अधिक छत्र घनत्व वाले सघन वन क्षेत्रों में मिट्टी के ह्रास की औसत वार्षिक दर मात्र 0.9 से 1.3 टन प्रति एकड़ है जबकि 40 प्रतिशत से कम छत्र घनत्व वाले विरल वनों में मिट्टी के ह्रास की दर 2.2 से 8.9 टन प्रति एकड़ है।

इस अध्ययन से पता चला कि जहाँ वन आवरण घना है वहाँ मिट्टी के कटाव की दर बहुत कम है और जहाँ वन आवरण नगण्य है वहाँ मिट्टी के कटाव की दर बहुत अधिक है। ऑस्बार्न तथा कौवेसिक (1993) ने पाया कि बफर पट्टी की अवसाद रोकने की क्षमता अवसाद के कणों के आकार और मात्रा, ढलान, वनस्पति का प्रकार और घनत्व, भूमि पर ह्यूमस तथा पत्तियों के कचरे की उपस्थिति या अनुपस्थिति, मिट्टी की संरचना, अधोसतहीय जल अपवाह तथा बाढ़ की आवृत्ति और तीव्रता पर निर्भर करती है।

इन बातों को ध्यान में रखते हुए नदी तटीय वन बफर को ठीक से बनाया तथा लगातार रख-रखाव करके उनकी उपयोगिता को लम्बी अवधि तक बनाए रखा जा सकता है। नर्मदा पर बने बाँधों की शृंखला के साथ निर्मित जलाशयों के सन्दर्भ में भी अवसादन की समस्या को समय रहते गम्भीरता से लिये जाने की आवश्यकता है। इसके लिये गम्भीर रूप से भू-क्षरण प्रभावित जलागम क्षेत्रों का प्राथमिकता पर उपचार व निरन्तर रख-रखाव आवश्यक होगा।

नदी के तटों का कटाव रोककर उन्हें स्थिर रखने में वनों की भूमिका


पानी के बहाव के कारण होने वाले भू-क्षरण पर नियंत्रण की दृष्टि से वनों की एक अन्य भूमिका नदियों के कगारों को स्थायित्व देने में भी है। वनस्पतिविहीन कगारों की मिट्टी कट-कटकर नदियों में गिरने से मूल्यवान भूमि का क्षय होता है। वन आच्छादित कगारों पर नाना प्रकार की वनस्पतियों की जड़ें मिट्टी को बाँधे रखती हैं जिससे मिट्टी को अधिक स्थायित्व मिलता है।

जलधाराओं के तटीय इलाकों में कगारों पर वनस्पति आवरण नष्ट हो जाने के फलस्वरूप भूमि का लगातार क्षरण होता रहता है जिससे नालियाँ और नालों के मुहाने बनने के साथ-साथ बीहड़ों का निर्माण होने लगता है। वन आच्छादित कगारों के कटाव का खतरा अपेक्षाकृत काफी कम रहता है।

जलधारा के सीधे सम्पर्क में आ जाने की स्थिति में भी ऐसे इलाकों में वनविहीन क्षेत्रों की अपेक्षा कटाव की गति नहीं बढ़ने पाती। यद्यपि नर्मदा के कगार काफी बड़े क्षेत्र में चट्टानी और तरंगित हैं परन्तु बाकी क्षेत्रों में नदी के कगारों का कट-कटकर नर्मदा व उसकी सहायक नदियों में गिरना जारी है। वन की हरित पट्टी इस पर रोक लगाने में काफी कारगर हो सकती है।

भूजल भण्डार और वन


नर्मदा पदयात्री और साहित्यकार श्री वेगड़ द्वारा दी गई उपमा के अनुरूप जंगल बादलों के उतरने के हवाई अड्डे हों न हों, बारिश का पानी सोखने वाले विराट स्पंज तो हैं ही! वर्षा के दौरान धरती को मिलने वाले जल का भविष्य तय करने में वनों की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वर्षाजल को सोखकर भूजल भण्डार समृद्ध करने में वनों की भूमिका अमूल्य और अतुलनीय है। ऐसा उनकी अनूठी वानस्पतिक संरचना और जंगल की स्वस्थ मिट्टी के कारण सम्भव हो पाता है।

वर्षाजल जब बड़े वेग के साथ वन आवरण से टकराता है तो सबसे पहले वृक्षों के छत्र से टकराकर उनका वेग कम होता है। इसके बाद वही जल वृक्षों के छत्र से छन-छन कर वनों के धरातल पर मौजूद छोटे पौधों, घास, खर-पतवार और सड़ी गली पत्तियों, शाखाओं, छाल, फल-फूल के जैविक द्रव्य की भुरभुरी सरंध्र परतों में किसी सूखे स्पंज की भाँति सोख लिया जाता है।

वनभूमि की रंध्रता बढ़ाकर पानी सोखने की क्षमता कई गुना बढ़ाने में मिट्टी में रहने वाले केंचुए, कीड़े-मकोड़े और भूमिगत सुरंगें व बिल बनाकर रहने वाले अन्य जीव बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन जीवों द्वारा बनाए गए असंख्य भूमिगत छिद्रों नालियों व बिलों के कारण पानी सोखने के लिये उपलब्ध धरती की सतह सामान्य से कई गुना बढ़ जाती है। इन छिद्रों के कारण बने खोखले स्थानों में भी काफी मात्रा में पानी जमा हो जाता है और लम्बे समय तक धीरे-धीरे भीतर रिसता रहता है।वन आवरण यह भूमिका धरातल पर मौजूद जैविक द्रव्य और ह्यूमस के गद्देदार और स्पंजी कवच के कारण निभा पाता है। स्वस्थ और भरे-पूरे वनों में भूमि पर पत्तियों, शाखाओं, छाल, फल-फूल आदि के गिरते रहने के कारण धरातल पर काफी जैविक द्रव्य पाया जाता है जो भूतल और मिट्टी की ऊपरी सतह में पाये जाने वाले नाना प्रकार के जीवों की अनेक जैविक क्रियाओं द्वारा धीरे-धीरे सूक्ष्म जीवों का भोज्य पदार्थ बनता है और गर्मी तथा नमी के फलस्वरूप धीरे-धीरे सड़कर लम्बी अवधि में ह्यूमस बनाता है।

भूमि की सतह पर पड़ा यह जैविक द्रव्य वर्षा की ऊँचाई से गिरने वाली ताकतवर बूँदों के धरती पर सीधे प्रहार में बाधा उत्पन्न करता है जिससे वर्षा के दौरान सीधे बादलों से आने वाली बूँदों तथा वृक्षों के ऊँचे छत्र से टपककर नीचे पहुँचने वाले पानी की तेज बूँदों की ऊर्जा कम हो जाती है और मिट्टी का कटाव करने की उनकी शक्ति घट जाती है। इस प्रकार स्वस्थ वनों में धरातल पर पाई जाने वाली जैविक द्रव्ययुक्त यह परत एक मोटे गद्देदार स्पंज की तरह रक्षात्मक आवरण या कवच का काम करती है और पानी की बूँदों को भूमि से सीधे टकराकर मिट्टी का क्षरण करने से रोकती है।

वृक्षों के छत्र से छन-छनकर भूमि की सतह पर पहुँचने वाले जल को जैविक द्रव्य व ह्यूमस की सोख्ते जैसी रंध्रयुक्त सतह से गुजरना पड़ता है। इस अर्थ में वृक्षों का घना छत्र किसी हेलमेट जैसा काम करता है। जिससे टकराने से भूमि पर वर्षा बूँदों की चोट कम लगती है और जल का काफी भाग अवशोषित हो जाता है।

भूजल स्रोतों का अत्यधिक दोहन होने और पुनर्भरण में कमी होने के कारण भूजल उपलब्धता का सन्तुलन बिगड़ जाता है और अनेक क्षेत्रों में समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं। जहाँ पानी न होने के कारण या वर्षा की मात्रा में कमी के कारण पुनर्भरण न हो वहाँ तो इसे समझा जा सकता है परन्तु पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्रों में भी भूजल पुनर्भरण कम होने का एक कारण भूमि पर वनस्पति आवरण में कमी होना भी है।

यूँ तो भूजल के पुनर्भरण को प्रभावित करने वाले कारकों में अन्तः रिसाव के लिये पर्याप्त सतह की उपलब्धता, मिट्टी और चट्टानों की प्रकृति, दरारों और रंध्रों की मौजूदगी, जल की अच्छी संचालकता तथा भूजल स्रोत की भण्डारण क्षमता प्रमुख हैं परन्तु अन्तः रिसाव की क्रिया पर सीधा प्रभाव डालने के कारण वन और उनमें मौजूद वनस्पति आवरण भी इस मामले में अच्छी-खासी भूमिका निभाते हैं।

वनों के धरातल पर पड़ा सड़ता-गलता जैविक द्रव्य पानी के तेज प्रवाह को रोकने और रिस-रिसकर जमीन की निचली परतों में समाने में बड़ा मददगार होता है। वृक्षों और शाक-घास आदि की जड़ें इस पानी को रिस-रिसकर धरती की निचली सतहों में जाने की राह आसान करती हैं।

इस मामले में वृक्षों से कहीं अधिक चमत्कारिक भूमिका धरातल पर मौजूद घास-फूस, खर-पतवार आदि निभाते हैं जो वर्षाजल को क्षैतिज प्रवाह के रूप में ऊपर-ऊपर तेजी से बह जाने में कमी करके उसके अन्तः रिसाव का कारण बनते हैं। जल जब जैविक द्रव्य तथा वनस्पतियुक्त क्षेत्र से गुजरता है तो उसकी गति नंगी भूमि पर बहने की तुलना में काफी मन्द हो जाती है और जल को भूमि की निचली सतहों में प्रवेश करने के लिये अधिक समय मिल जाता है।

वनभूमि की रंध्रता बढ़ाकर पानी सोखने की क्षमता कई गुना बढ़ाने में मिट्टी में रहने वाले केंचुए, कीड़े-मकोड़े और भूमिगत सुरंगें व बिल बनाकर रहने वाले अन्य जीव बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन जीवों द्वारा बनाए गए असंख्य भूमिगत छिद्रों नालियों व बिलों के कारण पानी सोखने के लिये उपलब्ध धरती की सतह सामान्य से कई गुना बढ़ जाती है। इन छिद्रों के कारण बने खोखले स्थानों में भी काफी मात्रा में पानी जमा हो जाता है और लम्बे समय तक धीरे-धीरे भीतर रिसता रहता है।

सघन वनों में भूमि की ऊपरी सतह पर जैविक द्रव्य तथा ह्यूमस की मात्रा विरल वनों से काफी अधिक होती है जो रन्ध्र युक्त होने के कारण जल को सोख्ता कागज (blotting paper) जैसे पानी सोखने की अद्भुत क्षमता से युक्त होता है। ह्यूमस के कारण वनभूमि की ऊपरी सतह की पारगम्यता और जल को रोककर रखने की क्षमता काफी अधिक हो जाती है जिसके कारण यह जल धीरे-धीरे रिस-रिसकर भूमि की निचली सतहों में लम्बे समय तक जाता रहता है और भूजल भण्डारों को समृद्ध करता रहता है।

भूजल स्तर पर वनस्पति आवरण का प्रभाव


वनस्पति आवरण भूजल स्तर को कई तरीकों से प्रभावित करता है। इनमें से मुख्य प्रभाव निम्नानुसार हैं :-

1. वनस्पति आवरण का छत्र वर्षाजल के कुछ भाग को सतही वाष्पन द्वारा वातावरण में लौटा देता है जबकि शेष जल वृक्षों/पौधों की शाखाओं व तने की सतह पर स्तम्भ प्रवाह की पतली धाराओं के रूप में बहते हुए या फिर छत्र से टपक-टपककर भूमि तक पहुँच जाता है।

2. वन के धरातल पर गिरी पत्तियों, टहनियों, छाल, फल-फूल आदि का सूखता-सड़ता कचरा रंध्रयुक्त होने से नंगी जमीन के मुकाबले पानी को अधिक देर तक रोककर रखता है और उसका अन्तः रिसाव बढ़ाने में मदद करता है।

3. वृक्षों की जड़ें अपारगम्य कड़क मिट्टियों में पानी के नीचे जाने के लिये रास्ता बना देती हैं जिससे भूजल पुनर्भरण को बढ़ावा मिलता है।

4. असन्तृप्त मिट्टी वाली जमीन में सोखे गये पानी में से पौधों की जड़ें वाष्पोत्सर्जन द्वारा पानी वापस खींचकर भूजल भण्डार तक पहुँच पाने वाले पानी की मात्रा घटा भी देती हैं।

वनस्पतियों और भूजल का पारस्परिक सम्बन्ध


जल की मात्रा और गुणवत्ता दोनों ही किसी क्षेत्र विशेष में उगने वाली वनस्पतियों को प्रभावित भी करती हैं और उससे खुद भी प्रभावित होती है। आधुनिक वैज्ञानिक मानते हैं कि किसी क्षेत्र में भूजल का स्तर न केवल पानी की उपलब्धता बल्कि मिट्टी के विभिन्न स्तरों में मौजूद अलग-अलग खनिज व अन्य आवश्यक तत्वों के घुल जाने से जल की गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है। खनिज आदि के घुल जाने से पानी की प्रकृति में होने वाला बदलाव यह तय करने में भूमिका निभाता है कि वह क्षेत्र किन पौधों के लिये अधिक अनुकूल है और वहाँ कौन से पेड़-पौधे अधिक संख्या में उगेंगे। इसी कारण हम देखते हैं कि नदियों के किनारे दलदली या काफी समय तक जलमग्न रहने वाली जमीनों पर कुछ अलग किस्म के पेड़-पौधे अधिक विकसित हो जाते हैं। इसी को आधार बनाकर समय-समय पर विद्वानों ने पौधों और भूजल के बीच सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिशें की हैं और विशिष्ट प्रजातियों के वृक्षों, झाड़ियों आदि को देखकर भूजल के बारे में अनुमान लगाए गए हैं।

प्राचीन भारत का भूजल विज्ञान-वराहमिहिर के अनुसार भूजल सूचक पौधे


यद्यपि आधुनिक वैज्ञानिक इस विषय पर शोध कर रहे हैं परन्तु अभी तक किसी खास वृक्ष प्रजाति को देखकर भूजल की उपलब्धता की गहराई और उसकी गुणवत्ता की भविष्यवाणी कर पाने के कोई सटीक आधार नहीं खोजे जा सके हैं। प्राचीन भारत में यह विज्ञान अत्यन्त विकसित था। इसका प्रमाण छठी शताब्दी में सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक, महान विद्वान वराहमिहिर के प्रसिद्ध ग्रंथ वृहत्संहिता में मिलता है।

इस ग्रंथ के एक खण्ड- ‘दकार्गलाध्याय’ में पौधों और जल के पारस्परिक सम्बन्ध पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। दर्कागाल का अर्थ पानी की किल्लोल करती हुई धारा होता है। वृहत्संहिता में वृक्ष की प्रजाति को देखकर यहाँ तक अनुमान लगाए गए हैं कि उससे कितनी दूरी पर और कितनी गहराई पर कैसा और कितना पानी मिलेगा? वृहत्संहिता के दकार्गलाध्याय में वर्णन है कि जिस तरह मनुष्यों के अंगों में नाड़ी और शिराएँ होती हैं उसी तरह भूमि की सतह के नीचे भी जल की ऊँची-नीची शिराएँ हुआ करती हैं।

भूमि की सतह के नीचे मौजूद इन जल शिराओं की स्थिति का ज्ञान होने से भूजल की प्रकृति और मात्रा का ज्ञान हो सकता है। वृहत्संहिता के इस अध्याय में भूमि पर खड़े अनेक वृक्षों की प्रजातियों के माध्यम से भूजल का पता लगाने के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है जिसमें जमीन पर खड़े वृक्षों की प्रजाति अथवा अन्य वृक्षों के साथ सहजात उपस्थिति देखकर उस स्थान पर भूजल की गहराई और प्रकृति के बारे में विस्तृत अनुमान लगाए हैं।

उदाहरण के लिये कहा गया है कि जामुन के वृक्ष से 2 पुरुष (15 फीट) नीचे, गूलर के वृक्ष से ढाई पुरुष (183/4 फीट), बेर के वृक्ष से 3 पुरुष (221/2 फीट), शोणाक इस प्रकार विभीतक (बहेड़ा) के वृक्ष से साढ़े पाँच पुरुष (411/1 फीट) नीचे कोविदारक (सप्तपर्ण), वृक्ष के 5 पुरुष (371/2 फीट) नीचे जल मिलता है। इसी प्रकार की गणना अन्य अनेक प्रजातियों की वनस्पतियों के बारे में की गई है।

भारत में अनेक नगरों में स्वयं को दूसरों से अधिक स्मार्ट दिखाने की होड़ सी लगी हुई है। स्मार्ट सिटी योजना भारत सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई है जिसमें चयनित 100 नगरों को आधुनिकतम सुविधाओं से लैस किया जाएगा। परन्तु हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि सरकारी योजना कुछ भी हो, सबसे स्मार्ट सिटी या गाँव वही होंगे जो आने वाले दशकों में पानी के मामले में आत्मनिर्भर होंगे। अपने जलस्रोतों को रासायनिक उर्वरकों और जहरीले कीटनाशकों से विषाक्त कर उन्हें फिर पेयजल के भण्डार के रूप में उपयोग करना कितना स्मार्ट कहा जा सकता है, यह विचारणीय है।विभिन्न प्रकार के वृक्षों अथवा वृक्ष समूहों के समीप कितनी गहराई में कैसा पानी मिलेगा यह अनुमान लगाने के लिये जिन अतिरिक्त लक्षणों का उल्लेख बृहत्संहिता में मिलता है उसे देखकर इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि वन और जल के रिश्ते का यह विज्ञान वराहमिहिर के काल में काफी उन्नत हो चला था। दुर्भाग्य से यह परम्परागत विशिष्ट ज्ञान सहेजकर रखा नहीं गया और समय के साथ इसका परीक्षण, परिमार्जन नहीं हो सका अतः यह उपयोगी और विलक्षण ज्ञान एक लुप्तप्रायः प्राचीन विद्या जैसा बनकर रह गया। आचार्य वराहमिहिर द्वारा वृक्षों को देखकर भूजल का ज्ञान कराने वाली दकार्गल विद्या को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से देखने और बारीकी से अध्ययन करने की आवश्यकता है।

बाढ़ की तीव्रता नियंत्रण में वनों की भूमिका


बाढ़ नियंत्रण में वनों की भूमिका को लेकर वैज्ञानिक समुदाय एकमत नहीं है। यद्यपि मानसून के दौरान होने वाली लम्बी और तेज बारिश के कारण आने वाली विकराल बाढ़ों पर वनों के होने-न-होने का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु हल्की बारिश में बाढ़ और जल आप्लावन को नियंत्रित करने में भी वनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। वन धरातल स्पंज की भाँति जल सोखकर पानी के बहाव को थाम लेता है अतः वनभूमि के जल से सन्तृप्त होने तक बाढ़ की भयावहता को कम करने में वन सीमित भूमिका अवश्य निभाते हैं। वैज्ञानिक मान्यता यह है कि एक बार भूमि के जल-सन्तृप्त हो चुकने के बाद आने वाली बाढ़ वन आवरण से प्रभावित नहीं होती।

स्मार्ट सिटी के दौर में वनों द्वारा पेयजल स्रोतों का शुद्धिकरण


यह स्मार्ट सिटी का दौर है। भारत में अनेक नगरों में स्वयं को दूसरों से अधिक स्मार्ट दिखाने की होड़ सी लगी हुई है। स्मार्ट सिटी योजना भारत सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई है जिसमें चयनित 100 नगरों को आधुनिकतम सुविधाओं से लैस किया जाएगा। परन्तु हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि सरकारी योजना कुछ भी हो, सबसे स्मार्ट सिटी या गाँव वही होंगे जो आने वाले दशकों में पानी के मामले में आत्मनिर्भर होंगे। अपने जलस्रोतों को रासायनिक उर्वरकों और जहरीले कीटनाशकों से विषाक्त कर उन्हें फिर पेयजल के भण्डार के रूप में उपयोग करना कितना स्मार्ट कहा जा सकता है, यह विचारणीय है। अतः लेखक का यह दृढ़ विचार है कि स्मार्ट सिटी की दौड़ में सबसे आगे उन्हीं नगरों को मौका मिलना चाहिए जो अपने पेयजल स्रोतों का स्मार्ट प्रबन्धन करने के लिये अग्रसर हों। कई पश्चिमी देशों की भाँति ही जलस्रोतों के जलग्रहण क्षेत्र में सघन वृक्षारोपण और घने प्राकृतिक वनों के माध्यम से अपने पेयजल स्रोतों को साफ रखना स्मार्ट सिटी का एक महत्त्वपूर्ण घटक हो सकता है।

साफ पानी पैदा करने की वनों की क्षमता के बारे में ज्यादातर वैज्ञानिक सहमत हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के ओरेगॉन राज्य के ‘पर्यावरण की दशा पर प्रतिवेदन - वर्ष 2000’ (State of Environment Report - 2000) में वैज्ञानिकों द्वारा किये गए गहन शोध के आधार पर बताया गया है कि राज्य में वनों से ढँकी हुई भूमि से आने वाले जल में से 50 प्रतिशत से अधिक उत्कृष्ट से उत्तम श्रेणी का पाया गया जबकि खेतों से होकर आने वाले जल में से 20 प्रतिशत से भी कम उत्तम गुणवत्ता का पाया गया।

शहरी क्षेत्रों से आने वाले जल में तो अच्छी गुणवत्ता का प्रतिशत इससे भी कम पाया गया। यह स्थिति पूरे राज्य में पाई गई। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पेयजल प्रदाय करने वाले जलस्रोतों के इर्द-गिर्द वनों के संरक्षण से पेयजल उपचारण पर अपेक्षाकृत काफी कम खर्च करना पड़ता है जिससे राज्य की काफी धनराशि की बचत होती है।

इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि राज्य में सम्पन्न किये गए अध्ययनों से इस बात के संकेत मिले हैं कि यदि जलस्रोतों के इर्द-गिर्द वन न हों तो यांत्रिक अथवा रासायनिक उपचार द्वारा जल के शुद्धिकरण पर किये जाने वाले व्यय में काफी अधिक बढ़ोत्तरी सम्भावित है। कई क्षेत्रों में किये गए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि भारी धातुओं और हानिकारक रासायनिक तत्वों के जलधाराओं में मिल जाने से जो प्रदूषण होता है उसे रोकने में वनों की विशेष भूमिका है। इन सभी प्रयोगों से वन बफर के कारण जल के शुद्धिकरण की पुष्टि होती है। इन प्रयोगों ने ये भी संकेत दिये हैं कि वन बफर के माध्यम से जलस्रोतों का शुद्धिकरण एक कम खर्चीला और अधिक सुविधाजनक तरीका है।

इकावारिया और लॉकमेन (1999) ने अध्ययनों के आधार पर दावा किया है कि न्यूयॉर्क शहर के जलग्रहण क्षेत्र के उपचार और सुप्रबन्धन पर यदि एक अरब अमेरिकी डॉलर का व्यय किया जाये तो अगले दस वर्षों में शहर के जल उपचारण के लिये बनाए जाने वाले संयंत्रों पर आने वाले खर्च में लगभग 4 से 6 अरब अमेरिकी डॉलर की बचत की जा सकती है। वर्ष 2002 में अमेरिका में 27 जल प्रदाय संस्थानों पर किये गए अध्ययन में पाया गया कि खुले में जलस्रोतों से पेयजल प्रदाय करने में उपचारण व्यय का जलग्रहण क्षेत्रों में वनों की मौजूदगी में सीधा सम्बन्ध है। अमेरिकन वॉटर वर्क्स एसोसिएशन द्वारा कराए गए इस अध्ययन में पाया गया कि जलस्रोत के जलागम में वन आवरण में प्रत्येक 10 प्रतिशत वृद्धि होने पर (60 प्रतिशत तक) उपचारण लागत में लगभग 20 प्रतिशत तक कमी आ जाती है। इस अध्ययन के निष्कर्ष तालिका 3.1 में दिये गए हैं।

 

तालिका 3.1


वनों से जल उपचारण खर्च में कम

जलागम क्षेत्र में वनों का प्रतिशत

रासायनिक उपचारण व्यय प्रति मि. गैलन (यू.एस. डॉलर)

उपचारण व्यय में कमी का प्रतिशत

10

$ 115

19

20

$ 93

20

30

$ 73

21

40

$ 58

21

50

$ 46

21

60

$ 37

19

स्रोत : Opflow, Vol-30, No. 5, May 2004, American Waterworks Association

 

कई वैज्ञानिकों ने अध्ययनों में यह पाया है कि जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्र में अच्छे और सुप्रबन्धित वन होने पर जलाशयों के जल उपचार पर बहुत कम व्यय करना पड़ता है। जल के शुद्धिकरण में वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए अनेक देशों में महानगरपालिकाएँ अब जल उपचारण पर अपने खर्चे कम करने के लिये पेयजल स्रोत के जलग्रहण क्षेत्र में वन आवरण बढ़ाने के उपायों पर काम कर रही हैं।

लागत-लाभ की दृष्टि से विकासशील देशों के लिये पेयजल स्रोतों की शुद्धि के लिये यांत्रिक अथवा रासायनिक पद्धतियाँ अपनाने की बजाय पेयजल स्रोतों के निकट वन बफर अधिक कारगर साबित हो सकते हैं क्योंकि इनमें प्रदूषक तत्वों को पौधों के ऊतक सोख लेते हैं या मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीव उन्हें हानि रहित तत्वों में बदल देते हैं। इस प्रकार बहुत कम खर्च में जनता को पीने का साफ पानी उपलब्ध कराने की व्यवस्था हो सकती है।

सौभाग्य से इस पुस्तक के लेखक को वर्ष 2014 में संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयॉर्क महानगर की पेयजल शुद्धिकरण के लिये वनों के प्रबन्धन का जनभागीदारी आधारित मॉडल देखने और वहाँ के लोगों से प्रत्यक्ष चर्चा का अवसर मिला। अमेरिका के कैट्सकिल और डेलावायर जलाशयों से न्यूयॉर्क महानगर को जल प्रदाय करने के लिये इन जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्रों में ‘वाटरशेड एग्रीकल्चर काउन्सिल’ व इसके साथ जुड़ी अनेक संस्थाएँ व लोग मिलकर इन जलाशयों के जल को साफ रखने के लिये जलग्रहण क्षेत्र के वनों को सुप्रबन्धित करते हैं।

यह अनुकरणीय उदाहरण अन्य कई देशों ने भी अपनाना प्रारम्भ कर दिया है जिसके फलस्वरूप अब सियोल, टोक्यो, बीजिंग, म्यूनिख, सिडनी, मेलबॉर्न, स्टॉकहोम, साल्वाडोर आदि महानगरों में पेयजल शुद्धिकरण तंत्र में रासायनिक और यांत्रिक विधियों के साथ-साथ वन प्रबंधन के घटक पर भी ध्यान देना शुरू किया गया है।

इन्दौर महानगर को नर्मदा जल भेजने वाले इलाकों के खेतों की पड़ताल


विगत कुछ दशकों में खेती में विषैले रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग की मात्रा अन्य सभी क्षेत्रों की भाँति ही नर्मदा घाटी में भी क्रमशः बढ़ती ही गई है। खेतों में डाली जा रही उर्वरकों व घातक रासायनिक कीटनाशकों की इस मात्रा में से काफी मात्रा वर्षा के पानी और मिट्टी के साथ मिलकर नदी-नालों के माध्यम से होते हुए नर्मदा में पहुँचती है और पानी को खराब करती है।

इसी सिलसिले में इन्दौर महानगर को नर्मदा जल भेजने वाले खरगौन जिले के ‘जलूद इनटेक वेल’ के जलागम क्षेत्र में पड़ने वाले इलाकों के खेतों में रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के उपयोग का स्तर ज्ञात करने के लिये वन विभाग द्वारा वर्ष 2014 में खरगोन जिले की बड़वाह व महेश्वर तहसीलों के 136 गाँवों में एक प्रारम्भिक पड़ताल की गई। इन्दौर के पेयजल की गुणवत्ता को खराब करने की क्षमता रखने वाले इस अंचल में वन विभाग विभाग बड़वाह द्वारा विभाग के सैकड़ों मैदानी कर्मचारियों की मदद से कराए गए।

वर्षा से प्राप्त जल को भूमि में सोखने और जलधाराओं में प्रवाह बनाए रखने की भूमिका वन अपनी विशिष्ट संरचना के कारण ही निभा पाते हैं। जंगल एक विशाल शामियाने जैसी भूमिका निभाते हुए वर्षा के पानी की बौछार को अपने ऊपर झेल लेता है और बहते हुए पानी के वेग को कम करके उसे जमीन की निचली सतहों में उतारने में मदद करता है। वनों का यह गुण हिमविहीन नदियों के प्रवाह को मानसून के बाद भी निरन्तर जारी रखने में काम आता है। वर्षापूरित नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के मामले में भी यह तथ्य अत्यन्त प्रासंगिक है।इस अध्ययन में वनमण्डल के 6 वन परिक्षेत्रों बड़वाह, काटकूट, सनावद, मण्डलेश्वर, पाडल्या और बलवाड़ा के 136 गाँवों में किसानों से व्यक्तिगत साक्षात्कार, घर-घर सर्वेक्षण, समूह चर्चाओं, खाद, विक्रेताओं के यहाँ की गई पूछताछ एवं अन्य स्रोतों से प्राप्त विवरण के आधार पर इस बात का मोटा आकलन करने का प्रयास किया गया कि इन्दौर महानगर के जल प्रदाय से जुड़े क्षेत्र में वनों की दशा कैसी है और जल की गुणवत्ता का क्या हाल है? इस सर्वेक्षण में 136 गाँवों में 45,261.859 हेक्टेयर भूमि पर की जा रही खेती में प्रतिवर्ष औसतन लगभग 5,667 टन यूरिया, 4,110 टन डी.ए.पी., 2,812 टन पोटाश, 3,288 टन सुपर फास्फेट और 735 टन एन.पी.के. जैसे रासायनिक उर्वरकों तथा 1,64,265 लीटर खतरनाक कीटनाशकों व खरपतवार नाशकों का उपयोग किया जाना पाया गया।

सर्वेक्षण क्षेत्र में उपयोग किये जा रहे घातक विषैले कीटनाशकों में मोनोक्रोटोफॉस, क्लोरोपाइरीफॉस, पोलो, बेगासस, स्पार्क, होस्टेथियॉन, रोगोर और कान्फीडोर जैसे घातक कीटनाशक सम्मिलित हैं। इसमें से कितनी मात्रा में फसलों में सीधी खपत होती है और कितनी मिट्टी में रहकर बाद में नालों के जरिए पानी के साथ नर्मदा में पहुँचती है, इसका बारीक अध्ययन अवश्य किया जाना चाहिए।

यदि इस क्षेत्र के खेतों में उर्वरकों व कीटनाशकों की उपयोग की जा रही इस बड़ी मात्रा का 10 प्रतिशत भी मिट्टी में अवशिष्ट के तौर पर बचा रहकर नालों-नदियों के अपवाह तंत्र में घुसकर नर्मदा के जल में मिल रहा हो तो इन्दौर जैसे महानगर को इसकी तुरन्त गहराई से जाँच पड़ताल करनी चाहिए वरना इसके दुष्प्रभावों का पता चलने तक काफी देर हो चुकी होगी। इस प्रारम्भिक सर्वेक्षण से मिली जानकारी इस बात के ठोस संकेत देती है कि बिना समुचित उपचारण के नर्मदा के जल का मानव उपयोग निरापद नहीं है।

इस दृष्टि से वन विभाग द्वारा इन्दौर तथा बड़वाह वनमण्डलों की कार्य आयोजना में वन प्रबन्धन के माध्यम से इन्दौर महानगर की पेयजल व्यवस्था के शुद्धिकरण का घटक पहली बार सम्मिलित किया गया है और क्षेत्र के वनों को बचाने के लिये उद्योग जगत की मदद से गाँवों को वन समितियों को ‘पारिस्थितिक सेवाओं के लिये भुगतान’ (Payment for Ecosystem Service-PES) की व्यवस्था पहली बार लागू की गई है। विभागीय कार्य आयोजना में वन प्रबन्धन के माध्यम से इन्दौर महानगर की पेयजल व्यवस्था के शुद्धिकरण का घटक जोड़ा जाना एक दूरगामी कदम है परन्तु इसका समुचित क्रियान्वयन ही इसके लाभ सुनिश्चित कर सकेगा।

नर्मदा अंचल के वन नर्मदा के जल की गुणवत्ता बनाए रखने में जो मूल्यवान सहयोग करते हैं उसे ध्यान में रखते हुए मध्य प्रदेश के इन्दौर, भोपाल व जबलपुर जैसे बड़े नगरों तथा अन्य अनेक नगरों सहित गुजरात के कुछ भागों को पेयजल का प्रदाय करने वाले जलग्रहण क्षेत्रों में वनों का संरक्षण, उपचार और सुप्रबन्धन करके इन शहरों के पेयजल के उपचारण के लिये बनाए जाने वाले संयंत्रों पर आने वाले खर्च में भारी बचत की जा सकती है। इसके विपरीत यदि नगरीय प्रदाय वाले जलस्रोतों के इर्द-गिर्द वन समाप्त हो जाएँ तो यांत्रिक अथवा रासायनिक उपचार द्वारा जल के शुद्धिकरण पर किये जाने वाले व्यय में काफी अधिक बढ़ोत्तरी सम्भावित है। स्मार्ट सिटी बनाने की भागमभाग में नर्मदा जल का उपयोग करने वाले नगरों को इस विषय पर गम्भीरता से सोचना चाहिए।

निष्कर्ष - हाथ कंगन को आरसी क्या?


इस अध्याय में दिये गए वैज्ञानिक विवरण से स्पष्ट है कि जंगल के रहने और नर्मदा के बहने के बीच चोली-दामन का सम्बन्ध है और वनों को नर्मदा के प्राण कहने से हमारा आशय क्या है? इस सम्बन्ध के बारे में यही कहा जा सकता है कि प्रत्यक्षं किं प्रमाणम्? हाथ कंगन को आरसी क्या? नर्मदा अंचल की नदियों में जल की मात्रा तथा पूरे वर्ष भर जमा रखने और उसका धीरे-धीरे वितरण तय करने के साथ-साथ उसे उच्च गुणवत्ता का शुद्ध जल बनाए रखने में यहाँ के वन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नर्मदा और इसकी सहायक नदियों के इर्द-गिर्द पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के वनों की जल उत्पादन और उसके शुद्धिकरण की क्षमता काफी अधिक है।

इस नजरिए से नर्मदा अंचल के वनों में पाई जाने वाली प्रमुख वृक्ष प्रजातियों की वाष्पोत्सर्जन दरों तथा मुख्य वन प्रकार की वाष्पोत्स्वेदन क्षमता की जानकारी एकत्रित करने के लिये वैज्ञानिक शोध बहुत आवश्यक है। इसी प्रकार मिट्टी के कटाव और जलाशयों में अवसादन रोकने में विभिन्न प्रकार के वनों की भूमिका पर नर्मदा घाटी के स्थानीय सन्दर्भों में वैज्ञानिक जानकारी संकलित करना जरूरी है। किस प्रकार के वनों के होने से बाँधों में गाद की मात्रा में कितनी कमी सम्भव है? कौन सी प्रजातियाँ वन भूजल के पुनर्भरण में अधिक सहायक होते हैं? इस तरह के विविध विषयों पर अनुसन्धान की आवश्यकता है ताकि उचित कदम समय रहते उठाए जा सकें और हमारे बाँध लम्बे समय तक कारगर बने रहें दीर्घायु हो सकें।

इस अध्याय में हमने अपनी चर्चा को प्रमुखतः जंगल और पानी से जुड़े वैज्ञानिक अनुसन्धानों पर केन्द्रित रखा है, लेकिन इसके अन्य विविध आयाम तथा सामाजिक-आर्थिक सरोकार भी हैं जो पूरी व्यवस्था को प्रभावित करते हैं और उन्हें समझे बिना बात पूरी नहीं हो सकती। इस पुस्तक के चंद पन्नों में हम इस बहु-आयामी विषय की पूरी थाह लेने का दावा तो नहीं कर सकते, हाँ यह प्रयास अवश्य है कि इस बारे में हमारी समझ बढ़ने और जागने तक कैसे भी जंगल बने रहें ताकि नर्मदा बहती रहे।

माँ नर्मद के प्राण तो बसते हैं जंगलों में…


हम नर्मदा नदी को बड़े अपनेपन से माँ कहते हैं और उसी रूप में पूजते हैं। परन्तु हमें यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि नर्मदा में जल गंगा-यमुना जैसी नदियों की भाँति हिमालय के बर्फीले हिमनदों के पिघलने से नहीं आता। नर्मदा घाटी में होने वाली मानसूनी वर्षा का पानी विंध्याचल और सतपुड़ा की पर्वतमालाओं में फैले वन किसी विशालकाय स्पंज की तरह सोख लेते हैं। पहाड़ों द्वारा सोखा गया बारिश का यही पानी घने वनक्षेत्रों से धीरे-धीरे रिस-रिसकर वर्ष भर नदियों में आता रहता है और सतत जल आपूर्ति बनाए रखने में बड़ी मदद करता है। इस अर्थ में नर्मदांचल के वन नर्मदा व इसकी सहायक नदियों के लिये हृदय और धमनियों की तरह काम आते हैं। इसी महत्त्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित करता हुआ गीत।

पर्वत नहीं बर्फीले, मैकल के अंचलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।
ये विन्ध्य सतपुड़ा के वन, शिव की जटाएँ हैं;
हरियाली और जल की, अनमोल छटाएँ हैं।
नदियों का वेग थाम के, पानी सहेजते हैं;
भूगर्भ के भण्डार में वन, जल को भेजते हैं।
छन्नों की तरह, नदियों से रोकते हैं मल को;
खेतों का जहर पीकर, करते हैं साफ जल को।
धाराएँ करते निर्मल, दो-चार ही पलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।

मैकलसुता के मायके में, साल की बहारें;
बाकी जगह हैं फैलीं, सागौन की कतारें।
मिश्रित वनों की, अपनी रंगीनियाँ न्यारी हैं;
मन मोह लेने वाली, छवियाँ बड़ी प्यारी हैं।
धानी कहीं है घास, कहीं फूल लाल-पीले;
कहीं ऊँचे वृक्ष पसरे, सब दृश्य हैं रंगीले।
कहीं डिग न जाय धारा, दुनिया की हलचलों में;
माँ नर्मदा के प्राण तो बसते हैं जंगलों में।

रहती हैं सदानीरा, नदियाँ हरे वनों से;
सरिताओं में जल बहता है, वनों के भरोसे।
वन तो हैं असलियत में, पानी के कारखाने;
ये बात पूरी सच है, कोई माने या न माने।
जंगल जहाँ घना है, पानी वहाँ बना है;
प्रत्यक्ष दीखता है, फिर किससे पूछना है।
बर्बाद वक्त क्यों करें, बेकार अटकलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।

इन जंगलों के कारण, रहती यहाँ नमी है;
शहरों को मिलता पानी, खेतों की तर जमीं है।
वन मिट गए तो, नर्मदा में जल नहीं बहेगा;
वन के बिना प्रवाह ये, अविरल नहीं रहेगा।
सूखा अधिक पड़ेगा, धरती रहेगी प्यासी;
बाधित विकास होगा, धरती रहेगी प्यासी;
बाधित विकास होगा, छा जाएगी उदासी।
नदियों में जल न होगा, तो आएगा क्या नलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।
पर्वत नहीं बर्फीले, मैकल के अंचलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।


प्रवाह की पवित्रता में ही नर्मदा की सार्थकता


नर्मदा को बाँधना ही नहीं उसकी पवित्रता और उसके प्रवाह को बचाए रखना भी जरूरी है। प्रवाह शिथिल हो गया तो बन्धन अर्थहीन हो जाएँगे। अनादिकाल से यह बहती रही और मध्य प्रदेश के एक बड़े भू-भाग की प्राणवाहिनी बनी रही। इसके तट पर धर्म, अर्थ, काल और मोक्ष के सभी पुरुषार्थ उपलब्ध हुए हैं। केवल अर्थ के लिये इसका जल धर्म नष्ट नहीं होना चाहिए। जलधर्म नष्ट नहीं हो इसके लिये जरूरी है कि कछार का मूल स्वरूप नष्ट नहीं हो। -महेश श्रीवास्तव, प्रणाम मध्य प्रदेश

जंगल और नदी की जुगलबन्दी


कभी नर्मदा तट पर दंडकारण्य जैसे घने जंगलों की भरमार थी। इन्हीं जंगलों के कारण वैदिक आर्य तो नर्मदा तक पहुँचे ही नहीं। कहाँ गए वे अरण्य? अगर बचे-खुचे वन भी कट गए तो नदियाँ बहना बन्द कर देंगी। धरती श्री हीन हो जाएगी। जंगल और नदी की जुगलबंदी के कारण ही नदियों में बारहों माह पानी रहता है। अगर यह जुगलबंदी टूट गई तो नदियों में कंकड़-पत्थर के सिवा और कुछ न रहेगा। क्या हम ऐसी नदियाँ चाहते हैं? -अमृतलाल वेगड़

नदी हमेशा नई रहती है, बहा पानी लौटकर नहीं आता, जंगल नदी के पालक पिता और उसकी आत्मा होते हैं जो हर क्षण नदी को जन्म देते रहते हैं। आत्मा ही कमजोर हो गई तो आत्मजा कैसे सशक्त रहेगी? बिजली कैसे बनेगी और सिंचाई कैसे होगी? नर्मदा घाटी विकास योजनाओं की सफलता और जीवन के लिये नर्मदा का स्वस्थ जीवन और नर्मदा के स्वस्थ जीवन के लिये जंगलों का मस्त जीवन जरूरी है। -महेश श्रीवास्तव, प्रणाम मध्य प्रदेश

हम वन-विनाश के कगार पर खड़े हैं।… नर्मदा मेकलसुता है तो वनसुता भी है। वन ही वर्षा के पानी को रोककर रखता है (हर पेड़ एक छोटा-मोटा चेकडैम है) ताकि पानी जमीन के अन्दर जाये और गाढ़े समय में भूजल के रूप में हमारी सहायता करे। अगर वन नहीं रहेंगे तो नर्मदा भूखी-प्यासी रह जाएगी और एक दिन दम तोड़ देगी। -अमृतलाल वेगड़

नर्मदा और उसकी सहायक नदियों में जलागमन पहाड़ों के भीतर संचित वर्षाजल के माध्यम से ही होता है और पहाड़ों में पर्याप्त जल संचय में वनों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अतः हम कह सकते हैं कि जीवनदायिनी नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के जीवनदाता ये वन ही हैं। वन कम होंगे तो पहाड़ों में जल संग्रह कम होगा। परिणाम नर्मदा की कई सहायक नदियों को देखकर समझा जा सकता है जो मानसून के तीन चार महीनों बाद ही सूख जाती हैं। वन समाप्त हुए तो नर्मदा भी सदानीरा कैसे रह सकेगी। वनस्पति आवरण को सुरक्षित रखना और विकसित करना एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। जीवनदायिनी के जीवनदाता को स्वस्थ जीवन देना बेहद जरूरी है। -महेश श्रीवास्तव, वरदा नर्मदा

वन के वंदनवार से बूँदों की मनुहार


घने जंगल में पानी की बूँदें पहले वृक्षों की पत्तियों तथा तनों, डालियों, झाड़ियों आदि से टकराती हैं। इस टकराहट से इन बूँदों का आकार और गति कम होती है। जमीन पर इन बूँदों को सीधे पहुँचने के पहले अनेक ‘बेरीकेट्स’ का सामना करना पड़ता है। वृक्ष की पत्तियों से मुलाकात करती हुई जब ये बूँदें नीचे धरती पर पहुँचती हैं, तो घास के तिनके इनके स्वागत में हाथ में वंदनवार लिये खड़े होते हैं। यानी यहाँ भी एकदम सीधे मिट्टी से इनका सम्पर्क नहीं हो पाता है। ...बरसात की ये बूँदें अहिस्ता-अहिस्ता जमीन में समाती जाती हैं। यदि जंगल घना है जो बरसात कितनी ही तेज क्यों न हो बूँदें तो अपनी गति इन अवरोधों के बहाने कम करती हुई मिट्टी के कणों के सामने बड़ी अदब से पेश आती हैं। जब मिट्टी से इन बूँदों का सम्पर्क होता है तो जमीन की ऊपरी सतह पर मौजूद घास, बेलें और झाड़ियों की जड़ें इन्हें बहने से रोकते हुए जमीन के भीतर जाने की मनुहार करती हैं। बूँदें ये मनुहार स्वीकार करती हुई बड़े पेड़ों की जड़ों के आस-पास से होती हुई, जमीन के भीतर… और भीतर समाती जाती हैं। नीचे गई बूँदें काफी समय बाद तक तलहटी के खेतों में नमी बनाए रखती हैं। यही बूँदें आस-पास के कुओं में जाकर वहाँ के जलस्तर को ऊपर उठा देती हैं। -क्रांति चतुर्वेदी, बूँदों की मनुहार

यदि वृक्ष नहीं बचे, जंगल नहीं बचा तो नर्मदा कहाँ से बचेगी और नर्मदा ही नहीं बची या तन्वंगी होकर रह गई तो परियोजनाएँ कैसे चलेंगी। नर्मदा घाटी योजनाओं की पूर्णता तभी धरती को हिरण्यमयी बना सकेंगी जब सारी घाटी हरीतिमा से ढँकी होगी। -महेश श्रीवास्तव, प्रणाम मध्य प्रदेश

वनों की प्रबन्धन योजनाओं में जल संरक्षण पर ध्यान दिया जाय


जल उत्पादकता बढ़ाने वाला एक महत्त्वपूर्ण कारक है और नदी नालों में जल के प्रवाह की निरन्तरता बनाए रखकर सिंचाई, पेयजल और उद्योग के लिये जल उपलब्ध कराने में वन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अतः वनों और चारागाहों के प्रबन्धन में जल संरक्षण एक प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए। जल संरक्षण वनों की प्रबन्धन योजनाओं/कार्य आयोजनाओं का प्रमुख अंग होना चाहिए और इसके लिये पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए। -राष्ट्रीय वन आयोग (2006)

बेशक वरदा, प्राणदा है नर्मदा। किन्तु प्राणियों को प्राण और जीवन को गान देने वाली नदी का प्रवाह घटा और दोहन बढ़ा है, जंगल कटे और प्राणी बढ़े हैं। विभूषित नदी दूषित हो रही है। प्राणदा के प्राणों पर बन आई है। हमें यह जानना होगा कि नर्मदा है तो हम हैं और वन हैं तो नर्मदा है। नर्मदा है तो अन्न है, धन है, प्रकाश है, जीवन है। -महेश श्रीवास्तव, वरदा नर्मदा

नर्मदा ‘न मृता तेन नर्मदा’ के विशेषण से विभूषित रहे इसके उपाय हमें करना और इसी क्षण से प्राणप्रण से करना है। हमारे होने के लिये नर्मदा का अपने वैभव में होना जरूरी है। -महेश श्रीवास्तव, वरदा नर्मदा

 

पारिस्थितिक सेवाओं के लिये भुगतान


जलूद से उद्वहन करके वांचू प्वाइन्ट होते हुए इन्दौर महानगर को प्रदाय किये जा रहे के पेयजल के प्राकृतिक शुद्धिकरण में बड़वाह और इन्दौर वनमण्डल के वन प्राकृतिक रूप से काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चोरल घाट के जंगलों और विंध्य पहाड़ियों के दक्षिणी ढलानों में मौजूद वन इन्दौर की पेयजल व्यवस्था के प्राकृतिक शुद्धिकरण के नजरिए से महत्त्वपूर्ण हैं। अतः इन वनों को बचाने में इन्दौर उद्योग जगत को जोड़ने के प्रयास वन विभाग द्वारा किये गए। इसके अन्तर्गत वर्ष 2015 में बड़वाह वनमण्डल के 2 गाँवों में वन समितियों को वन सुरक्षा के एवज में इन्दौर के उद्योग जगत से जुड़ी 2 कम्पनियों साइन्टेक इको फाउंडेशन द्वारा रु. 227040 तथा आर्टिसन एग्रोटेक प्रा.लि. द्वारा रु. 211700 के अग्रिम चेक देकर वन समितियों के ग्रामीणों को पारिस्थितिक सेवाओं के लिये भुगतान (Payment for Ecosystem Service-PES) करने की व्यवस्था प्रायोगिक तौर पर पहली बार लागू की गई है। इस तरह के प्रयोग बड़े पैमाने पर और संस्थागत तौर पर ‘कारपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ के अन्तर्गत करने की आवश्यकता है।

 

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