नर्मदा-क्षिप्रा जोड़ क्यों नहीं

शासन की एक ऐसी अधिकृत प्रेस विज्ञप्ति भी सामने आई है, जिसमें दावा तो यहाँ तक है कि इस परियोजना के जरिए नर्मदा जल को इलाहाबाद की गंगा में भी मिलाया जाएगा।

मरती-सूखती क्षिप्रा को बचाने के लिए नर्मदा से पानी लाकर डाला जा रहा है। नदी-जोड़ के इस प्रयोग का नाम नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना रखा गया है। देश में नदी-जोड़ के नाम पर चल रही कई योजनाओं में से यह एक है। इस योजना में यह दावा है कि क्षिप्रा को नई जिन्दगी तो मिलेगी ही, साथ ही मालवा को रोज-रोज के जल-संकट से मुक्ति मिलेगी।

वर्ष 2012 के अन्त में शुरू हुई परियोजना 26 फरवरी 2014 को पूरा हुई। तमाम मन्त्रियों, अधिकारियों और बड़े जनसमूह के सामने भाजपा नेता और पूर्व उपप्रधानमन्त्री लालकृष्ण आडवाणी ने नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना का शुभारम्भ किया। मध्य प्रदेश सरकार इसे ‘पूरा हुई’ देश की पहली नदी जोड़ परियोजना होने का दावा कर रही है।

असम्भव को सम्भव करने का दावा करते हुए प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान कहते हैं कि इस परियोजना से जहाँ क्षिप्रा को नया जीवन मिलेगा; वहीं सम्पूर्ण मालवा क्षेत्र का भरपूर पानी मिलेगा। प्रथम चरण में ओंकारेश्वर परियोजना से नर्मदा जल क्षिप्रा में प्रवाहित किया जाएगा।

इससे उज्जैन और देवास शहर सहित 250 गाँवों को पेयजल भी उपलब्ध होगा। साथ ही सिंहस्थ-कुम्भ मेला क्षेत्र, सैकड़ों गाँवों को सिंचाई तथा उज्जैन, देवास व पीथमपुर के औद्योगिक क्षेत्र को भी जलापूर्ति की जाएगी। आगामी चरणों में गम्भीर नदी, कालीसिन्ध और पार्वती आदि संकटग्रस्त नदियों में भी नर्मदा-जल डाला जाएगा, जिससे मालवा की ये नदियाँ भी प्रवाहमान बनें।

मालवा के 70 नगरों और 3000 गाँवों को पेयजल सहित 17 लाख एकड़ में सिंचाई तथा सम्पूर्ण मालवा के उद्योगों को जलापूर्ति प्रस्तावित है। शासन की एक ऐसी अधिकृत प्रेस विज्ञप्ति भी सामने आई है, जिसमें दावा तो यहाँ तक है कि इस परियोजना के जरिए नर्मदा जल को इलाहाबाद की गंगा में भी मिलाया जाएगा।

परियोजना के प्रथम चरण में करीब 400 करोड़ की लागत से 47 किलोमीटर लम्बी पाइप लाइन के माध्यम से, ओंकारेश्वर परियोजना के छोटे सिसलिया तालाब से, 5 क्यूसेक अर्थात् 5000 लीटर प्रति सेकेण्ड की दर से, 2250 किलोवाट के 18 पम्पों के माध्यम से, 27.5 मेगावाट विद्युत की खपत कर, 348 मीटर की ऊँचाई पर स्थित क्षिप्रा के उद्गम उज्जैनी ग्राम तक, प्रतिदिन तीन लाख 60 हज़ार घन मीटर नर्मदा जल पहुँचाया जाएगा।

नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना में कई मूलभूत कमियाँ
.लेकिन सम्पूर्ण परियोजना में कई-कई मूलभूत कमियाँ हैं। यह परियोजना गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की नकल करने के प्रयास की कोशिश है। दरअसल गुजरात में नर्मदा जल को सूखी साबरमती में डाला गया है। परन्तु साबरमती में नर्मदा के पानी डालने का काम गुरुत्वीय प्रवाह से हो रहा है, जबकि नर्मदा-क्षिप्रा लिंक परियोजना में चार जगह पम्पिंग स्टेशनों के माध्यम से लिफ्ट किया जा रहा है।

भौगोलिक नजरिये से देखें तो नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ना एकदम उल्टी गंगा बहाने की हिमाकत है। स्वाभाविक है, चार स्टेज की पम्पिंग और 115 किलोमीटर की यात्रा के बाद ‘लीकेज-लॉस’ से पहुँचने वाले पानी की मात्रा में भारी कमी आएगी। साथ ही सूखी क्षिप्रा और सूखे भूमिगत जलस्रोतों की प्यास बुझने के बाद, आम आदमी तक कितना पानी पहुँचेगा, यह तो वक्त ही बताएगा।

लिफ्ट करके नर्मदा के पानी को मालवा के पठार पर 348 मीटर की ऊँचाई पर क्षिप्रा उद्गम-स्थल उज्जैनी गाँव तक पहुँचाने की प्रक्रिया में भारी मात्रा में बिजली की खपत भी होगी। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अनुसार चार स्टेज की पम्पिंग स्टेशनों को चलाने के लिए 27.5 मेगावाट बिजली की जरूरत होगी। जिस पर वर्ष 2012 की दर से 118.92 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष का खर्च आएगा अर्थात् पानी की कीमत 24 रुपया प्रति हज़ार लीटर होगी।

अगर रख-रखाव, कर्मचारी भुगतान, जल रिसाव जैसे अन्यान्य खर्चों को भी जोड़ दें तो पानी की कीमत 48 रुपया प्रति हज़ार लीटर होने का अनुमान है। जबकि मध्य प्रदेश में तो यह मात्र 2 रुपया प्रति हज़ार लीटर है। इसके अलावा परियोजना प्रतिवेदन में यह स्पष्ट नहीं है कि बिजली बिल के भुगतान के लिये इतनी बड़ी राशि नियमित रूप से कहाँ से आएगी? जबकि इसमें इस परियोजना की 432 करोड़ की शुरुआती लागत और ओंकारेश्वर परियोजना की लागत को नहीं जोड़ा गया है।

परियोजना के पहले चरण में देवास, उज्जैन, शहरों सहित 250 गाँवों को पेयजल, सिंचाई तथा उज्जैन, देवास व पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र को जलापूर्ति के साथ भूमिगत जलस्रोतों के रीचार्ज का लक्ष्य रखा गया है। योजनाकारों के अनुसार उपरोक्त क्षेत्रों के लिये जल की जरूरत, परियोजना द्वारा प्रस्तावित मात्रा से कई गुना ज्यादा है। उपरोक्त क्षेत्रों में जल की वर्तमान खपत का आँकड़ा देखें तो यह मात्रा ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान है। परियोजना प्रतिवेदन में यह भी स्पष्ट नहीं है कि जो स्थान क्षिप्रा नदी से दूर बसे हैं, वहाँ तक पानी कैसे जाएगा?

परियोजना के लिये शासन ने ना तो कोई सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया और ना ही कोई कानूनी पर्यावरणीय मंजूरी ली। पेयजल परियोजना में किसी भी पर्यावरणीय मंजूरी की अवश्यकता ना होने वाली कानूनी खामियों का फायदा उठाते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने परियोजना के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों को नज़र-अन्दाज़ किया है।

मालवा की नदियाँ खान, गम्भीर, क्षिप्रा, कालीसिन्ध, पार्वती आदि सदानीरा नदियों की दुर्दशा की वजह अत्यधिक दोहन और खराब व्यवहार है, तो कहीं वही व्यवहार नर्मदा को न सूखा दे। आज मालवा की नदियों को जिन्दा करने के लिए नर्मदा का पानी डाल-डाल के कोशिश की जा रही है। पर नर्मदा जब सूखने लगेगी तो उसको जीवित करने के लिए किस नदी का पानी लाया जाएगा?

नदी जोड़ परियोजना का खास सिद्धान्त है कि किसी भी ज्यादा पानी वाली नदी का पानी किसी दूसरी नदी में तभी डाला जा सकता है, जब उस नदी में अपने इलाके के लोगों की आवश्यकता से अधिक पानी उपलब्ध हो। पर नर्मदा ही अब संकट में है। नर्मदा में जलप्रवाह घटता जा रहा है। अमरीका स्थित ‘वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट’ ने नर्मदा को दुनिया की 6 सबसे संकटग्रस्त नदियों में माना है। दस-बीस सालों में नर्मदा घाटी की आबादी बढ़कर 5 करोड़ हो जाएगी। मतलब यह है कि नर्मदा घाटी की जरूरतें ही जब बढ़ रही हों, तो कब-तक नर्मदा मालवा को पानी दे पाएगी?

नदी केवल पानी नहीं होती, उसका अपना एक जीवन होता है, चरित्र होता है, प्रवाह होता है, जैविक विविधता होती है। नदी के प्रवाह में उसके भू-सांस्कृतिक क्षेत्र की मिट्टी, तापक्रम, पंचतत्व शामिल रहते हैं। जिससे उसका जीवन बढ़ता है। अगर उसमें कोई दखल दी जाती है तो नदी का चरित्र और जीवन बदल जाता है। उसके बहाव से खिलवाड़ करना नदी के जीवन से छेड़-छाड़ करने जैसा है।

अनुभव बताते हैं कि किसी भी नदी में किसी भी अप्राकृतिक बदलाव से पहले नदी बेसिन के मूलभूत पहलुओं का आवश्यक तौर पर अध्ययन होना चाहिए। खास तौर से आवाह क्षेत्र, कमाण्ड क्षेत्र विकास, प्रभावित होने वाली आबादी का सर्वे, जलाशय एवं कैनाल प्रणाली से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रवाह और मत्स्यपालन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन जरूरी है।

सम्पूर्ण पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का व्यापक आकलन होना चाहिए। नदी घाटी निर्देश (1983) में स्पष्ट कहा गया है कि प्रणाली का निरीक्षण आवश्यक है, साथ ही जल एवं लोगों के स्थानान्तरण से पैदा होने वाले पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव की भी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। सतही जल के प्रभाव से मिट्टी सिंचित हो पाएगी या नहीं? फसल प्रणाली में अचानक आने वाले बदलाव के सामाजिक आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव का भी अध्ययन आवश्यक है।

नदी में सिर्फ जल नहीं होता इसके अन्दर इसका अपना एक ईकोसिस्टम होता है। हर नदी एक अलग ईकोसिस्टम है। इन सारे ईकोसिस्टम को एक साथ जोड़ने का अर्थ होगा बेशकीमती जैव विविधताओं को सदा-सदा के लिये समाप्त कर देना। यह असर सिर्फ नदियों तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि इसके किनारे पर बसे जंगल, बस्तियों और जीव-जगत पर भी गहरा असर पड़ेगा।

देश में नदी जोड़ जैसी योजनाओं की ‘बाढ़ और जल-संरक्षण में भूमिका’ पर कोई स्वस्थ बहस नहीं हो पा रही है। हमारे देश में पुराने समय से पानी रोकने के अच्छे, सस्ते और व्यावहारिक तरीके मौजूद हैं, पर वे बहस के केन्द्र में ही नहीं हैं।

मालवा की नदियाँ सूखी क्यों?
नर्मदा-क्षिप्रा जोड़ परियोजना से मालवा की प्यास बुझेगी या नहीं और क्षिप्रा को नया जीवन मिलेगा या नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा। पर एक सवाल है कि आखिर मालवा की नदियाँ सूखी क्यों? मालवा की नदियाँ खान, गम्भीर, क्षिप्रा, कालीसिन्ध, पार्वती आदि सदानीरा नदियों की दुर्दशा की वजह अत्यधिक दोहन और खराब व्यवहार है, तो कहीं वही व्यवहार नर्मदा को न सूखा दे। आज मालवा की नदियों को जिन्दा करने के लिए नर्मदा का पानी डाल-डाल के कोशिश की जा रही है। पर नर्मदा जब सूखने लगेगी तो उसको जीवित करने के लिए किस नदी का पानी लाया जाएगा?

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