नर्मदा

‘नमामि देवि नर्मदे’ मेकलसुता महीयसी नर्मदा को रेवा नाम से भी जाना जाता है। नर्मदा भारतीय प्रायद्वीप की सबसे पुरानी, प्रमुख और भारत की पाँचवी बड़ी नदी है। विन्ध्य की उपत्यकाओं में बसा अमरकंटक एक वन प्रदेश है। जहाँ की जैव विविधता अत्यन्त समृद्ध है। नर्मदा को मध्यप्रदेश की जीवन रेखा भी कहा जाता है। जिस मिलन बिन्दु से विन्ध्य और सतपुड़ा पर्वतमालायें प्रारम्भ होती हैं, वहीं स्थल अमरकंटक है। इसे आदिकाल में मेकल कहा जाता था। जो समुद्र तल से 3500 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस नदी का उत्तरी भाग नौकायन और सिंचाई के योग्य नहीं है। मण्डला नगर को अपनी कुण्डली में घेरती हुई फिर उत्तर दिशा की ओर मुड़ जाती है। यह पश्चिमी भारत की सबसे बड़ी नदी है। इस नदी में राज्य का 19 प्रतिशत जल प्रवाहित होता है। नर्मदा को गरीबों की गंगा भी कहते हैं।

सतपुड़ा श्रेणी के पूर्वी भाग को मेकल श्रेणी या मेकल पठार कहते हैं। इसकी पूर्वी सीमा अर्धचन्द्राकरार है जो उत्तर से दक्षिण की ओर फैली है, यह मेकल श्रेणी है जो पश्चिम की ओर प्रपाती कगार द्वारा मेकल के पठार पर समाप्त होती है। इस पठार का विस्तृत भाग 600 मीटर ऊँचा है। घाटियाँ अपेक्षया अधिक नीची हैं, यह प्रदेश भी सघन वनों से ढँका है तथा अनेक छोटी-छोटी नदियों ने छिछली घाटियाँ बना ली हैं। स्कंद पुराण में वर्णित है कि राजा-हिरण्यतेजा ने चौदह हजार दिव्य वर्षों की घोर तपस्या से शिव भगवान को प्रसन्न करके नर्मदा जी को पृथ्वी तल पर आने के लिए वर माँगा। शिव जी के आदेश से नर्मदा जी मगर के आसन पर विराज कर उदयाचल पर्वत पर उतरीं और पश्चिम दिशा की ओर बहकर गईं। उसी समय महादेव जी ने तीन पर्वतों की सृष्टि की-मेठ, हिमावन, कैलाश। इन पर्वतों की लम्बाई 32 हजार योजन है और दक्षिण से उत्तर की ओर 5 सौ योजन की है।

नमामि देवि नर्मदे, त्वदीय पाद पंकजम्।

ताम्र-पाषाण काल-


नर्मदा एवं ताप्ती नदियों के मध्य विन्ध्याचल पर्वत के समानान्तर पूर्व से पश्चिम की ओर सतपुड़ा मेकल श्रेणी का विस्तार है। मध्यप्रदेश में ताम्र पाषाणिक सभ्यता नर्मदा की घाटी में ईसा पूर्व 2500 में विकसित हुई थी। महेश्वर, नवदाटोली कायथा, बरखेड़ा और एरण आदि इस सभ्यता के प्रमुख केन्द्र थे। इन स्थानों की खुदाई में ताम्रकालीन औजार, धातु के बर्तन और अन्य औजार मिले हैं। इस काल में कृषि की जाती थी। मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाया जाता था और इन पर पालिश की जाती थी। प्रमुख पशुओं में गाय, बैल, भेड़, बकरी और कुत्ता आदि पाले जाते थे। इस काल में लोग शाकाहारी, माँसाहारी और फलाहारी थे। आभूषणों व कीमती पत्थरों का प्रयोग श्रृंगार के लिए किया जाता था। वे लोग वृषभ, मातृदेवी, पशुपति, पशुओं और वृक्षों की पूजा करते थे।

वैदिक काल-


महर्षि अगस्त्य के नेतृत्व में ‘यदु कबीला’ इस क्षेत्र में आकर बसा और यहीं से इस क्षेत्र में आर्यों का आगमन शुरू हुआ। वैदिक ग्रंथों के अनुसार विश्वामित्र के 50 शापित पुत्र भी यहाँ आकर बसे। उसके बाद, अत्रि, पाराशर, भार्गव आदि का भी इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ।

नागवंशी शासक नर्मदा की घाटी में शासन करते थे। मौनेय गंधर्वों से जब संघर्ष हुआ तो अयोध्या के इच्छ्वाकु वंश नरेश मान्धाता ने अपने पुत्र पुरुकुत्स को नागों की सहायता के लिए भेजा जिसने गंधर्वों को पराजित किया। नाग कुमारी नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स के साथ कर दिया गया। इसी वंश के राजा मुचुकुंद ने नर्मदा तट पर अपने पूर्वज मान्धाता के नाम पर मान्धाता नगरी स्थापित की थी। यदु कबीले के हैहयवंशी राजा महिष्मत ने नर्मदा के किनारे महिष्मति नगरी की स्थापना की। उन्होंने इच्छवाकुओं और नागों को पराजित किया। कालांतर में गुर्जर देश के भार्गवों से संघर्ष में हैहयों का पतन हुआ। उनकी शाखाओं में तुण्डीकैर (दमोह), त्रिपुरी, दशार्ण (विदिशा), अनूप (निमाड़) और अवंति आदि जनपदों की स्थापना की गयी। महाकवि कालिदास इसी अमरकंटक शिखर को अपने अमर ग्रंथ मेघदूत में आम्रकूट कहकर सम्बोधित करते हैं।

त्वामासगर प्रशमितवनोपल्लवे साधु मूर्धना।
वक्ष्यत्वध्वश्रमपारिगतं सावुमानाम्र कूटः।।


ऐसी किंवदन्ति है कि यहाँ के सघन वन में आमों के वृक्ष थे जो अपनी अनुपम सुरभि बिखेरते थे। पुराणों में अमरकंटक का ऋक्षपाद, देवशिखर और अमरकंटक नाम से उल्लेख है।

शोणो महानदश्चैव मर्दरा सुरयाद्रिजा।ऋक्षपाद प्रसूता वेतथान्यावेगवाहिनी।। (मा.यु.अ.-48)

अमराणांकट तुण्डे नृत्यन्ती हसितानना।
अमरादेवताः प्रोक्ताशरीकंट मुच्यता।
(एक.यु.अ.15-15)

प्रदक्षिणन्तुयों: कुर्यात्पर्वतेSमरकण्टके।पौण्डरीकस्य यज्ञस्य फलमाप्नोति मानवः।। (कूर्म पुराण)

नर्मदा के प्रमुख तीर्थ स्थल

सूरजकुण्ड


यह नर्मदा का उद्गम स्थल है। इसके आसपास कई मंदिर बने हैं।

प्रथम समूह के मंदिर


कर्ण मंदिर, मत्स्येन्द्र मंदिर, नर्मदा माई का मंदिर एवं पातालेश्वर मंदिर प्रथम समूह के मंदिरों में प्रमुख है। द्वितीय समूह के मंदिरों में कुछ नये हैं या जिनके ध्वंसावशेष हैं, इनका पुरातत्वीय महत्व नगण्य है।

अमरकण्टक


मत्स्य पुराण में अमरकंटक के बारे में कहा गया है कि यह पवित्र पर्वत सिद्धों और गन्धर्वों द्वारा सेवित है। जहाँ भगवान शंकर देवी उमा के सहित सर्वदा निवास करते हैं। अमरकण्टक का इतिहास छह सहस्त्र वर्ष पुराना है। जब सूर्यवंशी सम्राट मान्धाता ने ऋक्ष पर्वत की घाटी में मान्धाता नगरी बसाई थी। यहाँ के मंदिरों की स्थापत्य कला चेदि और विदर्भकाल की है। वर्तमान में नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकण्टक जो कि समुद्र तल से 1070 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है, शहडोल जिला और नवनिर्मित छत्तीसगढ़ के छोर पर अवस्थित है। शहडोल जिले के पेंड्रा रेल्वे स्टेशन से 44 किलोमीटर दूर अमरकण्टक स्थित है। स्कंद पुराण रेवाखण्ड के अनुसार अमरकण्टक का अर्थ देवताओं का शरीर है।

अमरा देवता प्रोक्ता शरीरं कट उच्चते। अमरकण्टक इत्याते तेन प्रोक्ते महीर्षिभिः।।

अमरकण्टक को ऋक्ष पर्वत का एक भाग कहा गया है। अमरकण्टक को सिद्ध क्षेत्र में भी ज्यादा पावन माना गया है। वास्तव में पूरा पर्वत ही सिद्ध क्षेत्र है महाभारत के वन पर्व में उल्लेखित है कि-अमरकण्टक की यात्रा से अश्वमेघ का फल प्राप्त होता है।

शोणस्य नर्मदायाश्च प्रभवे कुरुनन्दन।
वंश गुल्म उपस्पृश्य बाजिमेघ फल लभेत।।


महर्षि अगस्त्य ने यहाँ आर्य सभ्यता का प्रचार-प्रसार किया। अमरकण्टक को ओंकारपीठ भी माना जाता है। साल वृक्षों के सघन वन से आच्छादित अमरकण्टक धार्मिक, ऐतिहासिक, आध्यात्मिक, पुरातत्वीय एवं प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। यहां कीचक की प्रतिमा (जो कलकत्ता म्युजियम में है) विराट मंदिर के भग्नावशेष, शमी वृक्ष बाणगंगा के 366 तालाबों की प्राप्ति, अर्जुन के बाण से उत्पन्न बाण गंगा, सूर्यवंशी राजा राजमीर के अजीमीर महल के पुरावशेष, प्रतिहार वंशी महिपाल द्वारा 914 से 944 ई. के बीच नर्मदा तथा अमरकण्टक की मेखला की विजयश्री आदि में इसकी प्राचीनता के प्रमाण मिलते हैं।

अमरकण्टक विंध्य शिरोमणि है यह विन्ध्याचल का सर्वोच्च शिखर है। इसका प्राचीन नाम मैकल था। इसी कारण नर्मदा को मैकलसुता भी कहा जाता है। अमरकण्टक से सोन, महानदी, और ज्वालावती नदियों की उत्पत्ति हुई है। अमरकण्टक केवल नर्मदा की जन्मस्थली ही नही है अपितु यह भारतीय दर्शन, आध्यात्म, संस्कृति और संस्कारों का संगम भी है।

ऋषि अगस्त्य और पर्वतराज विन्ध्याचल के संबंध में एक कथा है जो महाभारत के एतत् आख्यान के नाम से प्रसिद्ध है। यह महर्षि अगस्त्य के महात्म को उद्धरित करती है, इस कथा का कालिदास ने रघुवंश में और देवी भागवत में भी वर्णन मिलता है।

कथा इस प्रकार है- विन्ध्याचल ने एक दिन सूर्य से कहा कि- हे सूर्य! जैसे तुम प्रतिदिन मेरू की प्रदक्षिणा करते है वैसे ही हमारी प्रदक्षिणा करो। तब सूर्य ने कहा कि मैं अपनी इच्छा से नहीं वरन मेरा निश्चित मार्ग होने के कारण मै मेरू की परिक्रमा करता हूँ। इतना सुनते ही विन्ध्य आगबबूला ही गया और उसने सूर्य-चन्द्रमा के पथ को रोकने हेतु अपने वदन को बढ़ाकर ऊँचा उठाने लगा। देवता उसके पास विनती करने आये परन्तु हठधर्मिता के कारण वह अपनी मनमानी करने लगा। तब समस्त देवतागण अगस्त्य ऋषि के पास दुःखी होकर गये और प्रार्थना करने लगे कि ‘हे द्विजोत्तम! पर्वतराज विन्ध्य क्रोध के वशीभूत होकर सूर्य-चन्द्र और नक्षत्रों के मार्ग को रोकना चाहते हैं। हे महाभाग! आपके अतिरिक्त उन्हें और कोई नहीं रोक सकता। इसलिए कृपाकर उन्हें रोकिये।’

महर्षि अगस्त्य ने देवताओं की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और अपनी पत्नी लोपामुद्रा के साथ विन्ध्याचल पर्वत के पास जाकर बोले- ‘हे गिरि श्रेष्ठ! हम विशेष कार्य से दक्षिण जाना चाहते हैं, इसलिए हमें जाने के लिए मार्ग दो और जब तक हम लौट न आये तब तक ऐसे ही हमारी प्रतीक्षा करते रहो। जब मैं आ जाउं तब तुम इच्छानुसार अपने को बढ़ाना।’ इस प्रकार विन्ध्य गुरू की आज्ञा के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि आज भी नतमस्तक होकर उनकी प्रतिक्षा कर रहा है लेकिन गुरू अगस्त्य आज तक नहीं लौटे।

‘अद्यापि दक्षिणोदे्शात वारूणिर्न निर्वतते’

अर्थात आज भी अगस्त्य दक्षिण से लौटते दिखाई नहीं देते।

सभ्यता और संस्कृति के उत्थान और पतन के साक्षी हैं नर्मदा के तटवर्तीय प्रदेश। प्रागैतिहासिक अवशेष, राजवंशों के इतिहास, पुरातत्वीय शोध, धार्मिक तीर्थ स्थलों की इसने कालचक्र के साथ अपनी जलधार जैसा प्रवाहमान रखा। प्रतिहार वंशीय महिपाल द्वारा संवत् 912 के बीच नर्मदा और अमरकंटक की मेखला को जीतने का ऐतिहासिक प्रमाण है। नर्मदा का यह उद्गम स्थल आचार्य गोविन्द पदाचार्य, सम्राट पुरुकुत्स की साम्राज्ञी नर्मदा के नाम पर नर्मदा नामकरण हुआ। प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है कि नर्मदा सात कल्पों तक अमर है। प्रलयकाल में शंकर भगवान अपना तीसरा नेत्र इसी के तट पर खोलते हैं। आदि शंकराचार्य, महर्षि मार्कण्डेय का यहाँ आगमन हुआ था। यह स्थान मान्धाता, विदर्भराज, चेदि ययाति, हैहय आदि के सान्निध्य से धन्य हो गया है।

नर्मदा चिरकुमारी हैं। ऐसी पौराणिक मान्यता है। वे महर्षि मार्कण्डेय की शिष्या हैं, ऐसा भी कहा जाता है। नर्मदा और महर्षि मार्कण्डेय में गुरू-शिष्य परम्परा का पवित्र बंधन रहा है। मत्स्यपुराण में नर्मदा की महिमा का विस्तृत बखान किया गया है जिसका सार संक्षेप है कि ‘कनखल क्षेत्र में गंगा पवित्र है और कुरुक्षेत्र में सरस्वती। परन्तु गाँव हो चाहे वन, नर्मदा सर्वत्र पवित्र है। यमुना का जल एक सप्ताह में, सरस्वती का तीन दिन में, गंगाजल उसी क्षण और नर्मदा का जल इसी क्षण पवित्र कर देता है।’ एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ में सप्त सरिताओं का गुणगान द्रष्टव्य है।

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधिं कुरु।।


नर्मदा के तटों पर साहित्य, कला, संस्कृति, पुरातत्व और सामाजिक समरसता का एक साथ दिग्दर्शन होता है। नर्मदा नदी भारत की अधिकांश नदियों की दिशा के विपरीत बहती है। यानि पूर्व से पश्चिम की ओर। जनमानस में इसी कारण एक बुन्देलखण्डी लोकगीत प्रचलित है।

नरबदा मैया उल्टी तो बहै रे,
तिरवेनी बहे सूदी धार रे, नरबदा अरे हो
नरबदा मैया ऐसी तो मिली रे,
अरे ऐसे तो मिले जैसे मिल गए मताई और बाप रे,
नरबदा अरे हो........

नरबदा मोरी माता लगे रे,अरे माता तो लगे रे, तिरबेनी बेन रे, नरबदा अरे हो.....

नरबदा को पानी इमरत रे,
अरे पानी इमरत,
मैं तो तर गई बना नौका रे नरबदा अरे हो......

नरबदा में रेता बहे रे,अरे रेता ते बहे, मैं तो जानू बहै मोरे पाप रे नरबदा अरे हो....

नरबदा जू की लम्बी छिड़ियां रे,
अरे लम्बी छिड़िया रे,
अरे लम्बी छिड़ियां से, गौरा रानी नहा रई केशरे,
नरबदा अरे हो........

नरबदा में डूबत बची रे,
अरे डूबत तो बची, पतरैया बलम तोरे भाग रे,
नरबदा अरे हो....

अतर की दो-दो सिसिया,
दो-दो सिसियां रे, एक संझा चढ़ाऊं,
एक भोर रे, नरबदा अरे हो.....


इस गीत को बम्बुलिया या भोला गीत कहा जाता है। मकर संक्रांति पर जब बुन्देलखण्डवासी नर्मदा मैया के स्नान को निकलते हैं तब वे बम्बुलिया या भोला गीत स-स्वर भाव विभोर होकर श्रृद्धा के साथ गाते है। मानो वह नर्मदा को आदरांजलि दे रहे हों। सच कहा जाय तो बुन्देलखण्ड अंचल में नर्मदा को गंगा से भी श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि नर्मदा यहाँ के जन-जीवन में रची बसी है। वह इस क्षेत्र विशेष के लिए जीवन-रेखा हैं। यहाँ की जन-मेदिनी नर्मदा को माँ, इसके पानी को अमृत मानते हैं। वह इसमें स्नान करके इस भवसागर से बिना नौका और पतवार के तर जाते हैं। जीवन जगत के व्यामोह और आवागमन से मुक्त हो जाते हैं।

अपने उद्गम स्थल अमरकंटक से निकलकर लगभग 8 किलोमीटर दूरी पर दुग्ध धारा जलप्रपात तथा 10 किलोमीटर पर दूरी पर कपिल धारा जलप्रपात बनाती हैं। मण्डला से होकर बढ़ते हुए जबलपुर के पास यह दक्षिण दिशा को मुड़कर बेशकीमती संगमरमर की गुफायें बनाती है जिसे धुआँधार जलप्रपात कहते हैं। इस जलप्रपात की ऊँचाई लगभग 50 फुट है। धुआँधार जलप्रपात निर्मित कर नर्मदा आगे बंदरकूद, भूल-भुलैया बनाती हुई भेड़ाघाट को पार कर संगमरमर की खूबसूरत सँकरी घाटियों से गुजरकर नरसिंहपुर, होशंगाबाद की धरती को स्पर्श करती हुई खण्डवा को पार कर खरगौन जिले के अहिल्याबाई होल्कर के राज्य के हिस्से महेश्वर के पास 8 किलोमीटर का सहस्त्र धारा जलप्रपात बनाती है। इतना ही नहीं नर्मदा नदी अपने मार्ग में अबाध गति से बहते हुए हण्डिया से बड़वाह के रास्ते मंधार तथा दरदी नामक प्रपातों की भी जन्मदात्री हैं। ततपश्चात् यह महाराष्ट्र से होती हुई, भड़ौंच शहर की पश्चिमी दिशा में ज्वार नदमुख (एश्चुएरी) बनाते हुए खम्भात की खाड़ी में गिरकर अरब सागर में विलीन हो जाती है।

कपिल धारा जल प्रपात-शहडोल जिले के अमरकंटक में नर्मदा नदी के उद्गम से चलकर 6 किलोमीटर पश्चात् नर्मदा नदी पर एक अप्रतिम सौंदर्य जल प्रपात का निर्माण करती है। जिसे कपिल धारा जल प्रपात कहते हैं। यह प्रकृति की गोद में शीती जलवायु, व्यापित वन कानन, एक जीवित मूर्ति के समान प्रतीत होता है। कहते हैं कि महर्षि कपिल ने बहुत वर्षों तक तपस्यामग्न रहकर आत्मज्योति का साक्षात्कार किया था। कपिल ने यहाँ सांख्य शास्त्र की रचना की थी। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि कपिल ऋषि की साधना स्थली होने के कारण ही इसे कपिल धारा कहते हैं। यह प्रपात लगभग 100 फुट ऊँचा है।

इस प्रपात के पास से ही कपिलेश्वर महादेव का छोटा सा मंदिर है जिसका उल्लेख पुराण कथा में है। उद्गम से लेकर संगम तक जितने भी नर्मदा के प्रपात हैं उनमें कपिल धारा सबसे अधिक रमणीय प्रदेश पर स्थित है। इस प्रपात तक पहुँचने के लिए पक्की सड़क व मोटर वाहन के साधन आसानी से उपलब्ध रहते हैं। अमरकण्टक से आधी दूर पहुँचकर पुण्य पावन सलिला नर्मदा की जल धारा चक्र के आकार में घूम जाती है। पुराण कथा के अनुसार भगवान श्री हरि (विष्णु) ने यहीं पर कठोर तपस्या करके सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था तभी से इस तीर्थ का नाम चक्र पड़ा।

रमणीक पठार पर कल-कल निनाद करती कपिल धारा किसका मन नहीं मोहती। यह वन प्रांतर अत्यन्त रमणीक एवं सुंदर है। प्रपात की नाद को सुनकर तीर्थयात्री ओंकार की ध्वनि में निमग्न हो जाते हैं। ऊपर खड़े होकर देखने से ऐसा मालूम पड़ता है कि नर्मदा की निर्मल जलधारा प्रपात के वेग में पड़ी-पड़ी चट्टानों से टकराती हुई सामने के सघन वन में लुप्तप्राय हो जाती है। प्रपात के निचले हिस्से तक पहुँचने के लिए सीढियाँ बनी हुई हैं। यहाँ पहुँचकर स्नान का अनूठा आनन्द पर्यटक उठाते हैं। कपिलधारा के अतिरिक्त इस सुरम्य भूमि पर दूध धारा, शम्भु धारा एवं दुर्गा धारा नामक तीन प्रपात मिलते हैं।

शम्भु धारा जलप्रपात


अमरकण्टक के पश्चिम कोने पर बरसाती नाले का यह प्रपात भी अत्यंत रमणीक है। यह प्रपात कपिल धारा के समान बड़ा नहीं है लेकिन इसके इर्द-गिर्द प्राकृतिक छटा निराली है। यहाँ सघन वन हैं अतः पहुँचने के लिए मार्गदर्शक की जरूरत महसूस होती है। जल धारा से सिमटे हुए अनेक विशालकाय वृक्ष यहाँ हैं। यहाँ का लताकुंज और वैभव देखते ही बनता है।

दुर्गा धारा जल प्रपात


मैकल पर्वत के इतर जलप्रपातों के समान दुर्गाधारा जलप्रपात भी अत्यंत रमणीक है। यहाँ से गौरैला जाने के पुराने मार्ग पर इस प्रपात के दर्शन होते हैं। ऊपर भीषण वन झाड़ियों में से गिरती हुई जल धारा सामने के अनेक रमणीक वृक्षों के भीतर प्रवेश कर जाती है। इस धारा को दोनों तरफ अत्यन्त सघन वन हैं जहाँ बाघ पाये जाते हैं।

आगे चलकर दुर्गा धारा का यह रमणीक प्रपात अमर नाला के नाम से जाना जाता है। जिसे आमानाला भी कहते हैं। अमरकण्टक एक तपोभूमि है तथा यहाँ अनेक वनौषधियाँ भी पायी जाती हैं।

दुग्ध धारा जलप्रपात


कपिल धारा जल प्रपात को बनाती हुई नर्मदा नदी की धारा भीषण गर्जना के साथ बहती हुई लगभग 200 मीटर आगे चलकर एक और प्रपात बनाती है। नर्मदा का प्रवाह यहाँ पत्थर की चट्टानों पर फैलकर दो धारा के रूप में बहता है। अतः इसे दूध धारा कहते हैं। यहाँ आस-पास बहुत सी गुफाएँ हैं जो मीलों पहाड़ के भीतर चलकर अगम्य हो गई हैं जो कभी महर्षियों की तपस्चर्या के काम आती थीं। प्रपात के नीचे जल क्रीड़ा करने के लिए पर्याप्त जल है। यह धारा आगे चलकर कन्दराओं में छिप जाती है।

नर्मदा और ताप्ती नदियाँ सतपुड़ा और विन्ध्याचल की भ्रंश घाटी में बहती हैं। नर्मदा 1077 किलोमीटर तक मध्यप्रदेश के शहडोल, मण्डला, जबलपुर नरसिंहपुर, होशंगाबाद और खण्डवा जिलों से होकर बहती है। 74 किलोमीटर तक महाराष्ट्र में यह नदी अपनी यात्रा पूरी करती है। जिसमें 34 किलोमीटर मध्यप्रदेश के साथ और 40 किलोमीटर तक गुजरात के साथ सीमायें बनाती है। खम्भात की खाड़ी में समाहित होने के पूर्व यह 161 किलोमीटर गुजरात में बहती है। इसमें 41 सहायक नदियाँ मिलकर अरब सागर में विलीन हो जाती हैं, जिसमें प्रमुख हैं- हिरण, तिन्दोनी, बारना, कोलार, मान, उरी, हथनी, ओरसांग, बरनर, बन्जर, शेर-शक्कर, दुधी, तवा, गंजाल, देव, छोटा तवा, कून्दी, गोई और कर्जन हैं।

तवा


तवा नदी होशंगाबाद की प्रमुख स्थानीय नदी है यह नदी पचमढ़ी के निकट महादेव पर्वत से निःसृत होती है जो होशंगाबाद के निकट नर्मदा में मिल जाती है। इस नदी का बहाव उत्तर की तरफ है। तवा की सहायक नदियाँ देनवा, मालिनि और सुखतवा हैं।

शक्कर


यह छिंदवाड़ा जिले के अमरवाड़ा के 18 किलोमीटर उत्तर दिशा में है। यह नर्मदा की सहायक नदी है जो बायीं ओर से इसमें मिलती है। यह सतपुड़ा महाखड्ड कोयला क्षेत्र में बहती है और उत्तर में बहकर अन्ततः नर्मदा में विसर्जित हो जाती है।

मार


यह भी नर्मदा की एक सहायक नदी है जो सिवनी के लखना क्षेत्र से निकलती है और कोयले की सँकरी घाटी में प्रवाहित होती हुई उत्तर दिशा में जाकर नर्मदा के बाएँ तट में विसर्जित हो जाती है।

नर्मदा घाटी


इस घाटी में समतल से हल्का ऊँचा-नीचा मैदान मिलता है जिसमें गहरी काली घाटी पायी जाती है। नर्मदा की उत्तरी सहायक नदियाँ बहुत छोटी हैं जो केवल विन्ध्य श्रेणी का जल लाती हैं। दक्षिणी सहायक नदियाँ जैसे- तवा और छोटी तवा, सतपुड़ा के अधिक वर्षा वाले क्षेत्र का जल नर्मदा में लाती हैं। सच कहा जाय तो नर्मदा की तुलना में सोन की घाटी कहीं ज्यादा सँकरी है। इस घाटी में मुख्यतः दक्कन ट्रेप नामक चट्टानें मिलती है। मध्यप्रदेश के जबलपुर, मंडला, होशंगाबाद, रायपुर, नरसिंहपुर, पूर्व निमाड़, बड़वानी, धार और देवास जिलों में नर्मदा की सँकरी एवं लम्बी घाटी स्थित है। नर्मदा घाटी में अवन्ति महाजनपद काफी समृद्ध शक्तिशाली था। इसकी दो राजधानियाँ उज्जैन और महिष्मति थीं।

नर्मदा के किनारे बसे महत्वपूर्ण स्थान

जबलपुर


जबलपुर मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी है जो नर्मदा के किनारे स्थित है। इसका प्राचीन नाम ‘जावालि पट्टन’ था। यह 84 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तारित है।

भेड़ा घाट


जबलपुर से 13 किलोमीटर दूर भेड़ाघाट स्थित है। यह प्रकृति का एक शानदार अजूबा है। ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन काल में भृगु मुनि ने इस स्थान पर लम्बे समय तक तपस्या की थी जिस कारण यह भृगु घाट कहलाने लगा। कुछ लोग भेड़ा घाट का अर्थ संगम से लगाते हैं। चूँकि यहाँ बावनी नदी नर्मदा से मिलती है इसलिए इसका नाम भेड़ाघाट पड़ा। यहाँ नर्मदा नदी दोनों तरफ संगमरमर की चट्टानों के मध्य से गुजरती है। नर्मदा नदी के किनारे भेड़ाघाट से मिलने वाला संगमरमर पत्थर आर्कियन युग की चट्टानों से सम्बन्धित हैं।

धुआँधार जल प्रपात


नर्मदा नदी का यह जलप्रपात लगभग 95 मीटर ऊँचाई से तीव्र वेग से गिरता है, जिसकी गर्जना दूर-दूर तक सुनी जा सकती है। इस आकर्षक जल प्रपात में जल की नन्हीं बूँदें बिखरकर धुँए का दृश्य बना देती हैं, इसलिए इसे धुँआधार के नाम से जाना जाता है।

गौरी शंकर एवं चौंसठ योगिनी


भेड़ाघाट के पास नर्मदा के किनारे ऊँची चोटी गौरी शंकर पर मंदिर स्थित है। जो गुलाबी रंग के पत्थरों से बना हुआ है। इसके द्वार पर एक प्राचीन शिलालेख लगा हुआ है। इस मंदिर का निर्माण संवत् 907 में चेदि राजा नरसिंह देव के कार्यकाले में उनकी माता अल्हण देवी ने बनाया था।

चौंसठ योगिनी मंदिर


दसवीं शताब्दी में निर्मित इस मंदिर में महाकाली चौंसठ योगिनी सहित विराजमान हैं। यहाँ 81 देवियों की सुन्दर मूर्तियाँ एक गोलाकार वृत्त में विराजमान हैं। यें भी गुलाबी पत्थरों से निर्मित हैं। यह मूर्तियाँ छोटे-छोटे मंदिरों में पायी गई हैं। प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है। नर्मदा और बाणगंगा के संगम स्थल से ऊपर छोटी सी पहाड़ी पर एक गोलाकार चौंसठ योगिनी मंदिर है। यह कलचुरिकालिन मंदिर है। इसका निर्माण कलचुरी नरेश नरसिंह देव की माता अल्हण देवी ने करवाया था।

मण्डला दुर्ग


जबलपुर से 96 किलोमीटर महिष्मति नामक प्राचीन नगर है जिसे मण्डला कहते हैं। यहाँ बंजर नदी व नर्मदा के संगम पर एक दुर्ग विद्यमान है जिसे मण्डला का दुर्ग कहते हैं। नर्मदा नदी इस तीन ओर से घेरे हुए है तथा चौथी ओर गहरी खाई बनी हुई है। यह महल गौड़ राजाओं की राजधानी तथा शक्ति का प्रमुख केन्द्र रहा है। जिसका निर्माण प्रसिद्ध गौड़ राजा नरेन्द्र शाह ने अनेक वर्षों में कराया।

मोती महल


मण्डला से 16 किलोमीटर दूर रामनगर में सघन जंगल में 25 किलोमीटर ऊँचाई पर 65 मीटर लम्बा तथा 61 मीटर चौड़ा आयताकार दुर्ग बना है जिसे मोती महल कहते हैं। यह महल गौड़ नरेश हृदयशाह ने बनवाया था। गोंड जनजाति मुख्यतया नर्मदा के दोनों ओर तथा विन्ध्य तथा सतपुड़ा के पहाड़ी क्षेत्र में पायी जाती है।

महेश्वर


महेश्वर को महिष्मति कहा जाता है। यह अहिल्याबाई होल्कर की राजधानी रहा है। यहाँ सहस्त्रधारा प्रपात दर्शनीय है। यह स्थान घाटों और मंदिरों के कस्बे के रूप में जाना जाता है। यह मोहन जोदड़ो से भी अधिक प्राचीन है। यह स्थान इन्दौर से 90 किलोमीटर दूर है। जो प्राचीन काल में हैहयवंशी नरेश कीर्तिवीर्य अर्जुन की राजधानी था। यहाँ के अन्य दर्शनीय स्थल-किला, कालेश्वर, राज-राजेश्वर, बिठ्ठलेश्वर, अहिलेश्वर, होल्कर परिवार का स्मारक, दशहरा तीर्थ मण्डप, सती बुर्ज आदि हैं।

ओंकारेश्वर


यह स्थान इन्दौर से 77 किलोमीटर दूर है। मान्धाता का शिव मंदिर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि राजा मान्धाता ने यहाँ स्थित शिवलिंग की पूजा की थी। ओंकारेश्वर का प्राचीन नाम मान्धाता है। यहाँ के अन्य दर्शनीय स्थलों में सिद्धनाथ का मंदिर, चौबीस अवतार, आशादेवी मंदिर, पंचमुखी गणेश जी, विष्णु मंदिर प्रसिद्ध हैं।

 

 

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