ओजोन समस्या: कब और कैसे (Ozone problem: when and how)


विकासशील देशों का तर्क है कि पर्यावरण को जिन देशों ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। वही धनी देश आज उन पर पर्यावरण को हथियार बनाकर भाँति-भाँति के दबाव डाल रहे हैं। इन देशों की यह भी मांग समुचित है कि जिसने सबसे ज्यादा नुकसान किया है, वही हर्जाना भी भरे। ओजोन क्षति को रोकने के लिये किये जाने वाले प्रयासों का खर्च भी विकसित देश ही उठायें।

पृथ्वी के चारों ओर आवरण के रूप में घिरे हुए हवा के विस्तृत क्षेत्र को ‘वायु मण्डल’ कहा जाता है। वायु मण्डल पृथ्वी के लिये सुरक्षा कवच का कार्य करता है। पृथ्वी एक ऐसा ग्रह है जिसका अपना वायु मण्डल है। वायु मण्डल अनेक गैसों का मिश्रण है जिसमें ठोस और तरल पदार्थों के कण असमान मात्राओं में तैरते रहते हैं। वायु मण्डल का स्थायीकरण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण ही संभव है। वायु मण्डल की जानकारी प्राप्त करने के लिये रॉकेट या राडार, स्पुतनिके आदि उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। वायु मण्डल की ऊँंचाई 16 से 29,000 कि.मी. तक बतायी जाती है, परन्तु धरातल से 1000 कि.मी. ऊँचा वायु मण्डल ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। वायु मण्डल में वायु की अनेक परतें पायी जाती हैं, जैसे- क्षोभ मण्डल या परिवर्तन मण्डल, समताप मण्डल या स्थिर मण्डल, ओजोन मण्डल या मेसोस्फीयर, आयन मण्डल और आयतन तथा बाह्य मण्डल। वायु मण्डल की संरचना सम्बन्धी नूतन परिकल्पना के अन्तर्गत वायु मण्डल केवल दो भागों, सममण्डल और विषम मण्डल में विभाजित किया गया है।

समताप मण्डल के ऊपर धरातल से 30 से 60 किलोमीटर के मध्य वायु मण्डल में एक ऐसा मण्डल पाया जाता है जिसमें ओजोन गैस की अधिकता रहती है। अतः इसे ओजोन मण्डल अथवा मेसोस्फीयर कहा जाता है। यह परत सूर्य की पराबैंगनी किरणों का अधिकांश भाग ग्रहण कर लेती हैं- इसलिए इसका तापमान बहुत अधिक रहता है। इस परत में तापमान प्रति किलोमीटर पर 5 डिग्री से.ग्रे. बढ़ता जाता है और 60 कि.मी. तक इसी दर से वृद्धि होती है। इसकी बाह्य सीमा को मेसोपाॅज कहते हैं। यह परत सूर्य की पराबैंगनी किरणों को सोखकर अपना ताप बढ़ लेती हैं और पृथ्वी को गर्म होने से बचाती हैं।

वायु मण्डल में नाइट्रोजन (78.08 प्रतिशत), आॅक्सीजन (20.94 प्रतिशत) कार्बन डाई आॅक्साइड (0.03 प्रतिशत) इत्यादि गैसों के अतिरिक्त, ओजोन गैस भी विद्यमान है। रासायनिक भाषा में ट्राई-आॅक्सीजन कहा जाने वाला ओजोन सामान्य तापक्रम पर एक रंगहीन गैस है जो कि जल तथा क्षारों में विलेय है। द्रवित अवस्था में इसका रंग ‘गहरा नीला’ होता है, अतः इसे नीलाम्बर की छतरी के नाम से भी जाता है। वायु मण्डल के ऊपरी भागों में यह उच्च ऊर्जा वाले पराबैंगनी प्रकाश विकिरणों एवं आॅक्सीजन से उत्पन्न होता है। आॅक्सीजन के तीन अणुओं से ओजोन के दो अणुओं का निर्माण होता है। इस प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप काफी आॅक्सीजन ऊपरी वायु मण्डल में गैस के रूप में परिवर्तित हो जाता है और ओजोन के रूप में मोटी परत-सी बनती है। ऊपरी वायु मण्डल में ओजोन की उपस्थिति जीवन के लिये अत्यावश्यक है।

पृथ्वी की सतह से 30 कि.मी. की ऊँचाई पर स्थित ओजोन गैस की परत सूर्य की पराबैंगनी किरणों के 99 प्रतिशत भाग को पृथ्वी पर नहीं आने देती। ओजोन, पराबैंगनी किरणों को अनेक ऑक्सीजन अवयवों का अलग कर पुनरावर्तीय प्रक्रिया से सोख लेता है और इस प्रकार साम्यावस्था बनाये रखने में सहायक होता है। ओजोन के अतिरिक्त अन्य गैसें भी पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करती हैं, परन्तु ओजोन की अवशोषण क्षमता सबसे अधिक है।

पराबैंगनी विकिरणों का प्रभाव


पराबैंगनी किरणें ओजोन की अनुपस्थिति में धरातल पर निम्नलिखित प्रभाव पहुँचाने में सहायक होती हैं। आँखों पर - कैटरेक्ट, आंखों के लैंसों में धुंधलापन, जोकि दृष्टि दोष तथा लाइजाल अन्धापन बढ़ाने में सहायक होता है। त्वचा पर- अनावृत्ति से शरीर पर झुर्रियाँ तथा विभिन्न प्रकार के त्वचा कैंसर होने का खतरा रहता है। कृषि क्षेत्र में- प्रकाश संश्लेषण पर प्रभाव पड़ने से फसलों की उपज पर असर पड़ता है। प्रतिरोधक तंत्र पर- प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास होने से संक्रमण का भय रहता है। समुद्री जीवों पर- विकिरण के असर फाईटोप्लंकटन पर पड़ता है जो मछलियों की प्रमुख खाद्य सामग्री है।

क्लोरोफ्लोरोकार्बन और ओजोन सतह


‘थॉमल मिडले’ ने जब 1930 के दशक के प्रारंभ से संयुक्त राज्य अमरीका में ‘डयू-पोंट’ के लिये क्लोरोफ्लोरो कार्बनों की (कार्बन, क्लोरीन और फ्लोरीन का यौगिक) अनेक श्रेणियों का विकास किया था तो इसका प्रशीतन उद्योग के उपयोग के लिए जो अब तक हानिकारक अमोनिया गैस तथा सल्फर डाई आॅक्साइड पर निर्भर करता था, एक महत्त्वपूर्ण खोज के लिये स्वागत किया था। क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उपयोग औद्योगिक क्षेत्र में सर्वाधिक मात्रा में किया जाता था। सी.एफ.सी. का उपयोग रेफ्रीजरेटरों के प्रशीतक के रूप में, एथरोसोल प्रणोदकों, वातानुकूलन संयंत्रों, एयरोस्पेस, इलेक्ट्रोनिक उद्योग, आॅप्टीकल उद्योग प्लास्टिक तथा फार्मेसी उद्योगों में वृहत स्तर पर होता है।

सी.एफ.सी. विशिष्ट रूप से स्थायी यौगिक होते हैं। ये न तो पानी में घुलते हैं, न ही इनका आॅक्सीकरण होता है और न यह प्रत्यक्ष प्रकाश में प्रकाश-विश्लेषी ही होते हैं। वैज्ञानिकों ने प्रायः इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया है, कि आखिर सी.एफ.सी. जाते कहाँ हैं? इनमें से एक वैज्ञानिक था, संयुक्त राज्य अमरीका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय का प्रोफेसर- ‘एफ. सरउंड रोलेण्ड’। 1972 में एक दिन उसने बिटेन और संयुक्त राज्य अमरीका के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण कर आयरलैण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों को जाते हुए ब्रिटेन के एक वायु मण्डलीय रसायन विज्ञानी ‘जिम लव लाॅक’ का भाषण सुना जिसने इलेक्ट्रोन परिग्रहण जी.सी. का विकास किया था और उसकी सहायता से ट्राइक्लोरोमीथेन (सी.एफ.सी. ii) का पता लगाया था। उसने यह भी कहा कि यह यौगिक (स्थायी) अंटार्कटिका जैसे सुदूर स्थान में पाया गया है। अब रोलैण्ड के मन में जिज्ञासा हुई एवं अक्तूबर 1973 में उसने डाॅक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के बाद अपने एक शोधकर्ता विद्यार्थी को साथ लेकर एक परियोजना प्रारम्भ की, जिसका उद्देश्य था- सी.एफ.सी. का परिणाम अंततः क्या होता है, क्योंकि वायुमंडल में यौगिकों की मात्रा में अंततः वृद्धि होती है। उसने इसके प्रथम परिणामों की घोषणा जनवरी, 1974 में ‘नेचर’ नामक एक प्रतिष्ठित पत्रिका में अपने एक लेख में की और जब जून में यह लेख प्रकाशित हुआ तो विश्व में एक हलचल मच गयी। सीएफसी के बारे में यह कहा गया कि - ‘‘यही पृथ्वी की ओजोन परत को क्षतिग्रस्त करने के लिये जिममेदार है।’’

चूँकि सी.एफ.सी की वायुमंडल में मात्रा बढ़ती है अतः इससे वे पराबैंगनी किरणों के प्रदीपन से प्रभावित होते हैं और इससे सी.एफ.सी-i) बाॅण्ड का प्रकाशित-अपघटन होता है। सीएफसी के इस प्रकाशित अपघटन से ओजोन के नष्ट होने की कड़ीबद्ध रासायनिक प्रक्रिया आरंभ होती है, जिससे साम्यावस्था समाप्त हो जाती है। क्लोरीन का एक परमाणु 1,00,000 ओजोन तक को नष्ट करने की क्षमता रखता है। रोलैण्ड के अनुसार ‘‘समताप मंडल में उत्पन्न सी. i परमाणुओं’’ को सोखने की वायुमंडल की सीमित क्षमता होती है।

ओजोन स्तर के नष्ट होने का अंतिम प्रमाण ब्रिटिश अण्टार्कटिक सर्वे (वी.ए.एस.) के जो-फॉरमैन से मई, 1985 में ‘नेचर’ में प्रकाशित एक लेख में आया। इससे अंततः ‘ओजोन छिद्र के और गहरा होने’ की पुष्टि हुई। साथ ही यह भी भविष्यवाणी की गई कि वर्तमान दर पर सीएफसी की खपत के आधार पर ओजोन की पृथ्वी की मात्रा 70-100 वर्ष की अवधि में लगभग 11-16 प्रतिशत कमी के परिणाम स्वरूप पृथ्वी के तपन तथा पादप गृह पड़ने वाले प्रभावों के अतिरिक्त 4,70,000 चमड़ी के कैंसर होंगे। अतः सीएफसी के कम से कम ऐरोसाल प्रणोदित्रों के लिये प्रयोग पर प्रतिबंधन लगाने की मांग का काफी औचित्य है।

1970 के दशक के शुरू में प्रतिवर्ष लगभग 6 लाख टन सीएफसी का उत्पादन होता था, जो अब बढ़कर 7,50,000 टन हो गया है। इस सीएफसी के उपयोग में धुलाई, फोम-इन्हसुलेसन, वातानुकूलित वाहन, रेफ्रिजरेशनएरोसोल छिड़काव आदि का विशेष योगदान है। सीएफसी की 90 प्रतिशत से ज्यादा खपत सिर्फ विकासशील देशों में होती है। चीन और भारत में ओजोन सतह के लिये हानिकारक संयंत्रों का उत्पादन सिर्फ 30 प्रतिशत है।

1986 में ‘विश्व मौसम- विज्ञान’ संगठन द्वारा किये गये एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन ने यह भविष्यवाणी की कि आगामी दशक में ओजोन का ह्रास 5 से 9 प्रतिशत होगा। जबकि 1987 में अंटार्कटिका क्षेत्र के ओजोन सुराख की जाँच ने बताया कि कुछ ही समय में ओजोन गैस घटकर 50 प्रतिशत रह जायेगी। दक्षिणी ध्रुव पर दिनोंदिन फैलते जा रहे सुराख के बाद उत्तरी ध्रुव पर भी एक विशाल छिद्र होने का खतरा आसन्न है। क्योंकि हाल के वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि उत्तरी ध्रुव के एक बड़े क्षेत्र में फ्लोरीन मोगोआॅक्साइड की परत फैली हुई है। लेकिन नवीनतम रिपोर्टों के अनुसार वर्तमान में प. यूरोप, ब्रिटेन और कनाडा के आकाश पर भी एक विशाल सुराख बनने जा रहा है।

वैज्ञानिकों का अनुमान था कि अगर यह छिद्र 1992 तक नहीं हुआ तो एक या दो वर्षों के अंतराल के भीतर अवश्य हो जायेगा। अमरीका के राष्ट्रीय वैधानिक एवं आंतरिक प्रशासन (नासा) के अनुसार पिछले दशक में ओजोन की 4 से 8 प्रतिशत तक क्षति हो चुकी है। ओजोन परत के नष्ट होने के फलस्वरूप भावी पीढ़ियों में जैविकीय उत्परिवर्तन हो सकते हैं, अपूरणीय अनुवांशिकी क्षति हो सकती है, 75 प्रतिशत पेड़-पौधे रोगी होकर दुर्बल और नष्ट हो सकते हैं तथा फसलें भी तरह-तरह के रोगों का शिकार होकर उत्पादकता खो सकती हैं। इसके अलावा कुछ ही वर्षों में धरती का तापमान 4 डिग्री से.ग्रे. बढ़ सकता है। धरती के तापमान में क्रमशः वृद्धि होते रहने से कहीं पर वनों का प्रसार कहीं पर अकाल, बर्फ पिघलने से निचले व तटीय क्षेत्रों में जल जमाव तथा छोटे-छोटे द्वीपों और जल स्रोतों के किनारे बसे देशों के डूब जाने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा।

ओजोन सुरक्षा हेतु उठाए गये कदम


नासा के प्रबंधक माइकल कुरैलों का कथन है कि ‘‘प्रत्येक व्यक्ति को अब इस विषय में पूरी तरह सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि यह हमारे सोच से कहीं ज्यादा बुरा और तबाही मचाने वाला है।’’

हाल के वर्षों में ओजोन रिक्तता को विश्व के वैज्ञानिक समुदाय ने काफी गम्भीरता से लिया है। इस गंभीर संकट से निपटने का सर्वप्रथम कदम निर्धारित किया है: सीएफसी के उत्पादन एवं उपयोग में कमी तथा क्रमबद्ध तरीके से इसकी समाप्ति और ओजोन सतह को नुकसान पहुँचाने वाले अन्य विकल्पों की तलाश में।

ओजोन में कमी आने से उत्पन्न समस्याओं पर चर्चा करने के लिये पहला विश्व सम्मेलन मार्च, 1985 में वियना में हुआ, जिसे ‘‘दि वियना कन्वेन्शन आॅन दी प्रोटेक्शन आॅफ दी ओजोन लेयर’’ कहा गया। इसके बाद सितम्बर 1987 में कनाडा में 48 राष्ट्रों की बैठक में ‘‘मॉट्रियल प्रोटोकाॅल’’ को अंतिम रूप दिया गया जहाँ, सन 2000 तक 50 प्रतिशत सीएफसी को कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। परंतु प्रोटोकाॅल की कतिपय विसंगतियों के कारण यह प्रभावित नहीं हो सका था। पुनः अगस्त, 1990 में लंदन में ‘लंद प्रोटोकाॅल’ पर सहमति हुई एवं सीएफसी तथा हैलन्स के उत्पादन तथा उपयोग को पूरी तरह समाप्त करने की समय सीमा सन 2000 तक निर्धारित की गयी। सीएफसी के उन्मूलन एवं इसके विकल्पों की खोज के लिये 240 मिलियन डाॅलर के विश्व कोष की स्थापना की गयी। भारत को 40 मिलियन डाॅलर प्रदान किया गया जबकि भारत की आवश्यकता 640 मिलियन डाॅलर से अधिक है।

विकासशील देशों का तर्क है कि पर्यावरण को जिन देशों ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। वही धनी देश आज उन पर पर्यावरण को हथियार बनाकर भाँति-भाँति के दबाव डाल रहे हैं। इन देशों की यह भी मांग समुचित है कि जिसने सबसे ज्यादा नुकसान किया है, वही हर्जाना भी भरे। ओजोन क्षति को रोकने के लिये किये जाने वाले प्रयासों का खर्च भी विकसित देश ही उठायें। इस सिलसिले में महत्त्वपूर्ण यह है कि ओजोन के सुरक्षा कवच की रक्षा का सम्बंध धरती पर जीवन की रक्षा से जुड़ा है, इसलिए इसको लेकर तरह-तरह के विवाद या बाधा नहीं डाले जाने चाहिए। आज जरूरत आने वाले वक्त के भविष्य को सुरक्षा प्रदान करने की है जिससे अपनी पृथ्वी तथा उस पर समस्त जीवों का अस्तित्व सुरक्षित व अक्षुण्य रह सके। परंतु, ऐसे समय में जब समस्त विश्व एक गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है, यह एक मुश्किल कार्य प्रतीत होता है। हमें यह ध्यान रखना है कि ऐसा वायुमंडल या पर्यावरण, जो उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सभी के लिये एक सा महत्त्वपूर्ण है, के संरक्षण के लिये कोई भी कीमत ज्यादा नहीं है।

सीएफसी के विकल्प के रूप में हाइड्रोक्लोरोफ्लोरो कार्बन, हाइड्रो कार्बन और अमोनिया आदि को स्वीकार किया गया है किंतु इनके नकारात्मक पहलुओं को नजर-अंदाज नहीं किया जा सकता है। अतः विकल्प के क्षेत्र में और अधिक वैज्ञानिक अनुसंधानों और प्रयोगों की आवश्यकता है।

ग्रा.पो.- सुल्तानीपुर, (चोलापुर) वाराणसी-221101

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