पानी बचाने की सकारात्मक पहल


पिछले कुछ वर्षों में जिन इलाकों में बड़ी संख्या में विद्युत संयंत्र स्थापित हुए है, खासकर कोयला आधारित संयंत्र वहाँ पानी की खपत बढ़ने की वजह से सिंचाई जैसे अन्य उपयोगों के लिये पानी की कमी हो गई है। इसकी वजह से विद्युत संयंत्रों हेतु पानी मोड़ने को लेकर गम्भीर विवाद, विशेषकर महाराष्ट्र के विदर्भ अंचल में सामने आये हैं, जहाँ पर बड़ी संख्या में कोयला आधारित विद्युत संयंत्र मौजूद हैं या निर्माणधीन हैं। जबकि दूसरी ओर यहाँ कृषि पर जबरदस्त संकट है और बड़ी संख्या में किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन (एमओईएफसीसी) मंत्रालय ने 8 दिसम्बर 2015 को भारत में ताप विद्युत संयंत्रों में उत्सर्जन एवं पानी के उपयोग को लेकर नए नियम जारी कर दिये हैं। चूँकि ताप विद्युत संयंत्र पानी का अत्यधिक प्रयोग करते हैं और बहुत ज्यादा प्रदूषण भी फैलाते हैं ऐसे में इन नए नियमनों का खासा महत्त्व है। अधिसूचना के माध्यम से निम्न चार नए बाध्यकारी अनिवार्य नियम सामने आये हैं:

(1) सभी ताप विद्युत संयंत्र जिनमें ‘एक बार ठंडक से गुजरना’(once through cooling - ओटीसी) मौजूद हैं उन्हें ‘कूलिंग टावर’ स्थापित करवाने होंगे। ओटीसी प्रणाली से आशय है जहाँ पर संयंत्र स्रोत से पानी ग्रहण करता है और सिर्फ एक बार उस ठंडी धारा (कूल स्टीम) का प्रयोग कर गरम पानी को पुनः स्रोत में वापस डाल देता है। दूसरी ओर कूलिंग टावर आधारित प्रणाली में स्रोत से पानी लिया जाता है, कूल स्टीम में इसका प्रयोग होता है और इसके बाद उस गरम पानी को एक कूलिंग टावर से निकाला जाता है और इसका संयंत्र में पुनः उपयोग किया जाता है।

इस प्रणाली को री- सरक्युलेटिंग कूलिंग सिस्टम (पुर्नवितरण ठंडक प्रणाली) कहा जाता है। जहाँ ओटीसी प्रणाली में स्रोत से बड़ी मात्रा में पानी लेने की आवश्यकता पड़ती है और इस पानी का कम उपयोग हो पाता है वहीं दूसरी ओर री-सरक्युलेटिंग प्रणाली में तुलनात्मक रूप से कम पानी लिया जाता है परन्तु ज्यादा मात्रा में इसका उपयोग हो पाता है।

(2) ऊपर उल्लेखित सभी संयंत्रों एवं सभी विद्यमान संयंत्रों जिनमें कूलिंग टावर है को अपनी पानी की खपत 3.5 लीटर प्रति किलोवाट जो कि प्रति यूनिट बिजली उत्पादन हेतु 3.5 लीटर पड़ती है, तक सीमित करनी होगी।

(3) 1 जनवरी 2017 के बाद स्थापित संयंत्रों को अधिकतम 2.5 लीटर प्रति किलोवाट के उपयोग मानकों को अपनाना होगा।

(4) 1 जनवरी 2017 के पश्चात स्थापित संयंत्रों को शून्य वेस्टवाटर डिस्चार्ज का लक्ष्य प्राप्त करना होगा।

नियमनों को समझना: इन नियमनों के पश्चात अब पहली बार ताप विद्युत संयंत्रों को पानी के उपयोग हेतु अनिवार्य कानूनी सीमा का पालन करना होगा। यह सर्वाधिक स्वागत योग्य कदम है क्योंकि तापविद्युत संयंत्र खासकर कोयला आधारित संयंत्र भारी मात्रा में पानी का उपयोग करते हैं।

पिछले कुछ वर्षों में जिन इलाकों में बड़ी संख्या में विद्युत संयंत्र स्थापित हुए है, खासकर कोयला आधारित संयंत्र वहाँ पानी की खपत बढ़ने की वजह से सिंचाई जैसे अन्य उपयोगों के लिये पानी की कमी हो गई है। इसकी वजह से विद्युत संयंत्रों हेतु पानी मोड़ने को लेकर गम्भीर विवाद, विशेषकर महाराष्ट्र के विदर्भ अंचल में सामने आये हैं, जहाँ पर बड़ी संख्या में कोयला आधारित विद्युत संयंत्र मौजूद हैं या निर्माणधीन हैं। जबकि दूसरी ओर यहाँ कृषि पर जबरदस्त संकट है और बड़ी संख्या में किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। परन्तु वर्तमान संयंत्रों द्वारा पानी के उपयोग की सीमा 3.5 लीटर प्रति किलोवाट रखना एक कमजोर निर्णय है।

विद्युत से सम्बन्धित सरकार की सर्वोच्च तकनीकी संस्था केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) ने सन 2012 में भारत सरकार को प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा था कि वर्तमान में कार्यरत ही नहीं बल्कि सब क्रिटिकल (तापमान का पैमाना घटाकर) संयंत्रों में भी उपयोग की सीमा 3 लीटर प्रति किलोवाट की जा सकती है।

इसे इस तरह समझते हैं, यदि 1000 मेगावाट के एक संयंत्र को अधिक उदारता दर्शाते हुए 3.5 लीटर प्रति किलोवाट पानी के प्रयोग की अनुमति दे दी जाती है, तो उसे उत्पादित प्रत्येक यूनिट बिजली हेतु 0.5 लीटर अधिक पानी प्रयोग की छूट मिल जाती है।

इसका सीधा सा अर्थ हुआ कि वह संयंत्र प्रतिवर्ष 35 लाख क्यूबिक मीटर अतिरिक्त पानी का प्रयोग करेगा जिससे करीब 700 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई हो सकती है। अतएव मंत्रालय तकनीकी समिति की अनुशंसाओं के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान कार्यरत संयंत्रों के लिये भी नई कठोर सीमाएँ तय करे।

जनवरी 2017 के बाद स्थापित किये जाने वाले संयंत्रों हेतु 2.5 लीटर प्रति किलोवाट की सीमा अधिक कठोर है एवं नई तकनीक के माध्यम से प्रस्तुत लाभ को सामने रख रही है। अब आवश्यकता है कि भारत सरकार को चाहिए कि सन 2017 के बाद स्थापित होने वाले सभी विद्युत संयंत्र सुपर क्रिटिकल तकनीक पर आधारित हों। इसका आशय ऐसी तकनीक से है जिसमें संयंत्र बहुत अधिक तापमान व दबाव पर काम करेगा बनिस्पत पूर्ववर्ती सब क्रिटिकल तकनीक के।

इस वजह से विद्युत उत्पादन की कार्य क्षमता बेहतर होगी। अधिक कार्य क्षमता का लाभ यह है कि ताप की बर्बादी कम होगी जिससे कि ठंडा करने के लिये कम पानी की आवश्यकता पड़ेगी। परन्तु इतना ही काफी नहीं है आवश्यकता तो पानी की शून्य बर्बादी प्राप्त करने की है।

नए नियमों का पुनः स्वागत करते हुए हमें सोचना होगा कि मंत्रालय द्वारा तय दिशा-निर्देशों से यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि इन नियमनों के माध्यम से पानी की शून्य बर्बादी की भावना को पाया जा सकता है या कहीं कोई गलती रह गई है।

सकारात्मक प्रभाव


इन नियमों की वजह से भारी मात्रा में पानी बचने की सम्भावना है। इसके बाद वर्तमान संयंत्रों से बड़ी मात्रा में अतिरिक्त पानी को छोड़ा जा सकता है या लौटाया जा सकता है और इसे प्रस्तावित संयंत्रों को आबंटित किया जा सकता है। इसके अलावा इसे सिंचाई जैसे उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में या नदियों एवं अन्य इकाईयों जल में प्रवाह बनाए रखने एवं पारिस्थितिकीय अखण्डता सुनिश्चित करने के लिये भी प्रयोेग में लाया जा सकता है।

इन नियमों का एक अन्य महत्त्वपूर्ण लाभ यह होगा गीले कीचड़ के रूप में बिखरने वाली लाखों टन कोयला राख पर रोक लग पाएगी। वर्तमान में विद्युत संयंत्रों द्वारा उपयोग में लाने वाले पानी का बड़ा हिस्सा कोयले के जलने से पैदा हुई राख को ठिकाने लगाने में इस्तेमाल होता है। सन 2014-15 में कोयला ताप विद्युत संयंत्रों में कम-से-कम 18 करोड़ 40 लाख टन राख पैदा हुई इसमें से केवल 10 करोड़ 20 लाख टन का उपयोग (सीईए के अनुसार) किया जा सका।

कोयला आधारित संयंत्रों से उड़कर निकलने वाली राख (फ्लाई एश) का प्रयोग सीमेंट, कांक्रीट, फ्लाई एश ईंट निर्माण, एवं निचले इलाकों के भराव आदि में किया जा सकता है। यह कहा जा सकता है ‘उपयोग’ में लाई गई राख या भराव दोनों ही मामलों में इसका असुरक्षित प्रयोेग किया गया है परन्तु आधिकारिक रिकार्ड बता रहे हैं कि कम-से-कम 8.2 करोड़ टन राख का केवल ढेर बना दिया गया है और इसे राख के कीचड़ की तरह भर दिया गया। इससे कई समस्याएँ जैसे भूजल एवं सतह के पानी का प्रदूषित होना शामिल है सामने आई हैं।

यदि नए नियमों द्वारा संयंत्रों द्वारा पानी के कम उपयोग पर जोर दिया जाता है तो उन्हें यह सुनिश्चित करने हेतु बाध्य होना पड़ेगा कि कम-से-कम राख को गीली राख की तरह निपटाया जाये और अधिकतम का ‘उपयोग’ कर लिया जाये? यह ध्यान दिलाने योग्य है कि वर्तमान नियमों के तहत भी विद्युत संयंत्रों के लिये कानूनी तौर अनिवार्य है कि वे संयंत्र के प्रारम्भ होने के 4 वर्षों के भीतर उनके द्वारा पैदा की गई पूरी राख (100 प्रतिशत) का ‘उपयोग’ सुनिश्चित करें। जबकि ऊपर दिये आँकड़े बता रहे हैं कि इस नियम की व्यापक अनदेखी होती रही है। पानी सम्बन्धी नियमों में इस बात की सम्भावनाएँ निहित हैं कि उपयोग सम्बन्धी नियमों का बेहतर क्रियान्वयन होगा जिसके परिणामस्वरूप गीली राख के रूप में राख को ठिकाने लगाना कम होगा।

पिछली किश्त में हमने ताप विद्युत संयंत्रों में पानी सम्बन्धी बाध्यकारी नियम जो कि जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा लागू किये गए थे, की विवेचना की थी। अब हम इसके प्रभावों पर विचार करेंगे। यह त्रासद है कि उदार सीमाओं के बावजूद कार्यरत विद्युत संयंत्रों के लिये आवश्यक हो जाता है कि वे नए मानकों का पालन सुनिश्चित करें क्योंकि नए नियमों द्वारा उदार सीमा रखे जाने के बावजूद संयंत्रों द्वारा वर्तमान में किये जा रहे पानी के उपयोग को लेकर महत्त्वपूर्ण सुधार होंगे।

विद्युत संयंत्र अभी प्रस्तावित नए मानकों से कहीं ज्यादा पानी का उपयोग करते हैं, जो कि वर्तमान आधिकारिक तकनीकी अनुशंसा से भी कहीं अधिक हैं। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण की सन 2012 की रिपोर्ट के अनुसार पुराने ताप विद्युत संयंत्र 5 से 7 लीटर पानी प्रति किलोवाट उपयोग करते थे। बाद की परियोजनाएँ दर्शाती हैं उनमें से अनेक 4 लीटर पानी प्रति किलोवाट प्रयोेग में लाती हैं।

वास्तविकता यह है कि अनेक प्रस्तावित एवं निर्माणाधीन संयंत्र जो कि जनवरी 2017 के बाद चालू होंगे, सुपर क्रिटिकल तकनीक पर आधारित हैं। अतएव उनके डिजाइन में परिवर्तन या निर्माण के बीच बदलाव की आवश्यकता इसलिये पड़ेगी क्योंकि उन्हें सुपर क्रिटिकल तकनीकों द्वारा प्रदत लाभों के अनुरूप तैयार नहीं किया गया है जिसमें कि पानी का कम उपयोग भी शामिल है।

यदि परिवर्तन कर लिया जाता है तो यह संयंत्र पानी का कम इस्तेमाल करेंगे राख को सूखा ही इकट्ठा करेंगे। और 100 प्रतिशत फ्लाई एश का प्रयोग करेंगे। इस तरह से वे नए नियम अर्थात 2.5 लीटर प्रति लीटर के प्रस्तावित मानदण्ड तक पहुँच पाएँगे। इससे उनकी वित्तीय लागत पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। इस सम्बन्ध में कोई आधिकारिक अनुमान तो उपलब्ध नहीं है परन्तु इससे सम्बन्धित कई अन्य रिपोर्ट (गैर सरकारी) उपलब्ध हैं।

एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ एनटीपीसी को अपने पुराने एवं नए संयंत्रों को नियमानुकूल बनाने हेतु 20,000 करोड़ रु. खर्च करने पड़ेंगे। इससे उपभोक्ता को प्रति यूनिट 50 से 60 पैसे अतिरिक्त भुगतान करना पड़ सकता है। दूसरी रिपोर्ट इसे कम बता रही है। उनके हिसाब से सभी विद्युत संयंत्रों की कुल लागत में 2,00,000 करोड़ रु. (दो लाख करोड़ रु.) तक की वृद्धि हो सकती है।

गौरतलब है इन लागतों में सिर्फ पानी के उपयोग के मानक ही शामिल नहीं हैं बल्कि नए वायु प्रदूषण उत्सर्जन मानक भी शामिल हैं। इसके अलावा विद्युत संयंत्रों पर नवीनीकरण के दौरान संयंत्र को बन्द करने से होने वाली हानि (राजस्व हानि) की गणना भी करना होगी।

यह तय है कि इन लागतों की वजह से बिजली की कीमतों में भी वृद्धि होगी। हमें इसे इस तरह से देखना चाहिए कि यह ऐसी लागत है जो कि अभी किसी और के द्वारा वहन की जा रही थीं। यह सही दिशा में उठा एक कदम है जिसका कि स्वागत किया जाना चाहिए। इस दिशा में अभी और बहुत कुछ किया जाना आवश्यक है जिसमें कोयला धोने का भार, राख का प्रबन्धन आदि शामिल हैं। इससे विद्युत उत्पादन की वास्तविक लागत सामने आएगी।

उद्योग की प्रतिक्रिया


इन नियमों के सम्बन्ध में अभी तक कम-से-कम सार्वजनिक मीडिया में विद्युत उत्पादन उद्योग की बहुत सीमित प्रतिक्रिया आई है। हालांकि हाल ही में हुए एक सम्मेलन में उद्योेग के अनेक प्रतिनिधियों ने अपनी चिन्ता व्यक्त की है।

इनमें निम्न शामिल हैं:

1. इन परिवर्तनों के लिये आवश्यक वित्तीय संसाधन जुटाने में परेशानी।
2. वितरण कम्पनियों एवं उपभोक्ताओं द्वारा अधिक टैरिफ को अपनाने में समस्या।
3. उपकरण आपूर्तिकर्ताओं की इतनी क्षमता नहीं है कि वे माँग में आई एकाएक तेजी की भरपाई कर पाएँ और एक ही समय में इतने उपकरण दे पाएँ।

हालांकि इसी सम्मेलन में कुछ प्रतिनिधियों ने सुझाया कि उपकरण निर्माताओं के पास काफी क्षमता है, खासकर यदि हम अन्तरराष्ट्रीय एवं चीन के आपूर्तिकर्ता से अपनी माँग पूरी करने को कहें। उद्योग जगत की प्रतिक्रियाएँ तयशुदा पूर्वाग्रहों पर ही आधारित हैं।

इस बात से बचा नहीं जा सकता कि यदि हम स्वच्छ पर्यावरण चाहते हैं तो हमें इस लागत को तो आत्मसात करना ही होगा। वैसे भी यह कोई नई लागतें नहीं हैं। इन्हें अभी तक कोई अन्य जैसे कोयला खदान एवं विद्युत संयंत्रों के निकट रहे समुदाय अपने स्वस्थ्य एवं उनके जीवन की घटती गुणवत्ता के रूप में भुगतते रहे हैं।

पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से उम्मीदें


इन नियमों की अन्तिम परीक्षा इनके क्रियान्वयन के दौरान होगी। इस हेतु तीन महत्त्वपूर्ण चीजें आवश्यक हैं। सर्वप्रथम, इस बात की आवश्यकता है कि उद्योग इन मानदंडों को मूर्त रूप देने हेतु तैयार हो। दूसरा, यह कि सरकार विशेषकर केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण एवं पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के पास इन्हें लागू करवाने हेतु राजनीतिक इच्छा शक्ति हो। तीसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष है कि इसमें नागरिकों का सचेत हस्तक्षेप अनिवार्य है।

अन्त में इतना ही कि मंत्रालय पूर्ण पारदर्शिता बरतें एवं सभी जानकारियों को सार्वजनिक परिवीक्षा में उपलब्ध रखे। यदि मंत्रालय ऐसा करता है तो लोगों, स्थानीय समुदायों एवं प्रभावितों की इन नियमों के क्रियान्वयन सम्बन्धी भागीदारी में जबरदस्त मदद मिलेगी और इनके प्रभाव में भी वृद्धि होगी। वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने पहली बार ताप विद्युत संयंत्रों पर पानी के प्रयोग को लेकर कानूनी बाध्यता वाले नियमों को लागू किया है।

श्रीपाद धर्माधिकारी, मंथन अध्ययन केन्द्र जिसकी स्थापना जल एवं ऊर्जा सम्बन्धित विषयों के शोध, विश्लेषण एवं निगरानी के लिये की गई है, के समन्वयक हैं।

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