पानी चाहिए तो हिमालय बचाना होगा

हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष


अलवर, राजस्थान स्थित तरुण भारत संघ ने वर्ष 2007 में एक पुस्तक छापी थी- भारतीय जल दर्शन। इसके एक अध्याय- प्रलयकाल में जल का वर्णन- में पुराणों के हवाले से कहा गया है कि प्रलय का समय आने तक मेघ पृथ्वी पर वर्षा नहीं करते। किसी को अन्न नहीं मिलता, ब्रह्माण्ड गोबर के उपले की तरह धू-धूकर जलने लगता है... सब कुछ समाप्त हो जाता है... इसके बाद सैकड़ों वर्षों तक सांवर्तक वायु चलती है और इसके पश्चात असंख्य मेघ सैकड़ों वर्षों तक वर्षा करते हैं। सब कुछ जलमग्न हो जाता है...”

नहीं मालूम कि यह पौराणिक आख्यान कितना सच होगा पर आज इस सबकी अनुभूति सी होने लगी है। वर्षा का चक्र बिगड़ गया है, अन्न की कमी हो ही चुकी है और पृथ्वी उपले की तरह तो नहीं जल रही पर तापमान खूब बढ़ गया है और वैसा ही कुछ अहसास दे रही है।

जलवायु वैज्ञानिकों का एक वर्ग भी मानता है कि हर एक लाख वर्ष के बाद धरती 15-20 हजार वर्ष तक गर्म रहती है और वर्तमान जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया कोई 18 हजार वर्ष पहले शुरू हो गई थी। उनके अनुमान के अनुसार प्लेस्टोसीन हिमयुग के बाद यह प्रक्रिया आरम्भ हुई होगी। इस युग में उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया हिम की अत्यन्त मोटी परतों से ढँके पड़े थे।

यह भी अनुमान है कि करीब दो हजार साल बाद हिम युग की ओर लौटते समय खूब लम्बी वर्षा होगी और धरती अन्तत: एक लाख वर्ष के लिये हिमयुग में लौट जाएगी। कुल मिलाकर, इंटर-ग्लेशियल पीरियड कहा जाने वाला ज्यादा तापमान वाला यह वर्तमान काल मात्र 20 हजार वर्ष के आस-पास का होगा और करीब 18 हजार वर्ष इसे हो चुके हैं। इस धारणा में भी कितना दम है, नहीं मालूम।

बहरहाल, धरती के वातावरण और तापमान के बारे में फ्रांस के फिजिसिस्ट जोसेफ फूरी ने 1824 के आस-पास ग्रीनहाउस गैस के सिद्धान्त का पहली बार प्रतिपादन किया। 1896 में स्वीडिश रसायनशास्त्री स्वान्ते अरेनियस ने कहा कि औद्योगिक युग शुरू होने के साथ ही सीओ-टू उत्सर्जन से ग्रीनहाउस प्रभाव बढ़ने लगा होगा। सम्भवत: यह भी किसी वैज्ञानिक ने पहली बार कहा कि मानव की गतिविधि से ग्रीनहाउस गैसें पैदा होती हैं।

बाद में 1938 में ब्रिटिश इंजीनियर गाई कैलेंडर ने जोड़ा कि जीवाश्म ईंधन जलने के कारण धरती का तापमान बढ़ा है। ये बातें लम्बे हिमयुग और छोटे तापयुग की थियरी से बहुत मेल नहीं खाती हैं, लेकिन ज्यादा तार्किक और वैज्ञानिक लगती हैं।

इस तार्किक और वैज्ञानिक धारणा को आगे बढ़ाते हुए 1975 में अमेरिकी वैज्ञानिक वैलेस ब्रोकर ने अपने एक शोधपत्र में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ फ्रेज़ का उपयोग किया। इसके चार साल बाद 1979 में विश्व जलवायु सम्मलेन आयोजित हुआ। इस सम्मलेन ने विश्व सरकारों से आग्रह किया कि जलवायु परिवर्तन में मानव की भूमिका को समझें और इस पर अंकुश लगाएँ।

इसके बाद तो बहुत कुछ हुआ। मसलन, 1987 में मांट्रियल प्रोटोकॉल अस्तित्व में आया और 1988 में संयुक्त राष्ट्र ने आईपीसीसी का गठन किया और 1990 में आईपीसीसी की पहली रिपोर्ट सामने आई। 1992 में संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी शिखर सम्मलेन हुआ और पाँच साल बाद 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत औद्योगिक देशों से कहा गया कि 1990 के दशक में गैसों के उत्सर्जन का जो स्तर था, उससे भी पाँच फीसद कम उत्सर्जन का लक्ष्य वे 2008-2012 के बीच हासिल कर लें। अनेक देश इस लक्ष्य से सहमत नहीं थे। अमेरिका ने तो क्योटो प्रोटोकॉल से स्वयं को बाहर ही कर दिया था।

वर्ष 2005 में क्योटो प्रोटोकॉल धरातल पर आया पर जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न स्थिति में कोई सुधार नहीं है। विश्व की विवश जनता जलवायु परिवर्तन को लेकर होने वाले शिखर सम्मेलनों पर आस लगाए रहती है पर निकलता कुछ नहीं है। इस विषय पर पेरिस में कॉप-21 शिखर बैठक होने जा रही है पर अब तक दुनिया की सरकारों ने जो किया, उसे देखते हुए कॉप-21 से भी अधिक आशा करना मूर्खता ही होगा। लगता है कि गोलचक्कर काटकर हम बार-बार उसी जगह पहुँच जाते हैं जहाँ से यात्रा आरम्भ करते हैं।

जलवायु परिवर्तन के बहुत सारे आयाम हैं पर यहाँ पानी पर ही बात करेंगे और वह भी हिमालय के पानी पर। उस हिमालय के बारे में जो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद सबसे ज्यादा बर्फ अपने पास आज भी रखे हुए है।

जलवायु परिवर्तन के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है और हिमालय के हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से वर्षा के पैटर्न में भी परिवर्तन हुआ है और जो हिमनद बचे हैं, उनके समाप्त होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। अर्थात, वर्षा कम होगी तो हिम कम बनेगा और जितना बनेगा भी उतना टिकेगा भी नहीं तापमान बढ़ने के कारण।

जलवायु परिवर्तन के कारण भारत और तिब्बत के हिमालय क्षेत्र के अलावा गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसी सदानीरा कही जाने वाली नदियों के बेसिनों में रहने वाली करोड़ों की आबादी प्रभावित हो रही है। संकट इतना बढ़ गया है कि कोई नहीं जानता कि ये नदियाँ कब तक सदानीरा रहेंगी।

जिन 16 हजार से अधिक हिमालयी हिमनदों पर ये नदियाँ निर्भर हैं, वे स्वयं अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका आकर छोटा हो रहा है और उनमें जो हिम है उसकी सघनता में भारी कमी आ रही है।

आईपीसीसी की 2007 की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि मानव गतिविधियों के कारण बढ़े तापमान के कारण भविष्य में इन नदियों में जलवायु परिवर्तन के कारण पानी का बहाव काफी कम हो जाएगा और उनका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।

एक और खतरे की घंटी है। भारतीय विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक जे. श्रीनिवासन तो पहले ही कह चुके हैं कि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत के अधिकतम हिस्सों के सतही वायु तापमान में आधा डिग्री की वृद्धि हुई, लेकिन हिमालय क्षेत्र में यह वृद्धि एक डिग्री सेंटीग्रेड की रही। इसी वजह से हिमनदों के पिघलने की गति तेज हुई।

हिमालयी कृषि पर तापमान बढ़ने का बुरा असर आज कोई भी देख सकता है। हिमालयी राज्यों में कृषि लगभग समाप्त होने का कारण केवल वन्य पशुओं का हस्तक्षेप नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन प्रमुख है।

जलवायु परिवर्तन के कारण भारत और तिब्बत के हिमालय क्षेत्र के अलावा गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसी सदानीरा कही जाने वाली नदियों के बेसिनों में रहने वाली करोड़ों की आबादी प्रभावित हो रही है। संकट इतना बढ़ गया है कि कोई नहीं जानता कि ये नदियाँ कब तक सदानीरा रहेंगी। जिन 16 हजार से अधिक हिमालयी हिमनदों पर ये नदियाँ निर्भर हैं, वे स्वयं अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका आकर छोटा हो रहा है और उनमें जो हिम है उसकी सघनता में भारी कमी आ रही है।

केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट “हिमालयन ग्लेशियर्स” भले ही कहती हो कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी हिमनद प्रभावित हुए हैं। लेकिन, हिमनदों की टर्मिनस पोजीशन की नाप से पता चलता है कि हिमालय क्षेत्र के हिमनद पिछले कुछ दशकों से निरन्तर घट रहे हैं।

उदाहरण के लिये 1960 के दशक से लेकर अब तक सगरमाथा (एवरेस्ट) क्षेत्र की घटने की दर औसतन 5.5-8.7 एम/ए रही है। हाल के वर्षों में हिमनदों का आकार घटने की दर में और तेजी आई है। हिमनदों में बर्फ ज़मने में भी कमी आई है। हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति में 915 किमी। क्षेत्र में हिमनदों के फोटो कुछ वर्ष तक कुछ-कुछ अन्तराल के बाद लिये गए और फिर तमाम फोटो का मिलान किया गया।

पता चला कि 1999 और 2004 के बीच यहाँ के हिमनद 0.85 मीटर प्रतिवर्ष के औसत से घट गए थे। वर्ष 2000 में नासा ने चित्र उपलब्ध कराए थे और 2004 में फ्रांस के सेटेलाईट स्पाट-5 ने इसी इलाके के भिन्न कोणों से खींचे दो चित्र मुहैया कराए थे। स्टीरियोस्कोपिक फोटोग्रैमीट्रिक तकनीक से यह अध्ययन किया गया था।

उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद सबसे ज्यादा हिम हिमालय क्षेत्र में उपलब्ध है और यही खतरे में हो जाएगा तो फिर किसी की खैर नहीं। हजारों हिमनदों और सैकड़ों नदियों का स्रोत है हिमालय। एशिया की अनेक महत्त्वपूर्ण नदियाँ हिमालय से निकलती हैं।

पोलर यानी ध्रुवीय क्षेत्र से बाहर 72 किमी। लम्बा और 2 किमी। चौड़ा सबसे बड़ा सियाचिन हिमनद भी हिमालय क्षेत्र में ही विद्यमान है। बल्तोरो, बायाफो, नूब्रा, हिस्पार, बंदरपूंछ, डोकरियानी, खतलिंग, दूनागिरि, तिपराबमक जैसे हिमनद सब हिमालय क्षेत्र में ही हैं। ये सब किसी-न-किसी नदी का स्रोत हैं।

वर्ष 2000 में विश्व बैंक और जल संसाधन मंत्रालय भारत सरकार की एक रिपोर्ट “इंटर-सेक्टोरल वाटर अलोकेशन, प्लैनिंग एंड मैनेजमेंट” के अनुसार 2050 तक केवल ब्रह्मपुत्र, बराक और तादरी से लेकर कन्याकुमारी तक पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों में ही ठीक-ठाक पानी रह जाएगा। इस रिपोर्ट में फुटनोट के तौर पर यह बात भी कही गई है कि 2050 तक अधिकतर हिमनद लुप्त ही हो जाएँगे।

इस हिसाब से हिमनदों के लुप्त होने में 35 साल ही बचे हैं। राजेन्द्र पचौरी के अनुसार तो ये हिमनद 2035 तक ही गायब हो सकते हैं। और, इस हिसाब से तो बीस साल ही बचे हैं। ऐसा होगा तो गंगा बेसिन में रहने वाले करोड़ों लोगों का क्या होगा? चीन के अनुसन्धानकर्ताओं ने तिब्बत में जो शोध किया है, उसके अनुसार तो हिमनदों के तेजी से पिघलने से उनकी स्थिति ही खराब नहीं हो रही है बल्कि बाढ़ की स्थिति भी पैदा हो गई है।

सन्देश अन्त में यही है कि हमारे पास हिमालय को बचाने का समय ज्यादा नहीं है।

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