पानी का सच


धरती की सतह पर मौजूद पानी और समुद्रों का पानी सूर्य की तपन से वाष्प बनकर बादल बनता है। यही पानी वर्षा या बर्फ के रूप में वापस धरती पर लौटता है। इस पानी का कुछ भाग झीलों, झरनों में रहता है और नदियों में बहते हुए समुद्र में जा मिलता है।

धरती पर कुल 14000 लाख घन किमी पानी है। इतने पानी से पूरी धरती पर 3000 किमी मोटी परत बन सकती है, पर कुल पानी का 2-7 प्रतिशत पानी ही शुद्ध पानी है। इसका भी अधिकांश हिस्सा ध्रुवों पर जमा है। यह पानी उपयोग के लिये नहीं है। एक प्रतिशत से भी कम पानी हमें उपलब्ध है। यह नदियों, झीलों, कुँओं, तालाबों और भूमिगत भंडारों के रूप में है। यही थोड़ा सा पानी प्रतिशत वाष्पन और फिर वर्षा के जरिए हमें मिलता रहता है। समुद्री पानी भी वाष्पित होकर वर्षाजल के रूप में आता रहता है। अब भारत में पानी की लगातार होती कमी सामने है। धरती के 2-45 प्रतिशत टुकड़े में पूरी धरती की 17 प्रतिशत आबादी बस्ती है। बहुत स्वाभाविक है पानी सहित सभी संसाधन भारी दबाव में है। 2030 तक पानी की माँग 1500 घन किमी होगी जबकि हमारे पास इसका केवल आधा होगा। धरती का जलचक्र लगातार समुद्री खारे पानी को वाष्पित कर शुद्ध जल देता रहता है और जो वर्षा के माध्यम से फिर समुद्र में चला जाता है।

हकीकत तो यह है कि पानी की एक-एक बूँद जलचक्र में कैद है। धरती की सतह पर मौजूद पानी और समुद्रों का पानी सूर्य की तपन से वाष्प बनकर बादल बनता है। यही पानी वर्षा या बर्फ के रूप में वापस धरती पर लौटता है। इस पानी का कुछ भाग झीलों, झरनों में रहता है और नदियों बहते हुए समुद्र में जा मिलता है। इसी पानी का कुछ हिस्सा धरती में रिसकर भूमिगत जल भंडार भरता है। पौधे भी भूमि का पानी जड़ों द्वारा सोखकर ट्रांसपिरेशन द्वारा वायुमंडल में छोड़ते हैं। यही पानी का रोचक संसार है। यह संसार खुद-ब-खुद संचालित है।

कितने पानी में है दुनिया


जलचक्र के जरिए समूची धरती को पानी मिले, यह जरूरी नहीं। पृथ्वी पर उपलब्ध शुद्ध पानी समान जगह से सभी जगह वितरित हो, यह भी जरूरी नहीं है। जहाँ जितना पानी चाहिए नहीं है। दूसरी ओर ऐसे स्थान हैं- अत्यधिक पानी मौजूद है। पानी भी जरूरत के विपरीत। दुनिया भर में पानी की उपलब्धता में भारी अंतर है। धरती पर एशिया की 60 प्रतिशत आबादी को 36 प्रतिशत पानी है, यूरोप की 13 प्रतिशत आबादी को 8 प्रतिशत, अफ्रीका की 13 प्रतिशत आबादी को 11 प्रतिशत, उत्तर मध्य अमेरिका की 8 प्रतिशत आबादी को 15 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड की 1 प्रतिशत आबादी को 6 प्रतिशत पानी उपलब्ध है। ऐसा इसलिये है कि जहाँ दुनिया की एक तिहाई आबादी है, वहाँ 1 चौथाई वर्षा होती है। आमतौर पर मौसमी वर्षा का जल ही पेयजल का प्रमुख स्रोत है।

भारत में मानसून के दौरान 90 प्रतिशत वर्षा होती है। यह वर्षा जून से सितम्बर के बीच होती है। अब पानी का कुदरती चक्र गड़बड़ा चुका है। जंगलों की बड़ी मात्रा में कटाई, हरियाली का खत्म होना, भूमि के बदलते उपयोग, बाँधों और नहरों का निर्माण और नेटवर्क सिंचाई तथा ड्रेनेज व्यवस्थाएँ मौजूदा जल भंडारों की दुर्गति का कारण हैं। मौसमी साफ पानी की उपलब्धता में भारी अंतर है। आइसलैंड में 60,000 घनमीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष पानी है तो वहीं दूसरी ओर कुवैत में 75 घनमीटर ही है। समूची दुनिया में जल की स्थिति, उपलब्धता और गुणवत्ता लगातार बिगड़ रही है।

जल वैज्ञानिकों ने दुनिया भर की नदियों में सालाना बहने वाली पानी की मात्रा के अनेक आकलन किये हैं जो धरती पर कुल स्वच्छ जल भंडारों की तस्वीर पेश करते हैं। वर्षा के दौरान यह जल बहाव औसतन 35,000 से 50,000 घन किमी है जो धरती पर मौजूद पानी का केवल 0-8 प्रतिशत ही है। दुनिया भर की 227 बड़ी नदियों में से 6-5 प्रतिशत में पानी की धाराएँ टूट रही हैं, ठहराव आ रहा है। इस बहाव में बाँधों के अलावा भी अनेक बाधाएँ हैं। पानी लगातार घट रहा है। 1990 में 9000 घनमीटर पानी प्रतिव्यक्ति को साल भर में मिलता था, जो अब घटकर 6000 घनमीटर हो चुका है। 2025 तक यही पानी और घटकर 5000 घनमीटर होगा। तब तक धरती पर 8 अरब लोग होंगे। पानी का प्रदूषण सभी सीमाएँ पार कर लेगा। इसके बावजूद भी धरती पर उपलब्ध पानी सभी के लिये पर्याप्त है, बशर्ते इस पानी को धरती की आबादी के बीच समान रूप से वितरित कर दिया जाए। पानी की मौजूदा माँग 5500 घन किमी है। इसका 80 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई शेष उद्योग, ऊर्जा उत्पादन और घरेलू खर्चा में चला जाता है। तमाम सरकारी उपायों के बाद भी दुनिया की लगभग 35 प्रतिशत आबादी साफ और सुरक्षित पानी से वंचित है। 50 प्रतिशत के पास पर्याप्त पानी नहीं है। अगले 25 वर्षों में भारत, चीन सहित पेरू, नाइजीरिया, कीनिया, इथोपिया जैसे देशों में स्थितियाँ गम्भीर होंगी। भारत के 50 प्रतिशत शहरी, 85 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में पानी चिंताजनक ढंग से विलुप्त हो रहा है। 3400 विकासखण्डों में से देखा गया कि 449 विकासखण्डों में 85 प्रतिशत से अधिक पानी खत्म है। ज्यादातर राज्यों में भूमिगत जलस्तर 10 से 50 मीटर तक नीचे जा चुका है। अब भारत के अधिकांश नगर गम्भीर पानी की कमी से ग्रस्त हैं।

धरती पर आज भी उतना ही पानी है, जितना 2000 साल पहले था जबकि आबादी मौजूदा आबादी का 2 प्रतिशत ही थी। अब पानी की माँग और इसके वितरण को लेकर झंझटें बढ़ी हैं। किस क्षेत्र को किस काम के लिये कितना पानी मिले, तय करना मुश्किल है। लगता है इक्कीसवीं सदी में पानी की वही भूमिका होगी जो बीसवीं सदी में पेट्रोलियम की थी। यदि सावधानी न बरती गई तो दुनिया भर में पानी को लेकर झगड़े विवाद चरम पर होंगे। पानी की कमी समूचे विकास को मटियामेट कर देगी।

मुसीबत तो यह है कि हमारे यहाँ कचरा निपटाने के लिये नदियों और जलस्रोतों को सुविधाजनक मानते हैं। अब सीवेज, औद्योगिक कचरा, तेल टैंकों की लीकेज, रसायनों और कीटनाशकों के अम्बार भी पानी में डाले जाते हैं। बढ़ते शहरीकरण ने कृषि और उद्योग के तरीकों में बदलाव किया है। बड़े औद्योगिक नगर घरेलू कचरे के साथ औद्योगिक कचरा और सीवेज भी जलस्रोतों में डाल रहे हैं। यह स्वास्थ्य के साथ इकोसिस्टम के लिये भी खतरा है।

भारत के सभी 13 नदी सिस्टम गहरे संकट में है। मरते नदी सिस्टम को देखना है तो दिल्ली में यमुना को देख लीजिए। बेतहासा उपयोग के कारण यमुना का कुदरती जल गायब हो गया है, बचा है अत्यधिक प्रदूषित गंदे पानी का नाला। इसकी बी.ओ.डी. बहुत अधिक बढ़ चुकी है। पानी की बी.ओ.डी. तभी बढ़ती है, जब उसमें भारी मात्रा में कार्बनिक सीवेज मिल जाए। 3 मिग्रा/लीटर बी.ओ.डी. एक आदर्श मानक है जो यमुना के जल में 500 मिग्रा/लीटर के ऊपर पहुँच चुका है। इसी पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा लगभग खत्म है। इसका मतलब यह है कि इस पानी में अब जलीय जीवन संभव नहीं। सीवेज जो पानी में मिलता है, के ट्रीटमेंट की व्यवस्थाएँ ठीक नहीं। सीवेज उपचार खराब हैं। ज्यादातर सीवेज का उपचार नहीं होता। पानी में कॉलीफार्म काउंट की अधिकतम सीमा 500 होती है जो यमुना के जल में 1,50,000 तक पहुँच चुकी है।

आज दुनिया जल संकट के गंभीरतम दौर से गुजर रही है। धरती पर ऐसा संकट न किसी ने देखा और ना भोगा। पानी के लिये जूझते देशों के लिये यह अंतिम चेतावनी है। तत्काल सख्त कदम उठाकर हालात को काबू में करने का समय है। अच्छी कारगर रणनीति और योजनाबद्ध नीतियाँ अब भी हालत सुधार सकती हैं। कम जल के उपयोग की जीवनशैली अपनानी होगी। जल की बचत और सुरक्षा को आदत का हिस्सा बनाना होगा। इस संकट से उबरना है तो तुरंत फैसले लेने होंगे। अब सरकारों, संस्थाओं और प्रत्येक व्यक्ति के लिये पानी सर्वोच्च प्राथमिकता का एजेन्डा होना चाहिए। जलस्रोतों और उनकी उपलब्धता के ऊपर ही समूचा विकास टिका है, ये बात अब समझ लेनी चाहिए। स्थानीय स्तर से लेकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक पानी पर केन्द्रित नीतियाँ बनानी होंगी। जल-ग्रहण क्षेत्रों का विकास, रिवर बेसिन प्रबंधन और जल की हार्वेस्टिंग जैसे काम होने चाहिए।

केवल कृषि में ही कुल मौजूद पानी का 70 प्रतिशत हिस्सा खर्च होता है। जब वास्तविक रूप में सिंचाई हेतु 45 प्रतिशत पानी ही काम आता है।

जल संकट से बचने के उपाय भी हैं


प्रभावी तरकीबों से 25 प्रतिशत पानी बचाया जा सकता है। एक तो पानी की बर्बादी, दूसरे इससे वाटर लॉगिंग तथा फसलों के पानी में डूबने के खतरे रहते हैं। दुनिया के कुल 800 लाख हेक्टेयर भूमि सेलीनेशन तथा वाटर लॉगिंग से नष्ट होती है। प्रभावी सिंचाई के तरीके, पानी की बचत तो करते ही हैं, (बेहतर ड्रिप सिंचाई ऐसी ही एक तरकीब है) इससे पानी फसलों की जड़ों तक सीधे पहुँचता है। इससे पानी का वाष्पन घटता है, साथ ही 95 प्रतिशत परिणाम मिलते हैं। इससे 50 प्रतिशत तक पानी बचता है। लो एनर्जी प्रिसीजन प्रयोग भी एक कारगर सिंचाई व्यवस्था है जो 95 प्रतिशत परिणाम देने के साथ 20 से 50 प्रतिशत तक ऊर्जा की बचत भी करती है। सिंचाई तकनीकें भी अच्छी और जाँची परखी तरकीबें हैं।

उपचारित शहरी गंदे पानी (ब्राउन वाटर) का उपयोग फार्म्स में सब्जियों और फलों की पैदावार के लिये उपयोगी हो सकता है। कोलकाता में सीवेज को लागूंस में से जाकर मछली उत्पादन होता है। यह 3000 हेक्टेयर का लागूंस लगभग 6000 मीट्रिक टन मछली प्रतिवर्ष देता है। यहाँ सतर्कता की भी जरूरत है क्योंकि बिना उपचारित किया सीवेज फलों, सब्जियों और मछलियों में बीमारियों के कीटाणु फैला सकता है। इस हालत में उपचारित सीवेज का प्रयोग ही ठीक होगा। उद्योगों में भी पानी की खपत बहुत अधिक होती है। एक टन स्टील को बनाने में 300 लीटर पानी खर्च होने वाली तकनीकें अपनाई जा रही हैं। कुछ उद्योगों में उत्पादन प्रक्रिया में सुधार कर पानी की खपत को घटाया गया है।

तीसरा सर्वाधिक खपतवाला क्षेत्र घरेलू उपयोग का है। नगरों की जल वितरण व्यवस्थाओं में जल प्रदाय और माँग के बीच संतुलन और प्रबंधन विकसित होना चाहिए। (जल वितरण प्रणालियों में उपभोक्ता तक जल पहुँचाने के पहले लीकेज और अन्य माध्यमों से बर्बादी रोककर भी पानी बचाया जा सकता है। अवैधजल प्रदाय से पानी के दुरुपयोग की मनमानी भी रुकनी चाहिए। सहज और प्रदाय भी पानी की फिजूलखर्ची बढ़ाता है। उपभोक्ता वास्तविक जरूरत से ज्यादा पानी बहाते देखे जा सकते हैं। भारत में जल प्रदाय का 40 प्रतिशत पानी उपभोक्ता को वितरण के पहले ही व्यर्थ बह जाता है। केवल ढीले नल पाइप लाइन ज्वाइंट को कसने और लीक होती टोटियों को सुधारने से ही व्यर्थ होता एक तिहाई पानी बचाया जा सकता है। अवैध नल कनेक्शन भी बंद करना पानी की बचत को बढ़ावा देगा। उपचारित व्यर्थ गंदे पानी को शौचालयों में फ्लश करने, कारों को धोने, फर्श इत्यादि साफ करने तथा बागवानी के काम में लेना अच्छी पहल हो सकती है। पानी की लीकेज के अलावा नगरों में सामुदायिक जल या तो अत्यधिक सस्ता है या मुफ्त में मिलता है।

अब पानी को आवश्यक वस्तु मानते हुए इसकी कीमत आँकते हुए उचित मूल्य पर विक्रय होना चाहिए। इससे पानी के संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा। जल प्रदाय योजनाओं पर भारी राशि खर्च होती है, जबकि उपभोक्ता से केवल वितरण की लागत का 36 प्रतिशत ही वसूला जाता है। कीमतें बढ़ाकर बेहतर प्रदाय प्रबंधन और रख-रखाव किया जा सकता है। कुछ ऐसे तरीके भी अपनाए जाएँ तो सामुदायिक जल की माँग को कम कर सकें। बिल्डिंग कोठ लागू कर कम पानी के शौचालय, कम पानी की लैंडस्कैपिंग (जेरीस्कैपिंग) जैसी व्यवस्थाएँ भारत जैसे विकासशील देशों के लिये काफी कारगर हो सकती है।

ऐसे क्षेत्रों में जल संग्रहण क्षेत्रों के विकास के उपयोगी प्रयास हो सकते हैं, जहाँ नदियों और जलाशयों का पानी किसी विशेष वाटर बॉडी में पहुँचता हो। किसी नदी या झील को समग्र रूप से सम्पूर्ण जल-ग्रहण रूप में देखा जाना चाहिए, जिससे भौतिक, रासायनिक या बायोघटक एक समन्वित सिस्टम के रूप में रहते हैं। इन जल ग्रहण क्षेत्रों में रहने वाली आबादी ने प्राकृतिक नदी जल व्यवस्था जल-ग्रहण क्षेत्र, ड्रेनेज व्यवस्था को पूरी तरह बिगाड़ दिया है। कुदरती जल ग्रहण क्षेत्रों का यह बिगाड़ ही मुसीबतों का कारण है। हरियाली खो चुकी नंगी पहाड़ियाँ, जल स्रोतों और जलधाराओं में लाखों टन कचरे और मिट्टी का पटाव अब बरसात में बाढ़ का कारण बन रहा है। सूखे मौसम में जलीय जीवन खत्म हो चुका है। जंगलों के विनाश से भूमि नष्ट हो रही है। मौसम चक्र में बदलाव से कहीं अवर्षा और सूखा पैदा हो रहा है तो दूसरी ओर अधिक वर्षा होती है तो तेजी से बहकर पकड़ के बाहर हो रहा है।

भारत में प्रतिवर्ष वर्षा और बर्फबारी को जोड़कर देखें तो 4000 लाख हेक्टेयर भूमि को इससे लाभ हैं। यदि देश में लैंड क्षेत्र में ½ प्रतिशत क्षेत्र की वर्षाजल को रोक लिया जाए तो यह 10 लाख आबादी को प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 100 लीटर पानी दे सकती है। पानी की हार्वेस्टिंग में जल समस्या के हल छिपे हैं। बहुत सीधी बात है, जहाँ पानी बरसे, उसे रोक लो सतही जल स्रोत भरने दो, इसके साथ ही भूमिगत जल भी रिस-रिसकर रिचार्ज होगा। मिजोरम की ज्यादातर पानी की जरूरतें रूफटॉप वाटर हार्वेस्टिंग से ही पूरी होती है। चेन्नई में यह कानून शर्त है कि यदि म्यूनिस्पल नल कनेक्शन चाहिए तो वर्षाजल की हार्वेस्टिंग करनी होगी। चेकडैमों का निर्माण, चैनल बनाकर गहरे कुँओं में पानी इकट्ठा करना अच्छी पहल हो सकती है। पानी की कीमत समझकर इसको निर्धारित करना अब समय की माँग है। इससे ट्रीटमेंट, अधोसंरचना, विकास और वितरण व्यवस्थाओं की लागत वसूल होगी, साथ ही पानी का उत्तम प्रबंधन होगा।

दुख और हैरत की बात है कि आज दुनिया भर में डेढ़ अरब लोग पानी से वंचित हैं, तीन अरब के पास उचित साफ-सफाई और शौचालय नहीं हैं। लगभग 40 लाख लोग, जिनमें ज्यादातर बच्चे शामिल हैं, दूषित पानी से होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं। प्रतिदिन 20 लाख औद्योगिक तथा कृषि कचरा जलस्रोतों में डाल दिया जाता है, इसके साथ ही प्रतिवर्ष 1500 घन किमी पानी वेस्ट वाटर के रूप में निकलता है। हमारे पास पीने के पानी के नाम पर केवल 0-08 प्रतिशत ही है, जबकि धरती का 75 प्रतिशत हिस्सा पानी से भरा है साफ पानी की समस्याओं से जूझने वाले देशों में अब भारत तीसरे नम्बर पर हैं इस सूची में बेल्जियम, कनाडा, ब्रिटेन और जापान में सबसे अच्छा पानी उपलब्ध है।

यह सच है कि तस्वीर रातों-रात नहीं बदल सकती पर कुछ तो करना ही होगा। फौरी उपायों के लिये पीने के पानी की शुद्धता को ही लें तो क्लोरीनेशन एक प्रमाणिक तरीका है जो बीमारी पैदा करने वाले तमाम तरह के बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। गरीब और विकासशील देशों में पानी के शुद्धीकरण के लिये अधिक खर्च नहीं कर सकते, सोलर वाटर डिसइन्फेक्शन एक बेहतरीन और बिना लागत के तकनीक है।

लेखक परिचय


लेखक इग्नू मध्य प्रदेश के निदेशक हैं।

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