पानी का संकट : निजात पाने के लिये ठोस कदम जरूरी

 

तालाब कुएँ और नदियाँ ही पारम्परिक जलस्रोत रहे हैं। लेकिन बदलते दौर और लोगों की बदलती सोच के कारण कुएँ, तालाब और नदियाँ उपेक्षा का शिकार हो गईं। सफाई न होने से तालाब पटने लगे या उन पर अवैध कब्जे होने लगे, जिससे बरसात के जल संचयन की प्राकृतिक प्रणाली प्रभावित हुई है। हैण्डपम्पों की सुविधा मिलने के साथ ही कुएँ भी बदहाली के शिकार हो गए। अब हालत यह है कि शहरों में ही नहीं, गाँवों में भी कुएँ या तो सूख गए हैं या पट गए हैं।

देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है। अधिकांश राज्यों में जलस्तर लगातार नीचे खिसक रहा है। अब स्थिति यह हो गई है कि पानी आम आदमी की पहुँच से दूर होता जा रहा है। पानी के कारण आबाद होने वाली सभ्यताएँ खत्म होने की कगार पर पहुँच रही हैं।

पूरे देश में पानी के लिये हाहाकार मचने लगा है। स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। उत्तर प्रदेश के हालात भी खराब हैं प्रदेश सरकार 39 जिलों में 692 और बुन्देलखण्ड में 402 टैंकरों से पानी की आपूर्ति करा रही है। पानी को लेकर केन्द्र और प्रदेश सरकार के बीच भी टकराव के आसार बनने लगे हैं।

देश में पानी की आवश्यकता और उपलब्धता के बीच का अन्तर लगातार बढ़ रहा है। पिछले छह दशकों में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता में 70 फीसदी तक की गिरावट आई है। वर्ष 2001 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1816 घन मीटर थी जो 2011 में घटकर 1545 घन मीटर रह गई। आँकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2010 में देश को 813 अरब घन मीटर पानी की जरूरत थी, जो 2025 तक बढ़कर 1093 अरब घन मीटर हो जाने की सम्भावना है।

जिस गति से देश की जनसंख्या बढ़ रही है, उस हिसाब से 2050 में 1447 अरब घन मीटर पानी की जरूरत होगी। यही हाल रहा तो उस समय जरूरत के अनुसार पानी नहीं मिलेगा। वर्तमान समय में देश की आबादी और पानी का आवश्यकता तो लगातार बढ़ रही है, लेकिन इसकी उपलब्धता लगातार घट रही है, जो किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है।

कृषि प्रधान राज्य उत्तर प्रदेश में 70 फीसदी कृषि क्षेत्र सिंचाई के लिये भूजल संसाधनों पर ही निर्भर है। पेयजल एवं औद्योगिक सेक्टरों की अधिकांश जल आवश्यकताओं की पूर्ति भी भूजल संसाधनों से ही होती है। 1970 के दशक के बाद से भूजल के दोहन में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। अतिदोहन के कारण ही जलस्तर लगातार गिरता जा रहा है। वर्ष 2000 में प्रदेश में भूजल दोहन की दर 54.31 प्रतिशत आँकी गई थी, जो 2011 में बढ़कर 73.65 प्रतिशत हो गई।

इस समय उत्तर प्रदेश के 169 विकासखण्ड संकटग्रस्त स्थिति में आ गए हैं। प्रदेश के प्रमुख शहरों मेरठ, गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, लखनऊ, वाराणसी, कानपुर और इलाहाबाद आदि शहरों में भूजल स्तर में प्रतिवर्ष 41 सेमी से 91 सेमी की दर से औसत गिरावट रिकार्ड की गई है।

पानी का बढ़ता संकट प्राणियों को दो तरह से प्रभावित कर रहा है, एक तो इसकी कमी और दूसरा प्रदूषण। तीसरा बड़ा कारण है बरसात में बाढ़।

पूर्वी उत्तर प्रदेश व महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में पानी पाताल की ओर बढ़ता जा रहा है तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पानी जहर बनता जा रहा है। ऐसी परिस्थितियों में वहाँ के प्राणियों की आबादी प्रभावित हो रही है। यूँ तो पानी बचाने और पानी के प्रति जागरुकता के लिये सरकार व समाजसेवी संस्थाएँ खूब अभियान चला रही हैं, लेकिन स्थायी समाधान के प्रयास कहीं से नहीं हो रहे हैं। फिलहाल, राहत वाले फैसले जरूर लिये जा रहे हैं।

इस समय सबसे बड़ी जरूरत इस सवाल का जवाब खोजने की है कि समस्या का स्थायी समाधान क्या हो सकता है? इस समस्या स्थायी समाधान के लिये हमें भविष्य के और अधिक गम्भीर संकट को ध्यान में रखना होगा। क्योंकि आज जिस स्थान के भूजल या सतही जल से ट्रेन को भरा जा रहा है, कल वहाँ भी संकट आना लाजिमी है।

तालाब कुएँ और नदियाँ ही पारम्परिक जलस्रोत रहे हैं। लेकिन बदलते दौर और लोगों की बदलती सोच के कारण कुएँ, तालाब और नदियाँ उपेक्षा का शिकार हो गईं। सफाई न होने से तालाब पटने लगे या उन पर अवैध कब्जे होने लगे, जिससे बरसात के जल संचयन की प्राकृतिक प्रणाली प्रभावित हुई है। हैण्डपम्पों की सुविधा मिलने के साथ ही कुएँ भी बदहाली के शिकार हो गए।

अब हालत यह है कि शहरों में ही नहीं, गाँवों में भी कुएँ या तो सूख गए हैं या पट गए हैं। इन जलस्रोतों के साथ लोगों का यह बर्ताव दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा और इसका दुष्प्रभाव जलसंकट व भूजल स्तर में गिरावट के रूप में देखने को मिल रहा है। सरकार व लोगों की अदूरदर्शिता के कारण नदियाँ भी प्रदूषित होती गईं, जिससे पशु-पक्षियों के लिये भी पानी की गम्भीर समस्या खड़ी हो गई।

अब यह आवश्यक हो गया है कि हम समय से पहले ही भविष्य के संकट को भाँप लें और ऐसे समाधान की ओर ठोस कदम बढाएँ जो दूरगामी और स्थायी हों। इसके लिये सबसे पहले हमें देशभर के तालाबों को पुनर्जीवित तथा नदियों को प्रदूषणमुक्त करना होगा। तालाब बचाने व बनाने से जहाँ भूजल का स्तर बढ़ेगा वहीं जिन गाँवों में तालाबों की गन्दगी के कारण भूजल प्रदूषित हो गया है वहाँ के भूजल की अशुद्धियाँ भी दूर होंंगी।

देश भर में अवैध कब्जे और बदहाली के शिकार तालाबों को पुनर्जीवित करने या बनाने का यह काम आसान नहीं लगता। इसके लिये केन्द्र व राज्य सरकारों को ठोस प्रयास करना होगा और साथ ही लोगों को भी जागरूक होना पड़ेगा, तभी इस दिशा में कुछ सकारात्मक नतीजे सामने आएँगे।

तालाबों को पुनर्जीवित करने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर तालाब विकास प्राधिकरण का गठन भी किया जा सकता है। तालाबों को पुनर्जीवित करने की इस मुहिम में समाज की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी, क्योंकि अगर उन्होंने अपने तालाब बचाने के लिये कदम-से-कदम मिला दिया तो देश में जलक्रान्ति आ जाएगी और पूरी दुनिया भारत का अनुसरण करने लगेगी।

अगर सीवरेज को शोधित करके उसका पानी किसानों को सिंचाई के लिये दिया जा सके और ठोस को खाद में बदला जा सके तो यह प्रयास कृषि में क्रान्ति ला सकता है, क्योंकि किसान कृषि में करीब 86 प्रतिशत भूजल इस्तेमाल करते हैं, उसमें भी कमी आएगी। हो सकता है कि हर जगह ऐसा करना सम्भव न हो, लेकिन अधिकतर स्थानों पर ऐसा किया जा सकता है।

पानी की कमी व उसका प्रदूषण दोनों गम्भीर समस्याएँ हैं। अगर समाज और सरकार साथ मिलकर इन दोनों समस्याओं के प्रति गम्भीर हो जाएँ तो आने वाले समय में पैदा होने वाला गम्भीर जलसंकट टल सकता है। यह समस्या काफी गम्भीर है और इस पर सियासत नहीं जमीनी स्तर पर प्रयास करना होगा।
 

 

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