पानी के लिये महिलाओं ने चीरा पहाड़ का सीना


महिलाओं की दृढ़ इच्छा शक्ति के आगे पहाड़ भी नतमस्तक हो उठा। एक हजार फीट की ऊँचाई पर चढ़कर महिलाओं ने पहाड़ की छाती को चीरना शुरू किया। डेढ़ साल तक 70 महिलाओं की टीम ने हाड़तोड़ मेहनत की। पहाड़ की ढलान के साथ-साथ गहरी नालियाँ बनाई गई, जिन्हें बड़े पाइपों से जोड़ा गया, ताकि बारीश का पानी इनके जरिए नीचे चला आये। पाइप लाइन बिछाने के बाद नौ फीट गहरी सुरंग भी खोदी। इसमें भी प्लास्टिक की पाइप लाइन बिछाई। जिसे तालाब पर पहुँचाना था।

मस्तूरी ब्लॉक का ग्राम खोंदरा चारों तरफ से पहाड़ों से घिरा है। पूरा इलाका पानी की किल्लत से जूझता था। बारिश का पानी भी व्यर्थ चला जाता था। पानी न होने से खेती-बाड़ी पर बुरा असर पड़ रहा था। लेकिन गाँव की 70 महिलाओं ने साझा प्रयास कर वर्षाजल के संरक्षण का अनूठा प्रयास किया है। इसके लिये उन्हें पहाड़ का सीना चीरना पड़ा। महिलाओं द्वारा पाँच एकड़ में बनाए गए तालाब ने अब पानी की किल्लत को खत्म कर दिया है।

बारिश के पानी को पहाड़ से गाँव में लाने के लिये इन महिलाओं ने तीन साल तक खूब मेहनत की। इसके लिये एक हजार फीट की ऊँचाई पर चढ़कर पहाड़ को काटा और पाइप लाइन बिछाई। 20 फीट गहरी सुरंग भी खोदनी पड़ी। सुरंग खोदने के दौरान कठिनाइयाँ भी आईं, लेकिन हार नहीं मानी। 70 महिलाओं के इस जज्बे ने वर्षों से बंजर पड़े खेतों में हरियाली लहलहा दी है।

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर क्षेत्र के इस गाँव के रहने वालों के लिये बारिश का मौसम किसी मुसीबत से कम नहीं। यह गाँव चारों तरफ पहाड़ों से घिरा हुआ है। इसके कारण जब बारिश का पानी पहाड़ से नीचे गिरता तो इसकी रफ्तार भी काफी तेज हो जाती। तब इसे सहेजना काफी मुश्किल काम होता। बारिश का पानी पहाड़ से नीचे उतरता और नालों के जरिए नदी में चला जाता। अभिशाप कहें या फिर ग्रामीणों की नाकामी कि भारी बारिश के बाद भी खेत प्यासे रह जाते थे। अकाल के कारण यहाँ भुखमरी की स्थिति बनी रहती थी।

बंजर पड़े खेतों को देखकर महिलाओं ने अपने दम पर कुछ करने की ठानी। बस फिर क्या था। देखते-ही-देखते सखी महिला समूह के बैनर तले महिलाएँ एकजुट हो गईंं। सखी महिला समूह की हेमलता साहू ने एफ्रो नामक संस्था से सम्पर्क किया, जो इस तरह का काम करती है। संस्था के तकनीकी अधिकारियों ने खोंदरा पहुँचकर सर्वे किया। उन्होंने महिलाओं को बताया कि पहाड़ के पानी को किस तरह तालाब में सहेजा जा सकता है। योजना सामने थी। इस काम के लिये जरूरी संसाधन जुटाने थे। महिलाओं ने रोजी-मजदूरी से मिलने वाली राशि में से आधी रकम को जमा करना शुरू किया। सखी बैंक से एक लाख रुपए कर्ज भी मिला।

अब बारी थी पहाड़ से लड़ने की। लेकिन महिलाओं की दृढ़ इच्छा शक्ति के आगे पहाड़ भी नतमस्तक हो उठा। एक हजार फीट की ऊँचाई पर चढ़कर महिलाओं ने पहाड़ की छाती को चीरना शुरू किया। डेढ़ साल तक 70 महिलाओं की टीम ने हाड़तोड़ मेहनत की। पहाड़ की ढलान के साथ-साथ गहरी नालियाँ बनाई गई, जिन्हें बड़े पाइपों से जोड़ा गया, ताकि बारीश का पानी इनके जरिए नीचे चला आये। पाइप लाइन बिछाने के बाद नौ फीट गहरी सुरंग भी खोदी। इसमें भी प्लास्टिक की पाइप लाइन बिछाई। जिसे तालाब पर पहुँचाना था। पाइप लाइन के जरिए एक हजार फीट की ऊँचाई से गिरने वाले पानी को एक जगह पर इकट्ठा करने के लिये पाँच एकड़ का तालाबनुमा गड्ढा खोदा गया। इस बड़े तालाब में पानी को सहेजने के बाद एक दर्जन छोटे तालाब भी बनाए गए। इस पूरे काम में तीन साल का वक्त लग गया। तीन साल बाद अब खोंदरा के बंजर खेतों में हरियाली लौट आई है।

महिलाओं के हाथ में जल प्रबन्धन की जिम्मेदारी


यह जल संरक्षण से लेकर खेती किसानी के दौरान खेतों में सिंचाई की व्यवस्था भी महिलाओं की देखरेख में ही होती है। किस खेत में कितना पानी देना है और कब देना है, यह उनके ही जिम्मे है। मवेशियों और निस्तार के लिये अलग-अलग तालाब की व्यवस्था की गई है। दूरस्थ वनांचल ग्राम होने और महिलाओं के कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद यहाँ स्वास्थ्य के प्रति सजगता देखते ही बनती है।

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