पानी को तरसेगा आदमी

इस समस्या के जटिल हो जाने से मानव भूख, गंदगी तथा रोगों का शिकार बन बिना मौत के ही मर जाएगा। ये सब समस्याएं बढ़ती हुई आबादी पैदा कर रही है। मनुष्य में यदि दूरदर्शिता होती तो वह जनसंख्या बढ़ाने की विभीषिका अनुभव करता और अपने आपको रोकता, परंतु वर्तमान में ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। साथ ही पेयजल की समस्या भी सुलझती नहीं दिखाई देती। हम अपनी मूर्खता का दंड आज नहीं तो कल अवश्य भुगतेंगे।

पानी हमें बादलों से प्राप्त होता है। पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ, जिसके पिघलने से नदियां बहती हैं, वस्तुत: बादलों का ही अनुदान है। ये सूर्य की गर्मी से भ्रमण करती हैं। उनकी वर्षा से नदी-नाले, कुएं-तालाब, झरने-सोते बनते हैं। उन्हीं से उपरोक्त आवश्यकताएं पूरी होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ वृक्ष, वनस्पतियों, अन्न, सब्जी, कल-कारखानों की जो वृद्धि होती चली आ रही है, उससे पानी की मांग पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गई है। संसार में एक तरफ तो प्रत्येक देश में जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी ओर नित्य नवीन कारखाने व उद्योग-धंधों में भी वृद्धि हो रही है। इन दोनों ही अभिवृद्धि के लिए आगामी वर्षों में पेयजल की आवश्यकता भी बलवती होती जा रही है। पीने का पानी, गृहकार्य जैसे रसोई एवं सफाई, नहाने व कपड़े धोने के लिए प्रत्येक परिवार को पानी की नितांत आवश्यकता है। आज प्रत्येक परिवार को पानी चाहिए। जैसे-जैसे परिवार का स्तर उठता जाता है, उसी अनुपात से पानी की आवश्यकता भी बढ़ती जाती है। सर्वसाधारण मनुष्य अपने घर पर पेड़-पौधे, फल, घास-पात लगाते हैं, पशु पालते हैं- इन सभी के लिये पानी की आवश्यकता होती है। गर्मी के दिनों में तरावट व छिड़काव के लिए पानी की मांग बढ़ती ही चली जाती है।

कल-कारखानों में पानी की आवश्यकता बनी ही रहती है। जितना बड़ा कारखाना, उतनी ही उसकी मांग रहती है। भांप से चलने वाले रेल इंजन व दूसरी बड़ी-छोटी मशीनें पानी की अपेक्षा सदैव से रखती हैं। शोधन-संशोधन ढेरों गैलन पानी लेता है। नगरों में फ्लश के पाखाने, सीवर लाइनें आदि स्वच्छता हेतु अतिरिक्त पानी की आवश्यकता रहती है। कृषि और बागवानी का सारा दारोमदार पानी पर ही आश्रित है। हरियाली व वन संबंधी तत्व पानी पर ही जिन्दा है, जिनके लिए पानी की निरंतर आवश्यकता विद्यमान है। गंदगी बहाने, हरियाली उगाने और स्नान, रसोई के लिए भी जब पानी कम पड़ जाएगा तो कार्य कैसे चलेगा? कल-कारखाने कब तक किसके सहारे अपनी हलचल कायम रख सकेंगे?

वस्तुत: यह सारा पानी हमें बादलों से प्राप्त होता है। पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ, जिसके पिघलने से नदियां बहती हैं, वस्तुत: बादलों का ही अनुदान है। ये सूर्य की गर्मी से भ्रमण करती हैं। उनकी वर्षा से नदी-नाले, कुएं-तालाब, झरने-सोते बनते हैं। उन्हीं से उपरोक्त आवश्यकताएं पूरी होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ वृक्ष, वनस्पतियों, अन्न, सब्जी, कल-कारखानों की जो वृद्धि होती चली आ रही है, उससे पानी की मांग पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गई है। यह मांग दिनों-दिन अधिकाधिक उग्र होती चली जा रही है। वर्तमान में अमेरिका की जनसंख्या पच्चीस करोड़ के लगभग है। वहां कृषि एवं पशु-पालन में व्यय होने वाले पानी का खर्च प्रति मनुष्य के पीछे प्रतिदिन 13500 गैलन आता है। गृह-कार्य तथा उद्योगों में व्यय होने वाला पानी भी लगभग इतना ही बैठता है। इसी प्रकार वहां हर व्यक्ति के पीछे तीस हजार गैलन पानी की नित्य आवश्यकता रहती है। यहां की जनसंख्या विरल और जल-स्रोत बहुत हैं तो भी चिन्ता विद्यमान है कि आगामी वर्षों में पानी की आवश्यकता एक संकट के रूप में सामने आ खड़ी होगी।

अमेरिका की तुलना में भारत की जनसंख्या तिगुनी से अधिक है, किन्तु जल साधन कहीं ज्यादा हैं। बड़े शहरों में अकेले दिल्ली को ही लें तो वहां की जरूरत 45 करोड़ गैलन पानी प्रतिदिन की है, जबकि पूरी सप्लाई कठिनाई से 35 करोड़ गैलन हो पाती है। यही दुर्दशा न्यूनाधिक मात्रा में अन्य शहरों की है। देहाती क्षेत्र में अधिकांश कृषि उत्पादन वर्षा पर निर्भर है। जिस साल वर्षा कम होती है, भयंकर दुविधा का सामना करना पड़ जाता है। संप्रति काल में मनुष्यों व जानवरों की जान पर बन आई है। यदि इन क्षेत्रों में मानव उपार्जित जल की व्यवस्था हो सके तो खाद्य समस्या का समाधान किया जा सकता है।

नवीन जलाधार खोजने हेतु हमारी दृष्टि समुद्र की ओर जाती है। धरती का दो-तिहाई से भी अधिक भाग समुद्र में डूबा पड़ा है। साथ ही उसका पानी खारा है, जिसका उपयोग उपरोक्त आवश्यकताओं में से किसी की भी पूर्ति नहीं कर सकता। इस खारे जल को पीने योग्य किस प्रकार बनाया जाए, इसी प्रश्न पर भविष्य में मनुष्य जीवन की आशा इन दिनों केंद्रभूत हो रही है। इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक आयोग नियुक्त किया है, जिसने विश्व के 47 प्रमुख देशों में दौरा करके जल-समस्या और उसके समाधान के संबंध में विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस रिपोर्ट का सारांश राष्ट्र संघ ने प्रगतिशील देशों में ‘खास पानी का शुद्धिकरण’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है, जिसमें प्रमुख सुझाव यही है कि समुद्री जल के शुद्धिकरण पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। वैसे वर्षा के जल को समुद्र में जाने से रोकने के लिए तथा जमीन की गहराई में बहने वाली अदृश्य नदियों का पानी ऊपर खींच लाने को भी महत्व दिया गया है और कहा गया है कि बादलों का अनुदान तथा पर्वतीय बर्फ के रूप में जो जल मिलता है, उसका भी अधिक सावधानी के साथ सदुपयोग किया जाना चाहिए।

दक्षिण और उत्तार ध्रुव प्रदेशों के निकटवर्ती देशों के लिए एक योजना यह है कि उधर समुद्र में सैर करते फिरने वाले हिम पर्वतों को पकड़कर पेयजल की आवश्यकता पूरी की जाए, तो यह अपेक्षाकृत सस्ता और सुगम रहेगा। संसार भर में जितना पेयजल है, उसका अस्सी प्रतिशत भाग ध्रुव प्रदेश अन्टार्कटिक के हिमावरण, आइसकैप में बंदी बना पड़ा है और अपना आकार हिमद्वीप जैसा बनाये हुए है। ये हिमद्वीप समुद्री लहरों और हवा के दबाव से इधर-उधर सैर-सपाटे करते रहते हैं। दक्षिण ध्रुव के हिम पर्वतों को गिरफ्तार करके दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका में पानी की आवश्यकता पूरी करने के लिये खींच लाया जा सकता है। इसी प्रकार उत्तर ध्रुव के हिम पर्वत एक बड़े क्षेत्र की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं। यद्यपि इसमें संख्या कम मिलेगी।

अमेरिका के हिम वैज्ञानिक डा. विल्फर्ड वीकनस ने इसी प्रयोगजन के लिए कैम्ब्रिज, इंग्लैंड में बुलाई गई एक अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी इंटरनेशनल सिम्पोजियम ऑन दि डाइड्रोलॉजी ऑफ ग्लेशियर्स में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए विचार प्रकट किये थे कि हिम पर्वतों को पकड़ने की योजना को विशेष महत्व दिया जाना चाहिये, ताकि पेयजल की समस्या को एक हद तक सस्ता समाधान मिल सके। भू-उपग्रहों की सहायता से फोटो लेकर यह पता लगाया जा सकता है कि किस क्षेत्र में कितने और कैसे हिम पर्वत भ्रमण कर रहे हैं। इन पर्वतों का 83 प्रतिशत हिस्सा जलमग्न रहता है तथा शेष 17 प्रतिशत सतह पर दिखाई देता है। इन्हें सात हजार मील तक खींचकर लाया जा सकता है। इतनी लंबी दूरी में उन्हें महीनों लग सकते हैं।

ढुलाई का व्यय तथा सफर के अंतराल में अपेक्षाकृत गरम वातावरण में बर्फ का पिघलने लगना, ये दो कारण यद्यपि चिंताजनक हैं तो भी कुल मिलकार यह पानी उससे सस्ता ही पड़ेगा, जितना कि हम भूमितल पर निवासियों को औसत हिसाब से उपलब्ध रहता है। यह हिसाब लगाया गया है कि ऐमेरी से आस्ट्रेलिया तक ढोकर लाया गया हिम पर्वत दो-तिहाई गल जाएगा और एक-तिहाई शेष रहेगा। रास से दक्षिण अमेरिका तक खींचा गया हिम पर्वत मात्र 14 प्रतिशत ही शेष रहेगा। धीमी चाल से खींचना अधिक लाभदायक समझा गया है, ताकि लहरों का प्रतिरोध कम पड़ने से बर्फ की बर्बादी अधिक न होने पाए।

दूसरा एक उपाय यह भी है कि वर्षा का जल नदियों से होकर समुद्र में पहुंचता है, उसे बांधों द्वारा रोक लिया जाए और फिर उससे पेयजल की समस्या निवारण किया जाए। तीसरा उपाय यह सोचा गया है कि समुद्र के किनारे अत्यंत विशालकाय अणु भट्टियां लगाई जानी चाहिएं। उनकी गरमी से कृत्रिम बादल बनाए जाएं, फिर ठंडा करके कृत्रिम नदियां बहाई जाएं और फिर उन्हें रोककर पेयजल की समस्या हल की जाये। परंतु यह उपाय बड़े जोखिम भरे हैं। अत्यधिक गर्मी पाकर समुद्री जलचर भर जाएंगे। तटवर्ती क्षेत्रों का मौसम गरम हो उठेगा और ध्रुव प्रदेशों तक उस गर्मी का असर पहुंचने से जल-प्रलय उत्पन्न होगी और धरती का बहुत बड़ा भाग जलमग्न हो जाने की आशंका रहेगी। इतनी विशाल अणु भट्टियां अपने विकिरण से अनेक प्रकार की व्याधियां उत्पन्न कर सकती हैं। खारापन बढ़ सकता है। बादल उठना बंद हो सकते हैं। ध्रुवों के घुमक्कड़ हिम द्वीप भी बहुत दूर तक नहीं जा सकते। उनका लाभ वे ही देश उठा सकेंगे, जो वहां से बहुत ज्यादा दूर नहीं हैं।

ये सभी उपाय आधे-अधूरे हैं, परंतु कुछ भी हो, पानी की बढ़ती मांग को पूरा करना ही होगा। नहीं तो पीने के लिए, कृषि के लिए, कारखानों के लिए, सिंचाई के लिए पानी की भारी कमी पड़ेगी। इस समस्या के जटिल हो जाने से मानव भूख, गंदगी तथा रोगों का शिकार बन बिना मौत के ही मर जाएगा। ये सब समस्याएं बढ़ती हुई आबादी पैदा कर रही है। मनुष्य में यदि दूरदर्शिता होती तो वह जनसंख्या बढ़ाने की विभीषिका अनुभव करता और अपने आपको रोकता, परंतु वर्तमान में ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। साथ ही पेयजल की समस्या भी सुलझती नहीं दिखाई देती। हम अपनी मूर्खता का दंड आज नहीं तो कल अवश्य भुगतेंगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम आगे के दिन को ही न देख पाएं?
 

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