पानी को तरसता प्रेमवन


मध्य प्रदेश के रीवा जिले के जवा ब्लॉक के धुरकुच गाँव के रहने वाले दीनानाथ कोल और उनकी पत्नी ननकी देवी ने गत 26 सालों में 60,000 वृक्ष लगाए हैं। उन्हें पेड़ों से प्रेम है और यही उनके जीवन का मकसद है। जंगल के इस हिस्से को उन्होंने प्रेमवन का नाम दिया है। वे रोज जंगल जाते हैं। अपने लगाए पेड़ों को छूते हैं, सहलाते हैं और पुचकारते हैं। लेकिन इंसान तो इंसान, इस भीषण गर्मी में इन वृक्षों का भी गला सूख रहा है। लेकिन वे नाउम्मीद नहीं हैं। भला 105 एकड़ बंजर पथरीली जमीन को हरियाली में बदलने वाले नाउम्मीद हों भी तो कैसे?

अब वे बस पानी चाहते हैं। अपनी जिन्दगी के 26 साल उन्होंने एक मकसद के लिये होम कर दिये। 60,000 वृक्ष रोपे लेकिन कोई पुरस्कार नहीं, कोई भाषण भी नहीं। शायद यही वजह है कि उनको कोई पर्यावरणविद नहीं मानेगा। जिले में यदाकदा जरूर सम्मानित हुए हैं लेकिन यह कभी अफसोस नहीं रहा कि दुनिया ने उनके काम को पहचाना नहीं। लेकिन अब पहली बार उनके माथे पर चिन्ता की लकीरें नजर आ रही हैं। उन्हें लग रहा है कि उनका काम उनके बाद बचेगा या उनके सामने ही प्यास के मारे दम तोड़ देगा?

मध्य प्रदेश के रीवा जिले के जवा ब्लॉक के धुरकुच गाँव के रहने वाले दीनानाथ कोल और उनकी पत्नी ननकी देवी ने गत 26 सालों में 60,000 वृक्ष लगाए हैं। उन्हें पेड़ों से प्रेम है और यही उनके जीवन का मकसद है। जंगल के इस हिस्से को उन्होंने प्रेमवन का नाम दिया है। वे रोज जंगल जाते हैं। अपने लगाए पेड़ों को छूते हैं, सहलाते हैं और पुचकारते हैं। लेकिन इंसान तो इंसान, इस भीषण गर्मी में इन वृक्षों का भी गला सूख रहा है। लेकिन वे नाउम्मीद नहीं हैं। भला 105 एकड़ बंजर पथरीली जमीन को हरियाली में बदलने वाले नाउम्मीद हों भी तो कैसे? लेकिन पिछले तीन सालों के सूखे ने प्रेमवन के 6,000 बाशिन्दों की जान ले ली है। कई पेड़ों पर दीमक लग गए हैं। पानी की कमी इन पेड़ों को बीमार कर रही है।

वनविहार से उनकी यह गुहार निरर्थक रही है कि यहाँ बने प्राकृतिक पोखर को व्यवस्थित करने और इसका जलग्रहण क्षेत्र बढ़ाने की इजाजत दे दी जाये। हवा पानी की समस्याओं पर चर्चा करने के लिये भोपाल-दिल्ली के रास्ते पेरिस और संयुक्त राष्ट्र तक बैठकें होती हैं लेकिन इस बीच दीनानाथ और ननकी के गाँव खोते जा रहे हैं।

स्थानीय कोटा पंचायत की पहली सरपंच ममता कोल (1993-1998) बताती हैं कि जब वह सरपंच थीं तब जवाहर रोजगार योजना के लिये 5,000 रुपए मिलते थे। वनग्राम होने के कारण वनविभाग की मर्जी के बिना कुछ नहीं हो पाता था। ऐसे में प्रेमवन हमारी मुसीबतें कम करता था।

दीनानाथ को अपनी जवानी में इस गाँव में कोई काम नहीं मिल पा रहा था। वन ग्राम होने के कारण सम्भावनाएँ सीमित थीं। आखिरकार सन 1989 में वह पत्नी ननकी देवी के साथ करीब ही स्थित शंकरगढ़ (उप्र) में पत्थर की खदानों में मजदूरी करने चले गए। इस खदान में पत्थर तोड़ते हुए वह गरीबी और बीमारी के उस जाल के बारे में सोचा करते जो यहाँ बिछा हुआ था।

एक दिन इस निसन्तान दम्पती ने सोचा कि ऐसा क्या करें कि जीवन को कोई अर्थ मिल जाये। जवाब हाजिर था। अपनी बंजर जमीन पर पेड़ लगाएँगे, उन्हें ही पालेंगे, पोसेंगे। लोगों को औषधियाँ, फल और छाँव मिलेगी और इन वृक्षों से हमारा वंश ताउम्र बना रहेगा।

दीनानाथ के पिता गाँव में ही रहकर खेती किया करते थे। लेकिन पानी की कमी इसमें भी आड़े आती थी। दीनानाथ गाँव वापस आ गए और अपने पिता और पत्नी के साथ मिलकर घर के करीब ही कुआँ खोदना शुरू किया। इस पथरीले इलाके में 10 फीट नीचे ठोस चट्टान थी। तीन साल लगे लेकिन तीनों ने मिलकर इनको समाप्त कर दिया। आखिरकार वे पानी की धार तक पहुँच ही गए।

इस कुएँ में आज भी पानी है। जंगल लगाने के लिये गाँव-समाज से सहयोग माँगा लेकिन जवाब में न ही मिली। गाँव के लोगों का यह कहना सही ही था कि यहाँ रोटी के लाले हैं, पेड़ लगाने का वक्त कहाँ से मिलेगा। दीनानाथ की कोशिश उनको पागलपन लगी। सामाजिक कार्यकर्ता सिया दुलारी कहती हैं कि दीनानाथ और ननकी की कोशिशों का असर अब आसपास नजर आने लगा है। तीन गाँवों, कैलाशपुरी, चौकिहा और टिकेतन पुरवा के लोगों को भी प्रेमवन में सार्थकता नजर आई है। इन जगहों पर भी 400 से अधिक वृक्ष लगाए गए हैं। धुरकुच में ग्राम वन समिति ने पौधशाला बनाई है और 15 लाख रुपए से अधिक के पौधे तैयार किये हैं।

जिस जमीन पर इस दम्पती ने वन लगाया है वह पूरी तरह पथरीली और बंजर थी। कागजों पर दर्ज वन भूमि को उन्होंने वास्तविक वन बनाने की ठानी। दीनानाथ कहते हैं, 'हम जमीन पर कब्जा करने की नहीं सोच रहे थे। सोचा तो यही था कि इससे प्रकृति, समाज और सरकार को प्रसन्नता होगी। इसीलिये पहले इस जमीन पर से पत्थर बीन कर किनारे लगाने शुरू किये। बाड़ बनाने की कोशिश से शुरुआत की। गाय भैंसों के लिये भूसा खरीदने कोटा (स्थानीय पंचायत) जाते थे। वहाँ हम एक शादी में देखा कि सभी को आम का पना यानी रस पिलाया गया। मेजबान से कहा कि क्या इन आमों की गुठली हम ले जा सकते हैं? मेजबान भी थोड़े चकित से थे और उन्होंने हमें आम की गुठलियाँ ले जाने को कह दिया। सिर पर भूसे का गट्ठर और गमछे के दोनों तरफ आम की गुठलियाँ बाँधकर हमने गले में लटकाईं और दो किलोमीटर चलकर गाँव आ गए। इस तरह प्रेमवन की शुरुआत हुई।'

काम कठिन था। परिस्थितियाँ दीनानाथ और ननकी के अनुकूल नहीं थी। पथरीली जमीन और पानी का कोई ठिकाना नहीं। एक दिन में वे दस पौधे ही लगा पाते थे। गड्ढे खोदना बहुत कठिन काम तो था ही। पानी भी कुछ किमी दूर स्थित जमींदारों के कुएँ से लाना पड़ता था।

कुछ महीनों बाद जमींदारों ने पानी देना बन्द कर दिया। लेकिन दीनानाथ और ननकी का जोश और जीजीविषा नहीं रुकी। वह दूर स्थित एक प्राकृतिक जलस्रोत से पानी लाने लगे। दीनानाथ कहते हैं कि जमींदारों के रोके जाने के बाद उनके कुएँ का पानी ही सूख गया। शायद प्रकृति को भी भावना और दुर्भावना का अहसास होता होगा।

लेकिन लड़ाई केवल इतनी नहीं थी। एक साल बाद वन विभाग जागा और उसे लगा कि जमीन पर कब्जा किया जा रहा है। नतीजा, पुलिस में मामला दर्ज और दीनानाथ को तीन दिन हवालात में काटने पड़े। इस बीच यह दम्पती प्रेमवन के भीतर 14 हाथ गहरा कुआँ खोद चुका था लेकिन वन विभाग ने उसे भाठ दिया। लेकिन इनका मन तो रम चुका था इसलिये कोई डर या भय भी मन में नहीं रह गया था। तय किया कि पेड़ों का साथ नहीं छोड़ेंगे चाहे जो हो जाये।

आम के 500 वृक्षों से शुरू हुई यह यात्रा आखिरकार 60,000 वृक्षों तक पहुँची। सबसे पहले आम के पेड़ इसलिये लगाये क्योंकि मंगल कार्यों में आम की टहनी की आवश्यकता होती थी लेकिन गाँव में एक भी आम का पेड़ नहीं था।

दोनों ने बार-बार गाँव वालों से अनुरोध किया कि प्रेमवन को बचाने में मदद करें लेकिन हर बार यही टका सा जवाब मिला कि तुमने लगाया है तुम ही सम्भालो। ननकी देवी कहती हैं कि उन्होंने यह वन केवल अपने लिये नहीं लगाया था लेकिन गाँव ने कोई मदद नहीं की। हाँ, वन विभाग ने उनको टोकना जरूर बन्द कर दिया।

इस बीच ननकी देवी शीला आदिवासी के सम्पर्क में आईं जो अकेले रहती थीं। ननकी देवी की पहल पर वर्ष 2007 में दीनानाथ ने शीला से विवाह कर लिया। जब कोई मदद करने वाला नहीं था तो दोनों को अपनी सन्तान की जरूरत महसूस हो रही थी। अब तीनों से मिलकर एक परिवार बनता है जिसमें तीन बच्चे प्रेमानंद, प्रेम प्रकाश और प्रेमवती भी हैं। इन बच्चों की परवरिश भी ननकी देवी ने ही की ताकि वे प्रेमवन से अपने रिश्ते को महसूस कर सकें।

इस पूरे इलाके में पेड़ों को गिनना सम्भव तो नहीं था, परन्तु वर्ष 2013 में उनका नाम बसामन मामा स्मृति वन और वन्य प्राणी संरक्षण पुरस्कार के लिये वन विभाग ने ही अनुशंसित किया। हालांकि उन्हें पुरस्कार के लायक नहीं माना गया लेकिन अनुशंसा के कागजात के मुताबिक प्रेमवन में 10,000 आँवले, 500 नीम, 20,000 बाँस, 1,000 सागौन, 100 अमरूद, 2,000 तेंदू, 1,000 शीशम, 1,000 पलाश, 1,000 पेटमुर्री, 500 अमलतास, 25 गूलर, 100 बहेड़, 30,000 घेटहर, 20 कटहल, 100 करंज, 15 बरगद, 15 पीपल, 50 ढेरा, 50 कैथा, 50 बेल और तमाम सुबबूल, महुआ, काजू, अनार भी लगाए हैं। इसके अलावा यहाँ सतावर, गुडमार, फैनी, गुरूच जैसे औषधीय पेड़ पौधे भी लगाए गए हैं। इसकी विविधता बताती है कि यही सही मायनों में जंगल है।

कई सालों तक ये पेड़ दीनानाथ और ननकी देवी के पसीने और प्रेम से फलते-फूलते रहे, किन्तु धरती की गर्मी और बादलों की बेरुखी के सामने दीनानाथ और ननकी की परवरिश कमजोर पड़ती गई... पेड़ सूखने लगे। दीनानाथ कहते हैं कि उन्होंने सरकार से यह निवेदन किया कि उन्हें वनभूमि पर बने पोखर का जलग्रहण क्षेत्र बढ़ाने की अनुमति दे दी जाये। उन्होंने कभी कोई पैसा नहीं माँगा। बस जैसे पत्थरों को काटकर कुआँ बना लिया था वैसे ही इस पोखर तक पानी भी ले आते।

गाँव में वर्षाजल संरक्षण का भी कोई उपाय नहीं है तो यह तालाब वह काम भी करता लेकिन ऐसा नहीं हो सका। नए पौधों के लिये प्रेमवन को एक कुआँ और एक ट्यूबवेल चाहिए तभी वह बच सकेगा। दीनानाथ ने उम्मीद नहीं छोड़ी है। हो सकता है इन्तजार लम्बा खिंचे लेकिन प्रेमवन सरकार को जरूर प्रेरित करेगा। इस पूरे किस्से में एक पहलू यह भी है कि वन विभाग दीनानाथ को चौकीदार मानता है और उनको पेड़ों की सुरक्षा के लिये मासिक 1500 रुपए भी देता है।

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