पानी में घुलता जहर

हम जानते हैं कि जल का मुख्य स्रोत बारिश है, चाहें वह नदी हो या नहर या जमीन के नीचे मौजूद पानी का अथाह भंडार। सभी स्रोतों में जल की आपूर्ति बारिश ही करती है। बारिश के पानी को संचय करने के पारंपरिक ज्ञान को हम भुला बैठे थे और आज फिर उस ओर लौट रहे हैं। भारत में भारी बारिश लगभग 100 घंटों में हो जाती है, यानी साल के 8,760 घंटों में हमें सिर्फ 100 घंटों में बरसे पानी से ही काम चलाना है। आज औद्योगिकरण और गहन कृषि तथा शहरीकरण के चलते हमने नदियों और भूजल का अंधाधुंध दोहन किया है।

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में जल प्रबंधन को लेकर दो मुख्य बदलाव आए हैं। पहला तो यह कि राज्य ने पानी उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, जिससे कई विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न हुई, जैसे समुदायों ने, परिवारों ने, जो पहले पानी के प्रबंधन और संरक्षण की पहली ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते थे, उन्होंने पानी को बचाने से अपना पल्ला ही झाड़ लिया।

दूसरा, मुख्य बदलाव यह आया कि पहले जैसे बारिश के पानी और बाढ़ के पानी का संचय कर उपयोग में लाया जाता था, उसके विपरीत सतही पानी (मुख्यतः नदियों) और भूजल पर हमारी निर्भरता बढ़ी।

यह बदलाव इसलिए आए क्योंकि उपनिवेशवाद के दिनों में अंग्रेजों ने पानी पर केंद्रीकृत अधिकार जमाया और उसे उद्योगों के विकास और मनचाही खेती के लिए उपयोग में लिया। आजादी के बाद की सरकारें भी इस नीति को ऐसे अपना कर चलाती रहीं। आम समाज और व्यक्ति ‘बिन पानी सब सुन’ जैसी पुरानी और सार्थक कहावतों को भूलकर, पानी को संचय करने की हजारों साल पुरानी परंपराओं को भूल गया और नतीजा हमारे सामने है, आज भारत (अन्य देश भी, जो कभी गुलाम रहे हैं) पानी की भीषण समस्या से जूझ रहा है।

औद्योगिकरण और शहरीकरण का जो नकारात्मक पहलू कुछ ही वर्षों में सामने आ गया था, वह था बढ़ता प्रदूषण, अत्यधिक अपशिष्ट निपटाने की समस्या, नदियों का संदूषण और भूजल में घुलता जहर।

हम पानी के संचय और संरक्षण पर बात न करते हुए, पानी में घुल रहे जहर की ही चर्चा करेंगे।

हम जानते हैं कि जल का मुख्य स्रोत बारिश है, चाहें वह नदी हो या नहर या जमीन के नीचे मौजूद पानी का अथाह भंडार। सभी स्रोतों में जल की आपूर्ति बारिश ही करती है। बारिश के पानी को संचय करने के पारंपरिक ज्ञान को हम भुला बैठे थे और आज फिर उस ओर लौट रहे हैं। भारत में भारी बारिश लगभग 100 घंटों में हो जाती है, यानी साल के 8,760 घंटों में हमें सिर्फ 100 घंटों में बरसे पानी से ही काम चलाना है। आज औद्योगिकरण और गहन कृषि तथा शहरीकरण के चलते हमने नदियों और भूजल का अंधाधुंध दोहन किया है। आज पानी की मात्रा और गुणवत्ता दोनों में भयानक कमी देखी जा रही है। कई इलाकों में पानी में इतने भारी तत्व और अन्य खतरनाक रसायन प्रवेश कर चुके हैं कि वह पानी अब किसी भी जीव के उपयोग के लिए सही नहीं है।

पानी में यह जहर या संदूषण निम्नलिखित रास्तों से प्रवेश कर जाता है :

(i) सीधे पानी के स्रोत में जहर घोलना : जैसे नगर निगम के औद्योगिक तरल अपशिष्ट को सीधे नदी में बहा देना या घरेलू खतरनाक अपशिष्ट को सीधे नदी में डाल देना आदि।

(ii) कृषि में उपयोग किए गए रसायनों जैसे रासायनिक खाद, खरपतवारनाशी, कीटनाशी आदि का मिट्टी के क्षरण या कटाव के द्वारा पानी में घुल जाना।

(iii) शहरी गलियों, बागवानी, व्यावसायिक गतिविधियाँ, औद्योगिक क्षेत्रों और भंडार क्षेत्रों से दूषित जल का पानी के स्रोतों में मिल जाना।

इसके अलावा जैविक पदार्थ और मल आदि से भी नदियों का पानी दूषित होता है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में मानव और पशुओं के अपशिष्ट के प्रबंधन की कोई सही व्यवस्था नहीं है। हालांकि यह समस्या ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में समान ही है, परंतु तेजी से बढ़ते महानगरों में अपशिष्ट के प्रबंधन की समस्या ज्यादा गंभीर है। औद्योगिक गतिविधियाँ जिसमें काफी बड़ी मात्रा में जैविक पदार्थ नदियों में मिलाए जाते हैं, जैसे लुगदी और कागज उत्पादन आदि, इन सभी से नदी का पारितंत्रिक स्वास्थ्य बिगड़ता है। जैविक पदार्थों को नदी में डालने से नदी में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा में कमी आ जाती है।

लेकिन इन सब से ज्यादा खतरनाक है, नदी में मानव द्वारा निर्मित जैविक संदूषकों और भारी तत्वों का घुलना।

इलैक्ट्रोप्लेटिंग, रंगाई के कारखाने और धातु आधारित उद्योगों आदि के कारण भारी तत्वों का काफी बड़ी मात्रा में उत्सर्जन होता है, जो नदी में घुल जाते हैं और इससे पूरे मानव समाज के साथ-साथ पशु-पक्षियों और नदी के जीवों पर भी बड़ा भयानक प्रभाव पड़ता है।

पेंट, प्लास्टिक आदि उद्योगों के अलावा गाड़ी आदि के धुएँ में भी सीसे, पारे आदि जैसे भारी तत्वों की काफी मात्रा होती है और यह कैंसर जैसे रोग पैदा करने के साथ-साथ सांस की भयानक बीमारियों को जन्म देते हैं और बच्चों में मस्तिष्क का विकास भी प्रभावित होता है। इस प्रकार तरह-तरह के त्वचा रोग भी इन प्रदूषकों की ही देन हैं।

भूजल की गुणवत्ता में कमी और संदूषण के लिए मुख्यतः औद्योगिक, घरेलू, कृषि रसायनों तथा अंधाधुंध पानी के दोहन को ही जिम्मेदार माना जाता है। भारत में हुए एक अध्ययन का यह निष्कर्ष निकला है कि ज्यादातर भूजल संदूषण शहरी विकास के संदर्भ में बनाई गई गलत और अनुपयोगी नीतियों का ही नतीजा है।

भारत में संदूषित भूजल


प्रदूषक

राज्य

लवणता (अंतःभूमि)

महाराष्ट्र, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश

लवणता (तटीय)

आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, गुजरात

फ्लोराइड

केरल, आंध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश

 

सल्फाइड

उड़ीसा

लौह

उ.प्र., असम, उड़ीसा, बिहार, राजस्थान, त्रिपुरा, प.बं.

मैग्नीज

उड़ीसा, उत्तर प्रदेश

आर्सेनिक

पश्चिम बंगाल

नाइट्रेट

बिहार, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल

क्लोराइड

कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, प.बं.,

जिंक

आंध्र प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान

क्रोमियम

पंजाब

 



उद्योगों में जल को बगैर उपचारित करे बहा देना, कृषि में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग और इसके साथ-साथ भूमि में जमा जल का सिंचाई के लिए गैर-जरूरी दोहन, पानी में घुलते जहर की समस्या में भारी इजाफा करते हैं।

अस्सी के दशक में हुए एक सर्वेक्षण से यह सामने आया था कि भारत में करीब 7452 करोड़ लीटर अपशिष्ट जल प्रतिदिन पैदा होता है, जो आज इससे कई गुना बढ़ गया है और अगर इस दूषित जल का उपचार ठीक से नहीं किया गया तो यह बहुमूल्य भूजल को भी विषैला बना देगा।

भारत में तेरह राज्य फ्लोरोसिस से ग्रसित घोषित किए गए हैं। फ्लोरोसिस प्राकृतिक रूप से मौजूद फ्लोराइड के खनिजों की अधिकता से होता है। भारत में करीब 5 लाख लोग फ्लोराइड की अधिकता से पीड़ित हैं। इसी तरह, भारत के कुछ राज्यों में पानी में लौह तत्व की भी अधिकता देखी गई है, हालांकि लौह हमारे शारीरिक तंत्र को ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचाता, परंतु लंबी अवधि में यह ऊतकों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता है।

पश्चिम बंगाल के आठ जिलों में आर्सेनिक की विषाक्तता पाई गई है। पारा पश्चिम बंगाल से लेकर मुम्बई के तटों पर भी मौजूद है (तालिका देखें)

हम रोज जहर पानी में घोल भी रहे हैं और उसका सेवन भी कर रहे हैं। पानी में घुला जहर हर वनस्पति में अवशोषित होता है तथा वहां से हमारे खाने में। इन संदूषणों के प्रभाव विध्वंसकारी हैं जो वक्त के साथ-साथ हमें अपने शरीर की घटती प्रतिरोधक क्षमता, बढ़ती बीमारियों और खत्म होते जीवन के रूप में दिखाई दे रही हैं।

हमने पानी और अपने जीवन में बहुत जहर घोल लिया। अब जरूरत है अपनी पारंपरिक मान्यताओं और ज्ञान की ओर लौटने की, हमेशा से पवित्र रही नदियों को उनका जीवन हमें लौटाना होगा जिससे धरती पर जीवन हर रूप में खिला रहे।

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