पानी से घिरा प्यासा देश

9 Jun 2015
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कई राज्य सरकारें पानी के इन्तजाम का दावा करती हैं, पर गर्मी के आते ही उनका दावा खोखला साबित हो जाता है। इस मद में अब तक लाखों-करोड़ों रुपए खर्च किए जा चुके हैं। लेकिन यह समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। हर साल सरकार युद्ध स्तर पर काम का दावा करती है। पर मामला जहाँ का तहाँ अटका हुआ है। जाहिर है कि सरकार पीने के पानी को कोई समस्या नहीं मानती है। इसलिए अन्तरिक्ष में उड़ने के बावजूद वह आजादी के 68 साल बाद भी पानी जैसी बुनियादी जरूरत को पूरा नहीं कर सकी है...

देश में पानी की कमी नहीं है। एक तरफ पर्वतराज हिमालय से निकलने वाली नदियाँ हैं तो दूसरी तरफ देश समुद्र से घिरा है। फिर भी आधे से अधिक देश प्यासा है। ताजा संकट देश की राजधानी दिल्ली में पैदा हुआ है, जहाँ पेयजल का वितरण कानून व्यवस्था के लिए भी एक चुनौती बन गया है। महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी पानी का भारी संकट है। देश के दूसरे राज्यों के कई नगरों का भी बुरा हाल है। हमारे यहाँ पानी का संकट दोहरा है। एक तो कई राज्यों के अधिकांश भागों में पेयजल का संकट है और दूसरी खास बात यह है कि जहाँ पानी है, वह पीने लायक नहीं है। कई राज्य सरकारें पानी के इन्तजाम का दावा करती हैं, पर गर्मी के आते ही उनका दावा खोखला साबित हो जाता है। इस मद में अब तक लाखों-करोड़ों रुपए खर्च किए जा चुके हैं। लेकिन यह समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है।

ये तथ्य इस ओर इशारा करते हैं कि पैसा जरूर पानी की तरह बहाया गया, पर वह निर्धारित काम में नहीं लगा। उत्तर भारत के तीन-चार राज्यों की कहानी कुछ अलग है। यहाँ हर तीसरे साल सूखा और प्राय: हर साल बाढ़ का संकट पैदा हो जाता है। हर साल सरकार युद्ध स्तर पर काम का दावा करती है। पर मामला जहाँ का तहाँ अटका हुआ है। जाहिर है कि सरकार पीने के पानी को कोई समस्या नहीं मानती है। इसलिए अन्तरिक्ष में उड़ने के बावजूद वह आजादी के 68 साल बाद भी पानी जैसी बुनियादी जरूरत को पूरा नहीं कर सकी है। हम अभी तक समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य नहीं बना सके हैं, जबकि इजरायल अपनी पानी की सारी आवश्यकताएँ समुद्र से ही पूरा करता है। इजरायल से समझौता कर हम यह तकनीक हासिल कर सकते हैं।

विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट भूजल संकट की और भी खतरनाक तस्वीर सामने रख रही है। इसमें चेतावनी भी दी गई है कि जलवायु परिवर्तन और अंधाधुंध जल दोहन का हाल यही रहा तो अगले एक दशक में भारत के 60 फीसदी ब्लॉक सूखे की चपेट में होंगे। तब फसलों की सिंचाई तो दूर पीने के पानी के लिए भी मारामारी शुरू हो सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर 5723 ब्लॉकों में से 1820 ब्लॉक में जलस्तर खतरनाक हदें पार कर चुका है। जल संरक्षण न होने और लगातार दोहन के चलते 200 से अधिक ब्लॉक ऐसे भी हैं, जिनके बारे में केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण ने सम्बन्धित राज्य सरकारों को तत्काल प्रभाव से जल दोहन पर पाबंदी लगाने के सख्त कदम उठाने का सुझाव दिया है। लेकिन देश के कई राज्यों में इस दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जा सका है। उत्तरी राज्यों में हरियाणा के 65 फीसदी और उत्तर प्रदेश के 30 फीसदी ब्लॉकों में भूजल का स्तर चिन्ताजनक स्तर पर पहुँच गया है। लेकिन वहाँ की सरकारें आँखें बंद किए हुए हैं।

इन राज्यों को जल संसाधन मन्त्रालय ने अंधाधुंध दोहन रोकने के उपाय भी सुझाए हैं। इनमें सामुदायिक भूजल प्रबन्धन पर ज्यादा जोर दिया गया है। इसके तहत भूजल के दोहन पर रोक के साथ जल संरक्षण और संचयन के भी प्रावधान किए गए हैं। देश में वैसे जल की कमी नहीं है। हमारे देश में सालाना चार हजार अरब घन मीटर पानी उपलब्ध है। इस पानी का बहुत बड़ा भाग समुद्र में बेकार चला जाता है। इसलिए बरसात में बाढ़ का, तो गर्मी में सूखे का संकट पैदा हो जाता है। कभी-कभी तो देश के एक भाग में सूखा पड़ जाता है और दूसरा भाग बाढ़ की चपेट में आ जाता हैं। इसको कम करने के लिए आवश्यक है कि हम उपलब्ध जल का भंडारण करें।

गंगा-यमुना के मैदानी क्षेत्रों में तो जल का भंडारण करके सूखे की समस्या से आसानी से निपटा जा सकता है। लेकिन इसके लिए जिस मुस्तैदी से नीतियाँ बनाकर अमल किया जाना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। भारत में वर्षा के दिनों में काफी जल प्राप्त होता है। इस जल को बाँध और जलाशय बनाकर इकट्ठा किया जा सकता है। बाद में इस जल का उपयोग सिंचाई और बिजली के कामों के लिए किया जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले उन क्षेत्रों की सूची तैयार करनी होगी, जहाँ गर्मी शुरू होते ही ताल, तलैया और कुएँ सूख जाते हैं और भूगर्भ में भी जल का स्तर घटने लगता है। ऐसे क्षेत्रों में कुछ बड़े-बड़े जलाशय बनाकर भूगर्भ के जलस्तर को घटने से भी रोका जा सकता है और सिंचाई के लिए भी जल उपलब्ध कराया जा सकता है।

भारत की जनसंख्या जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उसके लिए भी यह सब जरूरी है। सन 2020 तक भारत की जनसंख्या बढ़कर 140 करोड़ हो जाएगी। इतनी बड़ी जनसंख्या के भोजन के लिए लगभग 35 करोड़ टन खाद्यान्नों की जरूरत पड़ेगी, जो हमारे वर्तमान उत्पादन से लगभग डेढ़ गुना होगा। इसलिए सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के साथ-साथ उपलब्ध जल का भरपूर उपयोग भी जरूरी हो जाएगा। देश में वर्तमान जल संकट का एक और बड़ा कारण यह है कि जैसे-जैसे सिंचित भूमि का क्षेत्रफल बढ़ता गया है, वैसे-वैसे भूगर्भ के जल के स्तर में भी गिरावट आई है। देश में सुनियोजित विकास पूर्व सिंचित क्षेत्र का क्षेत्रफल 2.26 करोड़ हेक्टेयर था।

आज हम लगभग 6.8 करोड़ हेक्टेयर भूमि की सिंचाई कर रहे हैं। सिंचाई क्षेत्र के बढ़ने के साथ-साथ जल का इस्तेमाल भी बढ़ा है, इसलिए भूगर्भ में उसका स्तर घटा है। गर्मी आते ही जमीन में पानी का स्तर घटने से बहुत सारे कुएँ और तालाब सूख जाते हैं और नलकूप बेकार हो जाते हैं। वर्षा कम हुई तो यह संकट और बढ़ जाता है। आबादी बढ़ने के साथ-साथ गाँवों के ताल-तलैया भी घटते जा रहे हैं और इसलिए उनकी जल भंडारण क्षमता भी खत्म हो गई है या घटी है। इसलिए नए जलाशयों के निर्माण के साथ-साथ पुराने तालाबों को भी गहरा किए जाने की जरूरत है। नए नलकूपों की बोरिंग की गहराई बढ़ाने के साथ-साथ स्थान चयन के समय भूगर्भ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के बीच भी तालमेल बैठाने की आवश्यकता है। भारत में पानी की दोषपूर्ण नीति उसकी भौगोलिक व्यवस्था के कारण है। भोपाल के पास से गुजरने वाली कर्क रेखा के उत्तर क्षेत्र की नदियों में यह पानी कुल का दो-तिहाई है, जबकि कर्क रेखा के दक्षिण के क्षेत्रों में एक तिहाई।

दक्षिण भारत में कुल पानी का केवल चौथाई भाग उपलब्ध है। उत्तर में भी इलाहाबाद के पश्चिम में आवश्यकता से कम उपलब्ध है। लेकिन उसी गंगा से आगे जाकर जरूरत से अधिक पानी प्राप्त होता है। इसी तरह ब्रह्मपुत्र के पानी की समस्या है। यह 80 किलोमीटर चौड़ी संकरी घाटी में से गुजरने के कारण उपयोग में नहीं आ पाता है। इसी तरह से सिंध नदी में पानी संधि के कारण उसका पानी भारत की ओर नहीं बढ़ पाता। यदि इस सन्दर्भ में एक राष्ट्रीय योजना बनाई जाए तो इस पानी का उचित उपयोग हो सकता है। भारत में जल संसाधन मुख्यत: दक्षिण-पश्चिम मानसून है। उत्तर-पूर्वी मानसून से भी कुछ पानी प्राप्त होता है। दक्षिण-पूर्वी मानसून, बर्मा, थाईलैंड आदि की ओर चला जाता है। कभी-कभी इस मानसून के कुछ बादल हिमालय की ओर मुड़कर भारत के उत्तर में वर्षा करते हैं।

भारत की नदियों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। ऐसी बड़ी नदियाँ, जिनका तटबंध क्षेत्र 20 हजार किलोमीटर या इससे ऊपर है, 14 हैं। दो हजार से 20 हजार तक किलोमीटर वाली 44 नदियाँ हैं। फिर अनेक छोटी नदियाँ हैं। 90 प्रतिशत पानी बड़ी या मध्यम नदियों से प्राप्त होता है। कुछ पानी जमीन में जाकर एकत्र हो जाता है। इसमें से जो पानी काम में लाया जा सकता है, उसकी मात्रा 25 खरब 50 क्यूबिक मीटर है। भारत में कुल पानी 190 खरब क्यूबिक मीटर है, लेकिन इसमें वह पानी शामिल नहीं है, जो नेपाल और बांग्लादेश में चला जाता है, कुछ पानी समझौते के अन्तरगत पाकिस्तान चला जाता है। इसके अलावा गंगा व ब्रह्मपुत्र का बहुत सा पानी समुद्र में व्यर्थ चला जाता है। प्रयोग में लाया जाने वाला पानी अधिक नहीं है। इसमें से भी हमें कुछ पानी इकट्ठा करके रखना पड़ता है। इस समय 15 प्रतिशत पानी संचित करने की व्यवस्था है।

सिंचाई के अभाव में हमारा कृषि उत्पादन बढ़ नहीं पा रहा है। भारत का कृषि क्षेत्र अमेरिका से दोगुना है, लेकिन उत्पादन आधा है। अत: यह स्पष्ट है कि खेती के विकास में सिंचाई का सर्वाधिक महत्त्व है। भविष्य में सिंचाई के अलावा बिजली बनाने तथा उद्योगों के कामों के लिए पानी की और भी आवश्यकता पड़ेगी। विश्व के कई देशों में एक नदी के पानी को दूसरी ओर मोड़ कर पानी की समस्या हल की गई है। भारत में इस दिशा में कुछ काम हुआ है। तमिलनाडु में पूर्वी भागों का पानी पैरियार की ओर मोड़ा गया है। यमुना का पानी भी पश्चिमी भाग की ओर मोड़ा गया है। हमने सिंधु नदी को राजस्थान की ओर प्रवाहित किया है, लेकिन हमारी ये योजनाएँ अत्यन्त लघु स्तर की रही है। राष्ट्रीय स्तर पर पानी की असमानताएँ और समस्या दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया है।

भारत में संयुक्त राष्ट्र संघ से पानी की समस्या के बारे में अध्ययन करने आए एक दल ने कई सुझाव दिए हैं। एक सुझाव के अनुसार, भारत में एक महत्त्वपूर्ण कार्य ब्रह्मपुत्र से फरक्का तक एक प्रणाली बनाकर उसके पानी को गंगा में मिलाकर पानी की समस्या हल की जा सकती है। इसी तरह गंगा के पानी को सोन नदी से लेकर एक नहर बनाकर कावेरी तक लाया जा सकता है। इससे जहाँ उत्तर से दक्षिण के लिए सस्ता संचार सुलभ होगा, वहाँ दक्षिण को पर्याप्त पानी मिल जाएगा। इस तरह की नहर भारत की मुख्य नदियों को जोड़ देगी, जिससे कुछ नदियों का विशाल और परेशान करने वाला जल भंडार काम में आ जाएगा। एक नहर चम्बल को राजस्थान नहर से बाँध सकती है। इसके लिए नागौर पर बाँध की आवश्यकता होगी।

राष्ट्रसंघ के दल ने कहा है कि अगले 30 वर्षों में भारत में पानी की समस्या बहुत कठिन हो जाएगी। यह संकट शुरू हो गया है। इसलिए पानी के संकट के लिए भी कई तात्कालिक कदम उठाए जाने चाहिए और इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे-छोटे जलाशयों का निर्माण किया जाना चाहिए, ताकि उस क्षेत्र के कुओं को सूखने से बचाया जा सके तथा पशुओं को भी जल मिल सके। हवा के बाद पानी पहली जरूरत है। इस काम को सबसे अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। लेकिन आजादी के 68 साल के बाद भी हम ऐसा तन्त्र भी विकसित नहीं कर सके हैं जो हमारी पेयजल और सिंचाई की योजनाओं को ठीक से लागू कर सके।

ईमेल- nirankarsi@gmail.com

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