पानी समस्या : समाज की पहल

samaj, prakriti aur vigyan back cover
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सवाल - हम ही क्यों


तालाब, विकेन्द्रीकृत जल प्रबन्ध के प्रतीक हैं। उनके निर्माण से प्राकृतिक जलचक्र मजबूत होता है। भूजल स्तर ऊपर उठता है। नलकूपों, कुओं में पानी लौटता है। नदियाँ जिन्दा होती हैं। उनकी मदद से हर बसाहट में जल स्वराज अर्थात आत्मनिर्भरता को लाया जा सकता है इसलिये समाज को एकजुट हो तालाबों के निर्माण को सर्वोच्च वरीयता दिलाने के लिये प्रयास करना चाहिए।बहुत से लोगों के मन में यह सवाल कौंध सकता है और वे पूछ सकते हैं कि इस पानी और प्रकृति जैसे गंभीर विषय पर हम क्यों आगे आयें? यह तो सरकार की जिम्मेदारी है। इस पर तो सरकार, उसके सम्बन्धित विभाग, नगरीय निकाय, पंचायत या स्वयंसेवी संस्थाओं को काम करना चाहिए। यह उनका कार्यक्षेत्र है। उनके अलावा, औद्योगिक घरानों को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी (Carporate Social Responsibility-CSR) के अंतर्गत जल संकट के निदान के लिये काम करना चाहिए। जन प्रतिनिधि अपने बजट (सांसद निधि/ विधायक निधि) से अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र में काम कर सकते हैं। क्या सरकार हमें काम करने देगी? क्या यह सरकार के कामों में दखलंदाज़ी नहीं होगी? इन सब विभागों तथा संस्थाओं के रहते हम क्यों ? हमारे पास तो वांछित तकनीकी ज्ञान, धन तथा अनुभव भी नहीं है। समय की भी कमी है। ढेर सारी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ हैं। और भी अनेक सवाल हैं जो हमारे मन में हो सकते हैं या काम करते समय सामने आ सकते हैं। इसी क्रम में कुछ लोग यह भी पूछ सकते हैं कि हमें इन विषयों पर चर्चा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि हम समय निकाल कर चर्चा करते भी हैं तो हमारी भूमिका तथा जिम्मेदारी क्या होगी? उपर्युक्त सभी बिन्दुओं पर चर्चा करने के पहले प्रासंगिक है कि हम सुखोमाजरी की कहानी को संक्षेप में जान लें।

सुखोमाजरी के इलाके के लोगों का मुख्य धंधा पशुपालन है। यह इलाका चन्डीगढ़ की चक्रवर्ती झील के कैचमेंट में स्थित है। जंगल कटने के कारण इलाके में भूमि कटाव बहुत बढ़ गया। भूमि कटाव से गाद उत्पन्न हुई और वह चक्रवर्ती झील में जमा होने लगी। गाद के अतिशय जमाव के कारण चक्रवर्ती झील के पट जाने का खतरा उत्पन्न हो गया। इसी दौरान, पी.एस. मिश्रा जो उस इलाके के वन अधिकारी थे, ने ग्रामीणों की भागीदारी से मिट्टी और पानी के संरक्षण का काम कराया। इस काम को करने से भूमि कटाव कम हुआ। सुखोमाजरी में घास का उत्पादन बढ़ा। सुखोमाजरी में लोगों द्वारा स्थापित सामाजिक नियंत्रण एवं लाभों के बँटवारे की व्यवस्था कायम हुई। उससे पशुपालक समाज की आजीविका को सहारा मिला। पशुपालन गतिविधियों को लाभ मिला। दूसरी ओर, गाद कम बनी। चक्रवर्ती झील के पटने का खतरा घटा। सुखोमाजरी का पहला संदेश था - प्राकृतिक घटकों का समावेशी विकास ही प्राकृतिक संसाधनों और जैवविविधता को समृद्ध कर सकता है। सुखोमाजरी का दूसरा संदेश है - प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध कर और उनका नियंत्रण समाज को सौंपकर, गरीबी कम की जा सकती है। दोनों संदेश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

सुखोमाजरी की कहानी के दो अध्याय हैं। पहले अध्याय में इसे सफलता की कहानी के रूप में बरसों सराहा गया था क्योंकि उस दौरान समाज के हाथ में व्यवस्था और फैसलों की बागडोर थी तथा सरकार की भूमिका सहयोगी की थी। दूसरा अध्याय उस समय सामने आया जब इलाके पर जंगल के कानूनों ने बागड़ोर संभाली। जंगल के कानूनों के बागड़ोर संभालते ही सुखोमाजरी के लोगों द्वारा स्थापित सामाजिक नियंत्रण एवं लाभों के बँटवारे की व्यवस्था ने दम तोड़ दिया और समाज की उपेक्षा के कारण प्राकृतिक संसाधनों का हाल बदहाल होने लगा। बदली व्यवस्था और लादे प्रावधानों के कारण लोगों का सुख चैन और आमदनी का जरिया तिरोहित हो गया। सुखोमाजरी की कहानी पी. आर. मिश्रा की कहानी नहीं है। वह कहानी है प्राकृतिक संसाधनों के लाभों से जुड़े उस समाज की जिसने प्रतिदिन सोने का एक अंडा देने वाली मुर्गी (प्राकृतिक संसाधनों) को मारने के बजाय उससे रोज एक अंडा प्राप्त करना हितकर माना। यह प्राकृतिक संसाधनों के प्रति समाज का दृष्टि-बोध है। समाज उस व्यवस्था का पक्षधर है जो उनके हितों की रक्षा करती है। जब तक प्राकृतिक संसाधनों ने लोगों की आजीविका को सहारा दिया, फैसलों में समाज मुख्यधारा में रहा तब तक प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और दोहन में असन्तुलन नहीं पनपा। जिस दिन हालात प्रतिकूल हुए, मुर्गी (प्राकृतिक संसाधन) मर गई। प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने पर समाज ने शोक भी प्रगट नहीं किया। ज्यों ही उसके हाथ से नियंत्रण तथा प्रबन्ध छिना उसने प्राकृतिक संसाधनों के बिगाड़ की अनदेखी प्रारंभ कर दी। सन्देश साफ है - कोई भी व्यक्ति या समाज अपने हितों की अनदेखी को पसन्द नहीं करता। आजीविका तथा सामाजिक सरोकारों की अनदेखी करने वाला कोई भी कानून या व्यवस्था, संसाधनों की रक्षा नहीं कर सकती। समाजिक सरोकार सबके ऊपर है।

समाज की अपेक्षाओं को उजागर करता एक सर्वेक्षण


मध्यप्रदेश में सन 1999 में जल संसाधनों के स्वामित्व एवं प्रबन्ध से जुड़े अधिकारों पर एक सर्वेक्षण हुआ था। इस सर्वेक्षण में पानी पर अधिकारिता (सरकार, पंचायत या वाटरशेड कमेटी) को लेकर उक्त बिन्दुओं पर ग्रामीणों का अभिमत प्राप्त किया गया था। यह अध्ययन मध्यप्रदेश सरकार के ग्रामीण विकास विभाग ने कराया था। इस अध्ययन में उन कतिपय गाँवों को सम्मिलित किया गया था जहाँ जन सहभाग आधारित जलग्रहण विकास कार्यक्रम चल रहा था या पूरा हो चुका था। इन गाँवों में अभिमत एकत्रित करने के लिये स्वयंसेवी संस्थाओं का उपयोग किया गया था और पहले से तैयार प्रपत्रों में किसानों, खेतीहर मजदूरों, शिक्षित, अशिक्षित, गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले एवं ग्रामीण उद्यमियों इत्यादि के अभिमत को दर्ज किया गया था। उत्तर देने वाले लोगों में सामान्य, पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जन जाति की महिलाओं एवं पुरूषों को सम्मिलित किया गया था। उत्तर देने वालों में वे लोग भी सम्मिलित थे जो विभिन्न कारणों से पलायन करते हैं।

इस अध्ययन में लोगों से निम्न बिन्दुओं पर अभिमत प्राप्त किया गया था-

- गाँव में पानी की उपलब्धता की स्थिति।
- वर्तमान जल नीति की विसंगतियाँ।
- भूजल उपयोग के नियम कायदे।
- उपयोग की प्राथमिकतायें।
- भूजल दोहन के नियंत्रण में सरकार, पंचायत, ग्राम सभा या वाटरशेड कमेटी के अधिकार।
- अनियंत्रित जल दोहन व्यवस्था पर समाज के नियंत्रण में समाज की भूमिका।
- समाज नियंत्रित जल प्रबन्ध हेतु नीति का विकास

इस अध्ययन के परिणाम बेहद चौंकाने वाले थे। ग्रामीण लोगों ने साफ तौर पर गाँव की अनौपचारिक ग्राम सभा को महत्त्व देने की बात कही। उन्होंने पानी पर सरकार या पंचायत के स्थान पर अनौपचारिक ग्राम सभा के नियंत्रण की वकालत की थी। इस अध्ययन के परिणामों से पता चलता है कि समाज को अपने खुद के द्वारा बनाए नियम कायदों पर अधिक विश्वास है। वे पानी के प्रबन्ध पर खुद का नियंत्रण चाहते हैं। संदेश साफ है - पानी से सम्बद्ध स्थानीय समस्याओं का, हितग्राहियों द्वारा बनाए नियमों द्वारा प्रबन्ध तथा नियंत्रण। ये सभी उदाहरण आशा जगाते हैं और समाज को सशक्त भी बनाते हैं।

पुराने जमाने अर्थात औद्योगीकरण के पहले, जलस्रोतों में एकत्रित होने वाली गंदगी मुख्यतः आर्गेनिक होती थी। आर्गेनिक गंदगी के सड़ने की गति बहुत तेज होती है इसलिये वह बहुत जल्दी समाप्त हो जाती थी। बची-खुची गंदगी को जलचर खा जाते थे। औद्योगीकरण और जीवनशैली बदलने के कारण अब गंदगी की किस्म बदल गई है।देश और दुनिया में दो कार्यप्रणालियाँ प्रचलन में हैं। पहली कार्यप्रणाली के अन्तर्गत प्राकृतिक संसाधनों के विकास का काम सरकार करती है। यह आधुनिक मॉडल है। यह मॉडल प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की बुनियाद पर आधारित है। इस मॉडल को उसकी उपलब्धियों के साथ-साथ विसंगतियों और खामियों के आईने में देखना उचित होगा। वह चेहरा समाज और सरकार को, आने वाले दिनों की संभावित विकृतियों का भी भान कराता है। दूसरी कार्यप्रणाली, समाज द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के विकास का काम अपने हाथ में लेने की अवधारणा पर आधारित हैं। इस अवधारणा के प्रताप से अन्ना हजारे ने रालेगाँव सिद्धी, महाराष्ट्र में सूखा प्रवण एव 400 मिलीमीटर बरसात वाले पहाड़ी गाँव में वाटरशेड अवधारणा पर समाज के साथ काम कर इतना पानी उपलब्ध करा दिया कि लोगों के लिये खेती करना फायदे का सौदा बन गया है। अनुपम मिश्र ने बिना सरकार के दखल के, तालाबों पर काम करने वालों की एक नई पीढ़ी पैदा कर दी। राजेन्द्र सिंह ने कम वर्षा वाले चट्टानी इलाकों में सूखी नदियों को जिन्दा कर दिया। सूखे इलाके को दो फसली सिंचित इलाके में बदल दिया। इस सूची में उन सभी उदाहरणों को सम्मिलित किया जा सकता है जिनकी पूर्व में चर्चा की जा चुकी है। उन सभी उदाहरणों में विभिन्न कारणों तथा परिस्थितियों के कारण समाज सामने आया था। वह धारा की विपरीत दिशा में बहने का भी उदाहरण है। संभवतः उठ खड़े हुए जिन्दा समाज को लगता हो कि धारा में तो मुरदे बहते हैं। हो सकता है उसे इकबाल का वह प्रसिद्ध शेर याद आ गया हो जिसमें शायर ने कहा था कि “खुदी को कर बुलन्द इतना कि खुदा बन्दे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है?” हो सकता है, इसीलिये उसने अपनी समस्याओं का निराकरण करते समय विभागों, संस्थाओं, औद्योगिक घरानों, जन प्रतिनिधियों, तकनीकी क्षमता, धन, अनुभव और समय से जुड़े सवाल नहीं उठाए और अपने मजबूत इरादों पर विश्वास जताया। इन सारे उदाहरणों से केवल एक ही बात उभरती है कि जल संकट से उबरने के लिये अभी भी संभावनाओं के आसमान में उम्मीद का सूरज मौजूद है। समाज का साथ मिल जाये तो वह अभी भी रोशनी बिखेर सकता है। लोगों के मिलने नहीं अपितु जुड़ने से समाज बनता है। तभी एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। इस कारण पहले बात आम जन के योगदान की।

आम जन का योगदान


सभी जानते हैं कि स्वच्छ तथा पर्याप्त पानी हमारे जीवन के लिये बेहद आवश्यक है। वह धरती पर मौजूद वनस्पतियों, जलचरों तथा नभचरों के लिये भी उतना ही आवश्यक है। इन आवश्यकताओं के कारण जलस्रोतों की निर्मलता और पानी की पर्याप्तता आवश्यक है। नदियों की अविरलता और निर्मलता आवश्यक है।

पानी के बढ़ते संकट के कारण संभवतः वह घड़ी बहुत करीब आ गई है जब पानी से जुडे मामलों पर समाज की भागीदारी और दखल की आवश्यकता महसूस हो रही है। पहला कारण तो यह है कि भारत प्रजातांत्रिक देश है। प्रजातांत्रिक देश में नागरिकों को उन सारी बातों पर बोलने, अपनी राय रखने तथा सक्रिय भागीदारी का अधिकार है जो उनके जीवन पर असर डालती हैं। विदित है कि अनेक इलाकों में पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता जीवन पर असर डालने लगी है। समाज की भागीदारी तथा दखल का दूसरा कारण, योजनाओं की प्लानिंग से जुड़ा है। अनुभव बताता है कि वही प्लानिंग अधिक सफल होती है जिसका निर्धारण अधिकार सम्पन्न, विवेकी तथा हितग्राही नागरिकों की सक्रिय भागीदारी और सहमति से हुआ हो। पूर्व में वर्णित उदाहरण लाइटहाउस की तरह हैं। वे रोशनी दिखाते हैं तथा हमारी हौसला अफजाई करते हैं। उन सब उदाहरणों का स्पष्ट संदेश है कि पानी के समग्र विकास में नागरिकों की भागीदारी तथा दखल होना ही चाहिए।

उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ सालों से सरकारें भी समाज की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये प्रयासरत हैं। इस पृष्ठभूमि में हमें अपना नागरिक दायित्व पालन के लिये आगे आना चाहिए। यह बहुत बड़ा कारण है हमारी सहभागिता के लिये। यही इस चर्चा का संदेश भी है और उत्तर है उस सवाल का कि आखिर हम ही क्यों?

जब हम पानी और प्रकृति पर चर्चा करेंगे तो हमारे साथ बहुत से लोग होंगे। निश्चय ही उनकी पृष्ठभूमि अलग-अलग होगी। पृष्ठभूमि के अलग होने के कारण लोगों की जानकारी तथा दक्षता अलग-अलग होगी। दक्षता का क्षेत्र अलग होगा। उसका स्तर भी अलग-अलग होगा। कहने-सुनने का अंदाज़ भी अलग-अलग होगा। उनका योगदान भी अलग-अलग होगा। भागीदारी भी अलग-अलग होगी। सुझाव है कि प्रत्येक बैठक के लिये, अध्यक्ष के स्थान पर समन्वयक चुनें जो सहज होकर सबके विचार सुन सकें। जो प्रेम तथा सदभाव के वातावरण में सब को अपनी बात रखने के लिये अवसर दे सकें। उनका काम होगा-

भटकाव रोकना तथा सुझावों को पानी के मुद्दे से जुड़े बिन्दु पर केन्द्रित रखना।
सुझावों पर कैसे अमल हो - अमल की रणनीति पर सुझाव प्राप्त करना।
क्रियान्वयन के लिये रोड-मैप तैयार कराना। और भी बातें जो आवश्यक हों।
अब सहभागिता से जुड़ी कुछ प्रासंगिक बातें विस्तार से।

हर व्यक्ति, किसी न किसी विधा में पारंगत होता है। कुछ मामलों में उसका ज्ञान होता है तो कुछ मामलों में उसका अनुभव होता है। कुछ मामलों में वह सीखना चाहता है। कुछ मामलों में वह अपना ज्ञान बाँटना चाहता है। यह विविधता हमें बैठकों में दिखाई देगी। लोग विभिन्न तरीकों से अपनी बात कहेंगे। कुछ लोग तर्क की सहायता से तो कुछ लोग मुहावरों, नारों, कहावतों इत्यादि की मदद से अपना ज्ञान साझा करेंगे। हम जानते हैं, पानी को लेकर हर भाषा में देशज कहावतें, मुहावरे और लोकोक्तियाँ हैं। जो सूत्रों की तरह होती हैं और बिना लागलपेट के सीधा सन्देश देती हैं। बैठकों में सारगर्भित बात को कम से कम शब्दों में कहने का यह सबसे सटीक तरीका है। हो सकता है कुछ लोग उनका उपयोग करें। समन्वयक को सबके विचारों को धैर्यपूर्वक सुनना होगा।

अब कुछ बात पानी को सहेजने की प्रणालियाँ तथा परम्पराओं की। उल्लेखनीय है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और अरुणाचल से लेकर गुजरात तक पानी सहेजने की परम्परागत प्रणालियाँ तथा परम्परायें हैं। बहुत से लोगों को उनकी जानकारी है पर बहुत ही कम लोगों को उनके पीछे छुपे भारतीय जलविज्ञान की जानकारी है। सुझाव है, उस परम्परागत ज्ञान को आज के परिप्रेक्ष्य तथा परिस्थितियों के संदर्भ में समझने का प्रयास किया जाए। उसी मिले-जुले ज्ञान का उपयोग कर अलवर जिले में नदियों को जिन्दा किया गया है। तालाबों पर अनुपम मिश्र के लेखन में भी भारत के उसी परम्परागत जलविज्ञान की सोंधी गंध है। उल्लेखनीय है कि उसी परम्परागत विज्ञान को अपनाकर हमारे पूर्वजों ने विपरीत मौसम, कठिन स्थानीय भूगोल तथा कम वर्षा के बावजूद अपने-अपने इलाके में पानी के कष्ट को पैर नहीं जमाने दिया था। सौभाग्य से हमारे पास आधुनिक तथा परम्परागत जलविज्ञान - दोनों ही उपलब्ध हैं। अर्थात बेहतर ज्ञान है इस कारण जलस्रोतों की अस्मिता बहाली एवं उनके पुनरुद्धार में हम अधिक सक्षम हैं।

अस्मिता बहाली की बाट जोहते जलस्रोत


जलस्रोतों की अस्मिता की बहाली पर चर्चा करते समय आवश्यक है कि हम कुछ बुनियादी बातों को याद कर लें। उन बुनियादी बातों में मुख्य हैं हमारे गाँव या कस्बे के जलस्रोत। सामान्यतः हमारे गाँव या कस्बे के आस-पास नदियाँ, तालाब, बाँध, स्टॉप-डेम, परकोलेशन टैंक, कुएँ और नलकूप जैसे जलस्रोत मिलते हैं। पहले उनकी पुरानी हालत पर लोगों से कुछ बात कर लें। पुरानी बात करने से उनकी मूल स्थिति का पता चल जाता है। इसके बाद उनकी आज की स्थिति और उनकी मुख्य समस्याओं की चर्चा करें। सामान्यतः हर जगह लगभग एक जैसी हालत है। पहली समस्या है कि उनमें पानी की मात्रा लगातार कम हो रही है। नदी है तो उसका प्रवाह कम हो गया है। कहीं-कहीं नदी आंशिक रूप से या पूरी तरह बरसाती नदी बन कर रह गई है। उसमें जगह-जगह गंदगी जमा हो रही है। यदि तालाब है तो अनदेखी और उपेक्षा के कारण उसके कुछ हिस्से पर अतिक्रमण हो गया है। पानी की मात्रा और क्षेत्रफल घट गया है। जलकुम्भी से तालाब पट गया है। पानी से दुर्गंध उठ रही है। स्टॉप-डेम की तली में गाद और गंदगी जमा हो गई है। गाद जमा होने के कारण जल क्षमता कम हो गई है। गन्दगी के कारण बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है। भूजल के अविवेकी दोहन के कारण कुओं और नलकूपों का योगदान घट रहा है। वे सूख रहे हैं। इन समस्याओं से हम अच्छी तरह परिचित हैं। हमारे आस-पास के जलस्रोतों में भी इसी प्रकार की समस्यायें हैं। कहीं-कहीं कुछ अलग तरह की भी समस्याएँ है।

तालाबों की अस्मिता बहाली के प्रथम चरण में समस्याओं को अच्छी तरह पहचानना चाहिए। कारणों की तह में जाना चाहिए। जलस्रोतों की अस्मिता बहाली के प्रथम चरण में समाज निम्न फैसले तो ले ही सकता है -

किसी भी जलस्रोत में गंदगी नहीं डालेंगे।
अपने मित्रों तथा बच्चों को जागरूक करेंगे।
स्कूलों में जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करायेंगे।
यदि कोई व्यक्ति नदी, तालाब इत्यादि में गंदगी डालता है तो उसे प्रेमपूर्वक टोकेंगे।
लोगों को अपनी परम्पराओं का स्मरण करायेंगे।

उल्लेखनीय है कि मनु स्मृति में जलस्रोतों के सम्बन्ध में कतिपय वर्जनाओं का उल्लेख है। कहा गया है कि -

नाप्सु मूत्रं पुरीषं वा ष्ठोवनं समुत्सृजेत्।
अमेध्यलिप्तमन्यद्वा लोहितं वा विषाणि वा।।


अर्थात पानी में मल, मूत्र, थूक अन्य दूषित पदार्थ रक्त या विष का विसर्जन न करें।

उपर्युक्त वर्जना पुराने जमाने की है। पुराने जमाने अर्थात औद्योगीकरण के पहले, जलस्रोतों में एकत्रित होने वाली गंदगी मुख्यतः आर्गेनिक होती थी। आर्गेनिक गंदगी के सड़ने की गति बहुत तेज होती है इसलिये वह बहुत जल्दी समाप्त हो जाती थी। बची-खुची गंदगी को जलचर खा जाते थे। औद्योगीकरण और जीवनशैली बदलने के कारण अब गंदगी की किस्म बदल गई है।

आधुनिक युग की गंदगी विविध आयामी है। उसके हजारों स्रोत हैं। पानी की गुणवत्ता मुख्यतः घरेलू कचरे, मानव मल, औद्योगिक अपशिष्ट और खेती में काम आने वाले कृषि रसायनों के कारण खराब होती है। खनन गतिविधियों के कारण भी पानी की गुणवत्ता बिगड़ती है। व्यक्तिगत स्तर पर हमारा फर्ज है हम जलस्रोतों में घरेलू गंदगी नहीं डालें। घरेलू गंदगी डालने वाले व्यक्तियों से बातचीत करें। उनको समझाएँ उनका सहयोग हासिल करें। उनकी मदद से समस्या को हल करायें। यह बहुत छोटा प्रयास है। लोग कहते हैं कि बूँद-बूँद से घड़ा भरता है इसलिये उनको वर्गीकृत करने के स्थान पर योगदान मानें। उन योगदानों को जीवनशैली का हिस्सा बनाएँ।

कई बार लोग पेयजल स्रोतों (हैंडपम्प, कुआँ इत्यादि) के आस-पास गंदा पानी जमा होता है। यह पानी जमीन में रिसकर भूजल की गुणवत्ता खराब करता है। हमारा फर्ज है कि हम गंदा पानी के जमा होने को रोकने के लिये जलस्रोत के मालिक और गंदा करने वालों से चर्चा करें। उन्हीं से गंदे पानी के निपटान के लिये व्यवस्था तय करायें। उनकी मदद से, प्रदूषण की समस्या हल कराये।

सब जानते हैं कि बरसाती पानी की मदद से ही नदियों ने भारत के भूगोल को गढ़ा है। जलवायु तथा स्थानीय भूविज्ञान ने उसे संवारा है। वह नदियों की करोड़ों सालों की मेहनत का परिणाम है। नदियों को जोड़ने का काम कुदरत और उसकी ताकतें करती है। वही ताकतें उनके मिलने तथा बिछड़ने के नियम तय करती हैं। उसे बदलने का अर्थ है कुदरत के साथ छेड़-छाड़ करना तथा भारत के भूगोल को बदलना।कुछ लोग सलाह देते हैं कि नगरीय इलाकों के छोटे-मोटे नदी-नालों के गंदे पानी को बिना उपचार या सामान्य उपचार के बाद सिंचाई करने के काम में लाया जा सकता है। यह बात आपसी चर्चा में भी उठ सकती है। हमें चाहिए कि सबसे पहले उस पानी का सूक्ष्म रासायनिक परीक्षण कराने पर जोर दें। सूक्ष्म रासायनिक परीक्षण के परिणामों को सार्वजनिक करायें। उसके हानि-लाभ तथा उपयुक्तता-अनुपयुक्तता की जानकारी प्राप्त करना चाहिए। जानकारी के आधार पर उपचारित पानी का उपयोग तय करायें। तय उपयोग के अनुसार पानी का उपयोग सुनिश्चित हो। उल्लेखनीय है कि नगरीय इलाकों के नदी-नालों के गंदे पानी में अनेक बार अत्यंत हानिकारक भारी धातुओं के अंश पाये जाते हैं। वे जलचरों तथा मनुष्यों की सेहत के लिये बेहद हानिकारक होते हैं।

हमारी जानकारी में है कि जल प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण बड़ी आवासीय बस्तियों से निकला मल-जल है। उसमें आर्गेनिक गंदगी के अलावा अनेक हानिकारक रसायन भी मौजूद होते हैं। मनुष्यों तथा जलचरों की सेहत पर उनका प्रभाव खतरनाक है। उसे साफ करना किसी एक व्यक्ति के बूते का काम नहीं है। उसे सौ प्रतिशत साफ करने के लिये नगरीय निकायों से लगातार बात करनी होगी। यही बात बड़े कल-कारखानों तथा उद्योगों से निकले पानी पर भी लागू है। एक बात और, कई बार कल-कारखानों तथा उद्योगों का प्रदूषित जल नदी, तालाब या जलस्रोत तक नहीं पहुँच पाता। मार्ग में ही रुक जाता है। वह जमीन में रिस कर भूजल को प्रदूषित करता है। यह प्रदूषित भूजल, नीचे-नीचे प्रवाहित हो कालान्तर में बड़ी नदी में मिल जाता है। नदी को प्रदूषित करता है। कुओं तथा नलकूपों के पानी को हानिकारक बनाता है। हमारा फर्ज है कि हम जलस्रोतों में गंदगी डालने वाले कल-कारखानों/ उद्योगों के मालिकों से बात-चीत करें। उनका सहयोग हासिल करें। उनकी मदद से, उनके द्वारा ही प्रदूषण की समस्या हल करायें। सफलता मिलेगी। सही बात का प्रतिकार या अनदेखी संभव नहीं होती।

सिंचित इलाकों में रासायनिक खाद, कीटनाशकों तथा खरपतवार नाशकों का खूब उपयोग होता है। उनके उपयोग के कारण इन इलाकों के पानी, मिट्टी और अनाजों में हानिकारक रसायनों की उपस्थिति दर्ज होने लगी है। ग्रामीण स्तर पर होने वाली चर्चाओं में यह मुद्दा उठाया जाना चाहिए। उसके खतरों पर चर्चा होना चाहिए। कैंसर फैलने के प्रमुख कारणों में हानिकारक रसायनों की मदद से पैदा किए अनाज की बहुत बड़ी भूमिका है। कैंसर के अलावा ये रसायन और भी अनेक बीमारियों के लिये जिम्मेदार है। पंजाब का किसान इसे भोगने लगा है। रासायनिक खेती का संदेश बिल्कुल साफ है - किसानों को पारम्परिक खेती की ओर लौटना होगा। देश के अनेक इलाकों में आधुनिक खेती से होने वाले नुकसान नजर आने लगे हैं। समाज की सेहत की कीमत पर उसे बढ़ावा नहीं दिया जा सकता।

प्राकृतिक स्रोतों में मिलने वाले पानी में बहुत कम मात्रा में बहुत से रसायन मिले रहते हैं। यह मात्रा पानी को स्वाद देती है। सामान्यतः वह हानिकारक भी नहीं होती। पानी में अक्सर सोडियम, पोटैशियम, कैल्सियम, मैग्निशियम, क्लोराइड, कार्बोनेट, बाईकार्बोनेट और सल्फेट पाये जाते हैं। इनके अलावा पानी में, बहुत कम मात्रा में लोहा, मैन्गनीज, फ्लोराइड, नाईट्रेट, स्ट्रान्शियम, और बोरान भी मिलता है। इनके अलावा कुछ तत्व अत्यन्त ही कम मात्रा में पाये जाते हैं उनके नाम हैं आर्सेनिक, सीसा, कैडमियम और क्रोमियम। इनके अलावा पानी में सामान्य तौर पर ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड एवं नाइट्रोजन तथा कहीं-कहीं मीथेन और हाइड्रोजन गैस भी मिलती है। खदानों के आस-पास के पानी में कतिपय खनिजों के घुलनशील अंश मिलते हैं। जब किसी स्रोत के पानी में रसायनों की मात्रा, निरापद सीमा को लाँघ जाती है, तो वह पानी, प्रदूषित पानी कहलाता है। उस पानी के इस्तेमाल से अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं। इस मामले में फ्लोराइड और आर्सेनिक सबसे अधिक खतरनाक हैं। फ्लोराइड हड्डियों, दाँतों, मांसपेशियों और शरीर के अनेक भागों को प्रभावित करता है। उससे होने वाली बीमारियों का कोई इलाज नहीं है। इन बातों से समाज को अवगत कराना आवश्यक है। जानकारी के बाद ही सुरक्षात्मक कदम उठाए जाते हैं।

मध्यप्रदेश के रतलाम शहर में अल्कोहल का प्लांट लगा है। बरसों से इसके असर से आस-पास के इलाकों के लोग पानी और हवा के प्रदूषण तथा दुर्गंध से त्रस्त हैं। रतलाम के प्लांट से निकले जहरीले पानी के कारण इलाके की खेती और जलस्रोत बर्बाद हो गये हैं। इन्दौर की खान नदी, भोपाल के पातरा नाले और जबलपुर के ओमती नाले में इतनी गंदगी और खतरनाक रसायन हैं कि उस पानी का उपयोग खतरे से खाली नहीं है। खान नदी में इन्दौर का पूरा अपशिष्ट और कूड़ा कचरा मिलता है जिसके कारण लगभग पूरी नदी रोगाणुओं से पटी पड़ी हैं। देश सहित, मध्यप्रदेश में इस प्रकार के हजारों उदाहरण और हैं। इन नालों के पानी से अनेक लोग सब्जियाँ और खाद्यान्न उगाते हैं। उनमें हानिकारक रसायन पाये जाते हैं। समाज को इस विषय पर अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। जिम्मेदारी के अन्तर्गत पहला काम समझाइश, दूसरा काम उपचार के लिये सम्बन्धितों से सतत अनुरोध और तीसरा काम प्रदूषित सब्जियों और खाद्यान्नों का बहिष्कार है। इन कदमों से नालों के प्रदूषित पानी के उपचार का मार्ग प्रशस्त होगा। उसके उपयोग की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। बीमारियों का खतरा कम होगा।

बैठकों में भूमिगत जल के प्रदूषण और उस पर आधारित स्रोतों (नदी, तालाब, कुएँ तथा नलकूप) में पानी की घटती मात्रा एवं उनके असमय सूखने की चर्चा होनी चाहिए। भूजल का प्रदूषण अदृश्य होता है। प्रदूषण के दिखाई नहीं देने के कारण दूषित पानी उपयोग में आता रहता है। नुकसान पहुँचाता रहता है। इसी कारण वैज्ञानिकों ने भूजल के प्रदूषण को सबसे अधिक जटिल तथा घातक माना है। औद्योगिक क्षेत्रों और नगरीय क्षेत्रों के कचरे के आधे-अधूरे उपचार के कारण प्रदूषण का जन्म होता है। सीवर, सेप्टिक टैंकों और घरेलू नालियों से निकले गंदे पानी में अनेक धातुयें, अधात्विक पदार्थ, आर्गेनिक पदार्थ, दुर्गंध पैदा करने वाले यौगिक और रोग पैदा करने वाले जीवाणु पाये जाते हैं। नगरीय इलाकों का प्रदूषित भूजल बीमारियाँ फैलाने में अहम भूमिका निभाता है। उल्लेखनीय है कि प्रदूषण की मात्रा को कम करने में नदी-नालों का प्रवाह किसी हद तक सहायक होता है। इस बिन्दु पर सभी सम्बन्धितों का ध्यान केन्द्रित करने तथा नदियों का प्रवाह बढ़ाने की मुहिम चलाने की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि स्थानीय समाज को अपने आस-पास की समस्याओं को सबसे बेहतर समझ होती है। इस कारण, उसे ठीक कराने में स्थानीय समाज की भागीदारी तथा उनका आगे आना आवश्यक है। गौरतलब है कि प्रजातांत्रिक परिवेश में, बहुत समय तक, समाज के सुझावों की अनदेखी संभव नहीं होती इसलिये लोगों को एकजुट होना होगा। कृतसंकल्प समाज सुनामी की तरह होता है।

चर्चा नदियों की बिगड़ती सेहत और प्रवाह बढ़ाने की


यह चर्चा बहुत जरूरी है। प्राचीन काल में भले ही नदियाँ स्वच्छ जल का विश्वसनीय स्रोत रही हों पर आधुनिक युग में अनेक संकटों के दौर से गुजरने की राह पर हैं। उनके मुख्य संकट हैं पानी की घटती मात्रा (बरसात बाद के प्रवाह की कमी), पानी की कम होती निर्मलता (बिगड़ती गुणवत्ता) और बाढ़ का बढ़ता प्रकोप। सुझाव है कि नदी की सेहत की चर्चा अपने गाँव या कस्बे की नदी से शुरू की जाए।

लगभग हर नदी में बरसात के बाद के प्रवाह में कमी आ रही है। इसके अनेक कारण हैं। पहला मुख्य कारण है जमीन के नीचे पानी का दोहन। यह दोहन समाज की आवश्यकता है। उसे समाप्त नहीं किया जा सकता लेकिन पानी की बर्बादी को कम से कम करने के प्रयास अवश्य ही कराए जा सकते हैं। खेती में पानी की बर्बादी को रोकने के लिये ड्रिप-इरीगेशन को अपनाने की मुहिम चलाई जा सकती है। बहुत अधिक पानी चाहने वाली फसलों में ड्रिप-इरीगेशन को कानूनन अनिवार्य कराया जा सकता है। गर्मी की फसलों को संकटग्रस्त इलाकों में हतोत्साहित किया जा सकता है। उद्योगों को पानी की रीसाइकिलिंग के लिये प्रेरित किया जा सकता है। बाँधों के कारण भी प्रवाह की निरन्तरता घट रही है। उस पर भी व्यवस्था को सचेत करने की आवश्यकता है।

नदी के गैर-मानसूनी प्रवाह को बढ़ाने के लिये नदी कछार की सीमा से प्रारंभ किए परकोलेशन तालाबों का जाल बिछाया जा सकता है। घरों में पानी के खर्च में कमी के प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिये, समाज को विश्वास में लेेकर, रेन-वाटर-हार्वेस्टिंग तथा समझाइस की मुहिम चलाई जा सकती है। रेत के वैज्ञानिक खनन को व्यवहार में लाए जाने की जरूरत है।

नदी का भूगोल बदलना


नदियों के प्रवाह को बढ़ाने (या पानी की कमी को पूरा करने) तथा उनके पानी की शुद्धता को बहाल करने के लिये मुख्यतः तकनीकी मंचों पर चर्चा होती है। उसके बारे में समाज को मीडिया के माध्यम से अल्प जानकारी भी मिलती है। कभी-कभी, कुछ सामाजिक संगठन भी नदी के प्रवाह तथा बढ़ती गंदगी के बारे में चिन्ता जाहिर करते हैं। सरकारी विज्ञप्तियों के माध्यम से कई बार आम आदमी को थोड़ी बहुत या सामान्य जानकारी मिलती है किंतु समाज की अपेक्षाओं को मुखर होने तथा उसकी राय को मुख्यधारा में आने का अवसर शायद ही कभी मिलता है।

तकनीकी मंचों पर प्रवाह बढ़ाने या पानी की कमी को पूरा करने तथा पानी की शुद्धता को बहाल करने के लिये अक्सर नदियों के भूगोल को बदलने की बात की जाती है। उसे सार्थक पहल बताया जाता है। उसकी पुरजोर पैरवी की जाती है। सार्थक पहल या पुरजोर पैरवी के बावजूद समाज शायद ही नदी के भूगोल बदलने के सभी पक्षों तथा नफा-नुकसान से पूरी तरह परिचित हो पाता है। कई बार, भूगोल बदलने का प्रस्ताव उसके लिये किसी रहस्य से कम नहीं होता। कालान्तर में, भूगोल बदलने के जब नफा-नुकसान सामने आने लगते हैं तो पुरानी कहानी समेट ली जाती है। नई शब्दावली के साथ उसे फिर परोस दिया जाता है। सुझाव है कि नदी के भूगोल बदलने, प्रवाह बढ़ाने और पानी की शुद्धता को बहाल करने के लिये उठाए जाने वाले संभावित प्रयासों के हर बिन्दु पर, पूरी पारदर्शिता के साथ समाज के बीच चर्चा हो। प्रयास निम्नानुसार हैं-

- नदियों का भूगोल बदलना।
- नदी मार्ग का भूगोल बदलना।

प्रयासों का संक्षिप्त विवरण तथा कुछ सुझाव/टिप्पणियाँ निम्नानुसार है-

नदियों का भूगोल बदलना


नदियों के भूगोल को बदलने के प्रयास को नदी-जोड़ योजना कहा जा सकता है। इसके अन्तर्गत हिमालय क्षेत्र की 14 और दक्षिण भारत की 16 नदियों को जोड़ा जायेगा। पानी इकट्ठा करने के लिये 16 बाँध हिमालयीन इलाके में और 58 बाँध दक्षिण भारत में बनाये जायेंगे। जल परिवहन के लिये लगभग 14,900 किलोमीटर लम्बे 30 कृत्रिम जलमार्ग बनाये जायेंगे। परियोजना से लगभग 34,000 मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन संभव होगा और लगभग 25 लाख हेक्टेयर रकबे में सूखे के असर को कम करने में मदद मिलेगी। यह योजना को मार्केट करने वाला पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष बताता है कि योजना के कारण 6,25,000 हेक्टेयर जमीन नहरों में और 10,50,000 हेक्टेयर जमीन जलाशयों के डूब में आयेगी। लगभग 79,292 हेक्टेयर इलाके के जंगल डूबेंगे। विस्थापन, पर्यावरण की हानि, गाद की समस्या, धरती का खारापन इत्यादि के कारण होने वाली हानि अतिरिक्त है। नदी-जोड़ परियोजना के 74 बाँधों के प्यासे कैचमेंटों में रहने वाले वंचित समाज की आजीविका और पेयजल संकट का निदान कैसे होगा? अनुत्तरित है। कैचमेंट में निवास करने वाले गरीबों की मूलभूत आवश्यकता के लिये पानी कहाँ से आयेगा? पानी की उपलब्धता का भेद-भाव कैसे दूर होगा?

सब जानते हैं कि बरसाती पानी की मदद से ही नदियों ने भारत के भूगोल को गढ़ा है। जलवायु तथा स्थानीय भूविज्ञान ने उसे संवारा है। वह नदियों की करोड़ों सालों की मेहनत का परिणाम है। नदियों को जोड़ने का काम कुदरत और उसकी ताकतें करती है। वही ताकतें उनके मिलने तथा बिछड़ने के नियम तय करती हैं। उसे बदलने का अर्थ है कुदरत के साथ छेड़-छाड़ करना तथा भारत के भूगोल को बदलना।

नदी-जोड़ परियोजना के बारे में अनुपम मिश्र का निम्नलिखित कथन उल्लेखनीय है -

‘‘अच्छे लोग जब राज के नजदीक पहुँचते हैं तो उनको विकास का रोग लग जाता है, भूमंडलीकरण का रोग लग जाता है, उनको लगता है कि सारी नदियों को जोड़ दें, सारे पहाड़ों को समतल कर दें - बुलडोजर चला कर उनमें खेती कर लेंगे। मात्र यही ख्याल प्रकृति के विरुद्ध है। मैं बार-बार कह रहा हूँ कि यह प्रभु का काम है, सुरेश प्रभु सहित देश के प्रभु बनने के चक्कर में इसे नेता लोग न करें तो अच्छा है’’।

अनुपम मिश्र आगे कहते हैं ‘‘ जिनका दिल देश के लिये धड़कता है उन्हें नदीजोड़ परियोजना पर प्रेम पूर्वक बात करनी चाहिए। जरूर कहीं कोई-न-कोई सुनेगा। यह दौर बहुत विचित्र है और इस दौर में सब विचारधाराएँ और हर तरह का राजनीतिक नेतृत्व सर्वसम्मति रखता है सिर्फ विनाश के लिये, उन सब में रजामंदी है, विनाश के लिये। और किसी चीज में एक दो वोट से सरकार गिर सकती है, पलट सकती है, बन सकती है, बिगड़ सकती है। लेकिन इस विकास और विनाश वाले मामलें में सबकी गजब की सर्वसम्मति है’’।

नदी विज्ञान तथा पर्यावरण से जुड़े लोगों का मानना है कि बहती नदी का पानी मौसम, हवा, रोशनी, धरती, जीव-जन्तुओं और अनेक घटकों के सम्पर्क में आने और प्रकृति द्वारा उसे सौंपे दायित्वों को पूरा करने के कारण, पाइप या सुरंग से बहने वाले पानी से बहुत अलग है। नदी प्रबन्ध का अर्थ केवल जल प्रबन्ध नहीं होता। वह हकीकत में ईको-सिस्टम का कुशल प्रबन्ध होता है। वही जल प्रबन्ध निरापद होता है। वही समाज की सेवा करता है।

नदी-जोड़ परियोजना की अवधारणा का मूल आधार नदी घाटियों में बहता पानी है। यह अमीरी और गरीबी, बाढ़ के पानी की मात्रा पर आधारित है। इस सवाल का उत्तर पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता के आधार पर दिया जाना चाहिए। उसका उत्तर नदी घाटी में पानी की मूलभूत आवश्यकता के आधार पर दिया जाना चाहिए। उसका उत्तर पानी की निरापदता के आधार पर दिया जाना चाहिए। उसका उत्तर नदी घाटी की कुदरती जिम्मेदारियों के आधार पर दिया जाना चाहिए। इसका उत्तर इको-सिस्टम की निरन्तरता को ध्यान में रखकर दिया जाना चाहिए। उसका उत्तर सामान्य अंकगणितीय जलविज्ञान अर्थात बाढ़ की मात्रा के आधार पर नहीं दिया जा सकता। वह सामाजिक सरोकारों की अनदेखी होगा।

नदियों के किनारे मेले तथा महोत्सव मनाने की पुरानी भारतीय परम्परा है। इस परम्परा के अनुसार, समाज नदी के किनारे एकत्रित होता है। मेला लगता है, सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता है तथा समाज का अवचेतन मन, नदी के प्रति अपनी भक्ति, श्रद्धा तथा आस्था प्रकट कर घर लौट आता है।कुछ लोगों को लगता है कि नदी घाटियों की पानी की गरीबी, हकीकत में लालच, पानी के कुप्रबन्ध और गैर टिकाऊ मांग का परिणाम है। इस आधार पर नदियों के भूगोल को बदलने की आवश्यकता ही नहीं है। यदि भूगोल बदला भी गया तो भी लालच और कुप्रबन्ध के कारण पानी की मांग कभी भी खत्म नहीं होगी। आवश्यकता है घाटी के अन्दर ही टिकाऊ, विवेकी, लालचरहित, आर्थिक दृष्टि से उचित एवं सावधानी पूर्वक किये जलप्रबन्ध को सबसे पहले आजमाने की। इस प्रयास के बाद हो सकता है कि इधर नदी घाटी के पानी के ट्रांसफर का प्रश्न बेमानी हो जाए। समाज को मिल-बैठकर इन बिन्दुओं पर गंभीर चिन्तन करना चाहिए।

पिछले 20-25 सालों से भारत में विकास कार्यों में जन भागीदारी और समाज को अधिकार देने की बात चल रही है। अनेक इलाकों में इसे आजमाया भी गया है। अनेक जगह सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं।

सकारात्मक परिणामों के कारण, समाज को व्यवस्थाओं के केन्द्र में रखने के फायदों पर सहमति बन रही है। यह सहमति भारत तक सीमित नहीं है। दुनिया के अनेक देशों में इस प्रयोग को आजमाया जा रहा है। सारी दुनिया में जन भागीदारी के दायरे को बढ़ाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है इसलिये कैचमेंट और कमांड के लोगों की भागीदारी आवश्यक है। उन्हें अपने भाग्य का फैसला करने तथा अपने बुनियादी सरोकारों को सुलझाने के लिये संवाद का मार्ग अख्तियार करना होगा। संक्षेप में नदी के भूगोल से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा करते समय उपर्युक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए। यह बहुत जरूरी है।

नदी मार्ग का भूगोल बदलना


नदी मार्ग के भूगोल को बदलना बहुत छोटा काम माना जाता है इसलिये स्थानीय स्तर पर इसे करने के लिये लोग या संस्थाएँ अमूनन आसानी से तैयार हो जाती हैं। यह काम नदी में पानी की आवक बढ़ाने, सूखी नदी को जिन्दा करने, बाढ़ के प्रभाव को घटाने जैसे कामों के लिये किया जाता है। इसके लिये नदी तल की खुदाई की जाती है, उसके पाट को चौड़ा या संकरा किया जाता है या मार्ग की दिशा बदली जाती है। सुझाव है कि इन कामों के प्रभाव तथा उसके असर के स्थायित्व को समझा जाये।

बहुत से लोग नदी में पानी की आवक बढाने के लिये नदी तल को गहरा करने को सार्थक पहल मानते हैं। इस क्रम में अनेक जगह नदी के तल की मिट्टी और रेत को श्रमदान या अन्य व्यवस्था से हटाया जाता है। नदी तल की रेत, मिट्टी इत्यादि को हटाने से तात्कालिक रूप से नदी में पानी (भूजल) दिखाई देने लगता है। इस सफलता से सब लोग प्रभावित होते हैं। काम के पक्ष में माहौल बनता है। विदित हो, कुदरत ने नदीतल के प्रत्येक बिन्दु की ऊँचाई को अपने कायदे कानूनों के अनुसार निर्धारित किया है। उसे करने से कुदरती सिद्धान्तों की अनदेखी होती है। यह काम अस्थायी प्रकृति का होता है। इस कारण, कुछ साल बाद नदी के तल में मिट्टी जमा हो जाती है। सारे किए धरे पर पानी फिर जाता है। खर्च बेकार हो जाता है। इस गैर-टिकाऊ तरीके से नदी जिन्दा नहीं होती और पानी की आवक भी नहीं बढ़ती।

कुछ लोग बाढ़ की सुरक्षित निकासी के लिये नदी के पाट को चौड़ा करने का सुझाव देते हैं। ऐसा करने से बाढ़ के पानी की निकासी के लिये अधिक मार्ग मिल जाता है। बाढ़ का अतिरिक्त पानी आसानी से निकल जाता है पर पाट के चौड़े होने के कारण प्रवाह की गति कम हो जाती है। गति कम होेने के कारण गाद जमा होने लगती है। गाद जमा होने के कारण नदी तल उथला हो जाता है। बाढ़ का प्रभाव क्षेत्र बढ़ जाता है। किया धरा और खर्च बेकार हो जाता है।

कहीं कहीं लोग विभिन्न आवश्यकताओं का हवाला देकर नदी तट को संकरा या परिवर्तित करने का सुझाव देते हैं। कुछ लोग तटबन्ध बनाने का सुझाव देते हैं। इन कामों को करने से नदी की कुदरती जिम्मेदारी प्रभावित होती है। कुदरत उस बदलाव का प्रतिकार करती है। वह प्रतिकार कालान्तर में नदी मार्ग की पुरानी स्थिति को लौटा देता है। किया धरा प्रयास और खर्च बेकार हो जाता है। संक्षेप में नदी मार्ग की समस्याओं पर चर्चा करते समय उपर्युक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए। बदलाव के स्थायित्व तथा नकारात्मक पक्षों पर समझदार और अनुभवी लोगों के विचार जानकर ही निर्णय लेना चाहिए।

विभिन्न कारणों से नदियों के पानी की निर्मलता पर खतरा गंभीर हो रहा है। मुख्य कारण हैं खेती में प्रयुक्त कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों, रासायनिक उर्वरकों, अनुपचारित नगरीय तथा औद्योगिक अपशिष्ट। नदियों की निर्मलता को लौटाने के लिये तीन मुख्य प्रयास आवश्यक हैं -

- अनुपचारित नगरीय तथा औद्योगिक अपशिष्ट इत्यादि का सौ फीसदी उपचार। उपचार के बाद ही पानी को मुख्य नदी में छोड़ना। एसटीपी से नाले की गंदगी साफ होती है। मुख्य नदी की नहीं।

- परम्परागत खेती अपनाना।

- भूजल को प्रदूषित करने वाली गतिविधियों पर रोक।

नदियों में जीवनरक्षक प्राकृतिक जलप्रवाह को सुनिश्चित किये बिना उनके पानी की गुणवत्ता बहाल करना लगभग असंभव है अतः प्रत्येक नदी की घाटी का विकास उसके भूजल स्तर एवं ऐसी कृषि पद्धति को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये जो प्रदूषण से मुक्ति दिलाती है। नदी के पानी को साफ करने वाले तत्वों को बढावा देती है। अर्थात नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह को बढ़ाने की आवश्यकता है। यह बेहद महत्त्वपूर्ण कार्य है।

भूजल स्तर की बहाली से न्यूनतम पर्यावरणी प्रवाह उपलब्ध होगा। उसके उपलब्ध होने के कारण नदी की बायोडायवर्सिटी सुधरेगी। बायोडायवर्सिटी के सुधरने से जलीय जीवन की वापिसी होगी। नदी की पानी को खुद-ब-खुद साफ करने वाली क्षमता लौटेगी। नदी की प्राकृतिक जिम्मेदारियाँ पूरी होंगी। प्रवाह बढ़ने से नदियों के अविरल होने की परिस्थितियाँ निर्मित होंगी। अब बात भूजल स्तर की बहाली की।

नदियों के प्रवाह की बहाली का अर्थ है पाताल छूते भूजल स्तर की बहाली। उसका सतह के करीब तक ऊपर उठ आना। भूजल स्तर के ऊपर उठ आने से कुएँ और नलकूप, बिना प्रयास तथा धन खर्च किए, अपने आप जिन्दा हो जायेंगे। उनकी जल क्षमता बहाल हो जायेगी। जल संकट खत्म हो जायेगा। इसके अतिरिक्त कुछ अप्रत्यक्ष लाभ हैं जिनका फायदा समाज और सरकार, दोनों को मिलेगा। इस बिन्दु पर समाज को ध्यान देना होगा। उसे मुख्यधारा में लाना होगा।

ऊपर वर्णित अनेक कामों में समाज का सीधा दखल नहीं है पर अपेक्षित मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करना और सामाजिक दबाव बनाना हमारे हाथ में है। अपेक्षित मुद्दों के कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं-

- नदियों की मुख्य धारा से पानी उठाने में संयम बरता जाए।
- प्रवाह बहाली के लिये समानुपातिक भूजल रीचार्ज किया जाए।
- पर्यावरणी प्रवाह सुनिश्चित किया जाए।
- नदी से रेत निकासी के लिये तकनीकी मानक तय किए जाएँ।

ये कुछ बिन्दु हैं जिन पर खुलकर बहस होनी चाहिए। यह हमारा नागरिक दायित्व तथा सामाजिक सरोकार है। जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों से सटीक एवं तार्किक बात करना हमारे हाथ में है। वह हमारी ताकत भी है। अपना पक्ष सही तरीके से रखना हमारे हित में है। समाधानों का तार्किक एवं वैज्ञानिक रोडमेप पेश करना हमारे हाथ में है। समाज द्वारा लिये फैसलों से अपने प्रतिनिधि को अवगत कराना हमारे हाथ में है। जटिल मामलों में यही समाज का सकारात्मक योगदान है।

नदियों के किनारे मेले तथा महोत्सव मनाने की पुरानी भारतीय परम्परा है। इस परम्परा के अनुसार, समाज नदी के किनारे एकत्रित होता है। मेला लगता है, सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता है तथा समाज का अवचेतन मन, नदी के प्रति अपनी भक्ति, श्रद्धा तथा आस्था प्रकट कर घर लौट आता है। इस अनुक्रम में कहा जा सकता है कि यदि समाज को अपने भाव, अपनी अपेक्षायें प्रकट करने का अवसर मिलता तो बात यों कही जाती-

- हमारी नदियाँ बारहमासी रहें। उनमें पानी की कभी कमी नहीं आये। वे जलचरों तथा नभचरों सहित सब जीवधारियों की जरूरतों को पूरा करें।

- आजीविका के लिये पानी पर निर्भर समाज को पानी की कमी के कारण कभी निराश नहीं होना पड़े। पानी गाद मुक्त हो।

- पानी जीवन का आधार है। आयुर्वेद में इसे अमृत कहा है इसलिये वह हमेशा अमृततुल्य तथा जीवनदायनी ऊर्जा से ओतप्रोत रहे।

- समाज की आकांक्षाओं को सरकार नीतिगत एवं संवैधानिक सम्बल दे।

चर्चा बाँधों की लम्बी आयु तथा पानी के बँटवारे की


नदियों के पानी के बँटवारे से जुड़े अनेक मामले हैं। हमें उनकी जानकारी भी है पर एक ऐसा अनछुआ क्षेत्र है जिसकी कभी चर्चा नहीं होती। प्रभावित तबका है जिसके हितों पर कोई बात भी नहीं करता। यह मामला है बाँध में जमा पानी के कैचमेंट और कमाण्ड के बीच बँटवारे का। समाज को इसकी अनदेखी नहीं करना चाहिए।

समाज को बाँधों के उन मुद्दों पर चर्चा करनी चाहिए जो अनदेखी के शिकार हैं। पहला मुद्दा है गाद निपटान। बाँधों की डिज़ाइन की खामी या अन्य कारणों से गाद का ठीक से निपटान नहीं होता। वह जलाशयों के पेंदे में जमा होती रहती है। हर साल स्टोरेज घटाती है। यदि कारगर कदम नहीं उठाए गये तो गाद भरने से एक दिन बाँध अनुपयोगी हो जायेगा। इसलिये बाँधों से गाद निकासी की व्यवस्था को मुकम्मल करना चाहिए। उम्मीद है, समाज की पहल से इस अनदेखी पर रोक लगेगी।

दूसरा मुद्दा है जलाशय में जमा पानी का न्यायोचित बँटवारा। सब जानते हैं कि बाँधों में जमा पानी का स्रोत कैचमेंट होता है पर उसे केवल कमाण्ड में ही उपलब्ध कराया जाता है। पानी की इस वितरण व्यवस्था के कारण कैचमेंट को बाँधों से पानी नहीं मिल पाता। कैचमेंट का इलाका जल कष्ट भोगता है। यह महत्त्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा है। इस पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए और समस्या का सामाजिक न्याय आधारित हल खोजा जाना चाहिए। अर्थात बाँधों में जमा पानी को न्यायोचित तरीके से कैचमेंट तथा कमाण्ड में वितरित करना चाहिए। समाधान खोजा जाना चाहिए। स्थानीय स्तर पर और भी मुद्दे हो सकते हैं। उनको सुलझाना भी हमारा सामाजिक दायित्व है।

तालाब


हर गाँव के आस-पास तालाब मौजूद हैं। विलुप्त तालाब भी समाज की स्मृति में जीवित हैं। उनके नाम गाँव, मोहल्लों के नामों तथा उपनामों में रचे-बसे हैं। आज भी भारत में सैकड़ों साल पुराने अनेक तालाब मौजूद हैं। अनुपम मिश्र की किताब आज भी खरे हैं तालाब तथा सेन्टर फॉर साइंस एन्ड इन्वायरन्मेंट, नई दिल्ली की किताब बूँदों की संस्कृति में देश के विभिन्न भागों में मौजूद परम्परागत तालाबों का विवरण उपलब्ध है। हमारे आस-पास मौजूद तालाबों की दो श्रेणियाँ अस्तित्व में हैं। परम्परागत और आधुनिक तालाब। उनके अन्तर को समझने का मतलब है समस्याओं को बेहतर तरीके से स्थायी तौर पर सुलझाना।

परम्परागत तालाब - प्रकृति से तालमेल के प्रतीक


पुराने तालाब सामान्यतः बारहमासी होते थे। उनके कैचमेंट हरे-भरे होते थे। कैचमेंट में मिट्टी के कटाव बहुत कम था। परिणामस्वरूप गाद जमाव बहुत कम था। गाद जमाव कम होने के कारण उनकी आयु सैकड़ों हजारों साल होती थी। उनका स्रोत बारहमासी होता था इसलिये उनका पानी प्रदूषण मुक्त और निर्मल होता था। पुराने समय में, उनका निर्माण, प्रकृति से तालमेल बिठाते जलविज्ञान के आधार पर किया जाता था। उनमें सामान्यतः कम पानी रोका जाता था। उन्हें ढालू जमीन और छोटे-छोटे नदी नालों पर पाल डालकर बनाया जाता था। सदियों से परम्परागत तालाब, बरसाती पानी को जमा करने वाला, सबसे सस्ता और सबसे अधिक विश्वसनीय देशज स्रोत रहा है। वह ग्रामीण बसाहटों का अनिवार्य हिस्सा था। राजा-महाराजाओं द्वारा बनवाये तालाब बड़े और ग्रामीणों द्वारा बनवाये तालाब छोटे होते थे। प्रायः हर गाँव में एक या एक से अधिक तालाब होते थे। उनका निर्माण, प्रकृति से तालमेल बिठाते भारतीय जलविज्ञान के आधार पर किया जाता था। कम पानी रोका जाता था। थोड़ी सी कोशिश से कैचमेंट से आने वाले और तालाब में राके जाने वाले पानी के सम्बन्ध को समझा जा सकता है। यही सम्बन्ध गाद के जमाव को नियंत्रित करता है।

आधुनिक तालाब - पश्चिमी विज्ञान के उदाहरण


आधुनिक काल में तालाबों का निर्माण पश्चिमी जलविज्ञान द्वारा तय मापदण्डों के अनुसार किया जाता है। इन मापदण्डों में सबसे पहले कैचमेंट से आने वाले पानी की संभावित मात्रा ज्ञात की जाती है। जलाशय बनाने के लिये उपयुक्त जमीन और पाल डालने के लिये उपयुक्त स्थान खोजा जाता है। उन्हें सामान्यतः राजस्व की भूमि पर बनाया जाता है। अधिकांश तालाब, गर्मी का मौसम आते-आते सूख जाते हैं या उनमें बहुत कम पानी बचता है। यह स्थिति समाज के संज्ञान में है।

हमारे आस-पास के अनेक तालाबों की जमीन पर अतिक्रमण हुआ है। हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है कि उन्हें अतिक्रमण मुक्त रखे जाने की मुहिम का हिस्सा बनें। यदि संभव हो तो उनकी अतिक्रमित भूमि की वापिसी की कोशिश करें। तालाबों के मामलों में जागरुकता और समाजिक सहयोग के अलावा पब्लिक ऑडिट व्यवस्था लागू होना चाहिए। पब्लिक ऑडिट के कारण व्यवस्था चौकन्नी रहती है। अतिक्रमण का खतरा यथासंभव कम रहता है।आधुनिक तालाबों के कैचमेंट में बहुत कम जंगल बचे हैं। कैचमेंट में खेती होने लगी है। गाँव बस गए हैं। मिट्टी का कटाव बहुत बढ़ गया है। परिणामस्वरूप तालाबों में बहुत अधिक गाद जमा होने लगी है। गाद जमाव के कारण वे अल्पायु हो रहे हैं। बसाहटों की गंदगी और जलकुम्भी ने उनकी सूरत और सीरत बदल दी है।

आधुनिक तालाबों का स्रोत सामान्यतः बारसाती पानी होता है। विभिन्न कारणों से उनका पानी बहुत जल्दी प्रदूषित हो जाता है। उनमें सामान्यतः जलकुम्भी का विस्तार भी देखा जाता है। उन्हें बनाते समय उनमें सामान्यतः अधिक से अधिक पानी रोकने का प्रयास किया जाता है। उन्हें ढालू जमीन पर पाल डालकर बनाया जाता है। अनेक कारणों से, आधुनिक युग में, तालाब, बरसाती पानी को जमा करने वाला, सबसे अधिक विश्वसनीय स्रोत नहीं हैं। स्टॉप-डेम उनकी जगह ले चुके हैं।

कोशिश तालाबों को समझने की


तालाबों के पुनरुद्धार पर चर्चा करते समय आवश्यक है कि हम सबसे पहले उसकी श्रेणी (परम्परागत/आधुनिक) को जान लें। यह जानकारी उसके निर्माण के जलविज्ञान को समझने के लिये बेहद जरूरी है। इसके बाद उसकी पुरानी हालत जो वरिष्ठ जनों की स्मृति में है, से लोगों को परिचित करा दें। पुरानी बात करने से उसकी मूल स्थिति तथा इतिहास का पता चल जाता है। मूल स्थिति से परिचित कराने से उसकी समस्या समझ में आ जाती है। इसके बाद उसकी मौजूदा स्थिति, मुख्य समस्याओं एवं पुनरुद्धार की चर्चा करें।

आम तौर पर परम्परागत और आधुनिक तालाबों के बिगाड़ के कारण लगभग एक जैसे हैं। आमतौर पर उनकी मुख्य समस्या है - गाद भराव, कल-कारखानों और बसाहटों इत्यादि के अनुपचारित पानी का उनमें छोड़ा जाना, गंदगी तथा गंदे पानी की निकासी की पुख्ता व्यवस्था का अभाव, अतिक्रमण, संकटग्रस्त बायोडायवर्सिटी, घटती सेवा, जलकुम्भी का विस्तार और कैचमेंट का घटता योगदान इत्यादि। इनके अलावा कुछ स्थानीय समस्यायें भी हो सकती हैं। एक बात जो उनके पुनरुद्धार में बहुत महत्त्वपूर्ण है वह है उनके निर्माण में प्रयुक्त विज्ञान। बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिये तालाब निर्माण के विज्ञान को ध्यान में रखकर ही समाज को रणनीति तय करना चाहिए।

तालाबों का पुनरुद्धार: समाधान मिलें तो बात बने


समाज को सबसे पहले परम्परागत और आधुनिक तालाबों की समस्याओं की पहचान करना चाहिए। तदोपरान्त उन समस्याओं को वर्गीकृत करना चाहिए। इसके बाद, प्रत्येक समस्या को हल करने के लिये विकल्पों पर विचार-विमर्श होना चाहिए। विचार-विमर्श के उपरान्त सबसे अधिक कारगर विकल्प पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाना चाहिए। कुछ सुझाव निम्नानुसार हो सकते हैं-

तालाबों में गाद भराव की समस्या बेहद आम है। यह बात अनेक लोगों की जानकारी में है। यह गाद कैचमेंट से बाढ़ के पानी के साथ आती है। तालाब से पानी की अपर्याप्त निकासी के कारण उसका बहुत बड़ा हिस्सा तालाब की तली में जमा हो जाता है। उसे मशीनों की मदद से निकाला जा सकता है पर इसमें काफी धन खर्च होता है। यह अस्थायी तरीका है। कुछ सालों में गाद फिर जमा हो जाती है।

प्राचीन काल में परम्परागत तालाबों में गाद जमाव कम से कम रखने के लिये प्राकृतिक तरीका अपनाया जाता था। इसके लिये कैचमेंट से आने वाले पानी की कम मात्रा तालाब में जमा की जाती थी। बहुत से पानी को बाहर निकल जाने दिया जाता था। बाहर जाता पानी अपने साथ गाद और गंदगी बहा ले जाता था। तालाब निर्मल रहता था। यह तरीका उन तालाबों पर क्रियान्वित किया गया था जो नदी मार्ग पर बने थे।

कुछ तालाब नदियों के पास भी स्थित होते हैं। कई बार, उन तालाबों में बसाहटों तथा कल-कारखानों की गंदगी जमा होती है। उस गंदगी को साफ करने के लिये नदी के पानी का उपयोग किया जा सकता है। एक विकल्प यह है कि नदी से पानी की धारा निकाल कर तालाब की ओर मोड़ दी जाये। दूसरा विकल्प गुरुत्व बल की मदद से पाइपों द्वारा तालाब में पानी पहुँचाया जाए। दोनों ही स्थिति में तालाब की गंदगी तथा गाद की कुछ मात्रा वेस्टवियर के मार्फत बाहर निकलेगी। यदि कुछ कमी समझ में आती है तो पानी की मात्रा बढ़ाकर परिणामों को बेहतर बनाया जा सकता है। तालाब से बाहर जाती गंदगी को उपचारित किया जाना चाहिए। उपचार के बाद ही उपचारित अर्थात शुद्ध पानी को नदी को लौटाया जाना चाहिए। इस तरीके को अपनाने से तालाब काफी हद तक शुद्ध हो जायेगा। नदी को अपना पानी वापिस मिल जायेगा। नदियों के पास स्थित तालाबों की गाद और गंदगी के निपटान का यह कुदरती, स्थायी तथा किफायती तरीका है।

अनेक अवसरों पर समाज को पुराने तालाबों की सुध लेने का अवसर मिलता है। इस मौके पर सबसे पहले उनके निर्माण में प्रयुक्त जलविज्ञान को समझना आवश्यक है। उससे दूसरों को अवगत कराने की भी आवश्यकता है। बेहतर समझ, समस्या पर सार्थक बहस और सही फैसले लेने का अवसर प्रदान करती है। उल्लेखनीय है कि उनके निर्माण में प्रयुक्त परम्परागत जलविज्ञान के कारण ही वे लगभग गाद मुक्त थे। इसी कारण वे दीर्घायु थे। सुझाव है कि जीर्णोद्धार करते समय उनके वेस्टवियर की ऊँचाई को यथावत रखा जाये। उसमें बिल्कुल भी वृद्धि नहीं की जाये। अधिक पानी भरने के लोभ से बचा जाये। यदि लोभ किया गया और उनके वेस्टवियर की ऊँचाई बढ़ाई गई तो उनमें गाद जमा होने लगेगी। कुछ साल बाद वे तालाब, कूड़ेदान में बदल जायेंगे। वे जलकुम्भी तथा गंदगी से पट जायेंगे। परम्परागत जलविज्ञान का सीधा और स्पष्ट संदेश है -

भारतीय/परम्परागत जलविज्ञान को यथावत रखें। उसे यथावत रखकर प्राचीन तालाबों की अस्मिता लौटाने की जिम्मेदारी निभायें।

आधुनिक तालाबों में गाद जमाव को कम करने वाले कुदरती तरीका बेहतर होता है। यह प्रयास उन्हें दीर्घायु बनाने में सहयोग करेगा। मशीनों से भी गाद निकाली जा सकती है पर इस तरीके में स्थायी परिणाम नहीं मिलते। खर्च भी बहुत होता है। एक बात और, यदि स्थानीय किसान गाद लेना चाहें तो, सबसे पहले गाद का सूक्ष्म रासायनिक परीक्षण करायें। सही गुणवत्ता पाए जाने पर ही उसका उपयोग हो।

तालाबों को गहरा करना - फैशन या आवश्यकता


पिछले कुछ सालों से तालाबों को गहरा करने का प्रचलन जोर पकड़ रहा है। यह काम देश के अनेक भागों में किया जाने लगा है। सूखा राहत तथा पानी की सप्लाई से जुड़े तकनीकी लोग भी इसके पक्षधर होते जा रहे हैं। यह सारी जद्दोजहद तालाबों की जल क्षमता बढाने और आने वाले सालों में जल संकट की संभावना को खत्म करने के लिये की जाती है। इस तरह के काम को समाज का हित माना जाता है इसलिये उस पर सवाल नहीं उठाये जाते। उल्लेखनीय है कि बहुसंख्य समाज को इस जद्दोजहद में अपनी समस्या का हल नजर आता है।

तालाब गहरीकरण के काम का तकनीकी पक्ष है इसलिये उसे गहरा करने के पहले यह जानना आवश्यक है कि जलग्रहण क्षेत्र से लगभग कितना पानी हासिल किया जा सकता है और तालाब में अधिक से अधिक कितना पानी जमा किया जा सकता है। इसी सम्बन्ध के आधार पर तालाब के गहरीकरण के प्रस्ताव को मंजूर किया जाना चाहिये। यदि पिछले कुछ सालों से पूरी बरसात के बावजूद वह तालाब भरपूर पानी को तरस रहा हो तो उस हकीकत का अर्थ है कि कैचमेंट से तालाब को पूरा भरने लायक पानी नहीं मिल रहा है। तालाब गहरा करते समय इस बिन्दु पर चर्चा होनी चाहिए।

तालाबों को गहरा करते समय या उन्हें बनाते समय उनकी न्यूनतम गहराई पर बहस होना चाहिए। यह बहस तालाब को बारहमासी बनाने के लिये आवश्यक है। गहराई पर निर्णय लेते समय वाष्पीकरण हानि को ध्यान में रखना आवश्यक है। उथले तालाब जल्दी सूख जाते हैं। समाज का दायित्व है कि वह स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही तालाब की गहराई के बारे में निर्णय ले। निर्णय लेने में सहयोग करे।

तालाबों को गहरा करने तथा पुरानी जल संरचनाओं के जीर्णोद्धार की चर्चा में पानी की गुणवत्ता का प्रश्न अक्सर गुम जाता है क्योंकि जहाँ लोग पानी के लिये तरस रहे हों वहाँ फर्टीलाइजर, इंसेक्टीसाइड और पेस्टीसाइड के कारण पानी की बिगड़ती गुणवत्ता की बात करना, नक्कारखाने में तूती बजाने जैसा लगता है। यह अनदेखी अनुचित है। उसकी चर्चा आवश्यक है।

हमारे आस-पास के अनेक तालाबों की जमीन पर अतिक्रमण हुआ है। हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है कि उन्हें अतिक्रमण मुक्त रखे जाने की मुहिम का हिस्सा बनें। यदि संभव हो तो उनकी अतिक्रमित भूमि की वापिसी की कोशिश करें। तालाबों के मामलों में जागरुकता और समाजिक सहयोग के अलावा पब्लिक ऑडिट व्यवस्था लागू होना चाहिए। पब्लिक ऑडिट के कारण व्यवस्था चौकन्नी रहती है। अतिक्रमण का खतरा यथासंभव कम रहता है।

कुछ बातें जिन्हें भूलना महँगा पड़ेगा


पिछली सदी तक भारत के विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में लाखों तालाब थे। खेतों पर किसानों का भले ही स्वामित्व था पर चारागाह, जंगल, बाग-बगीचों एवं तालाबों को खेती का पूरक मानने के कारण उन (तालाबों) पर समाज का स्वामित्व था। तालाब और उनका कैचमेंट पवित्र माना जाता था। उसे अपवित्र नहीं किया जाता था। यह उस विलक्षण पर्यावरणीय समझ का प्रमाण है जो भारत में सदियों पहले विकसित हुई और लोकसंस्कारों के माध्यम से कालजयी बनी। उसने जल संकट पनपने नहीं दिया। उसने नदियों, कुओं और बावड़ियों को सूखने नहीं दिया। पानी को निर्मल रखा। आज परिस्थितियाँ बदल गईं हैं। हम अतीत में नहीं लौट सकते। उन चीजों को वरीयता दिला सकते हैं जो तालाबों और उसपर निर्भर समाज के हित में हैं।

तालाब, विकेन्द्रीकृत जल प्रबन्ध के प्रतीक हैं। उनके निर्माण से प्राकृतिक जलचक्र मजबूत होता है। भूजल स्तर ऊपर उठता है। नलकूपों, कुओं में पानी लौटता है। नदियाँ जिन्दा होती हैं। उनकी मदद से हर बसाहट में जल स्वराज अर्थात आत्मनिर्भरता को लाया जा सकता है इसलिये समाज को एकजुट हो तालाबों के निर्माण को सर्वोच्च वरीयता दिलाने के लिये प्रयास करना चाहिए। हर बसाहट में पर्याप्त जल संरक्षण कराया जाना चाहिए। पानी की मात्रा की पर्याप्तता का अनुमान लगाने के लिये संरक्षित पानी और ग्राम के रकबे के सम्बन्ध को ज्ञात किया जाना चाहिए। यह मान जितना अधिक होगा, उस बसाहट में जल कष्ट उतना कम होगा।

 

समाज, प्रकृति और विज्ञान


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

पुस्तक परिचय : समाज, प्रकृति और विज्ञान

2

आओ, बनाएँ पानीदार समाज

3

रसायनों की मारी, खेती हमारी (Chemical farming in India)

4

I. पानी समस्या - हमारे प्रेरक

II. पानी समस्या : समाज की पहल

III. समाज का प्रकृति एजेंडा - वन

5

धरती का बुखार (Global warming in India)

6

अस्तित्व के आधार वन (Forest in India)

लेखक परिचय

1

श्री चण्डी प्रसाद भट्ट

2

श्री राजेन्द्र हरदेनिया

3

श्री कृष्ण गोपाल व्यास

4

डॉ. कपूरमल जैन

5

श्री विजयदत्त श्रीधर

 

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