पानी तो है पर कब तक

2 Jan 2016
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बारिश में जब सरकारी नलों से गन्दा और मटमैला पानी आता है, कुइयों का पानी साफ और निर्मल रहता है। खराबी है, तो बस यह कि पानी बहुत मीठा नहीं है और लटेरी जैसी बस्ती में जहाँ मकान बनाने के लिये कभी-कभी नालियों के पानी का उपयोग करना पड़ता है, इन कुइयों का महत्त्व लटेरी के लोग ही समझ सकते हैं।

लटेरी में पानी का कोई स्थायी व समृद्ध स्रोत नहीं था। शायद इसलिये इस तालाब की जरूरत कभी पड़ी होगी। यूँ इस बस्ती में कई पुराने कुएँ-बावड़ियाँ हैं, लेकिन गर्मियों में उनका पानी पीने को ही कम पड़ता है। नहाने-धोने और पशुधन को पानी उपलब्ध कराने के लिये लटेरी-वासी हमेशा से इस तालाब पर निर्भर रहे हैं और आज भी हैं।

तालाब में पानी किसी नदी-नाले से नहीं आता, बस बारिश के दिनों में पूरब और उत्तर की ओर की बस्ती और खेतों का पानी बहता हुआ इस तालाब तक पहुँचता है। कुछ साल पहले तालाब के पूर्वी हिस्से में उत्तर से दक्षिण दिशा में सड़क डाल दी गई है, जिससे पानी अब दक्षिणी पाल के किनारे से बहकर बेकार चला जाता है। तालाब अब पूरा भरता नहीं है, फिर यह उथला भी होता जा रहा है। आज भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा हनुमान ताल पर ही नहाने धोने जाता है और इस निपट ग्रामीण बस्ती में पशुधन को तो बस तालाब का ही सहारा है।

हनुमान ताल फिलहाल लटेरी नगर पंचायत की देखरेख में है और जब जिला मुख्यालय विदिशा की नगरपालिका ने अपने नीमताल, चौपड़ा, तलैया और हाजीबली के तालाबों को अस्वाभाविक विकास की भेंट चढ़ा दिया है, तब इस छोटी-सी नगर पंचायत ने काफी हद तक अपने तालाब को बचाए ही नहीं रखा, बल्कि उस पर साफ-सुथरे घाट बनवा कर आसपास घना वृक्षारोपण भी करवाया है।

लटेरी में पीने के पानी की हमेशा किल्लत रहती है। अब तो नल-जल योजना की वजह से पानी ही हाय-हाय कुछ कम हो गई है। फिर भी, जब कभी किसी वजह से पानी की सप्लाई नहीं होती है, तो इस तालाब की पाल पर बने हनुमान मन्दिर के कुएँ पर भारी भीड़ उमड़ती है। उस कुएँ में पीने के मीठे पानी का अकूत भण्डार जो है। यह कुआँ घनघोर गर्मियों में भी अपने ठण्डे पानी से लोगों की प्यास बुझाने में सक्षम बना रहता है। ऐसा ही एक बारहमासी कुआँ, तालाब के उत्तर पूर्वी किनारे पर भी है। फिर, बरबटपुरा की कुइयाँ तो तालाब किनारे हैं ही, जिनमें चार हाथ की गहराई पर ही पानी मिलाता है।

हनुमान ताल इलाके के उन सबसे अच्छे निस्तारी तालाबों में एक है, जो अब तक किसी तरह बचे हुए हैं। शायद इसकी वजह लटेरीवासियों की उस पर अत्यधिक निर्भरता ही है, लेकिन लटेरी और उसके आसपास यह इकलौता तालाब नहीं था। हाल ही तक वहाँ हनुमान ताल समेत सात तालाब हुआ करते थे, उनमें से पाँच की तो बस अब याद ही बाकी है। धना ताल, दाऊताल, गुरजियाताल, कांकर ताल और मोतिया ताल तो अभी-अभी लोगों के देखते-ही-देखते खत्म हो गए। बची है, तो छोटी सी गोपी तलाई और वो इसलिये, कि सगड़ा-धगड़ा पहाड़ों से उतरा पानी वहीं सेन और सगड़ नदी बन कर बहता है।

बरबटपुरा की कुईयाँ


बरबट का मतलब होता है, ज़बरदस्ती। लटेरी के इसी नाम से बसे अनधिकृत मोहल्ले में नल-जल से पाइप बिछाने में बड़ी कंजूसी दिखाई गई। यह मोहल्ला लटेरी के हनुमान ताल के उत्तर-पूर्वी छोर पर तालाब के एकदम किनारे बसा है। प्रकृति ने इस मोहल्ले में बड़ी उदारता दिखाई है।

कई शहरों में नल-जल योजना के नलों से तुलतुलाती पतली धार से पानी के लिये जितना गहरा गड्ढा खोदना पड़ता है, बस उतनी गहराई से पाँच हाथ की रस्सी से लोग जब जितना जरूरत हो पानी खींच लेते हैं। चार फीट चौड़ी और इतनी ही लम्बी इन पक्की कुइयों की गहराई कुल जमा पन्द्रह फीट होती है, जिनमें आठ-दस फीट तो बना रही रहता है। बारिश में जब सरकारी नलों से गन्दा और मटमैला पानी आता है, कुइयों का पानी साफ और निर्मल रहता है। खराबी है, तो बस यह कि पानी बहुत मीठा नहीं है और लटेरी जैसी बस्ती में जहाँ मकान बनाने के लिये कभी-कभी नालियों के पानी का उपयोग करना पड़ता है, इन कुइयों का महत्त्व लटेरी के लोग ही समझ सकते हैं।

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