पेंशन के लिये भटकती वृद्धाएँ


करीब 1500 की आबादी वाले चकेरी गाँव की शान्तिबाई, लीलाबाई, राजरानी और पूनाबाई अपनी पेंशन के लिये 3 किलोमीटर दूर कर्रापुर गाँव की बैंक में हर महीने दो-तीन बार पैदल चक्कर लगाती हैं। हर बार बैंक से यही जवाब मिलता है कि अभी पेंशन जमा नहीं हुई। कारण पूछने पर कहा जाता है कि पंचायत से पूछो। सरपंच और सचिव से पूछते हैं तो कहा जाता है कि हमें नहीं मालूम, जनपद में जाकर पूछो। किन्तु जनपद तक जाने के लिये न तो पैसे हैं और न बुजुर्ग शरीर में वहाँ तक पहुँचने की क्षमता। भारत की लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था में सरकार लोगों के हितों में योजनाएँ संचालित करने का दावा करती है। किन्तु जमीनी स्तर पर कई योजनाएँ नौकरशाही के गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पा रही हैं।

कुछ दिनों पहले केन्द्र सरकार ने बुजुर्गों, विधवा महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों के लिये सामाजिक सुरक्षा पेंशन राशि में बढ़ोत्तरी करने की बात कही थी। पेंशन रा‍शि में यह बढ़ोत्तरी हो या न हो, लेकिन कई लोगों को उनकी घोषित पेंशन भी नहीं मिल पा रही है।

मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के सागर जिले के बंडा विकासखण्ड का चकेरी गाँव प्रशासनिक तंत्र की संवेदनहीनता का एक गम्भीर उदाहरण है, जहाँ कई बुजुर्ग महिलाओं के सामने भरण-पोषण का संकट पैदा हो गया है।

करीब 1500 की आबादी वाले चकेरी गाँव की शान्तिबाई, लीलाबाई, राजरानी और पूनाबाई अपनी पेंशन के लिये 3 किलोमीटर दूर कर्रापुर गाँव की बैंक में हर महीने दो-तीन बार पैदल चक्कर लगाती हैं। हर बार बैंक से यही जवाब मिलता है कि अभी पेंशन जमा नहीं हुई। कारण पूछने पर कहा जाता है कि पंचायत से पूछो। सरपंच और सचिव से पूछते हैं तो कहा जाता है कि हमें नहीं मालूम, जनपद में जाकर पूछो। किन्तु जनपद तक जाने के लिये न तो पैसे हैं और न बुजुर्ग शरीर में वहाँ तक पहुँचने की क्षमता।

70 से 80 वर्षीय ये विधवा महिलाएँ पिछले पाँच महीनों से बैंकों का चक्कर लगाते-लगाते थक चुकी हैं, किन्तु उन्हें नहीं मालूम की उनकी पेंशन कहा रुकी हुई है।

पहले सूखे और अब बाढ़ से जूझ रहे बुन्देलखण्ड में पेंशन से वंचित इन बुजुर्ग महिलाओं के सामने आज जीवन जीने का संकट पैदा हो गया है। पाँच महीने पहले तक 300 रुपए प्रतिमाह की पेंशन से जैसे-तैसे गुजारा करने वाली महिलाओं के लिये अपना पेट भरना मुश्किल हो गया है।

70 वर्षीय शांतिबाई के दो लड़के हैं जो चार महीने से रोजगार की तलाश में गाँव से बाहर है। शांतिबाई बताती है कि गाँव में उनके लिये कोई काम नहीं था, इसलिये रोजी-रोटी की तलाश में बीवी-बच्चों सहित इन्दौर चले गए। मुझे चलते नहीं बनता है और शरीर की इस हालत को देखकर वे मुझे गाँव में ही छोड़ गए। आज चार महीने हो गए, लेकिन उनकी कोई खबर नहीं है।

बेटों के पलायन करने और पेंशन बन्द होने के बाद गाँव में अकेली रह गई शांतिबाई के सामने सबसे बड़ा संकट अपना पेट भरने का था। इस दशा में शांतिबाई ने गाँव के नजदीक जंगल में लकड़ियाँ बीनना शुरू किया। वह सुबह 8 बजे जंगल चली जाती और शाम को घर वापस पहुँचती।

पेंशन से वंचित क्रमशः शांतिबाई, लीलाबाई, राजरानीइस तरह दो दिनों की कोशिश के बाद लकड़ी का एक गट्ठर तैयार होता और तीसरे दिन सिर पर लकड़ी का गठ्ठर लिये 7 किलोमीटर पैदल चलकर पास के कस्बे में पहुँचती, जहाँ 40 से 50 रुपए के बीच वह गठ्ठर बिकता। महीने में सात-आठ बार गठ्ठर बेचकर 300 रुपए तक कमा पाती। इस तरह शांतिबाई पेट भरने के अपने संघर्ष को किसी तरह पूरा करती। वह कहती है कि सरकारी राशन दुकान से 1 रुपए किलो में गेहूँ मिल जाता है। यदि 300 महीने की पेंशन मिलने लगे तो पेट भरना थोड़ा आसान हो जाएगा।

अस्सी वर्षीय राजरानी की भी स्थिति यही है। वह बताती हैं कि इस साल सिर्फ तीन बार 300 रुपए की पेंशन मिली और बाद में बन्द हो गई। यानी वे नौ महीनों से पेंशन से वंचित है। उनका लड़का काम की तलाश में बाहर गया हुआ है। पूनाबाई को भी पाँच महीनों से पेंशन नहीं मिल रही है।

70 वर्षीय विधवा लीलाबाई पूरी तरह से भूमिहीन हैं। उनका लड़का रोजगार की तलाश में गाँव से बाहर है। वह बताती है कि पहले 150 रुपए महीने की पेंशन मिलती थी, लेकिन साल भर से वह भी बन्द है। जब पंचायत सचिव से पेंशन नहीं मिलने का कारण जानना चाहा तो पता चला कि उनका नाम गाँव की गरीब परिवारों की सूची में नहीं है, इसलिये उनकी पेंशन बन्द हो गई है। लीलाबाई को पता ही नहीं वह गरीबी रेखा से ऊपर कब और कैसे उठ गई। लेकिन उसके सामने अपने भरण-पोषण का संकट कायम है। पाँच महीनों से पेंशन से वंचित 80 वर्षीय पूनाबाई की स्थिति भी यही है।

प्रशासनिक उत्तरदायित्व के अभाव ने इनकी समस्या को ज्यादा गम्भीर बना दिया था। ग्राम पंचायत चकेरी के सरपंच हुकुम आदिवासी बताते हैं कि इनकी पेंशन क्यों जमा नहीं हुई इसके बारे में मुझे कोई जानकारी नही है। जनपद वाले भी किसी को ठीक से बताते नहीं हैं। दूसरी ओर यह सवाल भी कायम है कि पूरी तरह गरीबी और अभाव में जीवन जीने को विवश लीलबाई का नाम बीपीएल सूची से क्यों गायब है?

दरअसल जमीनी स्‍तर पर प्रशासनिक तंत्र में आपसी समन्‍वय और संवेदनशीलता का बेहतर अभाव है। ग्राम पंचायत और जनपद पंचायत का यह दायित्‍व है कि वह जरूरतमन्द लोगों को योजनाओं का लाभ दिलवाए। किन्‍तु यदि पेंशन या किसी योजना में धनराशि का अभाव हो तो इस तंत्र को कोई जानकारी नहीं होती और न हीं जमीनी स्‍तर के कोई कर्मचारी इस तरह की जानकारियाँ जुटाने आवश्‍यकता समझते हैं।

आज जबकि लोगों को सूचना के अधिकार के जारिए किसी भी कार्यालय से किसी भी तरह की जानकारियाँ हासिल करने का कानूनी अधिकार है, वहीं चकेरी गाँव की इन महिलाओं को अपनी पेंशन नहीं मिलने की जानकारी नहीं मिल पा रही है।

राजेन्द्र बन्धु
निदेशक: समान- सेंटर फॉर जस्टिस एंड इक्वालिटी
163, अलकापुरी, मुसाखेड़ी, इन्दौर (म.प्र.) पिनः 452001


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