पेयजल का स्थाई एवं उचित प्रबंधन

दुर्भाग्यवश आज इस संपूर्ण सांस्कृतिक एवं तकनीकी परंपरा की धज्जियाँ उड़ रही हैं और इसके लिए भारत सरकार के अतिरिक्त और कोई भी उत्तरदायी नहीं है। केवल अकाल के समय में भारतीय माध्यम और नेतागण इन तंत्रों को याद करने की ओर प्रवृत्त होते हैं और उसके बाद शांतिपूर्वक भूल जाते हैं। तकनीकों की सहायता से पारंपरिक जल संरक्षण का पुनरुत्थान आज अति आवश्यक है। यह कम मूल्य के तकनीकी रूप से स्थाई तथा पारंपरिक साधन प्रदान करता है। यह सामुदायिक प्रबंधन और जनता के सहयोग में वृद्धि करता है। यह सरकार पर जनता की निर्भरता को कम करता है। वर्तमान समस्या के समाधन हेतु युक्ति निर्धारण अत्यंत आवश्यक है। अनेक स्रोत, जैसे सेमीनार, समाचार पत्र और साहित्य आदि से प्राप्त ज्ञान और अध्ययनों के आधार पर राज्य में पेयजल के स्थाई एवं उचित विकास हेतु सुझाव दिए गए हैं।

इनमें से अधिकांश युक्तियां सरकार पर केंद्रित हैं क्योंकि जल संबंधी क्षेत्र में राज्य सरकार की अहम भूमिका है। नीतियों का निर्धारण एवं कार्यान्वयन राज्य सरकार का ही उत्तरदायित्व है। ऐसी प्रभावी संस्थाएं जिनमें उत्तरदायित्व, प्रतिनिधि तथा पारदर्शी निर्णय लेने की क्षमता हो, वे सरकार की नीति निर्धारण एवं विधि निर्माण की भूमिका के लिए आवश्यक रूप से अनुकूल है।

सरकार भी उपभोक्ताओं जैसे घरेलू जल आपूर्ति, अपशिष्ट का निकास, कृषि वन प्रांत, पर्यावरण सेवाएं, उद्यम, परिवहन, बिजली एवं मनोरंजन आदि के मध्य जल आवंटन हेतु उत्तरदायी है। उपभोग के वरीयता क्रम एवं जल के मूल्य का निर्धारण राजनीतिक रूप से संवेदनशील एवं आर्थिक महत्व की प्रक्रियाएं हैं, जिनमें सरकार को जल संसाधन प्रबंधन के सभी स्तरों पर स्टेकहोल्डरों को शामिल किया जाना चाहिए।

सरकार की भूमिका तो अत्यंत महत्वपूर्ण है ही, इसके साथ ही समुदाय में स्वामित्व, उत्तरदायित्व तथा प्रबंधन में सहयोग की भावना का होना समान रूप से आवश्यक है, नहीं तो कोई भी नीति सफल नहीं हो सकती। जनता द्वारा सरकार को जल के एक उदारदानी के रूप में जानने के बजाए उसे एक प्रोत्साहक और अर्थ प्रबंधक के रूप में देखा जाना चाहिए।

सरकारी एजेंसियों द्वारा जल के विवेकपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए राज्य को स्थानीय समुदाय की मांग के अनुसार तकनीकी सहायता प्रदान करने में समर्थ होना चाहिए।

यद्यपि हो सकता है कि केंद्रीय शासन के पास जल संचालन का प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व नहीं बचे, परंतु क्षेत्र में उनके लिए समन्वयन तथा नियमन का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।

इस कार्य में जल परीक्षण, शुल्क निर्धारण, लोक शिक्षण एवं जागरूकता, क्षमता वृद्धि हेतु सहयोग एवं प्रोत्साहन प्रदान करना तथा क्षेत्रीय व सामुदायिक समानता सुनिश्चित करना सम्मिलित है।

प्रादेशिक जल नीति, राजस्थान के सिंचाई विभाग द्वारा सन् 1999 में निर्धारित की गई। इसमें जल संबंधी प्रत्येक पक्ष सम्मिलित है। यह उल्लेखनीय है कि नीति निर्धारण से पूर्व राज्यव्यापी स्टेकहोल्डरों से परामर्श नहीं किया गया था, जो कि इस प्रकार के महत्वपूर्ण दस्तावेजों के संबंध में होना चाहिए था। तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि यह विश्व बैंक के दबाव में किया गया है। फिर भी, जबकि ऐसा महत्वपूर्ण दस्तावेज पहले कभी नहीं बना, यह एक अच्छी शुरूआत है। इस दस्तावेज के अनुसार पेयजल को प्रथम वरीयता दिया जाना उचित है।

1. आर्थिक स्थायित्व


ग्रामीण जल आपूर्ति प्रणालियों हेतु न्यूनतम अनुरक्षण शुल्क लागू कर दिया जाना चाहिए, जिससे साझेदारी में वृद्धि हो और व्यवस्था में सुधार हेतु धन राशि को सुनिश्चित किया जा सके।

सेवाओं के क्रियात्मक स्थायित्व को सुनिश्चित करने हेतु जल को एक आर्थिक संसाधन मानना एक महत्वपूर्ण कदम है। पूर्व समय में अनेक व्यक्तियों ने इस बात पर जोर दिया था कि जल एवं स्वच्छता मनुष्य के स्वास्थ्य व जीवन की सुरक्षा हेतु महत्वपूर्ण है, अतः ये सेवाएं निःशुल्क प्रदान की जानी चाहिए।

इससे अधिकतर वे अमीर लोग लाभांवित हुए जो पानी की अत्यधिक मात्रा का निःशुल्क उपयोग करने की प्रवृत्ति रखते हैं। जबकि वे गरीब लोग जो बहुत कम स्थानों पर नल व्यवस्था से जुड़े हैं, जल से वंचित रह जाते हैं।

अधिकांशतः जल व स्वास्थ्य सेवाओं के निम्न स्तर के कारण लोग इनके लिए शुल्क देने के इच्छुक नहीं होते। इस कारण जल एजेंसियों की आय इतनी कम होती है कि तंत्र में सुधार नहीं किया जा सकता।

सर्वोत्तम प्रक्रियाओं के अनुसार, जल सेवाओं को प्रदान करने हेतु वांछित मूल्य प्राप्त करने के लिए सामान्यतः जल की कीमत निर्धारित करनी होगी। यह ग्रामीण राजस्थान में संभव प्रतीत नहीं होता, जहां व्यक्तियों की शुल्क प्रदान करने की क्षमता सीमित है तथा सेवाओं के स्तर को देखते हुए शुल्क लेना न्यायसंगत नहीं लगता।

फिर भी इस परिस्थिति में संपूर्ण तंत्र में लोगों की साझेदारी विकसित करने के लिए न्यूनतम मात्रा में कर लगाया जा सकता है। अतः हैंडपंपों की देखभाल, जो एक अजेय समस्या बनी हुई है, उसका समाधान उपरोक्त उपाय से संभव हो सकता है। यदि सभी लाभांवित हैंडपंपों के रख-रखाव हेतु कुछ न्यूनतम शुल्क जमा करें, तो वे कुशलतापूर्वक कार्य करने हेतु मिस्त्री पर दबाव डाल सकते हैं।

यही सिद्धांत क्षेत्रीय आपूर्ति योजनाओं हेतु अपनाया जा सकता है। शहरों में जल पर शुल्क लेने हेतु स्लैब पद्धति का प्रयोग किया जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि 40 लीटर जल प्रति व्यक्ति प्रतिदिन समर्थन मूल्य पर वितरित किया जाना चाहिए।

इस मात्रा से अधिक जल हेतु पूरा मूल्य वसूल किया जाना चाहिए। औद्योगिक उपयोग हेतु भी समर्थन मूल्य पर वितरित जल की सीमा निश्चित की जानी चाहिए। इस प्रकार यदि जल आपूर्ति आर्थिक मूल्यों पर आधारित दरों पर की जाएगी तो जल आपूर्ति के आवश्यक स्तर को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से उपभोक्ता की प्रतिक्रिया सकारात्मक होगी।

2. जन-सहभागिता


पेयजल प्रबंधन में, संगठनात्मक संरचनाओं तथा जल अधिकारों पर नियंत्रण हस्तांतरण द्वारा जन सहभागिता सुनिश्चित करें। जन सहभागिता प्रचलित करने हेतु गैर-सरकारी संस्थाओं को सम्मिलित करें।

कोई भी विकास कार्य लाभांवितों की सहभागिता के बिना सफलतापूर्वक पूरा नहीं किया जा सकता। ग्रामीण जल आपूर्ति प्रणालियाँ सामान्यतः स्थानीय समुदाय की आर्थिक क्षमता और तकनीकी प्रतिस्पर्धा के अंतर्गत बने रहने के उद्देश्य से अति साधारण और कम मूल्य की हैं।

पिछले 200 वर्षों से चल रही विकास की प्रक्रिया के कारण यह माना जाने लगा है कि स्थानीय ग्रामीणों का सरकारी संपत्ति पर कोई नियंत्रण नहीं है, अतः उनका कोई उत्तरदायित्व भी नहीं है। जन सहभागिता अब भी प्राप्त की जा सकती है और इसे प्राप्त करने का सर्वोत्तम तरीका है कि लघु स्तर पर सक्रिय योजना का सफल प्रदर्शन करें, जो यह सुनिश्चित कर सके कि लाभ का अंश सभी को प्राप्त होगा और इन प्रणालियों का अनुरक्षण और संचालन सभी मिल-जुलकर करेंगे।

यद्यपि कुछ समय से जन सहभागिता का औचित्य स्वीकार कर लिया गया है और नीतियों में भी इसे स्थान दिया गया है, तथापि इसका वास्तविक प्रयोग अभी आरंभ नहीं हुआ है।

सामान्यतः पंचायती राज संस्थाओं को जन प्रतिनिधि मान कर उन्हें नियंत्रण सौंप दिया जाता है परंतु यह समझ लेना चाहिए कि पंचायती राज उच्च अधिकारी तंत्र है। किसी विकास परियोजनाओं में जन सहभागिता सुनिश्चित करना उच्च कौशल का कार्य है और उन्हीं को सुपुर्द किया जाना चाहिए जो इसमें निपुण हों। पेयजल सहित अन्य क्षेत्रों का अनुभव बताता है कि जहाँ भी गैर-सरकारी संस्थाओं को अवसर दिया गया है, वे विकास परियोजनाओं में जन सहभागिता को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण स्तर तक सफल रही हैं।

अतः ऐसी परियोजनाओं में निर्माण एवं कार्यान्वयन की प्रक्रिया में इन संस्थाओं को सम्मिलित किया जाना चाहिए। साथ ही स्वैच्छिक संस्थाएं गरीबों को विभिन्न सेवाओं हेतु अपनी मांगें प्रतिपादित एवं प्रकट करने में सहायता कर सकती हैं।

महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में ग्रामीण विकास विज्ञान समिति, जोधपुर द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, राजस्थान में महिलाओं में मानसिक तनाव का मूल कारण पेयजल की कमी है। महिलाओं को दूर-दूर से पानी भर कर लाते हुए देखना असामान्य बात नहीं है।

गाँवों में महिला सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु इनके समूह बनाए जाने चाहिए। प्रत्येक स्तर पर महिलाओं को कार्यक्रम का महत्वपूर्ण अंश मानते हुए उनसे परामर्श लिया जाना चाहिए।

चूंकि महिलाएं ही पानी भर कर लाती हैं, उन्हें जल के संबंध में, जल जनित रोगों एवं उनके निदान और जीवन के सामाजिक पक्षों पर प्रशिक्षण प्रदान करने पर जोर दिया जाना चाहिए। महिलाओं की भागीदारी और उन्हें दिए जाने वाले महत्व के कारण उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होगा और वे आत्मनिर्भर बनेंगी।

जल अधिकार जल पर सरकार का नियंत्रण कम करके जनता और समुदायों को इस संसाधन का क्षेत्राधिकार दे देना चाहिए। जनता को प्रबंधन, अनुरक्षण तथा उपलब्ध जल के वितरण का अधिकार होना चाहिए। सरकार को इस तंत्र के मात्र प्रवर्तक के रूप में देखा जाना चाहिए, नियंत्रक के रूप में नहीं।

3. जल संरक्षण


उचित सरकारी नीतियों, अधिनियमों और जागृति अभियानों के माध्यम से जल संरक्षण को उच्चतम संभावित सीमा तक बढ़ाएं।

मानसून जल के पारितोषिक के बिना मानव समाज वृद्धि नहीं कर सकता। भारतीय जनता को उपलब्ध संसाधनों के अनुसार वर्षा जल से लेकर भूजल तक जलधारा से लेकर नदी एवं बाढ़ के पानी तक पानी के प्रत्येक संभव रूप को संरक्षित करने हेतु तकनीकों की एक श्रेणी विकसित की गई है। विशेषतया शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों मे जहाँ जल धाराएँ मौसमी हैं और पानी की कमी पूरे वर्ष रहती है, सर्वप्रथम नहरों की शाखाओं को संग्रहण संरचनाओं की ओर निर्देशित कर दिया गया।

बाढ़ग्रस्त मैदानों में लोगों ने बाढ़ के खतरनाक जल के उपयोग हेतु उत्तम तकनीकें विकसित की, जो की न केवल खेतों की सिंचाई में प्रयुक्त की गई वरन खेतों को उपजाऊ बनाने तथा मलेरिया जैसे रोगों पर नियंत्रण रखने (बाढ़ के पानी में उत्पन्न मछलियों का उपयोग करके, जो मच्छरों के लार्वा को खा जाती हैं) के कार्य में भी सहायक सिद्ध हुई।

तटीय क्षेत्रों में भी, जहाँ तटीय लहरें समय-समय पर नदी जल को खारा बना देती हैं, जिससे वह कृषि के लिए अनुपयुक्त हो जाता है, लोगों ने आकर्षक साधन विकसित किए हैं।

जब कोई विकल्प उपलब्ध नहीं थे, जनता ने अपनी जीविका हेतु वर्षा जल पर निर्भर रहना सीख लिया। वर्षा जल को एकत्रित करके उसका उपयोग सिंचाई एवं पीने हेतु करने के उद्देश्य से विभिन्न देशी तकनीकें विकसित की गई।

दुर्भाग्यवश आज इस संपूर्ण सांस्कृतिक एवं तकनीकी परंपरा की धज्जियाँ उड़ रही हैं और इसके लिए भारत सरकार के अतिरिक्त और कोई भी उत्तरदायी नहीं है। केवल अकाल के समय में भारतीय माध्यम और नेतागण इन तंत्रों को याद करने की ओर प्रवृत्त होते हैं और उसके बाद शांतिपूर्वक भूल जाते हैं।

तकनीकों की सहायता से पारंपरिक जल संरक्षण का पुनरुत्थान आज अति आवश्यक है। यह कम मूल्य के तकनीकी रूप से स्थाई तथा पारंपरिक साधन प्रदान करता है।

यह सामुदायिक प्रबंधन और जनता के सहयोग में वृद्धि करता है। यह सरकार पर जनता की निर्भरता को कम करता है। पारंपरिक जल संग्रहण प्रणालियाँ उन स्थानीय परिस्थितियों एवं विशिष्ट वातावरणों के उपयुक्त पाई गई, जहां वे विकसित हुई थी। हजारों भारतीय गाँवों में आज भी कोई स्थानीय जल स्रोत नहीं है।

मानसून की अनियमितता, सतही जल स्रोत की असामयिकता और पाइप द्वारा जल आपूर्ति में होने वाला व्यय सभी दर्शाते हैं कि जल संरक्षण संरचनाएं जनता की मांगों की पूर्ति में सहायक सिद्ध होंगी।

नीतिगत स्तर पर पारंपरिक जल संरक्षण संरचनाओं के पुनरुत्थान और जल पुनर्भरण हेतु कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं :-

1. जल संरचनाओं के कैचमेंट क्षेत्र में खानों हेतु दिए गए पट्टे निरस्त किए जाएँ और खान क्षेत्र के अपशिष्ट के प्रबंध हेतु एक नीति निर्धारित करें। अव्यवस्थित खनन वर्षा जल में रुकावट पैदा करता है, ऊपरी मृदा को नष्ट करता है और वनस्पति को हटाता है।

राजस्थान उच्च न्यायालय ने जोधपुर के जल संग्रहण तंत्र पर खनन के दुष्प्रभावों का अध्ययन करने हेतु एक समिति का गठन किया। समिति ने यह पाया कि कैचमेंट क्षेत्र निरंतर व अव्यवस्थित बालू-पत्थर खनन के कारण उजड़ रहे हैं। नहरें एवं जल धारी संरचनाएं खनन के कारण नष्ट होती जा रही हैं। खनन अपशिष्ट और पत्थर के मलबे के अव्यवस्थित रूप से एकत्रित होने के कारण वर्षा जल व पर्यावरण तंत्र में बाधा उत्पन्न हो जाती है।

खानें एक प्रकार के गड्ढों के समान हैं, जिनमें रोग-उत्पन्न करने वाले मच्छर उत्पन्न होते हैं। जल स्तर भी इस मानव निर्मित विपत्तियुक्त खनन के कारण गिरता जा रहा है।

अव्यवस्थित खनन को दर्शाने वाला एक और उदाहरण जिला राजसमंद का है। पहली बार प्रख्यात राजसमंद झील इस वर्ष पूर्ण रूप से सूख गई है। यह घटना इसके कैटमेंट में अनियंत्रित खनन को प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करती है।

2. कैचमेंट एवं नहरों के किनारों पर स्थित सभी पत्थर खानों का लाइसेंस शीघ्र ही निरस्त करना अति आवश्यक है। खानों के सभी लाइसेंसों को पी.एच.ई.डी. के उपयुक्त अभियंता के माध्यम से जारी किया जाना चाहिए और उससे अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करना चाहिए।

3. विभिन्न तकनीकों द्वारा भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण को उन्नत करना चाहिए। शहरी क्षेत्रों में इसे आवश्यक बना देना चाहिए। बीसवीं सदी के मध्य तक पुनर्भरण की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई क्योंकि भूजल दोहन सीमित था।

ग्रीष्म ऋतु में कुओं के तेजी से गिरते हुए जलस्तर के कारण बारहमासी नदियों की आयु अल्प होती जा रही है। जल विकास की तकनीकों में सुधार के कारण जल स्तर और भी कम हो गया है। भूजल का कृत्रिम पुनर्भरण एक महत्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि यह संग्रहण के लिए निःशुल्क स्थान प्रदान करता है।

4. नागरिक समाज को प्रेरित करना


नागरिक समाज के विभिन्न कार्यकर्ताओं, जैसे शैक्षणिक वर्गों और गैर-सरकारी संस्थाओं को पेयजल प्रबंधन में सक्रिय रूप से सम्मिलित करना चाहिए।

यह स्पष्ट हैं कि पेयजल प्रबंधन एक महत्वपूर्ण विषय है जिसे अकेले सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता। नागरिक समाज से अन्य विभिन्न स्टेकहोल्डरों को भी इसमें सम्मिलित किया जाना चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों में स्थाई एवं उपयुक्त विकास हेतु नीतियों एवं परियोजनाओं को क्रियान्वित करने में स्वयंसेवी संस्थाएं एवं गैर सरकारी संस्थाएं, सरकार एवं जनता के मध्य उत्तप्रेरक का कार्य कर सकती हैं।

ये संस्थाएं मूल स्तर पर लंबे समय से कार्यरत होती हैं तथा इन्हें स्थानीय परिस्थिति का ज्ञान, समुदायों का सम्मान एवं विश्वास प्राप्त होता है। निम्नलिखित गतिविधियाँ हैं जिनमें स्वयंसेवी संस्थाएं एवं गैर-सरकारी संस्थाएं जल के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं।

1. जल संबंधी विषयों, जैसे जमीन पर क्या उगाएँ, लघु सिंचाई, दुर्लभ जल का सार्थक उपयोग और जल संग्रहण के औचित्य पर चेतना व संवेदना को जगाना।

2. जल की प्रति ईकाई उत्पादन, फसल हेतु आवश्यक जल की मात्रा, खारे जल का उपयोग संसाधनों का मूल्य निर्धारण, जल संग्रहण की प्रासंगिकता तथा उस क्षेत्र में पेयजल विकास हेतु प्रस्तावित संरचनाओं की उपयुक्तता का अध्ययन करना।

3. उचित प्रलेखन तथा जल संसाधनों से संबंधित विषयों और उनकी प्रवृत्ति तथा संसाधनों के विकास और जलधारकों के पुनर्भरण हेतु जल संग्रहण संरचनाओं के लिए उचित क्षेत्रों की पहचान से संबंधित सूचनाओं को एकत्रित करके डाटा बैंक का निर्माण करना।

4. सहभागी विकास हेतु ज्ञान कौशल और प्रवृत्तियों में वृद्धि करने के लिए जन प्रशिक्षण।

5. संसाधनों के बेहतर प्रबंधन एवं न्याय संगत वितरण हेतु जल उपभोक्ता समूहों/समुदायों का निर्माण करना। स्थानीय जनता को जल प्रबंधन तंत्र में शामिल करने हेतु प्रभावी उपक्रम का विकास।

6. कम मूल्य पर परियोजना कार्यान्वयन।

5. नगरीय बनाम ग्रामीण


नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों को सुरक्षित पेयजल उपलब्धता में निहित अंतर को कम करने के उद्देश्य से चल रही ग्रामीण जल-आपूर्ति योजनाओं को अधिक मात्रा में आर्थिक सहायता प्रदान करना।

रेगिस्तानी क्षेत्रों में सुरक्षित जल एक मूल्यवान उपभोग की वस्तु है। वे गरीब लोग जिनके पास स्वयं के जल स्रोत नहीं होते, वे पानी के लिए बड़ी कीमत चुकाते हैं। इन्हें स्वयं एवं पशुओं हेतु दस पैसे से पंद्रह पैसे लीटर की दर से पानी खरीदना पड़ता है।

एक अनुमान के अनुसार गरीबों की 35 से 40 प्रतिशत आय (450 रु. से 1000 रु. प्रति माह) पेयजल खरीदने में व्यय हो जाती है। इसकी तुलना में शहरों में जल पर बहुत कम व्यय किया जाता है। इसके अतिरिक्त अमीर व्यक्ति गरीबों से बीस गुणा अधिक जल का उपभोग करते हैं।

शहरी क्षेत्रों में अधिकांश व्यक्ति जल का वास्तविक मूल्य नहीं समझते और उसका अनेक प्रकार से अपव्यय करते हैं। शहरी नागरिकों से जल की कीमत वसूलने हेतु स्लैब विधि का प्रयोग करना चाहिए, जिससे वे इसके वास्तविक मूल्य को समझ सकें एवं इसका विवेकपूर्ण उपयोग करें।

वे सार्वजनिक एजेंसियाँ जिनके सुपुर्द पेयजल प्रबंध का प्रावधान है, शहरी क्षेत्रों पर अधिक ध्यान देती हैं। उनकी अधिकांश निधि का उपयोग शहरी क्षेत्रों में जल तंत्र को उन्नत करने में किया जाता है।

यह विधि ग्रामीण क्षेत्रों मे निवास करने वाली करीब 70 प्रतिशत जनता के साथ विभेद करती है। प्रदत्त निधि को शहरी क्षेत्रों से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर मोड़ देना चाहिए।

6. बड़ा सर्वोत्तम है –एक भ्रांति


स्थानीय स्रोतों पर निर्भर करें जो अपेक्षाकृत सस्ते वातावरण के अनुकूल हैं।

जनता को पेयजल आपूर्ति हेतु दूरस्थ स्रोतों पर निर्भरता की प्रवृत्ति बढ़ गई है। इसके साथ पारंपरिक प्रणालियों की उपेक्षा की जाती रही है। अतः जोधपुर को पेयजल आपूर्ति इंदिरा गांधी नहर परियोजना की लिफ्ट नहर से की जाती है और शहर का पारंपरिक तालाबों एवं कुंडों का तंत्र नष्ट होता जा रहा है। पी.एच.ई.डी. जैसे तकनीकी विभागों की प्रवृत्ति बड़ी तकनीकी-केंद्रित परियोजनाओं की ओर आकर्षित होने की है।

पी.एच.ई.डी. के अनुमान के अनुसार जोधपुर शहर के विभिन्न स्रोतों से 1 मिलियन क्यूबिक फीट जल प्राप्त करने की कीमत निम्नानुसार है-

अ. स्थानीय जल स्रोतों से 4000 रु.
ब. जवाई- हेमावास नहर 45,000 रु.
स. इंदिरा गांधी लिफ्ट नहर 1,84,000 रु.

यह स्पष्ट है कि स्थानीय प्रणाली सर्वोत्तम एवं सबसे सस्ती है। यह सच है कि सभी स्थितियों में जल प्रबंधन हेतु लघु योजनाओं को बड़े बांधों का विकल्प नहीं माना जा सकता परंतु “बड़ा सदैव सर्वोत्तम” होता है, जैसी परिकल्पना पर उस समय प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है जब छोटे बांधों, बन्धों एवं टाँकों के निर्माण द्वारा जल संसाधनों का उपयोग किया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में विकास हेतु बिना कोई मूल्य चुकाए, लोगों के जीवन एवं वातावरण में परिवर्तन हुआ है। “बड़ा ही सर्वोत्तम है” की परिकल्पना से हट कर लाभांवितों हेतु लघु, परिणामोन्मुख, तकनीकी रूप से सुदृढ़ और सतत रूप से चलने वाली परियोजनाओं को कार्यान्वित करने का समय आ गया है।

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