पहले जंगल लगाएं, फिर पेड़ काटें

forest
forest

जंगल कटेंगे, तो पर्यावरण को क्षति होगी। जंगल नहीं कटेंगे, तो आर्थिक विकास रुकेगा। इस संकट का हल यह हो सकता है कि एक ओर जंगल लगाएं और दूसरी ओर उन्हें काटें।

हमारे सामने दो परस्पर विरोधी उद्देश्य उपस्थित हैं। आर्थिक विकास के लिए तथा जनता के जीवन स्तर में सुधार के लिए बिजली के उत्पादन में वृद्धि जरूरी प्रतीत होती है। इसके लिए जंगलों के नीचे भूमि में दबे कोयले को निकालना होगा। इससे पर्यावरण को दोहरा नुकसान होगा। वृक्षों के काटने से वायुमंडल में कार्बन डाई-ऑक्साइड गैस अधिक मात्रा में बनेगी, जिससे ग्लोबल वार्मिंग हो रही है। संपूर्ण सृष्टि पर खतरा मंडराने लगा है। हमारे सामने चुनौती है कि पर्यावरण सुरक्षित रखते हुए ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि कैसे हासिल करें। सामान्यतः जंगल बचाने बनाम जंगल काटने के सवाल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस तरह विचार करने से हल नहीं निकल सकता है। जंगल कटेंगे, तो पर्यावरण को क्षति होगी। जंगल नहीं कटेंगे, तो आर्थिक विकास रुकेगा इस संकट का हल यह हो सकता है कि एक ओर जंगल लगाएं और दूसरी ओर उन्हें काटें जंगल काटने में समस्या नहीं है। समस्या है कि जंगल काटने के बाद उस स्थान को बंजर छोड़ दिया जाता है। पूर्व में राजस्थान में कई इलाकों में सूखे में भी जंगल होते थे।

आज भी सरिस्का वन्य-अभयारण्य में घने जंगल हैं। यदि हम जंगल लगाने और काटने का सही क्रम बैठा लें, तो दोनों उद्देश्य हासिल हो सकते हैं। केवल जंगल काटने और भूमिगत कोयले को निकालने का क्रम ज्यादा दिन नहीं टिक सकता है। दि एनर्जी रिसर्च इंस्टीच्यूट की रिपोर्ट के अनुसार हमारे पास उपलब्ध कोयले का भंडार केवल 160 वर्षों के लिए ही पर्याप्त है, परंतु इसमें अधिकतर कोयला भू-गर्भ के अंदर गहरे स्तर पर समाया हुआ है इसे निकालने की सफल तकनीक फिलहाल अभी उपलब्ध नहीं है। हमारे पास खनन लायक कोयला मात्र 40 वर्षों के लिए ही उपलब्ध है। खनन की गति को दोगुना करने का अर्थ होगा कि भंडार को हम 40 वर्षों के स्थान पर मात्र 20 वर्षों में ही समाप्त कर देंगे। अंततः धरती की बिजली पैदा करने की क्षमता सीमित है। बिजली की खपत में असीमित वृद्धि संभव नहीं है। इसके लिए बिजली के दुरुपयोग पर अंकुश लगाना ही एकमात्र उपाय है। मुंबई के एक शीर्ष उद्यमी के घर का मासिक बिजली का बिल 70 लाख रुपए है। ऐसी शानो शौकत के लिए जंगलों को काटना अन्याय है।

सरकार का पहला कदम बिजली के उपयोग को सही दिशा देने का होना चाहिए। तत्पश्चात जितनी बिजली की वास्तविक जरूरत हो, उसके उत्पादन के जतन करने चाहिए। ध्यान दें कि वर्तमान व्यवस्था में बिजली उत्पादन के दुष्प्रभाव निर्धन पर पड़ते हैं। उनके खेत अधिगृहीत कर लिए जाते हैं। जंगल से चरान चुगान उन्हें नहीं मिलती है। उनका पशुपालन का व्यवसाय हाथ से निकल जाता है। जंगल कटने से भूमि का तापमान बढ़ रहा है। इसके दुष्प्रभाव का शिकार भी निर्धन ही हैं। बिजली के माध्यम से देश के संसाधनों को निर्धनों से छीनकर अमीरों को हस्तांतरित किया जा रहा है, जो अनुचित है। बावजूद इसके हमें स्वीकार करना होगा कि यूरेनियम, कोयले, एल्युमिनियम, लोहे एवं मैगनीज आदि खनिजों के लिए कुछ खनन तो करना ही होगा। ऋगवेद के दसवें मंडल के 146वें सूक्त में कहा गया हैः ‘जंगल की देवी लुप्त सी हो रही है। उधर, रिहायशी का स्थान बनाया जा रहा है। किसी दूसरे ने इधर एक पेड़ को काट गिराया है।’ इसी प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुन ने कड़े परिश्रम के बाद खांडव वन को जलाकर उस क्षेत्र को मनुष्यों के रहने योग्य बनाया था।

जंगल को काटकर खनन करना अनुचित नहीं है। अनुचित है खनन की भूमि को बंजर बनाना। ऋगवेद और महाभारत में जंगल को काटकर मनुष्यों के रहने योग्य बनाया गया था। जिस स्थान पर जंगली वृक्ष उगते थे, वहां पर खेत-खलिहान, पशु आदि को बसाकर चेतना का विकास किया गया था। वर्तमान खनन का दृश्य बिलकुल विपरीत है। खनन के बाद पूरे क्षेत्र को बंजर बना दिया जाता है और जंगल को पुर्नस्थापित करने के कारगर कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। जानकार लोगों के अनुसार उत्तर प्रदेश के सोनभद्र क्षेत्र में पिछले 40 वर्षों में कोयले का भारी खनन किया गया। अधिकांश खनन ओपन कास्ट पद्धति से किया गया है। ऊपर की मिट्टी को उठाकर किसी क्षेत्र में पहाड़ की तरह जमा कर दिया गया है और गड्ढे के नीचे से कोयले को निकाल लिया गया है। इन गड्ढों और पहाड़ों में आज भी वीरानगी है। कहीं-कहीं दिखावटी वृक्षारोपण किया गया है, परंतु कहीं भी जंगल अपनी पुरानी स्थिति में उत्पन्न नहीं हुआ है। दूसरे देशों में जंगलों को पुर्नस्थापित किया जा चुका है। जर्मनी के रूर क्षेत्र में परित्यक्त खानें आज सुंदर जंगल बन गई हैं। इन क्षेत्रों में जैविक विविधता पुनः उत्पन्न हो चुकी है। न्यूजीलैंड के उत्तरी क्षेत्र में लगभग 60,000 हेक्टेयर भूमि में कौरी प्रजाति के जंगल स्थापित हो चुके हैं। एक हेक्टेयर में वर्तमान में वृक्षों की 20 प्रजातियां पाई जाती हैं। नागपुर स्थित नीरी शोध संस्थान ने भी जंगल की पुर्नस्थापना का दावा किया है, परंतु वर्तमान में यह केवल प्रयोगात्मक ही दिखता है।

इन अनुभवों से प्रमाणित होता है कि जंगल की पुर्नस्थापना का सुंदर प्रयोग किया जा रहा है। जंगल को कई टुकड़ों में बांट दिया गया। अधिकारियों ने पाया कि जंगल की पुर्नस्थापना में 42 वर्ष लग जाते हैं। एक टुकड़े पर 42 वर्षों तक कोयला आदि खनन किया जाएगा। इसके बाद इस टुकड़े को बंद कर दिया जाएगा और अगले 42 वर्षों तक दूसरे टुकड़े को खोल दिया जाएगा। इस प्रकार जंगल से लकड़ी आदि भी मिलेगी और दीर्घकाल में जंगल की हानि भी नहीं होगी। सरकार की जंगल को ‘गो’तथा ‘नोगो’ क्षेत्र में विभाजित करने की पालिसी गलत है। माना जा रहा है कि कुछ क्षेत्रों में खनन होगा और इसे वीरान बना दिया जाएगा। दूसरे ‘नोगो क्षेत्र में पड़ा कोयला एवं खनिज का दोहन सदा के लिए बंद रहेगा। यह विभाजन गलत है। वर्तमान खनन क्षेत्रों में जंगल की पुर्नस्थापना के कारगर कदम उठाने चाहिए। 50 वर्षों में इन जंगलों के पुर्नस्थापित हो जाने के बाद वर्तमान ‘नोगो’ क्षेत्र में खनन किया जा सकता है। खनन कंपनियों द्वारा जिन क्षेत्रों में खनन किया जा चुका है, उनमें जंगल स्थापित हो जाने के बाद ही उन्हें दूसरे क्षेत्र में खनन करने का लाइसेंस जारी किया जाना चाहिए। विशेषकर बंजर भूमि एवं सूखे क्षेत्र में जंगल लगाने की कवायद पर ध्यान देना चाहिए।

(लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं)
 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading