पहली प्राथमिकता बने शुद्ध पेयजल

2 Sep 2011
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सामाजिक कार्यकर्ताओं की सहायता से गांव समुदाय ने एक होकर पास की पहाड़ी पर जल संरक्षण का कार्य किया। इसका इतना लाभ मिला कि अनेक कुओं और हैंडपंपों में पानी की गुणवत्ता ठीक हो गई। खारापन कम हो गया। मीठा पानी मिलने लगा। आसपास के अनेक गांवों तक भी इस जल संरक्षण का लाभ पहुंचा।

समय-समय पर सरकार की ओर से ऐसे दावे होते रहे हैं कि लगभग सभी गाँवों में सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था हो चुकी है या बस होने ही वाली है। इसके बावजूद तमाम ग्रामीण इलाकों से सुरक्षित पेयजल न मिलने के समाचार क्यों मिलते रहते हैं? गर्मियों के दौरान बड़े क्षेत्र में पेयजल को लेकर त्राहि-त्राहि क्यों मचती है? सरकारी आंकड़े अपने-अपने स्तर पर यह दावे करते हैं कि अमुक गांवों में हैंडपंप या ट्यूबवेल आदि जल-स्रोतों की व्यवस्था हो गई है लेकिन वे इस बात की गारंटी नहीं दे सकते हैं कि जल-स्तर नीचे चले जाने के बाद भी इन हैंडपंपों या ट्यूबवेल में पानी उपलब्ध होगा? सरकारी आंकडे़ यह भी सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं कि जिस नदी या झरने से पाइप लाइन के जरिए पानी आता था, अब उस नदी-झरने के सूख जाने या प्रदूषित हो जाने पर वहां से पेयजल की सप्लाई होती रहेगी या नहीं। इस तरह सरकारी आंकड़े अपनी जगह पर पेयजल उपलब्धियों का बखान करते रहते हैं और दूसरी ओर गांवों का पेयजल संकट भी अपनी जगह बना रहता है। साल के कुछ महीनों के लिए तो यह उग्र रूप धारण कर लेता है।

आज भी हमारे देश में ऐसे कई इलाके हैं खासतौर से राजस्थान के कुछ हिस्से और बुंदेलखंड जहां लोगों को दूर-दूर से पानी ढोकर लाना पड़ता है या फिर जल संकट के कारण उस इलाके को छोड़ना पड़ता है। कुछ समय पहले यह लेखक राजस्थान में नमक बनाने के लिए मशहूर सांभर झील के पास ऐसे ही एक गांव में गया, जहां हवेलीनुमा बड़े मकान तो बने हुए थे, लेकिन बहुत खोजने पर चार-पांच लोग ही मिल पाए। शेष सब लोग पशुओं के साथ प्रवास कर चुके थे। दरअसल, यहां न तो पशुओं के लिए पानी उपलब्ध था और न ही मनुष्यों के लिए पेयजल। यहां के लोगों ने कितने प्रयत्न से इतने सुंदर मकान बनाए होंगे, लेकिन कहते हैं न कि बिन पानी सब सून। लिहाजा, जब जीवन की सबसे बुनियादी जरूरत पूरी न हुई तो उन्हें गांव ही छोड़ना पड़ा। अत: साफ और सुरक्षित पेयजल आपूर्ति को ग्रामीण विकास की सबसे बड़ी प्राथमिकता बनाना चाहिए। इस बारे में काफी व्यापक सहमति बनती तो है, लेकिन इसके अनुकूल आचरण नहीं किया जाता है।

जगह-जगह पर बढ़ते प्रदूषण की ओर भंयकर लापरवाही के कारण कितनी ही नदियों और अन्य जल-स्रोतों का साफ पानी अब स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बन गया। कितने ही स्थानों पर दो-चार प्रदूषण फैलाने वाले बड़े कारखानों के मालिकों के हित साधने के लिए सैंकड़ों गांवों को पेयजल उपलब्ध करवाने वाले जल-स्रोतों को प्रदूषित होने दिया गया। जिस तरह जगह-जगह पर वनों और हरियाली को संकीर्ण स्वार्थों के लिए उजाड़ा गया, उससे स्पष्ट था कि इसका प्रतिकूल असर नदियों, झरनों, झीलों, तालाबों की जल ग्रहण क्षमता पर होगा और जब वन कट जाएंगे तो वर्षा के जल को संजोकर रखने की क्षमता बहुत कम हो जाएगी। इस समझ के बावजूद इस हरियाली को बचाने को समुचित महत्व नहीं दिया गया। इस तरह की लापरवाही का नतीजा यह है कि हैंडपंप और ट्यूबवेल व पाइप लाइन तो अपनी जगह पर मौजूद हैं, लेकिन उनमें पानी नहीं है। इसके अतिरिक्त हैंडपंप या पाइप लाइन के सही रख-रखाव की भी उचित व्यवस्था प्राय: नहीं हो पाती है।

जब यह कार्य स्थानीय लोगों की भागीदारी से हो तो अच्छे परिणाम मिलते हैं, लेकिन यह भागीदारी कुछ चर्चित सफल प्रोजेक्टों तक ही सिमट कर रह गई है। जहां स्थानीय लोगों विशेषकर महिलाओं को हैंडपंप मिस्त्री का प्रशिक्षण दिया गया, वहां काफी उत्साहव‌र्द्धक परिणाम सामने आए हैं। पंचायतों की जन-भागीदारी प्राप्त करने में मूल भूमिका है, लेकिन सही अर्थों में इन्हें अधिकार नहीं मिले हैं तो कहीं उन्हें मौजूदा भ्रष्ट व्यवस्था से ही जोड़ दिया गया है। इस कारण पंचायती राज को जन-भागीदारी प्राप्त करने में वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसकी उम्मीद थी। कई स्थानों पर दलितों से पेयजल के मामले में भेदभाव करने का अन्याय आज तक बना हुआ है। हालांकि कई प्रोजेक्टों में विशेष तौर पर दलित और निर्धन आबादी की जरूरतों पर विशेष ध्यान देने को कहा जाता है, पर इसके बावजूद वे अनेक परियोजनाओं में न्यायोचित हिस्सेदारी से वंचित रखे जाते हैं। बड़े शहरी क्षेत्रों में तो जल वितरण की विषमता और भी स्पष्ट उभरती है।

पॉश कालोनियों और बड़े होटलों में स्वीमिंग पूल, लॉन, गोल्फ कोर्स में सबसे गैरजरूरी कार्यों के लिए भी पानी की कोई कमी नहीं रहती है, जबकि स्लम बस्तियों में लोगों को बाल्टी भर पानी के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता है। जल-वितरण की विषमता का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि गांवों की जरूरतों और पेयजल की आवश्यकता को नजरअंदाज करते हुए कई जल स्रोतों को बड़े उद्योगों और खदानों की ओर मोड़ दिया जाता है। हालांकि सरकारी नीतियों में पेयजल आपूर्ति को प्रमुखता देने की बात कही गई है, लेकिन अब ऐसी प्राथमिकताओं से मुंह मोड़ने के संकेत भी नजर आ रहे हैं। महानगरों की जल-आपूर्ति के लिए गाँवों की जरूरतों को पीछे करना तो काफी समय से चला आ रहा है। उत्तराखंड में गंगा के उद्गम स्थल के गाँवों में पेयजल संकट की उपेक्षा होती है, जबकि गंगा के पानी को बड़े बांधों के माध्यम से महानगरों की ओर भेजा जाता है। इस तरह की अन्यायपूर्ण नीतियाँ जब बनती हैं, तब जन-भागीदारी को भी पीछे धकेला जाता है, क्योंकि लोग जो सवाल खड़े कर सकते हैं, उनका जवाब देना आसान नहीं है। जरुरत इस बात की है कि न्यायसंगत नीतियाँ बने और उनके बेहतर क्रियान्वयन के लिए व्यापक जन-भागीदारी सुनिश्चित की जाए।

पाइप लाइन तो सरकारी विभाग भी बिछा सकते हैं और हैंडपंप भी वे लगवा सकते हैं, पर उनका सही रख-रखाव तो जन-भागीदारी से ही हो सकेगा। सबसे जरूरी है जल संरक्षण और संग्रहण करते रहना, वर्षा की बहुमूल्य बूंदों को संजोना। यह तो जन-भागीदारी के बिना हो ही नहीं सकता है। सरकारी विभागों की अपनी सीमा है। उसके आगे जो जल संरक्षण का सबसे बुनियादी कार्य है, वह तो आम लोगों के व्यापक सहयोग से ही संभव है। जगह-जगह तालाबों, पोखरों आदि में वर्षा का जल संरक्षित रहेगा तो इससे कुएं, हैंडपंप में भी जल-स्तर बनाए रखने में मदद मिलेगी। कुछ समय पहले मैं जयपुर जिले के कोरसिना गांव में गया था। इस गांव में सरकारी ट्यूबवेल लगने के बावजूद एक समय यहां भीषण जल संकट पैदा हो गया था। इस स्थिति में सामाजिक कार्यकर्ताओं की सहायता से गांव समुदाय ने एक होकर पास की पहाड़ी पर जल संरक्षण का कार्य किया। इसका इतना लाभ मिला कि अनेक कुओं और हैंडपंपों में पानी की गुणवत्ता ठीक हो गई। खारापन कम हो गया। मीठा पानी मिलने लगा। आसपास के अनेक गांवों तक भी इस जल संरक्षण का लाभ पहुंचा। इस तरह के जन-भागीदारी के प्रयासों को अब मनरेगा जैसी सरकारी स्कीमों के माध्यम से देश में काफी स्तर पर अपनाया जा सकता है, पर इसके लिए निष्ठा व ईमानदारी से कार्य करने की जरूरत है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 

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