पलायन: कोई विकल्प नहीं है

5 Nov 2011
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कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए,
कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।


- दुष्यंत कुमार

पलायन की देशव्यापी लहर ने योजनाकर्ताओं के सामने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि वे न तो इसे अच्छा बता पा रहे हैं ना बुरा। न तो इसे रोकने की कोशिश हो रही है और न ही इसे सुचारु करने के प्रयास किए जा रहे हैं। एक तबका इसे सबकी जीत यानि योजना की भाषा में ‘विन-विन सिचुएशन’ बता रहा है तो दूसरा इसे अमानवीयता निरुपित कर रहा है। यानि इस समस्या को लोग अंधों के हाथी की तरह बूझ रहे हैं। जबकि आवश्यकता है इस पर खुली आंखों एवं विवेकपूर्ण ढंग से विचार करने की। इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु विकास संवाद ने पिछले दिनों भोपाल में ‘पलायन’ की जटिलताओं को समझने के लिए दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया।

पलायन का मामला पिछले कुछ वर्षों में बुंदेलखंड को लेकर अत्यधिक चर्चा में है। लेकिन यह तो पहली पंचवर्षीय योजना के साथ ही शुरु हो गया था और ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के समाप्त होते - होते यह नई ऊंचाई ग्रहण करता जा रहा है। शहरों की अधोसंरचना को जानबूझकर इस तरह तैयार किया जा रहा है कि उसमें गरीब व्यक्ति कभी भी बसने की न सोचे और यदि वह ऐसा सोचने की हिमाकत करता है तो उसे उखाड़ फेंकने के लिए प्रशासन से लेकर कानून तक सभी सक्रिय हो जाते हैं।

कार्यशाला के बीज वक्तव्य में वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीवान का कहना था कि भूतकाल में पलायन करने वालों ने अनेक स्थायी सम्पत्तियों जैसे तालाब, घाट आदि का सृजन किया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में थोपे गए पलायन से उन्हें भी आपत्ति थी। उनका कहना था कि अन्याय के खिलाफ लड़ाई में जीत अपने ही पाले में हासिल की जा सकती है अतएव आवश्यक है कि हम यानि जनता अपना आधार तैयार करें। इससे पहले विकास संवाद के सचिन जैन ने कार्यशाला की संक्षिप्त भूमिका बताते हुए कहा था कि खाद्य सुरक्षा पर कार्य करते हुए पलायन की विभीषिका से सामना हुआ और उनका जो कार्य मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड व बघेलखंड अंचलों तक सीमित था, उसे विस्तारित करने और इस संकट को पूरे विस्तार यानि इसके श्रोत से गन्तव्य तक समझने के लिए इस कार्यशाला का आयोजन किया गया है।

अशोक खंडेलवाल जो कि पिछले करीब तीन दशकों से भी अधिक से इस समस्या पर अध्ययन कर रहे हैं, का कहना था कि यदि इसे सकारात्मक रूप से देखें तो हम पाते हैं कि यह दोहरी स्वतंत्रता प्रदान करता है यानि भूमिहीन होने से गांव में मजदूरी की समस्या से और दूसरी ओर बंधुआ मजदूरी की समस्या से। उनका कहना था कि सस्ता श्रम भी पलायन को बढ़ावा देता है। उनकी बात को पन्ना के लक्ष्मण आदिवासी से भी समर्थन मिला। लक्ष्मण संभवतः पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने बुंदेलखंड से पलायन किया था। चार दशक से भी पहले जब वे पन्ना में मजदूरी करते तो उन्हें 12 रुपए ‘प्रतिमाह’ मजदूरी मिलती थी। जब वे पलायन कर दिल्ली गए तो वहां उन्हें 11 रुपए प्रतिदिन मजदूरी मिलती थी। अशोक खंडेलवाल का कहना था पलायन और प्रवास दो स्थितियां है। अब स्थिति ऐसी बन रही है कि जिंदा रहने के लिए पलायन करना पड़ रहा है। अधिकांश गांवों की स्थिति ऐसी बन गई है कि यदि वहां रहना है तो संघर्ष कीजिए अन्यथा आत्महत्या करना पड़ेगी। ऐसे में पलायन के अलावा और कोई विकल्प सामने नहीं आता। वे इस जबरिया पलायन और उसके बाद शहरी स्थितियों को बंधवा मजदूरी का नया स्वरूप मानते हैं।

गांवों की वर्तमान स्थिति को इस तरह भी समझा जा सकता है -


यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहां से चले उम्र भर के लिए।


गांवों की इस बदहाली से परेशान होकर शहरों में पहुंचने पर उसके साथ जो व्यवहार होता है वह कोई छुपी हुई अवस्था नहीं है। शहरी गरीबों पर कार्य कर रहे इंदु प्रकाश के संगठन ने इन विस्थापितों को जिन्हें हमारे न्यायालय जेबकतरा और शहर पर लगे बदनुमा दाग तक मानते हैं, को ‘शहर निर्माता या शहर शिल्पी’ का नाम दिया है। उनका मानना है कि यदि ये पलायन करके वहां न पहुंचे तो शहरों का निर्माण भी नहीं हो सकता। उनका कहना है कि कानूनी दृष्टि यानि बाम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट 1959 के हिसाब से तो ये सब भिखारी हैं। इन्हें कभी भी जेल में डाला जा सकता हैं। इनकी संस्था रैन बसेरो के स्थान पर इनके परिपूर्ण निवास के लिए प्रयासरत है।

डॉ. भारतेंदु प्रकाश पिछले कई दशकों से बुंदेलखंड को केंद्र में रखकर विकास कार्यों की समीक्षा में जुटे हैं। उन्होंने बुंदेलखंड से पलायन को आधार बनाते हुए कहा कि यह कभी सम्पन्न इलाका था और यहां समानता नीचे तक बहती थी। पूंजीवादी शासन ने सस्ते श्रम को असहाय बना दिया और अब वे उसके उद्धार के कतई सक्रियता भी नहीं दिखा रहे हैं। उनका मानना था कि यहां की प्राकृतिक सम्पदा ही यहां की दुश्मन बन गई है। उनके अनुसार सन् 1783 में यहां भयानक अकाल पड़ा था लेकिन 4 वर्षों के भीतर ही स्थितियां सुधर गई थी। लेकिन आज ऐसा नहीं हो पा रहा है। इससे बचने का एक ही उपाय है कि किसान को बाजार और सरकार दोनों से ही मुक्ति मिले।

चर्चा में भाग लेते हुए शिल्पी केंद्र के राकेश सस्तिया एवं मोहन सुल्या ने पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों से हो रहे पलायन और उसके परिणामस्वरूप होने वाली जानलेवा बीमारी सिलिकोसिस से ही सैकड़ों मौतों की लोमहर्षक सच्चाई सबके सामने रखी।

समाजशास्त्र के प्राध्यापक सुधीर कुमार का कहना था कि हमें विकल्प की बात करना बहुत जरुरी है। उनके अनुसार 12वीं योजना के आरंभिक प्रपत्र में केवल दो बार चलते-चलते पलायन का जिक्र हुआ है तथा इसमें भी इन्हें शहरों पर दबाव ही माना गया है। उनका कहना था कि आज भी 80 प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि से जुड़ी है और हमें सारी योजनाएं उन्हीं के दृष्टिगत ही बनानी होंगी।

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है, जेरे बहस ये मुद्दआ।


दिल्ली में तो पिछले 60 बरसों से इस मुद्दे पर बहस ही चल रही है। लेकिन सीमित स्तर पर ही सही कुछ लोग इस मुद्दे के समाधान में लगे है। उनमें से एक हैं गांधी आश्रम, छतरपुर के संजय सिंह। उनका कहना था कि ‘अतिक्रमण तो बहुत हुआ अब प्रतिक्रमण करना चाहिए।’ वे मानते हैं कि राजनीतिक वैमनस्य के चलते पलायन बढ़ा है। ईको मॉनिटरिंग झोन को स्थानीय स्तर पर अमल में लाना होगा और खेती में अच्छे प्रयोग करने होंगे। इस बीच उन्होंने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘राजनेता मान रहे हैं कि लोग अपने शौक से गांव छोड़कर जा रहे हैं। बुंदेलखंड के 4000 तालाबों के लापता हो जाने को भी उन्होंने आश्चर्यजनक बताया। युवाओं से हो रही चर्चा से भी वे आशान्वित नजर आए। उनका मानना था कि स्थानीय किस्म की गाय, देशी बीजों को प्रोत्साहन और जमीन के सुव्यवस्थित वितरण से पलायन को कम किया जा सकता है। इस चर्चा को एक अन्य कृषक दमोह के गोविंद यादव ने आगे बढ़ाया और बताया कि किस तरह उन्होंने कृषि को जैविक आधार देकर कई गांवों से पलायन में कमी की है। लेकिन यहां यह सवाल भी उठा है कि जिनके पास जमीन नहीं है उनका क्या?

इस विस्तृत चर्चा में मीडिया के अनेक प्रतिनिधियों आशीष अंशु, गिरीश उपाध्याय, दीपक तिवारी, प्रकाश हिंदुस्तानी एवं दूरदर्शन के मंजीत ठाकुर और भोपाल के अनेक पत्रकारों ने चर्चा में भाग लेकर बातों को और विस्तारित किया। वैसे नीतिगत प्रपत्र तैयार करने में अशोक खंडेलवाल की सलाह काफी महत्वपूर्ण बन पड़ी। उनका मानना था कि जो भी पलायन करता है वह उसका सामाजिक मूल्य चुकाता है। आवश्यकता है इसे न्यूनतम किया जाए। साथ ही मजदूर के कानूनी, मानवीय व आर्थिक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। उनका स्पष्ट मत था कि 12वीं पंचवर्षीय योजना से पलायन में और वृद्धि ही होगी। भूमि सुधार की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने क्षेत्रवाद के दुष्प्रभाव को भी पलायन के लिए जिम्मेदार ठहराया। उनका एक महत्वपूर्ण सुझाव था कि ठेकेदारी प्रथा समाप्त कर मजदूरों का ‘लेबर एक्सचेंज’ स्थापित किया जाना चहिए। साथ ही पलायन कर आई महिलाओं को विशाखा फैसले के तहत कानूनी अधिकार भी दिए जाने की उन्होंने वकालत की। पलायनकर्ताओं के लिए अलग से शिकायत निवारण कक्ष की स्थापना पर भी जोर दिया।

इस चर्चा में बुंदेलखंड, उत्तरप्रदेश के संजय सिंह, आशीष अंशु, समर जैसे अनेक अन्य कार्यकर्ताओं ने भी योगदान किया गगन नायर के बुंदेलखंड पर स्लाइड शो और मंजीत ठाकुर एवं रूपश्री नंदा की फिल्मों ने पलायन की समस्या को समझने में भरपूर मदद की।

कुल मिलाकर यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्यशाला थी। वर्तमान दौर में इसका महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि सरकारें जिस अनगढ़ तरीके से कृषि के खिलाफ और औद्योगिककरण के पक्ष में कार्य कर रही हैं, उसके जवाब में हमें भी सुविचारित ढंग से सामने आना होगा और पलायन करने वालों के हितों की रक्षा के लिए एकजुटता दिखानी होगी। क्योंकि इस जनसंख्या बाहुल्य एवं कृषि प्रधान देश के लिए दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां एकदम ठीक बैठती हैं -

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों,
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।


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