पलायन मात्र सेमिनारी चिन्तन-मनन


‘पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आती’ कहावत सामाजिक चिन्तकों और राजनीतिज्ञों की जुबानी अक्सर उत्तराखण्ड के पर्वतीय हिस्सों से होते पलायन पर चिन्ता जताते सुना जाना आम है। इस कहावत की सच्चाई पर कोई शक नहीं है। पलायन से हो रहे नफा-नुकसान की चिन्ताओं के बीच पहाड़ के गाँवों की हकीकत जानने निकलें तो पाएँगे कि जिम्मेदार लोगों की चिन्ता नकली है। यदि चिन्ता असली होती तो खाली होते पहाड़ पर ऐसे लोग खुद घर बनाकर रह रहे होते, न कि सुविधा सम्पन्न शहरों में रहकर मात्र सेमिनारी चिन्तन-मनन तक सीमित रहते। उत्तराखण्ड की वास्तविकता यह है कि राज्य गठन के बाद इन 15 सालों में तीन हजार पहाड़ी गाँवों से लगभग 40 फीसदी पलायन हुआ है। हालाँकि, विकास के नाम पर इन सालों में पर्वतीय क्षेत्रों में लगभग 15 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। इसके बावजूद गाँवों का खाली होना थम नहीं सका है।

उत्तराखंड त्रासदी के बाद पलायनरूद्रपुर। दिन-प्रतिदिन पहाड़ की बढ़ती पीड़ा की वेदनाएँ अब पर्वतों का सीना चीर रही हैं। हिमालयी क्षेत्रों में सूनी होती बांखलियाँ व गाँव की गलियाँ बताती हैं कि कभी यहाँ आबाद नगरी हुआ करती थी। चूने हो चुके खेत क्षेत्र की वीरानी की दास्तां का स्वयं ही बखान कर रहे हैं। चोटी पर स्थित गुसांई जी का मन्दिर जहाँ कभी गाँव वाले बड़ी संख्या में एकत्रित होकर रात भर उल्लास के साथ जागकर कीर्तनों में मस्त रहते थे, वो दिन अब नहीं रहे।

यह हालत दिन-प्रतिदिन सभी क्षेत्रों में पनपने लगे हैं। गुसै राठ अर्थात गुसाईं देवता अब प्रवासियों के गाँव आने पर ही दिया बाती पाते हैं। पलायन की पीड़ा के दंश से जहाँ गाँव की गलियाँ सूनी होती जा रही हैं वहीं बचे-खुचे लोग भी धीरे-धीरे पहाड़ की सुनहरी घाटियों से नाता तोड़ने का मन बनाते जा रहे हैं। कारण साफ है बेरोजगारी व मूलभूत सुविधाओं का अभाव आदि। चाहे बागवानी का मामला हो, शराब का बढ़ता प्रचलन हो, राजनीति में आ रही गिरावट के कारण अवरुद्ध हो रहे विकास कार्य हों, चाहे प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुन्ध दोहन की समस्या हो या फिर विशालकाय बाँधों के निर्माण की विडम्बना, पलायन की पीड़ा हो या फिर हक-हकूकों पर कानूनी दाते का सवाल हो।

प्राकृतिक आपदाओं की पीड़ा हो या फिर शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन आदि जन सुविधाओं की बदहाली, पहाड़ी क्षेत्र के सभी भागों की ये सभी समस्याएँ एवं विडम्बनाएँ एक जैसी हैं। हर समस्या पर सरकारों की नीतियाँ उपेक्षापूर्ण रही हैं। कम समय, कम लागत तथा बागवानी (फल तथा सब्जी) उद्योग की भी सरकार ने जितनी उपेक्षा की है, उससे केवल उत्पादकों के उत्साह में ही कमी नहीं है बल्कि यही स्थिति रही तो साधारण से समझे जाने वाले इसी संसाधन से राज्य सरकार की आय को नुकसान पहुँच सकता है। इसके लिये राज्य सरकार के साथ-साथ दलाल और व्यापारी अधिक दोषी हैं, जो उत्पादकों की मजबूरी का फायदा उठाकर बहुत ही सस्ते दामों पर इनसे फल एवं सब्जी खरीद कर खुद मोटा मुनाफा अर्जित करते हैं।

इन लोगों की आपसी मिली-भगत के कारण भी किसानों का जमकर शोषण होता है। यदि उत्पादन का उन्हें उचित दाम मिले, शीतगृहों की व्यवस्था हमें फलों तथा सब्जियों से तैयार अन्य खाद्य पदार्थ तथा पेय पदार्थों के निर्माण के लिये कुटीर एवं लघु उद्योग स्थापना की मानसिकता की प्रोत्साहन, आर्थिक सहायता तथा प्रशिक्षण मिले तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रतिवर्ष उत्पादन में 20 से 30 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है। उत्तराखण्ड में वनों की अपार संभावनाएँ हैं। यहाँ चीड़, सागौन, देवदार, शीशम, साल, बुरांश, सेमल, बाँझ, साइप्रस, फर तथा स्प्रूश आदि वृक्षों से आच्छादित इस वन क्षेत्र से ईंधन तथा चारे के अतिरिक्त इमारती तथा फर्नीचर के लिये लकड़ी, लीसा, कागज इत्यादि का उत्पादन प्रचुर मात्रा में किया जा सकता है। इसके अलावा वनों में जड़ी-बूटियाँ काफी मात्रा में मौजूद हैं। वर्तमान स्थितियों को देखते हुए इन जड़ी बूटियों का संवर्द्धन अत्यन्त आवश्यक है। अगर राज्य सरकार जड़ी-बूटी की तरफ नीति में संशोधन करे तो राजस्व में अच्छी खासी वृद्धि हो सकती है।

वर्तमान समय में फूलों की अत्यधिक माँग है। उत्तराखण्ड सरकार ने फूल उद्योग को बढ़ावा देने की बात तो की है किन्तु धरातली क्षेत्र में कार्य सन्तोषजनक नहीं है। आश्चर्यजनक बात यह है कि क्षेत्र में विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी होने के बावजूद भी इस व्यवसाय से लोग अभी भी अनजान बने हुए हैं। क्षेत्र में आज के प्रचलन के महँगे फूलों में ग्लाइडोरस, रजनीगंधा, गुलाब, बेला, चमेली, डहेलिया, जरवेरा, आर्किड, गुलदाउदी, गेंदा आदि का उत्पादन किया जा सकता है। गेंदा पर्वतीय क्षेत्रों में अत्यधिक मात्रा में पाया जाता है।

बहरहाल जब तक राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लिये ठोस नीति नहीं अपनाई जाती, तब तक राज्य में विकास की संभावनाएँ नहीं बन पाएँगी। हिमालय को बचाने के नाम पर देश की राजधानी दिल्ली में आए दिन वातानुकूलित कमरों में सेमिनार आयोजित किए जाते हैं और करोड़ों रुपए मौज-मस्ती में उड़ा दिए जाते हैं। ऐसे सेमिनारों के आयोजक भी वही संस्थान/प्रतिष्ठान होते हैं जो लम्बे समय से हिमालयी क्षेत्र के समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों को लूटते आए हैं और आज भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से लूट के खेल में शामिल हैं। क्या दिल्ली में बैठकर हिमालय तथा हिमालयी क्षेत्र की समस्याओं को सुलझाया जा सकता है? राज्य पर्यटन विकास के दावे कई सालों से हो रहे हैं। राज्य निर्माण होने से पूर्व भी केन्द्र व राज्य सरकारें यहाँ के आर्थिक विकास में पर्यटन उद्योग की व उसके विकास की कोरी घोषणाएँ करती रहीं जो आज भी यथावत है।

पर्यटन का दिखावा प्रमुख हिल स्टेशनों से आगे नहीं बढ़ पाया है। राज्य गठन के पश्चात भी पर्यटन की प्राथमिकता घोषणाओं तक ही सीमित रही है। दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र मार्ग निर्माण के अभाव में खनन से खोखले होते पहाड़ों के कारण दम तोड़ते नजर आते हैं। सरकारों की अव्यावहारिक एवं जनविरोधी नीतियों के चलते उत्तराखण्ड में जहाँ जंगल व जमीनों पर माफिया काबिज होते चले गए वहीं यहाँ के जलस्रोत सूखने से पशुपालन व अन्य परम्परागत व्यवसाय प्रभावित हुए। परिणामस्वरूप बेरोजगारी का भयावह चेहरा सामने आया। उस पर शराब संस्कृति ने पहाड़ के शान्त व सुखद वातावरण में जहर घोल दिया। मार्गों के दयनीय दशा से पहाड़ की पीड़ा कम होने के बजाय बढ़ी है। वर्तमान में आज जनता के बीच सिर्फ यही संदेश जा रहा है कि राजनीति सिर्फ पैसे और पैसे वालों का ही खेल है।

यदि कोई सामान्य आदमी चुन भी लिया जाए तो सत्ता के दलाल उनका ईमान गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ते। पर्वतीय महिलाओं का जीवन जिस मानवजनित आपदा से तहस-नहस हुआ है, उसमें शराब की भूमिका सबसे मुख्य है। महिलाओं के समक्ष तमाम समस्याओं के बीच शराब पूर्व से ही किसी आपदा से कम नहीं थी, परन्तु हाल के दशकों में यह एक लाइलाज बीमारी बनकर महिलाओं के अस्तित्व के लिये एक भयावह चुनौती बन कर खड़ी है।

किसी भी परिवार में मद्यपान करने वाला चाहे पति हो, पुत्र हो, भाई हो या फिर पिता हो, इस बुराई का सर्वाधिक नुकसान सम्बन्धित परिवार की महिलाओं को ही झेलना पड़ता है। ऐसे परिवारों की महिलाओं का जीवन जहाँ शराब ने नरक बना डाला है वहीं ऐसे परिवार प्रगति की राह में काफी पीछे रह गए हैं। अपनी बरबादी को रोकने तथा पुरुषों की शराबखोरी से निजात पाने के लिये पहली बार सत्तर के दशक में महिलाओं की छटपटाहट सीधे प्रतिकार के रूप में सामने आई और महिलाएँ शराब विरोधी मुहिम में जुटने लगी। 1980 के दशक में ‘नशा नहीं रोजगार दो’ का नारा समूचे पर्वतीय अंचल में गूँज उठा।

राजस्व की बात करने वाले सियासी दलों तथा सरकारों को शराब से हो रही पहाड़ की बर्बादी कभी नहीं दिखाई दी। नशे के बढ़ते प्रभाव से यहाँ के समृद्ध सांस्कृतिक मूल्य, स्वस्थ व सौहार्दपूर्ण जीवनशैली, सामाजिक व आर्थिक ढाँचा सब कुछ तहस-नहस होता चला गया युवा पीढ़ी में स्वास्थ्य का गिरता ग्राफ चिन्ताजनक स्तर तक पहुँच गया। सामूहिक जन आक्रोश को देखते हुए बेशक तत्कालीन सरकार ने कुछ समय के लिये पर्वतीय क्षेत्रों में ड्राई एरिया घोषित किया किन्तु उस दौरान शराब तस्करी चरम पर पहुँच गई। पहाड़ के चन्द तश्कर रातों-रात धन्ना सेठ बन गए, जिसने एक नई आर्थिक विषमता को जन्म दिया।

सरकारों की अव्यावहारिक एवं जनविरोधी नीतियों के चलते उत्तराखण्ड में जहाँ जंगल व जमीनों पर माफिया काबिज होते चले गए वहीं यहाँ के जलस्रोत सूखने से पशुपालन व अन्य परम्परागत व्यवसाय प्रभावित हुए। इस सब के परिणामस्वरूप बेरोजगारी का भयावह चेहरा सामने आया। उस पर शराब संस्कृति ने पहाड़ के शान्त व सुखद वातावरण में जहर घोल दिया।
 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading