प्राचीन है भारत की बसंत अनुभूति

हम प्रकृति में हैं, प्रकृति के हैं और प्रकृति हम में है। हम सब मधुप्रिय हैं। ऋषि भी मधुप्रिय हैं। वे प्रकृति के सभी रूपों को मधुमय देखने के अभिलाषी हैं। बार-बार गुनगुनाने लायक मंत्र में कहते हैं- हवाएं मधु आपूरित हों। प्रकृति चक्र मधुमय हो। नदियों के जल मधुमय हों। औषधियां, वनस्पतियां मधुर हों। पृथ्वी की धूलि और सूर्य की किरणें भी मधुर हों। बसंत भारत की मधु अनुभूति का ही दर्शन दिग्दर्शन है.. सुस्वागतम्! आओ बसंत। लहको-महको, महकाओ दिग्दिगंत। भारतीय सौंदर्यबोध के हे ऋतुराज, आपको नमस्कार है। प्रकृति आपकी प्रियतमा है। वह अधीर प्रतीक्षा में थी। प्रकृति ने अपने अरुण तरुण अंग खोले। रूप-रूप प्रतिरूप और बहुरूप सौंदर्य चरम-परम होते गए। अपना सारा रूप-रस-गंध उड़ेल दिया उसने। कलियां चटकीं, फूल खिले। अनेक छंदों में स्तुतियां कीं उसने। ऋग्वेद का प्रख्यात छंद गायत्री और साम का ‘वृहत्साम’। श्रीकृष्ण ने अजरुन को इन्हीं दोनों छंदों में अपनी व्याप्ति बताई थी और अंत में कहा था- त्रतुओं में मैं बसंत हूं। प्रकृति आपकी अगवानी में पुलकित थी, लहालोट थी। जान पड़ता है कि आप धूप कोहरे और कड़ाके की ठंड के कारण विलंबित हो गए। आप आम आदमी की तरह मफलर से काम नहीं चला पाए। कोई बात नहीं, आइए। प्रकृति अपनी वीणा के तार छेड़ चुकी है। प्रकृति सृजन मधुमय और रसमय है। सोम रसायन की प्राकृतिक मस्ती है। रस-रस प्रीति है। रस घनत्व से धरती-अंतरिक्ष आच्छादित है। लेकिन हम भारत के कुछ लोग इंडियन हो चुके हैं। इंडियन लोग वेलेंटाइनी शीर्षासन में हैं। वे ऋतुराज और प्रकृति का प्रेमरस छोड़कर विदेशी वेलेंटाइनी वाइन की दुकानों पर कतारबद्ध हैं। बसंत उनके लिए बस-अंत है।

बसंत बौद्धिक समस्या है। प्रश्न है कि विश्व मानवता से बसंत का प्रथम परिचय कब हुआ? प्रकृति के हरेक जीव को मदमस्त करने वाले ऋतुराज कब पहचाने गए? ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ज्ञान रिकार्ड है। यहां संपूर्ण ब्रह्मांड को पुरुष रूप में कल्पित किया गया है- हजारों सिर और हजारों पैरों वाला यह पुरुष मजेदार है। यह पुरुष समय का भी अतिक्रमण करता है। ऋषि के अनुसार, जो हो चुका है और जो होगा, वह सब पुरुष ही है। इसके एक भाग में यह विश्व है, शेष तीन भाग अनंत दिव्यलोक हैं। यह ब्रह्मांड से भी विराट है। सृष्टि सृजन एक पवित्र यज्ञ है। इसी सूक्त में कहते हैं- सृजन-यज्ञ में यही पुरुष हवि यानी अग्नि में अर्पित सामग्री बना और बसंत बना घृत। बसंत ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से प्राचीन है। ऋग्वेद का पुरुष गहन दार्शनिक अनुभूति है। बेशक यह अधिकांश ऋग्वेद से नूतन है, लेकिन भारत की बसंत अनुभूति अति पुरातन है। इसका मुख्य कारण है, प्रकृति के प्रति हमारे पूर्वजों की गहन प्रीति। इस प्रीति का कारण रूपों को ध्यान से देखने की द्रष्टा प्रकृति है। द्रष्टाभाव से उगे सौंदर्यबोध का चरम-परम ही बसंत है।

प्रकृति के रूप रम्य हैं। इनको देखने का भारतीय द्रष्टा भाव और भी रम्य है। ऋग्वेद के ऋषि को बसंत सृजन-यज्ञ कार्य में घी जैसा जान पड़ता है। बसंत कामोद्दीपन है। काम सर्जक है। घी वैदिक ऋषियों का प्रिय रस है। रस का संबंध स्वाद से है। जिह्वा रस लेती है, इसीलिए वह रसना है। अग्नि इन ऋषियों के दुलारे देवता हैं। ऋषियों के भावबोध में अग्नि घृत प्रिय हैं। अग्नि की अन्य अनेक विशेषताएं भी हैं। लेकिन सबसे मजेदार बात है कि वे कवि भी हैं और उनकी जीभ मधुमती है। जो ऋषि स्वयं कवि हैं, उनके प्रिय देवता भी कवि हों तो आश्चर्य क्या है? असल में प्रकृति को देखने के लिए गीता वाले दिव्य चक्षु की जरूरत नहीं पड़ती। कृष्ण ने अजरुन को विराट रूप दिखाने के पहले दिव्य चक्षु दिए थे। प्रकृति और हम अंगांगी हैं। हम प्रकृति में हैं, प्रकृति के हैं और प्रकृति हम में हैं। हम सब मधुप्रिय हैं। ऋषि भी मधुप्रिय हैं। वे प्रकृति के सभी रूपों को मधुमय देखने के अभिलाषी हैं। बार-बार गुनगुनाने लायक मंत्र में कहते हैं- हवाएं मधु आपूरित हों। प्रकृति चक्र मधुमय हो। नदियों के जल मधुमय हों। औषधियां, वनस्पतियां मधुर हों। पृथ्वी की धूलि और सूर्य की किरणें भी मधुर हों। बसंत भारत की मधु अनुभूति का ही दर्शन दिग्दर्शन है। ऋग्वेद और उसके उगने के पहले से ही यह अनुभूति हमारे लोकजीवन को रस आपूरित करती आई है। रस का यह स्रोत कभी रीता नहीं हुआ। उत्तरवैदिक काल के तैत्तिरीय ब्राह्मण में बसंत-आगमन पर देवता भी आनंदमगन बताए गए हैं।

माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी बसंत के स्वागत का मुहूर्त है। यही वाग्देवी सरस्वती के उदय होने की वेला है। भारतीय प्रज्ञा की आराध्य हैं सरस्वती। वे हंसवाहिनी हैं। वीणावादिनी हैं। पहले वे एक नदी हैं। ऋग्वेद के ऋषियों की नदीतमा। उन्हीं की गोद में और उनका जल-रस पीते भारतीय दर्शन ने अपनी काया और कांति पाई। इन्हीं के तट पर विश्वविख्यात गायत्री जैसे अनेक मंत्र उगे। वैदिक ऋषियों ने सरस्वती को मां जाना। यहीं यज्ञ चले, यज्ञ अग्नि से साक्षात्कार हुए ऋषियों के। सरस्वती पुत्रों को भरतजन नाम मिला, सरस्वती तट पर। यहीं इसी तट पर अग्निधर्मा सत्य-अभीप्सा भारत कहलाई। फिर यही सरस्वती नदी रूप में विलुप्त हो गईं। वैलेंटाइनी इंडियन सरस्वती को कल्पना मानते थे। अब भौगोलिक सरस्वती का अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। सरस्वती की दिव्यता ने भारत के मन को नीर-क्षीर विवेकी बनाया। वाग्देवी सरस्वती विवेक की अधिष्ठात्री बनी। बसंत की मस्ती में विवेक का अनुशासन जरूरी होता है। सोम मस्ती है और ओम् जागरण। हमारी परंपरा में दोनों हैं। बसंत के साथ सरस्वती का भी उगना सकारण है। बसंत अप्रतिम सौंदर्यबोध है तो सरस्वती अप्रतिम आत्मबोध। जगत् में रस आपूर्ण है तो इस रस का अजर अमर और अक्षय रसस्रोत महारस है। तैत्तिरीय के ऋषि ने उसे ‘रसोवैस’ गाया है। भारत का मन बसंत रागी है। यह बसंत वैदिक मंत्रों में है। कालिदास के सृजन में प्रकृति की यह तरुणाई बड़ी हलकट है। हिरण की पीठ को हिरणी सींग से खुजलाती है। बसंत विह्वल नायिका इरावती नायक अग्निमित्र को पुष्प गुच्छ भेजती है। तुलसीदास संत थे। बसंत ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। तुलसी की अनुभूति में बसंत-प्रभाव मुर्दो को भी हिला देता है- जागे जागे मनोभाव मुएंहु मन वन सुभगता न परे कही। श्रीराम मंगलभवन हैं, अमंगलहारी हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भी हैं। लेकिन कवितावाली में वे भी बसंत खेलते हैं- खेलत बसंत राजाधिराज। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हमारे गांव के पड़ोस के। उनकी बसंत अनुभूति का क्या कहना? गाया है - वर्ण गंधधर/मधुमरंद भर/तरु उर की अरुणिमा तरुणतर। कालिदास की तरह बसंत को आज हम सोच भी नहीं सकते। निराला के पड़ोसी होकर भी हमलोग बसंत रस का स्वाद नहीं पाते। क्या करें? सोशल नेटवर्किंग में बसंत की कोई जगह नहीं चैटिंग का बतरस है। बात का बतंगड़ है। ऋतुराज आए हैं तो आएं-जब जाना हो, जाएं। अब सखि, बसंत आया जैसी शब्द धुन की फिक्र किसको है, अब गली-गली तमंचे पर डिस्को है।

बसंत हमारी सांस्कृतिक अनुभूति भी है। आस्था नहीं, देखी-जांची-परखी प्रत्यक्ष सांस्कृतिक संपदा। प्रकृति छंदबद्ध है, अराजक नहीं। प्रकृति नियम आबद्ध है। वैदिक ऋषियों ने प्रकृति की नियमबद्धता और छंदस। गति को ऋत कहा है। ऋत अंतस प्रवाह है और ऋतु इसी छंदबद्ध प्रवाह का चेहरा। गतिशील जगत में ऋतु के कारण परिवर्तन आते हैं। भारत में मोटे तौर पर छह ऋतुएं हैं। लेकिन मस्त बसंत ऋतुराज हैं। बसंत स्वयं मस्त हैं, मस्ती देते भी हैं। वे कंजूस राजा नहीं हैं। वे घाटे का बजट नहीं चलाते। जैसे वे हैं, वैसी ही स्थिति-परिस्थिति प्रजा के लिए भी पैदा करते हैं। वे ऐसे-वैसे मनमोहन नहीं हैं। वे जैसे मनमोहन हैं, प्रकृति के हरेक अंग को वैसी ही मनमोहन तरंग से भर देते हैं। वे सृष्टि के सभी घटकों को नृत्य -तरंग और उमंग देते हैं। बसंत भारतीय लोकजीवन का उल्लास हैं। शुद्ध भौतिक, लेकिन रस आपूर्ण में परिपूर्ण आधात्मिक भी। बसंत सनातन हैं, पुरातन हैं और हर बरस नित नए भी हैं। भारतीय संस्कृति के अनुरागी इस उल्लास में आनंदवर्द्धन मजा लेते हैं। प्रज्ञा और मस्ती के परंपरा प्रवाह को गति देते हैं। यह बसंत आप सबको नवउमंग और नवतरंग के उल्लास से भरें।

ईमेल- aksharvarchas@gmail.com

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