प्राचीन इंजीनियरिंग का कमाल-चूना, सुर्खी एवं गुड़ से निर्मित गंगा कैनाल


नहर निर्माण के दौरान रुड़की से पिरानकलियर के मध्य खुदाई के दौरान निकाली गई हजारों टन मिट्टी को हटाने का कार्य चुनौतीपूर्ण था। ठेकेदारों ने अपने प्रथम प्रयास में श्रमिकों से मिट्टी को बड़े-बड़े बक्सों में भरकर खिंचवाने का कार्य किया जिसमें असफल रहने के कारण यह कार्य घोड़ों आदि से पात्रों को खिंचवाया लेकिन वह भी जरूरत के हिसाब से कार्य नहीं हो पा रहा था। इसके कारण योजना समय से पूरी होने में देरी होने की आशंका थी। योजना समय सीमा में पूरी हो इसके मध्य नजर कार्यदायी संस्था ने इंग्लैण्ड से विशेष भाप इंजन वाली मालगाड़ी मँगवाई। छः पहियों वाली व 200 टन माल ढोने की क्षमता वाली इस ट्रेन को चलाने के लिये रुड़की से कलियर के मध्य पटरियाँ बिछाई गईं। इसके बाद 22 दिसम्बर सन 1851 को यह रेल इंजन दो मालवाहक डिब्बों को लेकर रुड़की से पिरान कलियर के लिये रवाना हुआ।

प्राचीन इंजीनियरिंग का कमाल-चूना, सुर्खी एवं गुड़ से निर्मित गंगा कैनालभारतवर्ष की उत्तरी सीमा पर एक अडिग, अचल प्रहरी के रूप में स्थित हिमालय पर्वत की श्रंखलायें अपनी अनुपम नैसर्गिक छटा बिखेरती हुई, सदा से प्राकृतिक सम्पदा और ज्ञान के भण्डार का प्रतीक रही हैं। इसी की तलहटी में बसा एक खूबसूरत नगर है रुड़की।

उत्तराखण्ड के प्रवेश द्वार के रूप में इस नगर का प्राकृतिक वैभव अद्वितीय है। रुड़की शहर के पश्चिम में यमुना प्रवाहित होती है और पूर्व में मोक्ष प्रदायिनी गंगा। रुड़की से नन्दा देवी, केदारनाथ आदि की गगनचुम्बी हिमनद चोटियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं।

वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में रुड़की का भू-भाग ‘उसीनगर’ जनपद के अधीन था। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में यह स्थान मगध सम्राट चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का अंग था। चौथी शताब्दी में पुनः स्थापना की लहर में यह ‘योघेन्त्र’ गणतन्त्र का एक भाग रहा तथा 606 से 647 ईस्वी तक वर्धन साम्राज्य के महाराज हर्षवर्धन के साम्राज्य का अंग रहा। वर्ष 1398 में यह विदेशी आक्रमणकारी ‘तैमूर लंग’ के आक्रमण का शिकार हुआ। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से यह शहर समृद्ध व प्राचीन रहा है। अकबर के राज दरबारी अबुल फजल ने अपनी पुस्तक ‘आइने अकबरी’ में रुड़की का उल्लेख किया है उस समय यह ‘महाल’ परगना था। पुरातत्व अनुसंधानों में यह प्रमाण मिलते हैं कि रुड़की सिन्धु घाटी से भी प्रभावित रहा है। कभी एक राजपूत सरदार ने अपनी रानी ‘रुढ़ी देवी’ के नाम पर इस शहर का नाम ‘रुढ़ी’ कर दिया व कालान्तर में ‘रुड़की’ नाम से पुकार जाने लगा।

अन्त में एक जनवरी 1804 में यह क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया ब्रिटिश काल में इसे उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जनपद की तहसील का दर्जा मिला था। देहरादून, मसूरी के बाद रुड़की अंग्रेजों को पसन्द था। राजनैतिक समीकरणों के चलते ब्रिटिश काल में स्थापित तहसील रुड़की, आज हरिद्वार जनपद का हिस्सा है। 1988 में हरिद्वार जनपद बन गया और सहारनपुर जिले से अलग करते हुए रुड़की तहसील को हरिद्वार जनपद के आधीन कर दिया गया।

यह तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य है कि रुड़की का विकास अंग्रेजी शासन की देन है। रुड़की नगर को दो भागों में विभक्त करने वाली गंगा नहर निकालने की योजना प्रो. वी. काटले ने रुड़की में ही बनाई थी। गंगा से गंगा नहर निकालना एक चुनौती पूर्ण कार्य था। हरिद्वार से कानपुर तक हजारों हेक्टेयर भूमि को हरियाली प्रदान करती ‘गंगानहर’ आज भी मोक्षदायिनी गंगा के रूप में मानी जाती है।

सन 1838-39 में उत्तर भारत में इतना भीषण अकाल पड़ा कि किसी से भी भयभीत न होने वाले अंग्रेज सरकार भीतर से काँप उठी, यह निर्णय लिया गया कि वर्तमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश से होते हुए एक नहर कानपुर निकाली जाए, ताकि जल ही जीवन बन सके। सैन्य अधिकारी प्रो. वी. काटले को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। जानकारों के अनुसार अंग्रेजों को इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान नहीं था। प्रो. वी. काटले ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। उन्होंने बार-बार निर्माण के बारे में लिखा। गंगा नहर के निर्माण को लेकर उच्च स्तर पर मतभेद भी हुए। उस समय अंग्रेज देश में बहुतायत में पाये जाने वाले मच्छरों से डरते थे। मलेरिया के भय से अंग्रेजों ने गर्मियों में पर्वतीय क्षेत्रों में रहना शुरू कर दिया था, ऊँची-ऊँची पहाड़ियों पर रहकर अपना राजकाज का संचालन करते थे।

प्राचीन इंजीनियरिंग का कमाल-चूना, सुर्खी एवं गुड़ से निर्मित गंगा कैनालनहर परियोजना बार-बार अस्वीकृत होने के उपरान्त भी कर्नल काटले ने प्रयास जारी रखा। काटले के अनुरोध पर लेफ्टीनेंट गवर्नर जेम्स थामसन ने इंग्लैण्ड सरकार को लिखा कि मलेरिया से हजारों लोग मरते हैं, यह सत्य है, लेकिन अकाल और भूख से लाखों मानव दम तोड़ देते हैं बल्कि मूक पशु भी मारे जाते हैं। भारी विरोध के चलते गवर्नर जेम्स थामसन ने अंग्रेज सरकार को लिखा व नहरों के लाभ को स्मरण करना जारी रखा। गंगा नहर बनाने का प्रस्ताव 1838 में बना था। कर्नल काटले ने इंग्लैण्ड सरकार को लिखा कि यह योजना महत्त्वपूर्ण है, करोड़ों लोगों को जहाँ अनाज मिल सकेगा वहीं लाखों हेक्टेयर भूमि पर अतिरिक्त सिंचाई सुविधा उत्पन्न होने के कारण अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। अंत में गवर्नर लॉर्ड हांडिग रुड़की आये उन्होंने रुड़की हरिद्वार क्षेत्र का भ्रमण किया और योजना को मंजूरी दे दी।

 

निर्मााण

निर्माण सामग्री

चूना, सुर्खी, गारा, गुड़, शहद, उड़द की दाल, कई जड़ी बूटी के रस के सम्मिश्रण।

कुल लागत

तत्कालीन एक करोड़ चालीस लाख रुपये।

कुल समय

11 वर्ष

कुल निस्सरण

दस हजार क्यूसेक

निर्माण वर्ष

1854

आरम्भ

1837-38

लेबर का चार्ज

2 आना प्रतिदिन (12 पैसे प्रति दिन वर्तमान में)

कुल लम्बाई

300 किमी

नहर तंत्र की लम्बाई

6240 किमी

सीमित क्षेत्र

9 लाख हेक्टेयर

प्रथम शेर का निर्माण

1838 में

रेल का प्रारम्भ

भारतवर्ष में प्रथम रेलपथ का निर्माण व भाप इंजन का उपयोग मालवाहक के रूप में सर्वप्रथम गंगा नहर रुड़की एक्वाडक्ट निर्माण हेतु 22 दिसम्बर 1851 को हुआ।

 

गंगा नहर के निर्माण में प्रारम्भ 32 किमी की लम्बाई में 4 महत्त्वपूर्ण व बड़े ड्रेनेज क्रॉसिंग हैं। हरिद्वार से रुड़की के मध्य पुलों का निर्माण उस समय आश्चर्य चकित करने वाला था। आज भी यह आश्चर्य से कम नहीं है।

नहर सोलानी नदी के पुल के मध्य ऊपर होकर बहती है हरिद्वार से रुड़की के मध्य पुलों का निर्माण चुनौतीपूर्ण था। नहर को ग्राम महेवड़कला से रुड़की गऊघाट तक दोनों ओर पक्का बनाया गया है। नहर अपने प्रवाह के दौरान कटिंग में बहती है। परन्तु इसके मध्य यह भराव में बहने के कारण दोनों ओर पक्की संरचना की गई है। इस पक्के निर्माण के मध्य ‘संसार का अजूबा’ सोलानी एक्वाडक्ट का निर्माण एक चुनौतीपूर्ण कार्य था।

पूरे सोलानी एक्वाडक्ट के निर्माण के लिये पूरे पुल को आर्क (डाट) द्वारा सोलह खण्डों में विभक्त किया गया, जो अन्दर से खोखले हैं। दोनों ओर से लोहे के दरवाजे लगे हैं जिससे पुल के अन्दर घूमा जा सकता है। सोलानी पुल के चारों किनारों पर चार चौड़ी सीढ़ियों का निर्माण किया गया है। कहा जाता है कि उस समय माल ढोने के लिये संसाधन केवल हाथी थे और वह हाथी इन सीढ़ियों से नीचे उतर कर नदी पार कर दूसरी सीढ़ियों से माल चूना, सुर्खी लेकर ऊपर चढ़ जाते थे। उस समय लोगों को यह भय था कि हाथी के गुजरने से कहीं यह पुल न टूट जाये या नुकसान न हो जाये। यह दहशत लोगों के दिल और दिमाग में वर्षों रही।

कर्नल काटले को सोलानी नदी पर ऐसे पुल का निर्माण करना था कि यातायात भी चलता रहे व नीचे नहर को काट रही सोलानी नदी अनवरत रूप से बहती रहे। नदी के ऊपर नहर निकालना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। भारतीय कुशल कारीगरों व विशेषज्ञों ने सुझाया, नदी के मध्य गहरे कुएँ खोदकर आधार स्तम्भ बनाये जा सकते हैं जिससे पूरी संरचना तैयार हो जाये। नव निर्माण के लिये तत्कालीन निर्माण इंजीनियरों के पास कोई विशेष तकनीक नहीं थी। वर्तमान में कंक्रीट का जंगल सीमेंट, रेत, बजरी और लोहे का प्रयुक्त आर सी सी से तैयार किया जा सकता था। लेकिन प्राचीन समय में निर्माण के लिये परम्परागत नुस्खों का ही प्रयोग कर सकते थे। देसी समाधानों से बनी 165 वर्ष पूर्व नहर आज पूर्ण रूप से सुरक्षित है।

गंगा नहर के पक्के किनारों व गंगा नहर का निर्माण चूना, सूर्खी गोबर, जड़ी-बूटी का रस मिलाकर बनाये गये मसाले का उपयोग किया गया। तभी से ये पुल व घाट आज भी सुरक्षित हैं। जितने पहले थे। निर्माण में भारत के राज-मिस्त्रियों व तकनीकी विशेषज्ञों की भूमिका रही। हजारों कुशल मजदूरों ने दिन-रात काम करके मात्र 12 वर्षों में पूरा कर लिया था आज की उन्नत तकनीक भी कर्नल काटले के सामने नतमस्तक होती दिखाई दे रही है।

लागत


प्राचीन इंजीनियरिंग का कमाल-चूना, सुर्खी एवं गुड़ से निर्मित गंगा कैनाल11 वर्षों में गंगा नहर निर्माण में कुल लागत राशि एक करोड़ 40 लाख रुपये व्यय की गई। किस्तों में यह राशि घोड़ों पर भारी सुरक्षा के बीच कलकत्ता से आती थी। दस्तावेजों के अनुसार महाराज ग्वालियर एवं ले. जनरल जान रुलज कालदिन द्वारा अनेक गणमान्य अधिकारियों के बीच इस नहर का विधिवत उद्घाटन 8 अप्रैल 1954 को हुआ।

नहर निर्माण के दौरान रुड़की से पिरानकलियर के मध्य खुदाई के दौरान निकाली गई हजारों टन मिट्टी को हटाने का कार्य चुनौतीपूर्ण था। ठेकेदारों ने अपने प्रथम प्रयास में श्रमिकों से मिट्टी को बड़े-बड़े बक्सों में भरकर खिंचवाने का कार्य किया जिसमें असफल रहने के कारण यह कार्य घोड़ों आदि से पात्रों को खिंचवाया लेकिन वह भी जरूरत के हिसाब से कार्य नहीं हो पा रहा था। इसके कारण योजना समय से पूरी होने में देरी होने की आशंका थी। योजना समय सीमा में पूरी हो इसके मध्य नजर कार्यदायी संस्था ने इंग्लैण्ड से विशेष भाप इंजन वाली मालगाड़ी मँगवाई। छः पहियों वाली व 200 टन माल ढोने की क्षमता वाली इस ट्रेन को चलाने के लिये रुड़की से कलियर के मध्य पटरियाँ बिछाई गई। इसके बाद 22 दिसम्बर सन 1851 को यह रेल इंजन दो मालवाहक डिब्बों को लेकर रुड़की से पिरान कलियर के लिये रवाना हुआ।

शेर नाम खतरा


मेहवड़ कलाँ से गऊघाट रुड़की का क्षेत्र बहुत खतरनाक माना जाता था। पक्के निर्माण के चारों किनारों पर चार बब्बर शेर की मूर्तियों का निर्माण किया गया। इन शेरों का निर्माण का अर्थ उस समय के निर्माताओं का कुछ और नहीं बल्कि गंगानहर के दोनों किनारों पर चलने व यातायात संचालन का अर्थ शेर के मुँह में जाने के समान था, धीरे-धीरे लोगों का डर कम होने लगा और ये शेर रुड़की नगर के सशक्त प्रहरी बन गये। उस समय लोग कम शिक्षित होने के कारण डेंजर शब्द को नहीं पढ़ सके, खतरे के प्रतीक के रूप में शेरों का निर्माण किया गया था।

प्राचीन इंजीनियरिंग का कमाल-चूना, सुर्खी एवं गुड़ से निर्मित गंगा कैनालशेर कोठी के नाम से प्रसिद्ध जिस स्थान पर अंग्रेज लोग रहते थे उस स्थान का नाम सेन्ट एन्डीज चर्च कहा जाता था। प्राचीन चर्च आज भी अपने स्थान पर स्थित है। इसी स्थान पर रहकर कार्यकारी संस्था नहर सम्बन्धित निर्माण गतिविधियाँ जैसे नक्शे, आदि का संचालन कर कार्य को गति प्रदान करते थे। शीघ्र ही यह नगर अभियान्त्रिकी गतिविधियों का केंद्र बन गया।

नहर निर्माण में आने वाली तकनीकी समस्याओं के निराकरण हेतु एक अभियांत्रिकी सेल की स्थापना की गई। उसी समय सर थामसन ने सिविल अभियांत्रिकी के कॉलेज की इच्छा व्यक्त की एवं प्रस्ताव रखा।

प्रो. काटले बड़े बाँधों के पक्षधर थे


फौजी इंजीनियरों प्रो. वी. काटले गंगा पर बड़े बाँध बनाने के पक्ष पर थे। उन्होंने शुक्रताल (जिला मुजफ्फर नगर) में बड़ा बाँध बनाने को सर्वे भी किया था। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को सुझाव दिया कि यदि गंगा पर कुछ स्थानों में बड़े-बड़े बाँध बना दिये जायें तो भारत के अधिकांश भागों में जल संकट हमेशा के लिये समाप्त हो जायेगा।

प्राचीन इंजीनियरिंग का कमाल-चूना, सुर्खी एवं गुड़ से निर्मित गंगा कैनालप्राचीन इंजीनियरिंग का कमाल-चूना, सुर्खी एवं गुड़ से निर्मित गंगा कैनालप्रो. काटले ने अपनी एटलस में लिखा ब्रिटिश सरकार ने उनके सुझावों पर विचार तो किया परंतु कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने यह कहकर सरकार को संशय में डाल दिया कि यदि इतना बड़ा बाँध गंगा पर बना दिया गया तो इसमें भारत के खुशहाली के रास्ते खुल जाएँगे। ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा यह आशंका व्यक्त की गई कि इस बाँध की तर्ज पर बाद में भारत के नागरिक भी गंगा व अन्य नदियों पर बाँध बनाने की कोशिश करेंगे, जो भारत के लिये वरदान साबित हो सकते हैं।

प्रो. काटले को यदि वापस ब्रिटेन न बुलाया गया होता तो आज भारत की भूमि पर कुछ और नहरों और बाँधों का निर्माण होता।

इस कार्य में गंगा-यमुना क्षेत्र की सिंचाई में कर्नल काटले ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस पृष्ठ भूमि के बाद एक जनवरी 1848 को इंजीनियरिंग कॉलेज की आधारशिला रुड़की कॉलेज के रूप में रखी। इसमें सिविल इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम दो स्तर पर निर्धारित किये गये। इंजीनियर के लिये तथा नवनिर्माण के लिये ‘अवर सर्वेक्षणकर्ता’ की कक्षाओं में यूरोपियन सैन्य अधिकारी तथा एग्लोइन्डियन व भारतीय सैनिक के लिये प्रवेश निहित था।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कायल हो गये थे गंगनहर का अनुपम नजारा देखकर

जब सोलानी नदी रुड़की व आस-पास के क्षेत्रों में तबाही मचाती है, उस समय नदी के ऊपर बहने वाली गंगनहर का जल शान्त रहता है यह नजारा स्वयं में अद्भुत है। अंग्रेजों की इस स्थापना कला का उल्लेख सदियों पहले आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने पत्र में लिखा।

Fig-प्राचीन इंजीनियरिंग का कमाल-चूना, सुर्खी एवं गुड़ से निर्मित गंगा कैनाल9जानकारी के अनुसार 1871 में हरिद्वार में हिन्दी पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था। मात्र इक्कीस वर्ष की आयु में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। इस सम्मेलन में वह जनवरी में सहारनपुर से रुड़की पधारे व एक दिन रुड़की रहे। चूँकि हरिद्वार जाने के लिये गंगा नहर की पटरियों के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं था इसलिये ईंट व पत्थरों से निर्मित पटरियों से ही हरिद्वार पहुँचे। वह इस अद्भुत दृश्य को देखकर काफी देर तक खड़े रहे। उस समय पूरा देश अंग्रेजों का विरोधी था लेकिन वह अंग्रेजों के तकनीकी हुनर के कायल हो गये।

यहाँ से जाने के बाद उन्होंने अपने पत्र में लिखा-


नदी के ऊपर नहर बहने के इस दृश्य को देखकर एक पत्र लिखा सोलानी नदी पर बनी गंगा नहर को देखकर अंग्रेजों की तकनीकी चतुराई और उनके अथाह धन खर्च करने के सामर्थ्य का पता चलता है। यह पुल न जाने कितना मजबूत बनाया गया है कि इसके ऊपर से प्रतिदिन करोड़ों मण जल बहता है लेकिन पुल कहीं से जरा सा भी नहीं हिला गंगा से निकाली गई इस नहर में गंगा के जल को इस तरह से आगे बढ़ाया गया कि कहीं पर तेज व कहीं शान्त स्वभाव से बहता है। उनका आश्चर्य उस समय और बढ़ जाता जब आगे जाकर समान तल पर नहर व नदी बहती है व आगे चलकर नीचे नहर ऊपर नदी बहती है।

आधुनिक भगीरथ प्रो. वी. काटले


आज भगीरथ के नाम से कौन परिचित नहीं है। लेकिन कलयुग में भी एक आधुनिक भगीरथ ब्रिटेन की धरती पर पैदा हुए, जिन्होंने हरित क्रान्ति के माध्यम से भारत की जीवन धारा ही बदल दी।

कर्नल काटले 1802 में ब्रिटेन में पैदा हुए तथा सत्तर वर्ष की उम्र में 1871 में उनका निधन हो गया। कर्नल काटले ने गंगा नहर का निर्माण कार्य 1842 में प्रारम्भ किया। तथा 1953 में नवम्बर में 11 वर्षों बाद पूरी नहर बन गई। गंगा ने अंग्रेज अभियन्ता कैप्टन काटले की जीवन दिशा ही बदल दी। एक सैन्य अधिकारी से वह भगीरथ बन गये। निर्माण कार्य घोड़े पर चढ़कर करवाया। नहर का कार्य हरिद्वार से आरम्भ कर कानपुर तक किया। नहर पर दर्जनों पुल, घाट व बाँध बनाये गये। नहर बनते-बनते कैप्टन काटले का पद नाम बढ़ता चला गया जब नहर बनी तो कैप्टन काटले कर्नल काटले बन गये।

ब्रिटिश सरकार ने नहर खुलते ही उन्हें लन्दन वापस बुला लिया और सर की उपाधि से नवाजा। उधर भारत को गुलाम बनाने वाली ब्रिटिश हुकूमत को नहर बनाने के निर्णय पर लन्दन के आकाओं से करारी फटकार खानी पड़ी। वास्तव में ब्रिटिश हुकूमत जलमार्ग के रूप में नहर को विकसित करना चाहती थी जबकि कर्नल काटले ने इसे सिंचाई के लिये बना डाला। ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने काटले को सदन के बीच बुलाकर इस बात के लिये फटकार लगाई कि उन्होंने जलमार्ग के स्थान पर किसानों को समृद्ध करने वाली नहर बना डाली।

भारत को हरित क्रान्ति व जल रूपी खजाना देने वाले प्रो. वी. काटले इससे बहुत आहत हुए। बताते हैं कि बाद में वह मानसिक पीड़ा झेलते हुए मनोरोगी हो गये। 69 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। अंग्रेजों ने उनका नाम अपने इतिहास में काले पन्नों पर लिखा, यह दुर्भाग्य है।

सम्पर्क करें :
पंकज कुमार गर्ग, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की-247667, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)

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