प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और संरक्षण पर जन घोषणा पत्र

5 Feb 2017
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विभिन्न आध्यात्मिक संस्थाओं, आन्दोलनकारी समूहों, पंचायत प्रतिनिधियों, स्वयंसेवी संगठनों, बुद्धिजीवियों के साथ आयोजित वार्ताओं व जनसंवाद के दौरान यह दस्तावेज तैयार किया गया है। इस दस्तावेज को आगामी विधानसभा चुनाव-2017 से पहले सभी प्रमुख राजनैतिक दलों के अध्यक्षों को इस आशा के साथ सौंपा जा रहा है कि जनता के इस घोषणा पत्र पर सभी दल विचार करेंगे और अपने-अपने सम्बन्धित दलों के घोषणा पत्र में इसे स्थान देंगे-
सुरेश भाई-जन घोषणा पत्र के मुख्य सम्पादक और पर्यावरण मामलों के जानकार

उत्तराखण्ड राज्य में भी 15 फरवरी 2017 को विधानसभा चुनाव होने हैं। जहाँ सभी राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के नए तौर-तरीके अपना रहे हैं वही पिछले दिनों सीमान्त जनपद उत्तरकाशी में सर्वदलीय व विभिन्न मोर्चों से जुड़े कार्यकर्ताओं ने मिल बैठकर चुनाव को मद्देनजर रखते हुए एक ‘जन घोषणा पत्र’ तैयार कर डाला और विभिन्न राजनीतिक दलों को प्रेषित किया गया। इस पत्र में बताया गया कि समाज में बाल मजदूरी, महिला कष्टमुक्ति, प्राकृतिक संसाधनों से चलने वाली आजीविका यहाँ तक कि रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे गम्भीर विषयों पर मौलिक सोच का जनप्रतिनिधियों में बड़ा अभाव दिखाई देता है, या उसे नजरअन्दाज करके भूला दिया जाता है।

जन घोषणा पत्र में जहाँ विकास के सन्तुलन की बात कही गई है वहीं पर्यावरण के सवाल भी प्रमुखता से उठाए गए। यह पत्र बताता है कि राज्य बनने के बाद से इस राज्य की राजनीतिक पार्टियाँ यह भूल गईं की राज्य के प्राकृतिक संसाधन उपभोग की वस्तु नही हैं वरन प्राकृतिक संसाधन जीवन जीने के साधन हैं जिनका दोहन व संरक्षण एक रूप में करने की नितान्त आवश्यकता है।

इस पत्र में बताया गया कि उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति के पीछे लोगों की प्रबल इच्छा थी कि उनका पलायन रुकेगा, जल, जंगल, जमीन पर उन्हें अधिकार मिलेगा, पर्यटन से आम आदमी का रोजगार चलेगा। पहाड़ी राज्य की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए योजनाएँ चलाई जाएगी। ये सब बातें अब तक राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों के हिस्से ही नहीं बन पाएँ हैं।

घोषणा पत्रों के माध्यम से वे ऐसा आश्वासन दे रहे हैं, जिससे आम आदमी भूमिहीन, वनहीन, जलहीन, आवासहीन होने के साथ-साथ शिक्षा और स्वास्थ्य का निजीकरण करके उसे भूखमरी और बेरोजगारी की स्थिति में खड़ा कर रहे हैं। प्रहसन यह है कि पर्वतीय क्षेत्रों में छोटे किसानों की आपदा में जिस तरह से जमीन, आवास, जंगल, रास्ते, नदियाँ, पहाड़ बर्बाद होते जा रहे हैं, उसको बचाने के दलीय राजनीतिक प्रयास भी कम्पनियों के माध्यम से हो रहे हैं।

यह ताजा उदाहरण है कि टिहरी-उत्तरकाशी में सन 2010, 2011, 2012, 2013 में आई आपदा के पुनर्निर्माण का कोई भी रोडमैप प्रभावित समाज के साथ नहीं बनाया गया है। दलित, अल्पसंख्यक, विधवा महिलाएँ, बालमजदूरी से पीड़ित परिवारों को आपदा के दौरान मिली मुआवजा राशि से भी अलग-थलग रखा गया है।

उत्तराखण्ड में बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन की बार-बार घटनाएँ होने के बाद भी सड़कों का निर्माण, बाँधों का निर्माण, मलबों के ढेरों का निस्तारण जान बूझकर ऐसे स्थानों पर हो रहा है जो भूगर्भशास्त्रियों ने फाल्ट लाइन के रूप में चिन्हित किया है। इस हिमालय राज्य के पर्वतों की संरचना के अनुसार विकास के दावे खोखले नजर आ रहे हैं। कभी वे हिमालय प्राधिकरण और कभी हिमालय नीति में सुर मिलाकर हिमालय क्षेत्र के प्रति अपनी असंवेदनशीलता को दर्शाते रहते हैं।

ज्ञात हो कि ग्रामीण विकास के नाम पर पर्यावरण संरक्षण के राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र एक जैसे हैं। उन्होंने कभी भी पर्यावरण और विकास के बीच सृजनात्मक सम्बन्ध बनाने की बात नहीं की है। ‘जन घोषण पत्र’ में विभिन्न राजनीतिक संगठनों से अपील की गई कि वे पर्वतीय जनता की आवश्यकतानुसार जल, जंगल, जमीन के चीरस्थायी विकास के मानक इस पत्र के अनुसार तैयार करे और इसे अपने घोषणा पत्र का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाएँ। इस जन घोषणा पत्र में प्रमुख रूप से प्रत्येक ग्रामीण जीवन को स्वच्छ पानी निःशुल्क प्राप्त करने की बात कही गई है।

जल पर स्थानीय जनता का स्वामित्व रहे, उसे इसके संरक्षण, संवर्धन में स्थानीय परम्परा, संस्कृति व ज्ञान के आधार पर विकास की योजना बनाने की स्वायत्तता हो। किसी गाँव अथवा नगर के पास पानी का उपयोग बाहरी क्षेत्रों के लिये करने से पहले सम्बन्धित पंचायतों/निकायों की आपसी स्वीकृति अनिवार्य हो। पानी से सम्बन्धित विभाग गाँव, क्षेत्र व जिला पंचायतों की विकेन्द्रित व्यवस्था के साथ विलीन हो जाएँ।

जल संरक्षण के लिये यह आवश्यक होगा कि स्थानीय जल संस्कृति व ज्ञान के आधार पर संवर्धन हो, चाल-खाल, मेड़बन्दी, टैंक निर्माण, वर्षाजल संग्रहण, चौड़ी पत्ती के वृक्षों का रोपण आदि राज्य विकास में अनिवार्य माना जाये। और प्राकृतिक जलस्रोत संरक्षण में सीमेंट की दीवारों के निर्माण पर प्रतिबन्ध हो। ग्रामीण क्षेत्रों के लिये न्यूनतम 100 लीटर प्रति व्यक्ति/मवेशी और शहरी क्षेत्रों को 100 लीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन पेयजल और घरेलू उपयोग के पानी का अधिकार दिया जाये।

यह ‘जन घोषणा पत्र’ कहता है कि प्रत्येक गाँव में पंचायती वनों का गठन किया जाये, जिसका क्षेत्रफल गाँव की आबादी के अनुसार तय किया जाये। वन पंचायतों का गठन आरक्षित वनों से किया जाये। इसके लिये प्रथम श्रेणी के उन वनों को प्राथमिकता दी जाये जिन्हें 1964 में आरक्षित वनों में मिला दिया गया था। वन पंचायतें पूर्णतः स्वायत्त इकाइयाँ हो जिनमें वन विभाग की भूमिका मात्र तकनीकी सलाहकार की होगी।

इस तरह प्रत्येक गाँव का अपना वन हो। इसके अलावा आरक्षित एवं संरक्षित क्षेत्रों में जनता के परम्परागत अधिकारों की पुनर्बहाली की जाये, तथा नए संरक्षित क्षेत्रों का गठन केवल मानव हस्तक्षेप विहीन क्षेत्रों में ही किया जाये। जंगलों में लघु वन उपज को निकालने एवं विपणन का अधिकार ग्राम सभाओं के पास हो। संरक्षित क्षेत्र (वन) 10 वर्षों से अधिक नहीं होना चाहिए।

इस पत्र में यह भी अपील की गई कि अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकार की मान्यता) अधिनियम 2006 को राज्य में प्रभावी ढंग से लागू किया जाये व अन्य परम्परागत वन निवासी शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हुए समूचे पर्वतीय क्षेत्र को इसमें शामिल किया जाये। ताकि आपदा प्रभावितों को भी वनभूमि पर आवास बनाने एवं कृषि करने की स्वीकृति दी जा सके।

ग्रीन बोनस का इस्तेमाल करने के लिये राज्य स्तर पर एक रोडमैप तैयार होना चाहिए। इसके लिये ग्रीनिंग बढ़ाने वाले समाज व सामाजिक कार्यकर्ताओं को निर्णायक भूमिका में शामिल करना चाहिए। विशेषकर रसोई गैस को पर्वतीय गाँवों के प्रत्येक परिवार को 50 प्रतिशत की छूट पर मिलना ही चाहिए।

इसके अलावा पर्वतीय क्षेत्रों में जंगली सूअर, बंदर, लंगूर, भालू सहित समस्त जानवरों एवं पक्षियों द्वारा की जा रही क्षति को मुआवजे के दायरे में लाया जाय। सूअरों द्वारा किये जा रहे नुकसान पर दी जा रही मुआवजा राशि को बढ़ाया जाय। इन जानवरों से फसल सुरक्षा हेतु कृषि भूमि के चारों ओर तकनीकी पद्धति से घेराबंदी की जाय। यह पत्र माँग करता है कि राज्य में कृषि को रोजगार बनाने बाबत समान भू-नीति लागू की जाये। बेनाप भूमि को वन भूमि के दायरे से बाहर कर उसे ग्राम पंचायत को सौंपा जाय। उत्तराखण्ड में पैमाइश करवाई जाय। महिलाओं को किसान का दर्जा दिया मिले।

ग्राम पंचायत के समस्त भू-अभिलेखों को ग्राम पंचायत/नगर पंचायत के पास रखने का नियम बनाया जाये। सीलिंग एक्ट को प्रभावी ढंग से लागू किया जाय। सीलिंग से प्राप्त भूमि को भूमिहीनों में बाँटने के लिये भूमि बैंक का गठन किया जाये। प्रत्येक स्वतंत्र परिवार को न्यूनतम 63 नाली भूमि आवंटित की जाये। कृषि भूमि या बागवानी योग्य भूमि का गैर कृषि व्यावसायिक उपयोग हेतु पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित हो। भूमि बन्दोबस्त व स्वैच्छिक चकबन्दी का कार्य अविलम्ब शुरू किया जाये।

कृषि जोत का रकबा बढ़ाने के लिए वृक्षहीन भूमि का रकबा वन विभाग के कब्जे से मुक्त कर राजस्व विभाग के नाम पर दी जाय। थारू, बोक्सा व वन राजि, वन गूजर, वन टोंगिया जैसी जनजातियों का जो हिस्सा लगातार पुश्तैनी जमीन से वंचित हो रहा है उनकी भूमि तथा भूमि सुधार पर ध्यान दिया जाये। पंचायती राज संस्थाओं को अपनी सीमा में बेनाप भूमि के पट्टे व लीज देने का अधिकार हो। सिंचाई साधनों जैसे नहरों गूलों को केवल सिंचाई हेतु ही नहीं बल्कि घराट व सूक्ष्म जल विद्युत हेतु भी निर्मित किया जाये।

जन घोषणा पत्र में उठाए गए अन्य सवाल


उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद किसी भी राजनीतिक दल ने आम आदमी के साथ मिलकर ऐसा प्रयास नहीं किया है कि वे कैसा उत्तराखण्ड चाहते हैं। किस तरह से आम आदमी के जीवन एवं जीविका सुरक्षित रह सकती है। कैसे राज्य के नौकरशाह, नेता मिलकर आम आदमी के द्वार पर जाकर उनकी समस्याओं को सुने और समाधान करे। इस पर कोई राजनीतिक संस्कृति नहीं बनाई गई है।

यह जरूर है कि चुनाव जीतने के बाद कुछ बड़े नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री हो जाते हैं और छुटभैया नेता अपने ही दलों के कार्यालयों में जाकर लालबत्ती के लिये धरना प्रदर्शन करते हैं। सांसद और विधायक निधि भ्रष्टाचार की निधि है। इस निधि से जन प्रतिनिधि अपने चहेतों की प्यास बुझाते हैं बाकी आम आदमी के हिस्से का आम चूसकर चौराहे पर छोड़ देते हैं। इसके कारण शेष विभागों में भ्रष्टाचार की असीमित गुजांइशें देखी जा सकती हैं और यही खेल पाँच वर्ष तक होता रहता है।

बीपीएल सर्वे के लिये पर्वतीय क्षेत्रों की विषम परिस्थितियों के अनुकूल मानक तय करे जिससे कि वास्तविक लाभार्थी बीपीएल श्रेणी में आ सके। पंचायती राज एक्ट में गाँव सम्बन्धी सारी योजना एवं निर्णय ग्रामसभा स्तर पर लिए जाएँ। क्षेत्र एवं जिला स्तरीय निर्णय क्रमशः क्षेत्र पंचायत एवं जिला पंचायत स्तरों पर लिये जाएँ। इन योजनाओं के लिये धन उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की हो। पंचायतों में महिला बजटिंग का प्रावधान होना चाहिए। ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत, न्यायपंचायत, जिला पंचायत उम्मीदवारों व प्रतिनिधियों के लिये प्रशिक्षण की व्यवस्था दो माह तक होनी चाहिए। पटवारी, पंचायत मंत्री, पतरौल और पर्यटन गाँव की व्यवस्था में सौंपे जाने चाहिए।

इस जन घोषणा पत्र में जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व दोहन के लिये रोडमैप बताया गया उसी तरह शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे समाज कल्याण के कार्यों को निजी हाथों में सौंपने पर प्रतिबन्ध की बात कही गई। सभी को निःशुल्क एवं अनिवार्य रूप से समान एवं गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा सुनिश्चित कराना राज्य का दायित्व हो, तथा कुल बजट का कम-से-कम 30 प्रतिशत अनिवार्य रूप से शिक्षा पर खर्च किया जाना चाहिए, व बच्चे का तात्पर्य 0 से 18 वर्ष तक की उम्र से माना जाये।

प्रारम्भ से माध्यमिक तक की शिक्षा को सरकार तत्काल अनिवार्य रूप से अपने हाथों में लें। न्याय पंचायत स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाये, चिकित्सकों एवं स्वास्थ्य सुविधाओं की पर्याप्त व्यवस्था की जाये। इसके अलावा बाल अधिकार/बाल संरक्षण, महिला नीति, विधायक/सांसद निधि, चुनाव सुधार, रोजगार, नागरिकता के अधिकार, जल विद्युत परियोजनाएँ, निर्माण कार्य, उद्योग, पर्यटन, शिक्षा, स्वास्थ्य, वानिकी, आपदा प्रबन्धन, हिमालय नीति, गंगा की निर्मलता एवं अविरला, भ्रष्टाचार/जन लोकपाल जैसे संवेदनशील मुद्दों पर सभी राजनीतिक दलों को एक कार्ययोजना अपने घोषणा पत्र में स्पष्ट रूप से बतानी होगी जैसा कि इस जन घोषणा पत्र में बताया गया है। और सत्ता पाने के बाद इन पर अनिवार्य रूप से क्रियान्वयन करना होगा।

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