
बर्फीली चोटियों की जगह पिघलते ग्लेशियर, प्राकृतिक वनस्पतियों के स्थान पर, पहाड़ी क्षेत्र उजाड़ एवं वीरान घाटियों में तब्दील होते दिखाई दे रहे हैं। अब तो साल 2010 से इस राज्य में आपदा रुकने का नाम नहीं ले रही है। यहाँ कभी बाढ़, कभी भूकम्प, कभी भूस्खलन जैसी आपदा के कारण लोगों के दिलों में चौबीसों घंटे भय बना रहता है। आपदा के बाद जैसे ही लोग अपनी गुजर-बसर करने लगते हैं कि दूसरी आपदा आ जाती है।
उत्तराखण्ड राज्य को जनप्रतिनिधी, ऊर्जा प्रदेश बनाने की खूब वकालत करते हैं। उन्हें इस बात का कतई मलाल नहीं कि यदि ये परियोजनाएँ बन जाएँ तो लोग इस पहाड़ी राज्य में रह पाएँगे या नहीं? आजकल गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ क्षेत्र के लोग कह रहे हैं कि जून 2013 की आपदा को निमार्णाधीन जलविद्युत परियोजनाओं ने ही न्यौता दिया है। अब ऑलवेदर रोड भी डरावना रूप दिखा रही है। निर्माणाधीन ऑलवेदर रोड का मलबा सीधे नदियों में फेंका जा रहा है। जिसके कारण नदियों का रूख बदल ही नहीं रहा बल्कि बाढ़ और भूस्खलन के खतरे और अधिक बढ़ गए हैं।
गौरतलब है कि केदारनाथ से आ रही मन्दाकिनी नदी पर निर्माणाधीन फाटा-व्योेंग और सिंगोली-भटवाड़ी जलविद्युत परियोजना एवं श्रीनगर जलविद्युत परियोजना किसी बड़े बाँध से कम नहीं हैं? मन्दाकिनी और अलकनंदा नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में बसे हुए गाँवों के इतिहास के साथ ही भूगोल को भी इन जलविद्युत परियोजनाओं ने बदल दिया है। यही नहीं इन परियोजनाओं ने गरीब और छोटे किसानों के साथ भूमिहीनों को भी चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है।
सिंगोली-भटवाड़ी जलविद्युत परियोजना का निर्माण कर रही एलएनटी कम्पनी के सहायक प्रबन्धक एसके भारद्वाज बताते हैं कि इस निर्माण पर अब तक 666 करोड़ खर्च हो चुके हैं। वे कहते हैं कि सम्पूर्ण परियोजना को कुल 900 करोड़ का घाटा 2013 की आपदा के कारण हुआ है। बाढ़ के कारण 25,000 घनमीटर वाला मलबे का डम्पींगयार्ड भी मन्दाकिनी बहाकर ले गई जिससे चन्द्रापुरी गाँव का नामों-निशान ही मिट गया। उधर सिंगोली-भटवाड़ी परियोजना की टनल 8 किमी बन चुकी जो मलबे से पट चुकी है। आपदा से पूर्व सिंगोली-भटवाड़ी जलविद्युत परियोजना निर्माण में 800 लोग कार्यरत थे जो आपदा आने के बाद अब अपने आपदा प्रभावित गाँव में वापस चले गए हैं। इन जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण क्षेत्र में किये जा रहे ड्रिलिंग और ब्लास्ट के कारण पहाड़ कमजोर हो चुके हैं।
एलएनटी कम्पनी के सहायक प्रबन्धक एस के भारद्वाज ने बताया कि कम्पनी ने पहाड़ के कटान और पहाड़ में सुरंग निर्माण के लिये ड्रिलिंग और ब्लास्ट का प्रयोग किया है। कम्पनी के पास पाँच जम्बो ड्रिलिंग मशीनें हैं जिनकी कीमत लगभग 20 करोड़ है। वहीं स्थानीय लोगों का कहना है कि कम्पनी ने बाँध के निर्माण के लिये डायनामाइट का प्रयोग किया है।
रयाड़ी गाँव की सुशीला भण्डारी बताती हैं कि पहले सिंगोली-भटवाड़ी जलविद्युत परियोजना 66 मेगावाट की थी, जिसको सिंगोली और भटवाड़ी नामक स्थान के बीच में बनना था। पूर्व के प्लान के विपरीत यह अब कुण्ड से बेड़ूबगड़ के बीच बनाई जा रही है। अब इसकी क्षमता 66 मेगावाट से बढ़ाकर 99 मेगावाट कर दी गई है। परन्तु परियोजना का नाम अब भी सिंगोली-भटवाड़ी ही है।
सुशीला भंडारी का कहना है कि परियोजना स्थल में किये गए बदलाव के अनुसार इसके नाम में परिवर्तन किया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि इस परियोजना के लिये निर्मित आठ किलोमीटर लम्बी सुरंग के दायरे में 33 ग्रामसभाओं की लगभग 20 हजार जनसंख्या निवास करती है, जो पूरी तरह इसके प्रभावों की चपेट में है। लोगों के आवासीय भवन जर्जर हो चुके हैं लेकिन एलएनटी कम्पनी ने अब तक उनके पुनर्वास के लिये कोई नीति तक नहीं बनाई है। वहीं सरकार भी प्रभावित लोगों को विश्वास में लिये बिना ही कम्पनी को निर्माण से सम्बन्धित हर प्रकार की स्वीकृति दे रही है। इस परियोजना को नवम्बर 2015 तक ही पूरा किया जाना था लेकिन 2013 की विनाशकारी आपदा के कारण निर्माण कार्य पूरी तरह प्रभावित हो चुका है।
नरायणकोटी के मदन सिंह बताते हैं कि मद्महेश्वर घाटी में कुणजेठीगाँव, ब्यौंखी, कालीमठ गाँव सर्वाधिक खतरे की जद में है। उनके गाँव में भू-धसान और बाढ़ की समस्या तथा आवासीय भवनों में खतरनाक दरारों का दौर पिछले पाँच वर्षों में अधिक बढ़ा है। जब से जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण शुरू हुआ है तब से क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा की घटनाओं में तेजी से बढ़ोत्तरी होने लगी है। उन्होंने बताया कि सड़कों का चौड़ीकरण भी भारी ब्लास्टिंग से हो रहा है जिससे पहाड़ों की छाती छलनी हो रही है। पहाड़ों के नीचे लम्बी सुरंगों का निर्माण ही गाँवों के लिये सबसे बड़ा खतरा है। वे कहते हैं कि सुरंगों के निर्माण से निकलने वाले मलबे ने आपदा की सम्भावनाओं को और बढ़ा दिया है। ये डम्पिंगयार्ड नदी की प्राकृतिक धारा में अवरोध पैदा कर रहे हैं। कालीमठ पूरा धँस रहा है। यहाँ फाटा-व्योंग जलविद्युत परियोजना के निर्माण से प्रभावित क्षेत्र के कई गाँवों के लोगों में भारी दहशत है।
जब से जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण शुरू हुआ है तब से क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा की घटनाओं में तेजी से बढ़ोत्तरी होने लगी है। उन्होंने बताया कि सड़कों का चौड़ीकरण भी भारी ब्लास्टिंग से हो रहा है जिससे पहाड़ों की छाती छलनी हो रही है। पहाड़ों के नीचे लम्बी सुरंगों का निर्माण ही गाँवों के लिये सबसे बड़ा खतरा है। सुरंगों के निर्माण से निकलने वाले मलबे ने आपदा की सम्भावनाओं को और बढ़ा दिया है। ये डम्पिंगयार्ड नदी की प्राकृतिक धारा में अवरोध पैदा कर रहे हैं।
जयनारायण नौटियाल कहते हैं, “आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी। वर्तमान में जो प्रकृति के साथ अनियोजित तरीके से छेड़छाड़ की जा रही है उसके जिम्मेवार हम सभी हैं क्योंकि हिमालय क्षेत्र में इस आक्रामक विकास को स्वीकृति हमने ही दी है”। फाटा से सीतापुर तक सीमा सड़क संगठन द्वारा मोटर मार्ग का चौड़ीकरण किया जा रहा है। इस निर्माण के प्रयोग में लाई जा रही भारी ब्लास्टिंग से शेरसी गाँव काँप रहा है। क्षेत्र के पंचायत सदस्य विजय सिंह ने बताया कि केदारनाथ के निकट त्रियुगीनारायण के पास सीतापुर से व्योंग तक 9 किलोमीटर की सुरंग बनाई गई थी। इस सुरंग निर्माण से गाँव के भवनों में काफी दरारें आईं और इसके चलते भडियाता तोक पर बहुत बड़ा गड्ढा बन गया था। इसको ढँकने के लिये बाँध निर्माण कम्पनी ने रातों-रात सैकड़ों सीमेंट के कट्टे गड्ढे में भरे दिये।कुछ दिन बाद रुड़की से आई इंजीनियरों की टीम को कम्पनी के लोगों ने बताया कि वे यहाँ वृक्षारोपण कर रहे हैं। बताया जाता है कि लैंको कम्पनी ने कभी भी निर्माणाधीन फाटा-व्योंग जलविद्युत परियोजना के सम्बन्ध में प्रभावितों से कोई सलाह-मशविरा नहीं किया। लोग हैरान हैं कि इस कम्पनी को यहाँ निर्माण करने की संस्तुति किसने दी? जलविद्युत परियोजना की सुरंग में जब 16 जून की सुबह बाढ़ का मलबा फँसा तो मन्दाकिनी नदी तीन मिनट के लिये बड़ासू से सीतापुर तक झील में तब्दील हो गई थी। जिस कारण बड़ासू गाँव की जखोली, वैला, चाली नामे तोक में 400 नाली से अधिक कृषि भूमि तबाह हो गई।
ग्रामीणों ने बताया कि केवलानन्द थपलियाल का मकान जब लैंको कम्पनी के सुरंग निर्माण के दौरान दरारनुमा हो गया तो कम्पनी ने आनन-फानन में उनके लिये दूसरा मकान लगभग पाँच लाख रुपए की लागत से बनवा दिया। इसी तरह गाँव के शारदानन्द, जशोधर सहित 15 परिवारों को कम्पनी ने मुआवजा दिया था। ग्रामीणों के मुताबिक सुरंग बनने के बाद तरसाली गाँव का पेयजल स्रोत सूख गया है।
अब ग्रामीण पानी के लिये तरस रहे हैं। ऐसी तमाम समस्याओं को लेकर ग्रामीण तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश से दिल्ली में जाकर मिले थे। श्री रमेश ने ग्रामीणों को आश्वस्त किया था कि वे बाँध निर्माण क्षेत्र की जाँच करवाएँगे। जाँच हुई भी थी, लेकिन जाँच रिपोर्ट कहाँ गायब हुई किसी को पता नहीं है। यहाँ भी लैंको कम्पनी के पास सुरंग निर्माण के लिये मात्र सवा करोड़ रुपए का एक बूमर, एक जैकहोल, एक मेनहोल है। इसके प्रयोग के बाद भी सुरंगों के ऊपर के गाँव विस्फोट के कारण हिल गए हैं। गाँव और सुरंग का फासला 500 मीटर के बीच बताया जाता है। कम्पनी संचालकों का कहना है कि सुरंग के आस-पास हिस्से को उसके डायमीटर की तुलना में दोगुना कवर किया गया है जिससे इसके ऊपर के हिस्से को भविष्य में कोई नुकसान नहीं होगा। इसके बाद भी यहाँ मकानों में दरारें आ रही हैं।
केदारनाथ जाने वाले मार्ग पर स्थित खुनेरा गाँव की सामाजिक कार्यकर्ता अर्चना बहुगुणा ने कहा कि फाटा में नौ कम्पनियों के हेलीपैड हैं। यात्राकाल में एक दिन में 24 चक्कर एक कम्पनी का हेलीकॉप्टर केदारनाथ में आने-जाने के लिये उड़ान भरता है। अर्चना का यह मानना है कि जब लोगों की साँस से ग्लेशियर पिघलने को खतरा बना रहता है तो फाटा से केदारनाथ के लिये नौ कम्पनियों के हेलीकॉप्टरों की प्रतिदिन 216 उड़ाने ग्लेशियर पर कितना प्रभाव डालती होंगी? वे मानती हैं कि जब से केदारनाथ के लिये हवाई यात्रा आरम्भ हुई है तब से ग्लेशियरों के पिघलने की खबरें भी बड़ी तेजी से बढ़ी हैं।
नदी बचाओ अभियान के संयोजक सुरेश भाई कहते हैं कि लोगों का उजड़ना और सम्भलना इस राज्य की नीयति बनती जा रही है। इस विपरीत परिस्थिति में भी सरकार में बैठे हुक्मरान जनता के प्रति जबावदेह नहीं हैं। ऐसा कब होगा यह बड़ा सवाल है?