प्रदूषण का कहर बना बच्चों के लिए जहर

भारत अमेरिका की जगह दुनिया का सबसे अधिक पारे की खपत वाला देश बन गया है। दुनिया भर में खप रहे पारे का 50 फीसदी हिस्सा केवल भारत में इस्तेमाल होता है और हम इस खतरे के प्रति अभी भी सचेत नहीं हैं और आगे नहीं चेते तो बाद में इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।भारत के हर शहर में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की मात्रा में लगातार वृद्धि होती जा रही है। अब सवाल यह है कि आखिर नाइट्रोजन क्या है और मानव के लिए इतनी खतरनाक क्यों है? तो नाइट्रोजन डाइऑक्साइड एक ऐसी असरदायक गैस है, जिसमें नाइट्रोजन व ऑक्सीजन दोनों गैसें होती हैं। यह वाहनों, औद्योगिक और व्यापारिक स्रोतों में से निकलने वाले धुएँ से उत्पन्न होती है। वास्तव में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड किसी भी ईन्धन के जलने से हवा में फैलती है, जिससे यह हमारे शरीर के अन्दर प्रवेश कर जाती है फिर स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करती है।

हो सकता है अगली बार आपका बच्चा आपसे अपनी आँखों में जलन का शिकायत करे और अध्यापक उसके अध्ययन में कमी को महसूस करे तो इसे इतनी सहजता से मत लीजिएगा। हवा में मौजूद नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की बनी मोटी परत के कारण आपका बच्चा बीमार हो सकता है। बाल चिकित्सक और पर्यावरण विशेषज्ञ दोनों ही पिछले आठ सालों से हवा में उपस्थित नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के बढ़ते जा रहे कणों के कारण बहुत चिन्तित हैं, यद्यपि सीएनजी को एक ईन्धन के रूप में इस्तेमाल करने के बाद से प्रदूषण की समस्या पर काबू पाया गया है।

सेण्टर फॉर साइंस एण्ड एनवायरमेण्ट की संयुक्त अध्यक्ष का मानना है कि ‘दिल्ली में प्रदूषण की समस्या को स्थायी व कम करने के बहुत प्रयास किए जा रहे हैं। वर्ष 1997 में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की निरन्तर बढ़ती वृद्धि को रिकॉर्ड किया गया था। इसका सीधा असर आपके स्वास्थ्य पर पड़ता है।

विशेषज्ञों के अनुसार, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड से हमारे फेफड़े और श्वास सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती है। विशेषकर यह समस्या उन लोगों को ज्यादा प्रभावित करती है जिन्हें दमा होता है। बच्चों में यह श्वास सम्बन्धी समस्या एक स्थायी समय तक रह सकती है।

एक बाल चिकित्सक का कहना है कि विशेषकर सर्दियों में वातावरण में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के उच्च स्तर के कारण आँखों में जलन, त्वचा व श्वास सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। दरअसल बच्चा जब अपनी बढ़ने की अवस्था में होता हैं, तो इसका प्रभाव बच्चे पर बहुत बुरी तरह पड़ता है, इसके कारण बच्चा न्यूरोलॉजिकल क्षति, स्कूल की क्रियाओं में भी चिड़चिड़ापन और मानसिक सतर्कता का शिकार हो सकता है। साथ ही यह गैस गर्भवती महिलाओं के लिए भी बहुत हानिकारक है।

नाइट्रोजन डाइऑक्साइड किसी भी ईन्धन के जलने से हवा में फैलती है, जिससे यह हमारे शरीर के अन्दर प्रवेश कर जाती है फिर स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करती है।विशेषज्ञों का मानना है कि नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की यह क्रमिक वृद्धि भविष्य में बहुत खतरनाक साबित हो सकती है। प्रदूषण के रूप में हानिकारक होने के साथ-साथ नाइट्रोजन डाइऑक्साइड वातावरण में ओजोन और नाइट्रेट के कणों को बनाने के लिए प्रभावित होता है जो बहुत ही खतरनाक होता है। यह फोटोकेमिकल स्मोग (प्रकाश रासायनिक धुआँ) भी बनाता है जिससे दृष्टि सीमा को बहुत क्षति या हानि पहुँचती है। विशेषज्ञ शहरों में सार्वजनिक व निजी वाहनों की बढ़ती संख्या को इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण मानते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि ‘सीएनजी वाहनों में नाइट्रोजन नहीं होता। लेकिन यह इन वाहनों में प्रज्वलन का कारण होता है जो हवा में मौजूद ऑक्सीजन को नाइट्रोजन में बदल देता है।’

विशेषज्ञ कहते हैं कि, ‘यह केवल वाहनों में बढ़ती वृद्धि से ही नहीं बल्कि निजी वाहनों की बदलती रचना के कारण भी यह समस्या उत्पन्न होती है। इसके अतिरिक्त व्यापारिक वाहनों, यात्री कारों और एसयूवी वाहनों में डीजल का बढ़ता इस्तेमाल बहुत प्रवाह के साथ बढ़ रहा है जो वैध रूप से नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के बजाय पेट्रोल वाहनों के अन्तर्गत प्रचलित मानदण्ड की तुलना में तीन गुणा प्रसारित करने की अनुमति देता है। इसका मतलब है कि एक डीजल वाली कार में तीन पेट्रोल वाली कारों के बराबर नाइट्रोजन डाइऑक्साइड का स्तर होता है।

वातावरण में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की मात्रा को नियन्त्रित रखने के लिए घर, कार्यस्थल व हर जगह ऊर्जा के स्तर को बनाए रखना, कहीं जाने के लिए एक प्रदूषण रहित वाहन का इस्तेमाल करना, सार्वजनिक वाहनों को और अधिक संख्या में चलाना, कार व अन्य वाहनों के इंजनों को ठीक रखना तथा इसके साथ-साथ यह देखना कि वाहनों के टायरों में हवा पर्याप्त मात्रा में है या नहीं।

दुनिया भर में हो रहे शोध बताते हैं कि पारा गुर्दे और मस्तिष्क को जानलेवा स्तर तक प्रभावित करता है।नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के बाद प्रदूषण का एक बड़ा खतरा पारा है। आज जब कि पूरी दुनिया में पारे का इस्तेमाल घट रहा है, लेकिन भारत में न केवल इसका अन्धाधुन्ध इस्तेमाल हो रहा है बल्कि पिछले सात सालों में इसका आयात भी छह गुना बढ़ गया है। दुनिया भर में हो रहे शोध बताते हैं कि पारा गुर्दे और मस्तिष्क को जानलेवा स्तर तक प्रभावित करता है। इसके बावजूद हमारे यहाँ इसके उपयोग का न तो कोई मापदण्ड है और न ही इससे सम्बन्धित आँकड़े, जब कि हमारे पर्यावरण, खाद्य वस्तुओं खासकर मछली में 20 गुना अधिक पारे की मात्रा पाई जाती है। यह जानकारी विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र ने उपलब्ध कराई है। पारा मिले उत्पादों पर जहाँ दुनिया के कई देशों में प्रतिबन्ध लग चुका है या लगने वाला है वहीं भारत में पारा आयात कानूनी तौर पर वैध है।

पारे के प्रभाव से चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है। इसका बच्चों को लगने वाले टीके में भी इस्तेमाल होता है इसके अलावा पारा दाँतों में खाली जगह को भरने में भी इस्तेमाल होता है। यह दिमाग की ब्लड ब्रेन बैरियर और गर्भाशय की छननी को भी पार कर जाता है। यह दिमाग में 20 साल तक मौजूद रहता है। इससे बच्चों में आटिज्म (दिमागी समस्या), सांस की बीमारी, सीने में दर्द और गुर्दे की बीमारी हो जाती है। कई बार इसके प्रभाव से मरीज दिमागी सन्तुलन खो बैठता है और आत्महत्या भी कर बैठता है। इसका ट्यूबलाइट और दूसरे उद्योगों में भी इस्तेमाल होता है।

विशेषज्ञों के अनुसार, पारा बहुत विषैली धातु है जो स्नायु तन्त्र, फेफड़ों और गुर्दे के लिए घातक है। यह इतना चलायमान होता है कि मस्तिष्क की ओर जाने वाले खून के जहरीले तत्वों को छानने वाली मस्तिष्क की झिल्ली को पार कर जाता है और मस्तिष्क में पहुँचकर नुकसान पहुँचाता है। वास्तव में इसका इस्मेमाल सीमेण्ट, पालीमर, थर्मल पावर प्लाण्ट और कागज उद्योगों में होता है। चिकित्सा जगत में भी इसका उपयोग होता है जिसमें दन्त रोग विशेषज्ञ दाँतों के गड्ढे भरने में इसका इस्तेमाल करते हैं। हमारे देश में अभी तक इस बारे में कोई अधिकृत आँकड़ा नहीं है, जब कि अभी भी देश में पारे का संघटन खतरनाक स्तर तक पाया गया है। मजे की बात तो यह है कि अपने यहाँ 80 फीसदी पारा कहाँ और किस रूप में इस्तेमाल होता है इस बारे में कोई नियम-कानून और आँकड़ा नहीं है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading