प्रदूषण नियंत्रण के प्रति उदासीनता

1 Jan 2016
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भारत भर में प्रदूषण समाप्त करने को लेकर भयावह उदासीनता और लापरवाही व्याप्त है। न्यायालयीन निर्णयों एवं निर्देशों की अवहेलना सरकारी एवं गैरसरकारी दोनों तबके धड़ल्ले से कर रहे हैं। ऐसे में प्रदूषण की समाप्ति दूर की कौड़ी नजर आती है।

पिछले कुछ महीनों में देश में घटे घटनाक्रम यह दर्शाते हैं कि शायद हम प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण सुधार की कोई ऐसी प्रक्रिया चाहते हैं जिससे कि हमारी सुख सुविधा एवं परम्पराओं में कोई खलल न पड़े। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो न तो हम कोई ठोस प्रयास करते हैं एवं न ही किसी के सार्थक प्रयासों में मदद कर समर्थन देते हैं। सबसे दुखद बात यह है कि प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण सुधार के कल्याणकारी कार्य भी अब राजनैतिक तराजू पर तौले जाने लगे हैं।

कोई दल सुधार का श्रेय लेकर अपना वोट बैंक न बढ़ा लें इसलिए दूसरे दल उसका विरोध कर कई अड़गे डालने के प्रयास करते हैं। दिल्ली, बनारस एवं मध्य प्रदेश के घटनाक्रम इसकी पुष्टि करते हैं। दिल्ली के प्रदूषण की खराब स्थिति को थोड़ा सुधारने हेतु एनजीटी ने जब पन्द्रह वर्ष पुराने वाहनों को हटाने को कहा तो इसका विरोध किया गया एवं कई समस्याएँ बतायी गयी। यह निश्चित है कि उचित देखभाल के अभाव में पुराने वाहन काफी प्रदूषण फैलाते हैं। हाल ही में दिल्ली के बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रण करने हेतु सर्वोच्च न्यायालय ने एक नवम्बर 2015 से व्यावसायिक डीजल वाहनों से प्रवेश के समय प्रायोगिक तौर पर प्रदूषण कर (हरित शुल्क) वसूलने हेतु नगर निगमों को कहा। इसके पूर्व दिल्ली की सरकार ने भी दिल्ली में प्रवेश करने वाले व्यावसायिक वाहनों से प्रदूषण कर लेने की बात कही थी। बाद में एनजीटी (राष्ट्रीय हरित अधिकरण) ने भी इस प्रकार की पेशकश की थी।

दिल्ली के लगभग 120 स्थानों (प्रवेश केन्द्र) पर व्यावसायिक वाहनों से पथकर (टोल) वसूला जाता है। दिल्ली की तीनों निगमों की ओर से दक्षिणी निगम पथकर लेता है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रदूषण कर वसूलने के आदेश पर दक्षिण की स्थित निगम की उस कम्पनी ने मना किया जिसका टोल वसूली का अनुबंध था। कम्पनी का कहना था कि उसका अनुबंध केवल टोल वसूली का है अतः वह दूसरा कर नहीं वसूलेगी। कम्पनी ने अदालत में पुनर्विचार याचिका लगाकर प्रदूषण कर वसूली एक दिसम्बर से करने को कहा। परन्तु अदालत ने कहा कि प्रदूषण की व्यापक समस्या को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। इस सारे झमेले का मुख्य कारण था कि नगर निगम को प्रदूषण कर की जमा राशि दिल्ली सरकार को सौंपनी थी। नगर निगम एवं सरकार में अलग-अलग दलों का वर्चस्व है। भाजपा बहुमत वाली नगर निगम शायद यह नहीं चाहती होगी कि प्रदूषण कर की जमा राशि आप दल की दिल्ली सरकार को दी जाए। पथकर वसूलने वाली कम्पनी एवं दिल्ली नगर निगम प्रदूषण की गम्भीरता को अपनी सार्वजनिक एवं नैतिक जिम्मेदारी समझकर बगैर राजनैतिक भेदभाव के यदि जमा रकम सरकार को देते तो शायद उस रकम से दिल्ली सरकार द्वारा किया गया प्रदूषण नियंत्रण तो सभी के लिये लाभकारी था। क्योंकि पूरी दिल्ली का पर्यावरण तो एक ही है।

शीतकाल के प्रारम्भ होने पर दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रण करने हेतु दिल्ली उच्च न्यायालय व एनजीटी ने जब फटकार लगायी तो दिल्ली सरकार ने प्रायोगिक तौर पर एक जनवरी 2016 से सम व विषम नम्बर के वाहनों को अलग-अलग दिनों पर चलाने का निर्णय लिया। आपातकालीन व जन-यातायात वाहनों को इस व्यवस्था से छूट प्रदान की गयी। ऐसी व्यवस्था दुनिया के कई देशों के शहरों में सफलतापूर्वक चल रही है। दिल्ली में 80 लाख से ज्यादा वाहन हैं जिनमें निजी कारों की संख्या 30 लाख के आस-पास बतायी गयी है। सम-विषम की व्यवस्था से पर्यावरण सुधार के प्रति जागरूक लोग यदि 10-15 लाख कारें सड़क पर नहीं उतारते हैं तो न केवल प्रदूषण कम होगा अपितु जाम भी कम लगेंगे एवं लोग अपने कार्यालय या घर पर कम समय में पहुँचेंगे। नई व्यवस्था लागू करने से समस्याएँ तो आती है परन्तु उन समस्याओं के डर से नई व्यवस्था लागू ही न करना एक प्रकार का पलायन है। दिल्ली की नई व्यवस्था पर भी लोेग कई प्रकार की खामियाँ बताकर रोकना चाहते हैं। शायद यह वह लोेेेग हो सकते हैं जो अपनी सुख सुविधाओं को प्रदूषण से ज्यादा महत्त्व देकर एक दिन भी सार्वजनिक वाहनों या कार-पूल में जाकर किसी प्रकार की तकलीफ नहीं उठाना चाहते। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ठाकुर, उद्योगपति राहुल बजाज एवं पूर्व केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश ने भी इसे सही कदम बताया है। अन्य लोगों एवं संगठनों को भी इसे सफल बनाने के प्रयास करना चाहिये।

दिल्ली के बाद हम बनारस चलते हैं। वहाँ भी स्थानीय प्रशासन ने न्यायालयीन आदेश का पालन कर गंगा में प्रतिमाओं के विसर्जन को रोका तो कई साधु-सन्यासी भड़क गये। उन्होंने कहा कि प्रतिमाओं को गंगा में विसर्जन उनकी परम्परा एवं धर्म है जिसे कोई नहीं रोक सकता। न्यायालय के आदेश का पालन करवाने में साधु संतो को तो मदद करना था ताकि गंगा कुछ साफ हो सके? साधु संतों को इस प्रकार की मदद निश्चित रूप से गंगा के प्रति बड़ा उपकार होता। दिल्ली बनारस के बाद अब मध्यप्रदेश की चर्चा। म.प्र. में एवं विशेष कर इन्दौर तथा अन्य शहरों में बढ़ते प्रदूषण को देखकर एनजीटी ने परिवहन एवं खाद्य आपूर्ति विभागों को ऐसी व्यवस्था लागू करने को कहा कि बगैर पी.यू.सी. (पाल्यूशन अंडर कंट्रोल) प्रमाणपत्रों के वाहनों को पेट्रोल डीजल नहीं दिया जाए। दोनों विभाग जब व्यवस्था लागू करने में असमर्थ रहे तो एन.जी.टी. ने फिर कहा कि व्यवस्था लागू होने तक 25 करोड़ की राशि सुरक्षा निधि (सिक्युरटी) के बतौर जमा करे।

दोनों विभागों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर बताया कि उचित संसाधन न होने से व्यवस्था लागू करना सम्भव नहीं है एवं पी.यू.सी. के बगैर यदि पेट्रोल डीजल नहीं दिया तो कानून व्यवस्था की स्थिति भी बिगड़ सकती है। इस आधार पर न्यायालय ने सुरक्षा निधि जमा करने पर रोक लगा दी। सारा घटनाक्रम प्रदूषण नियन्त्रण के प्रयासों की ओर बरती जा रही उदासीनता को दर्शाता है। दोनों विभाग यदि प्रदूषण नियंत्रण के लिये जागरुक एवं जिम्मेदार होते तो पुलिस विभाग, प्रदूषण नियंत्रण मंडल एवं कुछ निजी संगठनों से सहयोग लेकर इसे लागू करते। अब राज्य सरकार यह व्यवस्था एक अप्रैल 2016 से लागू करना चाहती है जिसके लिये पी.यू.सी. केन्द्र खोलने के नियम शिथिल किये जा रहे हैं। समय पर पी.यू.सी. केन्द्र खोलने से प्रदूषण में थोड़ा तो सुधार होता। सारी घटनाएँ एवं उनसे जुड़ी चर्चाएँ एवं क्रियाएँ यह दर्शाती हैं कि प्रदूषण को हम धीरे धीरे अंगीकार करते जा रहे हैं। यदि इसी प्रकार चलता रहा तो हो सकता है कि भविष्य में हम प्रदूषण को कोई समस्या ही न माने।

डाॅ. ओ.पी. जोशी स्वतंत्र लेखक हैं तथा पर्यावरण के मुद्दों पर लिखते रहते हैं।

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