प्रेरक पांवधोई

आलोक कुमार की इसी प्रतिबद्धता ने पांवधोई कचरा मुक्ति को प्रशासन और पब्लिक के साझे की एक और मिसाल बना दी। निस्संदेह जननिगरानी के विचार और मीडिया ने इसमें बहुत अहम भूमिका निभाई। इससे प्रेरित होकर उत्तर प्रदेश शासन ने एक आदेश जारी कर इस नजीर के दोहराये जाने की अपेक्षा की। यह बात और है कि यह कहीं हुआ नहीं। अलबत्ता, आलोक कुमार ने ज़रूर अलीगढ़ के बाशिंदों के साथ मिलकर पक्षियों के लिए मशहूर शेखा झील की खूबसूरती वापस लौटाने की कोशिश की।

श्री पीके शर्मा से मेरी पहली मुलाकात 2006 के शुरू में गांव भनेड़ा खेमचंद में हुई। वह कचरा फेंक रही फ़ैक्टरियों पर कार्रवाई के लिए प्रशासन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को चिट्ठियाँ लिख-लिख कर परेशान किए हुए थे। कालीबेंई की प्रदूषण मुक्ति प्रयासों की कहानी उन्होंने सुनी थी। वह सहारनपुर शहर से गुजरने वाली पांवधोई की प्रदूषण मुक्ति के लिए छटपटा रहे थे- ‘पांवधोई से तो हमारा रोज गुजरना है। बड़ी कोफ्त होती है। 300 साल पुरानी धारा मर रही है। हम कैसी विरासत अपने बच्चों को देकर जा रहे हैं।’

फिर अक्टूबर, 2010 में उन्होंने एक आमंत्रण भेजा ‘आ जाओ! अब पांवधोई में कचरे की जगह सुंदर-सुंदर मछलियां हैं.. हाथ लगाओगे, तो खूब गुदाएंगी।’ उनके आनंद का ठिकाना नहीं था। पानी साफ था। कचरा निकल जाने से नदी का तल करीब पांच फुट गहरा हो गया था। किनारे पर इधर-उधर बिखरी ट्टी व कूड़े के ढेरों की जगह पौधे लगे थे। ग्रिल लगाकर बाड़ लगा दी गई थी। नदी की लहरों का आनंद लेने के लिए कुछ बेंचें थीं। हमारे पहुंचते ही निगरानी समिति के सदस्य वहां पहुंच गए थे। नदी के दोनों ओर पूरा शहर ही उमड़ा-सा पड़ा था। आखिर 30 साल बाद पांवधोई के किनारे कश्ती लीला फिर से शुरू हुई थी। राम-लक्ष्मण-सीता को गंतव्य तक पहुंचाना था। डी एम सपत्नीक पानी में उतर कर नौका खींच रहे थे। उनके पीछे रस्सी थाम लेने की होड़। इतिहास का यह पल कहीं चूक न जाए। अद्भुत दृश्य था। बड़ी मुश्किल से रास्ता बना।

उन्होंने बड़े गर्व से बताया : ‘भाईसाहब! 10 हजार ट्राली कचरा निकाला है हमने। वह भी सिर्फ चार महीने में.. बिना किसी प्रोजेक्ट के। ये ग्रिल वगैरह इंडस्ट्रीज़ ने खुद लगाई हैं। बस! जरा कहना पड़ा।’ पता लगा कि कोशिशें पहले भी चल रही थीं। 2005 में इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन ने एक लाख रुपये खर्च कर सफाई कराई थी। कुछ महीने बंद रहा; बाद में लोगों ने फिर कूड़ा डालना शुरू कर दिया। सहारनपुर डॉट कॉम के संपादक सुशांत कुमार सिंघल ने 2007 में इसके लिए एक अच्छी कार्ययोजना बनाई। 10 हजार लोगों से वचनपत्र भी भराये। तत्कालीन कमीश्नर आरपी शुक्ला ने नदी किनारे की मरम्मत व जाल वगैरह का काम भी शुरू कराया। किंतु अच्छी होने के बावजूद कार्ययोजना कुछ राजनेताओं के विरोधियों के विरोध में उलझकर ठंडे बस्ते में चली गई। बस्ते से बाहर तब निकली जब प्रशासन और पब्लिक आपस में मिल गए। वर्ष, 2010 में आलोक कुमार सहारनपुर के डीएम होकर आए।

उन्होंने इस जिम्मेदारी को समझा। 10 अधिकारी और 12 सामाजिक लोगों को मिलाकर 22 सदस्यीय एक केंद्रीय समन्वय समिति बनाई। व्यापक जनभागीदारी के लिए ‘पांवधोई बचाओ समिति’ गठित की। लोगों को नदी का इतिहास याद दिलाया। बाबा लालदास और हाजी शाह कमाल की दोस्ती याद दिलाई। रामलीला और कश्ती लीला याद दिलाई। एनसीसी और एनएसएस के कैडिटों को उनके कर्त्तव्य याद दिलाए। होर्डिंग्स लगाए। कोई कूड़ा न डाले; इसके लिए नदी के पूर्वी-पश्चिमी दोनों किनारों पर इलाकेवार 19 निगरानी समितियां बनाई। उन्हें अधिकार दिए। नगर मजिस्ट्रेट दिनेशचंद्र ने पॉलीथीन रोक के पुराने आदेश को लागू कराने के लिए सख़्ती चालू की। सब तैयारियाँ हो गई, तो निगम की ट्रैक्टर-ट्राली और जेसीबी मंगवाई। कर्मचारी और जनता को साथ लिया। रोज सुबह सात बजे डीएम साहब नदी पर। खुद भी नदी में और बाकी भी। बस! आलोक कुमार की इसी प्रतिबद्धता ने पांवधोई कचरा मुक्ति को प्रशासन और पब्लिक के साझे की एक और मिसाल बना दी। निस्संदेह जननिगरानी के विचार और मीडिया ने इसमें बहुत अहम भूमिका निभाई। इससे प्रेरित होकर उत्तर प्रदेश शासन ने एक आदेश जारी कर इस नजीर के दोहराये जाने की अपेक्षा की। यह बात और है कि यह कहीं हुआ नहीं। अलबत्ता, आलोक कुमार ने ज़रूर अलीगढ़ के बाशिंदों के साथ मिलकर पक्षियों के लिए मशहूर शेखा झील की खूबसूरती वापस लौटाने की कोशिश की।

नसीहत


अच्छे व संकल्पित लोग हर वर्ग में होते हैं। उनकी तलाश करते रहिए। अच्छे बीज बोते रहिए। अवसर आने पर वह फलेगा ही। जनभागीदारी और जननिगरानी किसी भी सरकारी योजना के सफलता की बुनियाद बन सकते हैं।

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