परिचर्चा : उत्तराखंड आपदा एवं भविष्य की चुनौतियां (भाग - 1)

गढ़वाल के बारे में तो पता भी है लेकिन टिहरी के बारे में कुछ पता नहीं इस बारे में किसी को कोई खास पता नहीं इस घटना के बारे में हमें वहां के लोगों ने बताया। जैसे सतपुली में भी हुआ उसके बारे में भी लिखा है वैसे ही अवाना में भी तालाब बन गए हैं उसके बारे में भी लोक गीत है। उसमें कहा गया कि कुल तीन गांवों में बारह लोग बचाए जा सके। आपने सुना होगा 1978 में भागीरथी में प्रलयकारी बाढ़ आई थी। उस समय सारे रास्ते बंद हो गए थे। 27 जुलाई 2013 को उत्तराखंड लोक मंच एवं हिमालयी सरोकारों से संबद्ध समन्वय समिति ने दिल्ली स्थित कॉन्स्टिट्यूशनल क्लब में “उत्तराखंड आपदा एवं भविष्य की चुनौतियां” विषय पर एक परिचर्चा एवं संवाद का आयोजन किया जिसमें जनरल मदन मोहन लखेड़ा, इंडियन इंस्टिटयूट आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन दिल्ली के प्रो. विनोद कुमार शर्मा, चंडी प्रसाद भट्ट, डाॅ. वी.सी. तिवारी ने इस आपदा की वास्तविकता, वहां हुए जान-माल के नुकसान के बारे में बताने के अलावा आपदा के कारणों एवं भविष्य के बचावों के बारे में बात की। इस आयोजन में उत्तराखंड सहित देश के बाकी हिस्सों से आए कई गणमान्य लोगों ने भाग लिया। जिसमें उमाकांत लखेड़ा ने संचालक की भूमिका निभाते हुए कार्यक्रम की शुरूआत की:

उमाकांत लखेड़ा: उत्तराखंड में आई भयंकर आपदा के बाद आज हम यहां उस आपदा, उसकी भयावहता और उसी से जुड़े अन्य विषयों के बारे में बात करेंगे। मैं अभी जनरल मदन मोहन लखेड़ा को मंच पर आमंत्रित करूंगा। जिस तरह उत्तराखंड में तबाही आई कुछ उसी तरह की तबाही का मंजर पाण्डिचेरी में भी देखने को मिला उस दौरान जनरल मदन मोहन लखेड़ा जी वहीं पर थे और उस दौरान उन्होंने बहुत सराहनीय भूमिका निभाई और गृह मंत्रालय ने उनकी तारीफ की क्योंकि उस दौरान राहत एवं बचाव का सभी कार्य उनकी अगुवाही एवं निर्देशन में हुआ वो इंडियन आर्मी में भी थे, मैं उनसे आग्रह करूंगा कि वो हम लोगों के बीच पधारें। उनके अलावा हमारेबीच में वाडिया इंस्ट्टियूट आॅफ हिमालयन, जियोलाॅजी देहरादून से डाॅ. वी.सी. तिवारी भी मौजूद हैं।

उनके संस्थान ने इस संबंध में महत्वपूर्ण काम किया है हमने उनसे आग्रह किया है कि जो काम वाडिया इंस्ट्टियूट आॅफ हिमालयन, जियोलाॅजी ने किए वो अपने-आप में एक मिसाल है। मैंने उनसे आग्रह किया था कि वो वैज्ञानिक हैं और उनके अपने अनुभव हैं तो हम चाहते हैं कि हम उनके अनुभवों का लाभ प्राप्त कर सकें, मैं उनसे आग्रह करूंगा कि वो स्थान ग्रहण करें। इंडियन इंस्टिटयूट आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, दिल्ली के प्रो. विनोद के. शर्मा को मैंने पिछले हफ्ते दिल्ली में एक परिचर्चा के दौरान सुना और मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। उनकी संस्था कई तरह के कामों, शोधों, परिचर्चाओं में लगी रहती है और उनके पास ज्ञान का बहुत सा भंडार है।

मैं डाॅ. विनोद के. शर्मा से आग्रह करूंगा कि वो अपना स्थान ग्रहण करें। हमारे बीच में कई गणमान्य और अपने-अपने क्षेत्रों में जाने-माने लोग, कई वैज्ञानिक, पुलिस अधिकारियों के अलावा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न पदों पर काम कर रहे, समाज में अपना योगदान दे रहे हैं, शिक्षाविद हैं तो मैं सभी का आभार ग्रहण करूंगा कि वो स्थान ग्रहण करें।

इस बार हिमालय में जिस तरह की आपदा आई है वो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और ये हमारी आंखें खोलने वाला है। इसीलिए हमने इस संगोष्ठी एवं परिचर्चा का आयोजन किया। इस संबंध में हमारे वैज्ञानिक, पर्यावरणविद आदि हमें लगातार चेतावनी दे रहे थे, समझा रहे थे। मुझे लगता है कि यहां दो धाराएं हैं एक विकास के नाम की धारा है जिसमें ये है कि हिमालय के संदर्भ में विकास का ढ़ांचा कैसे होना चाहिए, परन्तु ये बहुत दुर्भाग्य की बात है कि भारत सरकार आज तक इस पर कोई समर्थ नीति नहीं बना पाई। मैं हिमालय की बात कर रहा हूं, जिसमें जम्मू कश्मीर से हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वाेत्तर की बात कर रहा हूं। हिमालय में सभी स्थानों पर समस्याएं एक सी ही हैं। वहां जहां-तहां बेबसी, लाचारी, और मौलिक सुविधाओं का आभाव है और ऐसे हालात में अगर आपदा आ जाए तो लोगों की दुश्वारियां कई गुणा बढ़ जाती हैं। आज हिमालय चौराहे पर खड़ा प्रतीत होता है, यहां भयावह त्रासदी हुई, जानमाल का नुकसान हुआ, पूरे देश के कई तीर्थयात्रियों ने अपनी जान गंवाई। और अभी जो भी लोग वहां रह रहे हैं वो डर, भय और दहशत में जी रहे हैं। वहीं उत्तराखंड को पृथक राज्य बने हुए ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जबकि पहाड़ के लोगों ने पृथक उत्तराखंड राज्य के लिए एक बड़ी लड़ाई लड़ी, एक बड़ा आंदोलन किया जिसमें महिलाओं की बहुत बड़ी भूमिका थी।

उन्होंने केन्द्र सरकार और उत्तर प्रदेश की सरकार को कहा कि ‘वो हमें हमारे हाल पर छोड़ दें, हम अपना विकास खुद करेंगे, बस आप हमें पृथक राज्य दे दो‘ लेकिन आज की जमीनी हकीकत देखें तो लगता है कि लखनऊ से उत्तराखंड तक केवल राजधानी का नाम और पता बदला है और बाकी चीजें जैसे कि सड़ी-गली राजनैतिक संस्कृति जो उत्तर प्रदेश में थी वही आज देहरादून में पांव पसार चुकी है और वही आरोप-प्रत्यारोप का दौर है जो कि हम पिछले एक महीने से देख ही रहे हैं और उत्तराखंड में सरकार को लेकर अविश्वास का संकट बरकरार है। अभी मेरी कई लोगों से बातचीत हुई कि आपदा तो हुई, उसे रोका नहीं जा सकता था लेकिन उसके बाद स्थिति को जिस तरहसे संभालना चाहिए, जिस तरह की तैयारी होनी चाहिए थी वो हुई नहीं। यदि सरकार के पास चुस्त-दुरस्त मशीनरी होती तो ज्यादा जानें बच सकती थीं लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उत्तराखंड के संबंध में अक्सर कहा जाता है कि वहां पर तीन चीजों ‘जल, जंगल और जमीन‘ की लूट हुई। उत्तराखंड बनाने या उसके बनाने के लिए अपना योगदानदेने वालों ने सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें इस तरह की त्रासदी झेलनी पड़ेगी। ये कहना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन आज उत्तराखंड दो भागों में बंट गया है। उसका ऊपरी हिस्सा आपदाओं को झेल रहा है, वहां लोग विपदाओं में रह रहे हैं और एक दूसरा हिस्सा देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर का है जो कि पूरी तरह से सुरक्षित है।

वहीं मैदानी क्षेत्र में लगातार होने वाले पलायन से जनसंख्या विस्फोट की स्थिति आ रही है। मौजूदा जानकारी के अनुसार 13 वर्षों के दौरान 3 जिलों की आबादी 30 लाख बढ़ी है। पहाड़ से किसी न किसी रूप में कम से कम दस लाख लोग माइग्रेट कर गए हैं। ताजा त्रासदी के बाद तो लोग कहने लगे हैं कि “हम तो पहाड़ों में नहीं बसने वाले हैं,आखिर हम इन पहाड़ों में क्यों बसें”? अभी हुई त्रासदी और आपदा की स्थिति के बाद जब प्रभावित लोगों के पुनर्वास की बात की जा रही है तो लोगों का कहना है कि उन्हें देहरादून में जमीन चाहिए और उन्हें वहीं पर बासाया जाए।

अभी मैं ट्रेन से आ रहा था रास्ते में मेरी अपने दोस्त से बात हुई, मैंने उससे पूछा कि “पहाड़ में आई आपदा से आपको तो कोई नुकसान नहीं हुआ” तो उन्होंने जवाब दिया कि “नहीं! हम तो मैदानों में रहते हैं और वहां कुछ नहीं हुआ जो कुछ भी हुआ है वो पहाड़ों में हुआ है।” उनकी बात से मैं हैरान हो गया और तभी मुझे पिछले 10-15 दिन पहले दैनिक भास्कर के लिए लिखा अपने एक लेख के बारे में याद आया जिसमें मैंने कहा था कि “यदि पहाड़ डूबेंगे तो मैदान भी नहीं बचेंगे”, अगर पहाड़ में तबाही होगी तो मैदान पर भी तबाही आएगी। यदि पहाड़ों पर बनाए जा रहे बांध टूटेंगे तो उसकी त्रासदी किसी न किसी रूप में वापिस आएगी और मैदानों को भी लील लेगी।

आज के दौर में हमारी जो परिस्थितियां हो गई हैं उसमें यदि लोगों के पास कोई सुविधा होती तो ये आरोप लगाया जा सकता था कि मौजूदा आपदा में विदेशी ग्रुप का हाथ है। लेकिन इस आपदा में किसी विदेशी षडयंत्र की बात नहीं हो रही है। आज पहाड़ की स्थिति रामायण काल के समान हो गई है; जब रावण खुद लोगों के बीच जाकर रामायण की कथा सुनाया करता था। वो गांव-गांव जाकर लोगों को रामायण के बारे में बताता रहा था। इसी तरह से आज उत्तराखंड के विषय में सोचने वाली व्यवस्था में खुद ही विकार के तत्व मौजूद हैं, वो बार-बार वहां हुए नुकसान के बारे में बात कर रहे हैं जबकि वो खुद इस नुकसान के लिए जिम्मेदार हैं।

जिस तरह से रामायण का जन्म रावण के कारण ही हुआ था यदि उस समय रावण गलत रास्ते पर न जाता तो रामायण लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ती तो आज ये हालात हो गए हैं कि जो लोग उस व्यवस्था में थे वो लोग हमें प्रवचन दे रहे हैं, उस व्यवस्था को बिगाड़ने में, तबाही पैदा करने में, जंगलों को काटने में, विकास के नाम पर लोगों को प्रलोभन देने जैसे कि यदि कोई बांध आदि बनाया जाता था तो आस-पास के लोगों को कहा जाता है कि आपको रोजगार मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। यदि रोजगार मिलता भी है तो वो ठेकेदार को मिलता है और जिस दिन उसका काम खत्म हो जाता है वो अपना सामान उठाकर वापिस चला जाता है। तो वहां आई आपदा के लिए वही लोग जिम्मेदार हैं जो आज वहां की आपदा का व्याख्यान करते दिखते हैं।

भारत सरकार यहां, दिल्ली में है और भारत सरकार के प्रधानमंत्री गंगा बेसिन अथॉरिटी के चेयरमैन हैं, गंगा बेसिन अथॉरिटी की बैठक साल में एक-दो बार से अधिक बार कभी नहीं होती। तो देश के ये हालात हैं कि हम गंगा-गंगा चिल्ला रहे हैं लेकिन गंगा बेसिन अथॉरिटी के ये हालात हैं। पहाड़ों में नव निर्माण का एक नया दौर चल पड़ा है। भारत सरकार द्वारा कल रात आपदा ग्रस्त क्षेत्रों के बारे में ऐलान हुआ जिसमें उत्तराखंड के 13 जिलों को आपदा प्रभावित जिले घोषित किया गया। लेकिन अब इसके दुष्परिणाम निकलने वाले हैं वो ये कि आपदा का बजट, आपदा के पैसे को 13 जिलों में बांटना होगा, जहां आपदा नहीं भी आएगी वहां भी आपको आपदा का पैसा खर्च करना है। जबकि होना ये चाहिए कि जहां आपदा आई है जैसे कि केदारनाथ या उसके आस-पास के जिलों आदि को आपको चिन्हित करके उन इलाकों का पुर्ननिर्माण करना चाहिए।

मेरे अनुमान से वहां पहाड़ों में करीब 150 पुल बह गए हैं और लगता होगा कि अभी जिस तरह से पलायन का रूख है जिस तरह से पहाड़ों से भागने का रुख है उसको देखते हुए ये सोचना होगा कि यदि पहाड़ों में लोग ही नहीं रहेंगे तो भला आप ये पुल किसके लिए बनाएंगे। इसमें न केवल पुल बनेंगे बल्कि घर भी बनाए जाएंगे और मुझे नहीं लगता कि सरकार इतनी सतर्क है कि वो आम लोगों को अपनी योजनाओं में शामिल करेगी क्योंकि अभी चुनाव आने वाले हैं और मुझे लगता है कि जिन जिलों में आपदा नहीं है जैसे कि देहरादून में, उसी तरह हरिद्वार में हर साल सड़क के किनारे पानी बह ही जाता है तो वहां भी आपदा की स्थिति नहीं है, उद्यम सिंह नगर में कौन सी आपदा आ गई?

इस प्रकार 13 जिलों में ये जो ट्रेंड है कि सभी 13 जिलों में आपदा के लिए आए पैसे का विभाजन होगा जो कि ठीक नहीं है इससे पहाड़ का नुकसान होगा। इससे ये होगा कि सरकारों में विश्वास का संकट बढ़ेगा। वो सवाल उठाएंगे और हम लोगों को, जो भी सरकार या जो भी सिस्टम रहेगा उसे अपनी बात समझानी पड़ेगी; अपनी बातों के जरिए, अपनी लेखनी के जरिए अपने सवालों के जरिए।

हमने इस बैठक, संगोष्ठी, चर्चा और इस संवाद का आयोजन भी इसीलिए किया है कि हम एक-दूसरे के अनुभव से कुछ सीखें-समझें और आगे के रास्ते के बारे में कुछ चिंतन करके यहां से जाएं। उसके बाद ऐसा नहीं है कि ये परिचर्चा यहीं खत्म हो जाएगी बल्कि हम इस परिचर्चा को आगे बढ़ाएंगे। यहां जो भी मुद्दे उभरेंगे, उन्हें लेकरहम विशेषज्ञों के पास जाएंगे, सरकार की प्लानिंग तैयार करने वालों के पास जाएंगे और उन्हें यहां पर निकलकर आई सभी बातों की जानकारी देंगे और उन बातों को अमल में लाने के लिए उनपर दबाव डालेंगे। हम उनको जमीनी सच्चाई के बारे में, जमीन पर काम करने वाले लोगों की राय को सुनने को कहेंगे और कहेंगे कि आप पहाड़ के लिए जो भी योजना बना रहे हैं उस संबंध में पहाड़ के लोगों की राय जरूर सुनिए। मैं हमारे माननीय अतिथिगणों से भी निवेदन करूंगा कि वो किसी मुद्दे पर अपनी बात जोरदार ढंग से कहें। उसके अलावा मैं संगोष्ठी में आए सभी लोगों का हार्दिक आभारी हूं और असल के आयोजन में अपने विचारों को रखने वालों से भी निवेदन करूंगा कि वो अपनी बात को हमारे सामने रखें कि इस आपदा में सेना का किस तरह का रोल होना चाहिए, शीघ्रता से काम किस तरह से हो आदि।

हमारे बीच में जनरल मदन मोहन लखेड़ा जी मौजूद हैं, वो आर्मी के कमांडर रहे हैं, उन्होंने सेना के लिए बहुत से युद्धों में भी भाग लिया है और इस तरह की आपदाओं में कई राहत कार्य (रिश्क्यू आॅपरेशन) किए हैं। इसके अलावा वो पंजाब आंदोलन से लेकर तमाम तरह की सामाजिक चुनौतियां से भी निपटे हैं। मैं उनसे निवेदन करूंगा कि वो अपने अनुभव सुनाएं और उत्तराखंड में आई आपदा, उसकी स्थितियों आदि के बारे में हमें समझाएं। धन्यवाद।

जनरल मदन मोहन लखेड़ा - इस सेमिनार के माध्यम से मैं जिन चंद मुद्दों पर बात करना चाहता हूं वो उभरकर आते हैं। वो ये कि हमने इस आपदा से क्या कुछ सीखा है? हिन्दुस्तान में ये पहली आपदा नहीं है, यहां आपदाएं आती रहती हैं, हर आपदा के बाद रिपोर्ट बनती है और सरकार को भेजी जाती है। हमने भी 200-200 पेज की रिर्पोट बनाकर भेजी है। कि हममें क्या कमियां थी और हम खुद को कैसे सुधार सकते हैं और भविष्य की नीतियां क्या होनी चाहिए आदि। लेकिन मैं जब किसी को पूछता हूं तो मुझे जवाब दिया जाता है कि पानी के बारे में तो सोचा नहीं था जबकि आधारभूत मुद्दे तो वही रहते हैं आप उन मुद्दों को जमीनी माहौल में ढ़ाल सकते हो। क्योंकि हमारी धरोहर, हमारे अनुभव तो वही हैं।

हम जिस पुराने रूप पर चल रहे थे आज भी उसी पर चल रहे हैं। यदि हम अपनी पिछली गलतियां मानें तभी हम सबक सीख सकते हैं। लेकिन हम पुरानी गलतियां मानने को तैयार नहीं हैं यदि हमने मन में ठान लिया है कि हमने हर चीज सही की है तो हम कुछ नया नहीं सीख सकते हैं और न ही उसका कुछ फायदा ही होगा जिसका परिणाम हमारे देश ने भोगा है। हम हर बार वही गलतियां करते हैं जो हम पहले करते थे। मुझे लगता है कि अभी भी हमारे समाज में बहुत सारी कुरितियां हैं तो क्या हम अपनी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए यहीं छोड़ जाएं? अगर ऐसा होगा तो क्या वो हमें दोष नहीं देंगे? दूसरा आपने विकास की बात की थी। लेकिन मुझे लगता है कि ये फिजूल की बहस है। मैं ये सवाल पूछना चाहता हूं कि आप विकास किसके लिए करते हैं; वहां रहने वाली जनता के लिए या किसी अन्य के लिए?

ये दलीलें क्यों दी जा रही हैं? ये दलीलें इसलिए दी जा रही हैं क्योंकि हमने अपने दिमाग से काम नहीं किया कि हमारे इलाके का विकास किस तरह का होना चाहिए। यदि हम हर आदमी को विकल्प नहीं देंगे तो हर आदमी आसान रास्ता तलाशेगा और प्रकृति को नुकसान पहुँचाएगा अभी आप सूनामी की बात कर रहे थे। सूनामी के दौरान मैं पाण्डेचेरी का राज्यपाल था और तीन महीने बाद मुझे अण्डमान का चार्ज भी मुझे दिया गया वहीं जब मैं मिजोरम में भी चला गया तो अण्डमान का चार्ज मेरे ही पास था। तब मुझे प्रधानमंत्री से बोलना पड़ा कि आप एवं दिल्ली यहां से बहुत दूर है और हम अपना नक्शा खुद बनाएंगे कि हमें क्या विकास करना हैं और हमारे विकास का माॅडल क्या होगा आदि?

तब हमने नक्शा बना दिया कि हमें कैसा विकास करना है और उसका माॅडल क्या हो? मैं आपको बताता हूं कि हमें उस पर्यावरण में किस तरह से विकास का प्लान बनाना होगा? इसलिए वहां पर हमारी जरूरत के अनुसार विकास होना चाहिए। हमें ये सोचना चाहिए कि हम मौजूदा साधनों को किस तरह से विकसित कर सकते हैं? केवल मात्र ये कह देने से कि टिहरी बांध बना था इसलिए बाढ़ नहीं आई गलत है, लेकिन टिहरी बांध और उसके ऊपर और बांध बनाने से ही तो बाढ़ आई हैं। तो ये केवल दलीलें हैं और हमें इन दलीलों को नहीं देखना है बल्कि हमें सच्चाई से देखना चाहिए कि गलतियां हुई हैं और गलतियां होती हैं। कम से कम ये सच्चाई हो कि हम इन गलतियों से सीखें कि हमें क्या करना चाहिए। तो इस चीज पर सोचना चाहिए कि हमें अल्पकालिक और दीर्घकालिक क्या करना चाहिए। हमारे यहां एक बड़ी विडंबना है और वे ये कि वहां का आदमी जिस एकमात्र विकल्प की बात कर रहा है वो है “वहां से बाहर निकलना”। क्योंकि उनके पास कोई नया साधन नहीं है, उनकी वहां देखभाल भी नहीं होती है।

हमारा पहाड़ी इलाका दोनों ही ओर से चीन की सीमा से लगता है और चीनी लोग कभी-कभी अपनी मर्जी से यहां आते-जाते हैं तो क्या हम अपने उन इलाकों को छोड़ दें? इसमें मूल बात ये है कि हम लोगों को विकल्प नहीं दे पा रहे हैं कि हम आपको इस रास्ते पर ले जाएंगे और इसके लिए हम आपकी ये मदद करेंगे। मैं ये भी कहूंगा कि हमने क्या विकास किया है। अभी उत्तराखंड में आई आपदा के संदर्भ में ये कहा जा रहा है कि उसके बारे में कोई चेतावनी या सूचना नहीं दी गई थी। तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि पाण्डिचेरी में किसी ने हमें नोटिस नहीं दिया कि सूनामी आ रही है। नौ बजे खबर आई कि समुद्र का पानी 10 शहरों में भर गया।

हमने अधिकारियों को कहा कि कंट्रोल रूम बैठाइए और सब लोगों को इस बारे में जानकारी दीजिए उन्हें लामबंद कीजिए, हमारे पास कहीं से कोई चेतावनी नहीं आई उसके बाद धीरे-धीरे रिपोर्ट आती गईं। वहां छह मेडिकल काॅलेज हैं हमने छह काॅलेजों को कहा कि आप छह घंटे में छह-छह मीटर पर लोगों को लामबंद (मोबीलाइज) कीजिए और तैयारी करके रखिए जैसे कि चिकित्सक के साथ दवाईयों का भी इंतेजाम रखिए। एक बजे तक हमने 36 कामगारों को काम पर रख लिया। रात में 10 बजे सरकारी चेतावनी आई और हमने दिन में एक बजे तक सब चीजों का इंतजाम कर लिया था। उस दिन स्कूल में छुट्टी थी लेकिन हमने सभी टीचरों को बोला कि वो अपने-अपने स्कूलों में जाएं फिर वहां से तय किया जाएगा कि किसकी ड्यूटी कहां लगेगी और कहां जाना है। उस दिन सभी लोगों को ड्यूटी पर लगाया गया।

वहां मिड डे मील के केन्द्रीयकृत केन्द्र हैं। काफी लोगों के लिए खाना बनाया गया और उन्हें दिया गया। तो इस तरह की बातें किसी को बताई नहीं जाती हैं और ऐसा भी नहीं था कि हमने इस तरह का कार्यक्रम पहले से बनाया हुआ था तो अधिकारियों को तो खुद ही पता होना चाहिए कि हमें क्या करना चाहिए और क्या किया जाना है लेकिन उत्तराखंड के विषय में ऐसा कुछ नहीं किया गया। उत्तराखंड के मामले में 14 तारीख को चेतावनी आई, वहीं 16 तारीख से बारिश शुरू हुई और हम अर्थात वहां के प्रशासन और जिम्मेदार कर्मचारी आदि सब सोते रहे। वहां प्रशासन से इतना भी नहीं हुआ कि वो लोगों को यात्रा में जाने से रोक ही दें क्योंकि वहां तो कुल जाने वाले लोगों का रिकार्ड भी मौजूद नहीं है।

आज तक इतना भी पता नहीं चल पाया है कि वहां कितने लोग गए थे, कोई तय आंकड़े नहीं हैं सब अनुमान हैं। कल मैं अखबार में पढ़ रहा था कि उस घटना के बाद भी अभी भी कुछ लोग उत्तरकाशी जाने के लिए आगे बढ़ गए तो इससे पता चलता है कि वहां पर किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं है। यदि हम एक महीने के अंदर भी सबक नहीं सीख पाए तो कब सीखेंगे। मैं अपने पाण्डिचेरी की बात कहूं तो हमने मंत्री से बात की और 12 बजे तक हम दो-तीन मंत्री इलाके में घूमकर आ गए। हम हमारे यहां से करीब डेढ़-सौ किलोमीटर दूर तक तमिलनाडु के इलाकों में भी घूमे; हमने तुरंत ही उसे एक जिला (डिस्ट्रिक्ट) घोषित कर दिया।

जबकि संघ शासित क्षेत्र में आपको अनुमति लेनी पड़ती है लेकिन उस समय आपातकालीन स्थिति थी इसलिए ऐसा करना पड़ा और एक मंत्री को क्षेत्र का प्रभारी बनाया गया। ये सब मैंने खुद नहीं किया इसमें मेरे अफसरों ने भी मेरा साथ दिया। हमने प्रभावित क्षेत्रों के दौरे के दौरान एक वीडियो लिया। दूसरे दिन गृह मंत्री आए लेकिन उनके पास समय की कमी थी इसलिए उन्होंने इलाके का दौरा नहीं किया लेकिन हमने अपनी बनाई वीडियो को दस मिनट में ही उनको दिखा दिया और उसे देखते ही गृह मंत्री ने हमें धन्यवाद दिया और कहा कि अब हमें पता चला कि सूनामी क्या होती है। हमारे अफसरों ने कहा कि आप पांच करोड़ मांगो तो आपको दो करोड़ दिए जाएंगे लेकिन मैंने पच्चीस करोड़ की मांग की। हमने अगले दिन अधिकारियों को क्लिपिंग दिखाते हुए बताया कि देखिए हमारे 500 गांवों में से 250 गांव प्रभावित हैं। उसके तुरंत बाद ही हमें पच्चीस करोड़ रूपये मिल गए क्योंकि हमारा विडियो देखकर उन्हें लगा कि जैसे ये प्रशासन का काम है।

उत्तराखंड में आई तबाही के दिन मैं देहरादून में था और जब मेरी वहां के प्रशासन से बात हुई तो उनका कहना था कि हमने तो 17 तारीख को उत्तराखंड में लोगों को एलर्ट कर दिया था और बताया था कि वो आगे न जाएं और सभी अधिकारियों को कह दिया था कि वो अपने-अपने इलाके में मदद करें। हमने अतिरिक्त दल तय कर दिए थे जो वहां जाकर मदद करेंगे। 18 तारीख की सुबह को वो बरेली से देहरादून पहुंच गया राज्य सरकार ने 20 तारीख तक उसको घास तक नहीं डाली वो वहां घूमता रहा क्योंकि उसे पता ही नहीं चल रहा था कि आखिर क्या मामला है। तो आखिर ये किसका कसूर है। आप नहीं कर सकते तो आप दूसरों की बात ही सुन लो अगर आप करते तो आप उसका क्रेडिट ले सकते थे।

अब हम कह रहे हैं कि मौसम खराब है, तो आपदा में तो मौसम खराब होगा ही। तो ये फैसला लेने की बात है कि सही मौके पर कोई फैसला क्यों नहीं किया। उसमें असली बात जल्दी की होती है कि आप कितनी जल्दी लोगों के बारे में फैसला ले सकते हैं उसमें आप लोगों को सूचना देंगे, उनको स्थांतरित करेंगे तो यदि हमने पहले से चेतावनी दी होती तो हमारे गांवों के उतने लोग न मारे जाते जितने मारे गए। लेकिन हमारे यहां यही सब कुछ है प्रशासन तो है लेकिन कोई भी जवाबदेही लेने को तैयार नहीं है।

टिहरी, रुदप्रयाग, उत्तरकाशी और चमौली के जिलों में जनसंख्या कम हुई है तो पिछले दस साल में सीमांत कमी आई है जबकि वहीं देश की जनसंख्या में लगभग 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यदिआप चाहते हैं कि वहां के लोग सब बाहर आ जाएं और आप वहां बांध बनाते जाओ और उसका परिणाम भुगतते जाओ तो ये विकास का माॅडल हमें खास इलाकों को देखकर बनाना होगा कि वहां पर क्या ऐसी चीज है जिसे हम विकसित कर सकते हैं। इसी संबंध में, मैं आपको अपने यहां की बात बताता हूं कि हमारे वहां पर प्रधानमंत्री आए और भारत सरकार ने कहा कि एक मकान के निमार्ण में 40,000 रुपए लगेंगे और बस ये तय करते ही बैठक खत्म हो गई। हमने कहा कि प्रधानमंत्री जी हमें आपके 40,000 रुपए नहीं चाहिए। जब उन्होंने इसका कारण पूछा और मैंने बताया कि आप अर्थशास्त्री हैं और आप बात करते हैं कि आप हिन्दुस्तान को 21वीं शताब्दी में ले जाएंगे लेकिन क्या ये मछुवारे जिन्दगी भर झोपड़ी में ही रहेंगे क्योंकि पहले झोपड़ी में रहते थे इसलिए अब भी हम उनके लिए झोपड़ी बनवाएंगे और वो उसी झोपड़ी में रहेंगे।

अब जब आपदा में सब नष्ट हो गया तो अब हमारे पास मौका है कि हम इनके लिए नया गांव बसाएं। तो उन्होंने पूछा कि आप क्या करना चाहते हैं तो मैंने कहा कि हमने तो पहले से ही प्लान बनाया हुआ है हमने कहा कि हर परिवार को दो कमरे और किचन, स्नानघर आदि देना चाहते हैं। भूमिगत मल-प्रवाह पद्धति, सड़क में प्रकाश कीव्यवस्था, स्कूल और अगर बड़ा गांव है तो स्वास्थ्य केन्द्र, पंचायत घर, चक्रवात केन्द्र (साइकलोन सेंटर), बस स्टैंड आदि। तो हमने ये सब प्लान किया तो वो पूछे कि ये सब कितने में बनेगा आप सब प्लान करके पेपर भेजिए तो हमने पेपर भेजे उस पेपर के आधार पर भारत सरकार को वर्ल्ड बैंक से लोन लेना पड़ा। और हमें प्रत्येक मकान के लिए 1 लाख 40 हजार रुपए मिले। यहां तक कि उसके बाद मेरे पास फोन आया कि यदि आपको पैसे चाहिए तो हम और व्यवस्था करते हैं लेकिन हमने मना कर दिया क्योंकि तब तक हमारे आठ गांवों में एनजीओ, आदि की मदद से काम शुरू हो गया था। सुनामी दिसम्बर में आई और अप्रैल तक हमारे चार गांव का निर्माण कार्य शुरू भी हो गया था। तो प्रक्रिया सबके लिए वही है जैसे मूल में होता है जैसे सुधार होता है।

तो जब राहत की बात हुई तो हमने स्कूल के बच्चों को स्कूल के लिए दो सेट युनिर्फाम, जूता आदि चीजें दी गई थी। अर्थात इतनी गहराई से प्लानिंग की गई थी। वहीं उत्तराखंड में तो अभी तक ये भी पता नहीं चल पाया है कि कितने गांवों में कितने मरे हैं। वहां निचले स्तर के कर्मचारियों को एकीकृत क्यों नहीं किया गया। मैंने 20-21 तारीख को किसी से कहा कि आप सैंट्रलाइज्ड फोन क्यों नहीं लेते हैं। तो वो कहते हैं कि गांव में टावर ठीक हैं तो मैंने पूछा कि कहां के टावर ठीक हैं? देहरादून में या उससे आगे भी। जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि वहां के टावर ठीक हैं तो मैंने फिर से सवाल पूछा कि आखिर आपने कहां से देखा कि टावर ठीक हैं तो वो बोला कि साहब आप बहुत सवाल पूछते हैं। तो कहने का अर्थ ये है कि आप कोई सुझाव भी लेने को तैयार नहीं हो। आप उसमें भी अपना ही पक्ष ले रहे हैं।

अब मैं अपने इलाके की समस्याओं के बारे में बताता हूं जैसे कि अंडमान में क्योंकि वहां सब स्टेशन डायनम हैं, कम्यूनिकेशन नहीं है, या तो बाईक से जा सकते हो या हेलीकाप्टर से जाओ। तो हमने कहा कि जितने भी विकास कार्य होंगे, उसमें हर परिवार का अधिकार होगा और एक ग्रामीण विभाग होगा जो उनकी इच्छानुसार उन्हेंकाम देगा। दूसरा, हम अपनी जमीन का प्रयोग करेंगे और बागवानी में काम करेंगे और कृषि में काम करेंगे और उसके लिए जो पौधे होंगे वो वही होंगे जो स्थानीय स्तर पर उगाए जाएंगे। सरकार उनको बीज देगी वो अपने श्रम से उन बीजों से फसल उत्पन्न करेंगे और फिर सरकार उनकी फसल को खरीदेगी। तो इस सारी प्रक्रिया में आप किसी को मुफ्त में पैसा नहीं दे रहे थे और उसी इलाके में किसी ने पैसे से अपना रोजगार स्थापित कर लिया। हम वहां ये कहते हैं कि आप अपनी व्यवस्था ठीक कीजिए उसके बदले हम आपको इतने पैसे देंगे आदि। इस प्रकार आप उनसे काम भी करवा सकते हैं।

जहां तक विकास की बात है तो हमें एक माॅडल ढूंडना पड़ेगा ऐसा नहीं कि जैसे उत्तराखंड में पहले हुआ कि प्रदेश से बाहर बिजली की आपूर्ति से हमें 12 प्रतिशत बिजली मिलेगी और उससे हमारा 70 प्रतिशत इलाका डूब जाए लेकिन फिर भी हम बहुत खुश हैं कि हमारा विकास हो रहा है लेकिन लोगों के अनुसार और कुछ आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में तो इससे विकास नहीं हुआ और अन्यों के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता कि किसका हुआ है और किसका नहीं हुआ। टिहरी, रुदप्रयाग, उत्तरकाशी और चमौली के जिलों में जनसंख्या कम हुई है तो पिछले दस साल में सीमांत कमी आई है जबकि वहीं देश की जनसंख्या में लगभग 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यदिआप चाहते हैं कि वहां के लोग सब बाहर आ जाएं और आप वहां बांध बनाते जाओ और उसका परिणाम भुगतते जाओ तो ये विकास का माॅडल हमें खास इलाकों को देखकर बनाना होगा कि वहां पर क्या ऐसी चीज है जिसे हम विकसित कर सकते हैं।

हां, हमें लोगों को सुविधाएं देनी होंगी जैसे कि हमारे अंदमान में नारियल बहुत होता है तो सरकार वहां के लोगों से नारियल खरीदे और खुद बेचे या उनके प्रयोग के बाद बची हुई सब्जियों को सरकार खरीदे फिर चाहे सरकार उसे किसी को भी बेचे दे आदि कुछ किया जा सकता है तो उससे जिस तरह का पुनर्वास होगा वो सही होगा। लेकिन मैंइस विषय से संबंध रखने वालों से आग्रह करूंगा कि यदि हम अपने गांवों का आधुनिकीकरण करें तो हम उसमें जिस भी तरह की सुविधाएं दें उससे वहां के लोगों का भला होना चाहिए और सरकार से कहें कि यदि इस तरह की सुविधाएं अन्य क्षेत्रों में मिल सकती हैं तो उनके क्षेत्र को भी मिलनी चाहिए। इसलिए हमारे इलाके में ये कामइसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि हम इसकी मांग ही नहीं कर रहे हैं इसलिए हमें इसकी मांग करनी होगी।

हमें अपनी योजना में भी इस बात को देखना होगा कि यदि हमारे गांव में विद्यालय या डिस्पेंसरी बनें तो वो ठीक ढंग से बनाई जाए। दूसरी बात जो मुझे बहुत खतरानक लगती है कि अभी तक कुछ गांवों में लोगों को खाने-पीने की चीजें भी उपलब्ध नहीं हो पाई हैं और अगले तीन महीने में वहां सर्दी शुरू होने वाली है तो ऐसे में वो लोग कहां रहेंगे और उनके खाने-पीने के बारे में क्या होगा इस बात पर विचार किया जाना चाहिए। अंडमान और पाँडिचेरी में हमने इंटरमीडिएट स्टेट के बारे में इस तरह से किया था कि हमें पता था कि स्थिर घर बनते-बनते तीन-चार साल लग जाएंगे तो हमने कहा कि पहले छह महीने में आप बाकी चीजें भूल जाइए, अस्थाई घर बनाइए जिसमें वो रह सकते हैं खासतौर से अंडमान में। पाँडिचेरी में हमने ये विकल्प दे दिया था कि जो अपने रिश्तेदार के साथ रहना चाहता है, हम उसे इतना रुपया दे देंगे और वो अपने रिशतेदार के साथ रह ले क्योंकि उस दौरान सरकार का दायित्व नहीं रहेगा और तब हम भी आराम से स्थायी घरों का निर्माण कर सकेंगे।

उस योजना को ठीक तरह से सोचकर जल्द बनाया गया और उसमें स्थानीय लोगों को भी शामिल किया गया। जैसे कि पहले सुझाव आया कि बहुमंजिला इमारत बनाई जाए और कई लोगों ने कहा कि हम तो जिंदगी भर इस तरह के मकानों में रहे ही नहीं हम तो बहुमंजिला इमारतों में कभी रहे ही नहीं जिसके कारण उस योजना को बदल दिया गया। उसी तरह उत्तराखंड में भी किया जा सकता है लेकिन उसके लिए पहले हमें थोड़ा काम करना पड़ेगा। मुझे लगता है कि इस समय पैसे की कोई कमी नहीं है यदि आप कुछ करना चाहें और उसका सदुपयोग करें तो पैसा पर्याप्त है जैसे कि प्रधानमंत्री राहत कोष और उसके अलावा और कई संस्थाएं और एनजीओ काम कर रहे हैं जिनके कारण पैसे की कमी शायद न हो। वहीं हमने सुनामी के बाद उस इलाके में एक जोनल अधिकारी बना दिया और सभी सचिवों, को राज्य के राहत कार्यो के बारे में संपूर्ण ब्योरा दे दिया गया।

उसी के साथ ही जब पाँडिचेरी से बाहर से फंड आदि भी आए तो यही कहा गया कि वो पाँडिचेरी के माॅडल के आधार पर ही काम करें क्योंकि एक इकाई (सिंगल बाॅडी) के साथ काम करना आसान होता है। लेकिन वहां एक अजीब सी स्थिति आ गई जैसे कि मित्तल जोशी जी का मामला है कि वहां उनके द्वारा 500 घर बनाने की बात की गई थी लेकिन बाद में पता चला कि उनका तो भारत में कोई कार्यालय ही नहीं है तो वो विदेशी पैसे की बात कर रहे थे। हमने पाँडिचेरी इन्फ्रास्टरकचर डवलेपमेंट एशोसिएन बना दिया और केन्द्र को भी बता दिया कि वो पैसा ला रहा है और ये एक एनजीओ रजिस्टर कर रहे हैं ये केवल एक प्राधिकरण योजना (प्लांटिंग अथोरिटी) होगी जो उसका पैसा प्राप्त करेगी और यहां पर उसके आदमी को दे देगी इसमें हमारा और कोई श्रेय नहीं है। सब काम तो एनजीओ करेंगे लेकिन डिजायन हम देंगे बाकी तुम चाहे दो लाख में बनाओ या दस लाख में बनाओ उससे हमें कुछ मतलब नहीं।

तो जो मेरा अपना अनुभव है यदि इंसान कोई काम करना चाहे तो दुनिया में कोई हस्ती ऐसी नहीं है जो उसको वो काम न करने दे। यदि आपने अपना मन बना लिया कि मुझे ये काम करना है और उसमें लगातार काम करते हैं तो आपका वो काम हो जाएगा तो ऐसी कोई चीज नहीं है दुनिया में जो नहीं हो सकती हो।

उमाकांत लखेड़ा - मैं जनरल साहब का बहुत आभारी हूं कि उन्होंने हमें अपने अनुभवों से अवगत कराया और दूसरी बात ये कि सेना को किस तरह से संवाद करना है आदि।

हमारी आज की स्थितियों में सरकार का कोई दोष नहीं ये दोष तो हमारी पूरी व्यवस्था का है। जैसे कि सरकार ने कहा कि हमें मौसम विभाग की चेतावनी थी तो ये हमारी व्यवस्था का दोष है मेरा कहना है कि सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है तो इससे कि व्यवस्था कैसी है और व्यवस्था चलाने वाले लोग कैसे हैं? यदि हमारी व्यवस्था चलाने वाले लोग अच्छे हैं, वो जनता की सेवा के प्रति समर्पित हैं तो हमारी व्यवस्था की बहुत सी समस्याओं का हल खुद ही निकल जाएगा। हमारे आज के वक्ता हैं आदरणीय चंडी प्रसाद भट्ट। वो गोपेश्वर से आए हैं।

अभी वो दो-चार दिन पहले उखीमठ में थे और जहां-जहां आपदा होती है वो वहां-वहां दौड़ते हैं। उन्होंने पहाड़ों को वहां के वृक्षों को अपने बच्चों की तरह पाला है और जब पहाड़ में कोई आपदा होती है, कोई वेदना होती है चंडी प्रसाद जी कितनी वेदना और कष्ट झेलते हैं इसकी तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। अब वो अपनी बात रखेंगे, उसके बाद कुछ स्लाइडस के माध्यम से अपने अनुभव आपके सामने रखेंगे।

चंडी प्रसाद भट्ट - मैं आयोजकों का, उत्तराखंड लोक मंच और उसके कार्यकर्ताओं का हृदय से आभारी हूं और कृतज्ञता व्यक्त करता हूं कि आज मुझे आपके बीच आने का मौका मिला और अपने अनुभव के आधार पर बातचीत करने का मौका मिला। उमाकांत जी ने जब मुझे यहां आने का निमंत्रण दिया तो मैंने कहा कि वो प्रधानमंत्री से मिलने वालों में मेरा नाम भी एक कार्यकर्ता के रूप में लिखवा दें ताकि मैं एक कार्यकर्ता के रूप में उन्हें बता सकूं कि उत्तराखंड में राज्य और अन्य स्तरों पर क्या-क्या हो रहा है।

मैं पिछली बार गुप्तकाशी की ओर जा रहा था और फिर अगस्तमुनी की ओर गया; मैंने देखा कि परिस्थितिकीय स्थितियां लगातार पहले के जैसी नहीं रही। बग्याली से जो रास्ता है वहां पचास-साठ किलोमीटर की दूरी है उस दूरी को तय करने के लिए केवल एक रास्ता है। जगोली मयारी होते हुए गुप्तकाशी और उस रास्ते पर चलने केलिए देगौड़ा से 100 किलोमीटर पार करना होता है जबकि हमें 50 किलोमीटर पार करने में ही लगभग 5-6 घंटे लग गए, बीच में लैंडस्लाइड भी था और रास्ता भी ठीक नहीं था और आप समझ लीजिए कि पहाड़ की आबादी के लिए वो एक जीवन रेखा की तरह बनी हुई थी। तो गुप्तकाशी से रुद्रप्रयाग जाने वाला जो मुख्य मार्ग था वो तो पूरी तरह से बंद था साथ ही टेलीफोन इत्यादि सब खराब है। कई गांवों में पैदल यात्रियों के चलने के लिए पगडंडी तक ठीक से नहीं बनी थी।

आज हम यहां पर्यावरण के बारे में चर्चा करने के लिए एकत्र हुए हैं तो उस संबंध में कहा जाए तो हमारे देश के अधिकांश भाग आज पर्यावरण विकास के संत्रस्त हैं। एक ओर हमारी आबादी बढ़ रही है और दूसरी ओर हमारी आवश्यकताओं का भी विस्तार हो रहा है और प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से ह्रास हो रहा है। इससे भूस्खलन, भू-कटाव, नदी द्वारा धारा परिवर्तन और प्रतिवर्ष बाढ़ से लाखों लोगों की तबाही हो रही है वहीं विकास के कामों पर भी उसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है। एक तरफ हमारी आर्थिक, समाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है लेकिन मुख्य तबाही हिमालय में हो रही है और देखा जाए तो आज गहन पर्यावर्णीय विनाश का दूसरा नाम हिमालय बन गया है।

हिमालय पूर्व में अरूणाचल से लेकर पश्चिम तक फैला है लेकिन उसकी स्थिति कहीं भी अच्छी नहीं है। हिमालय के बारे में आज से ही नहीं बल्कि पहले से ही बहुत कुछ कहा गया है जैसे गीता में कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि ‘स्थावरणा नाम हिमालय‘ कि मैं इन अर्थों में हिमालय हूं। और मैं समझता हूं कि हिमालय केवल 2500 किलोमीटर लंबा और 300-400 किलोमीटर चौड़ा ही नहीं है बल्कि वो ऊंचा भी है तो लंबे-चौड़े और ऊंचे पहाड़ का नाम हिमालय है। जब हिमालय इतना विशाल और असीम गुणों से संपन्न था तभी तो भगवान कृष्ण ने अपनी तुलना हिमालय से की थी। कालिदास ने भी सदियों पहले जब हैलीकाप्टर, हवाई जहाज नहीं थे उस समय उन्होंने हिमालय के संबंध में श्लोक लिखा था।

आज हिमालय पर बहुत दबाव है, यहां बैठे कई लोग जैसे कि विशेषज्ञ, कई भूगर्भविशेषज्ञ भी हो सकते हैं वो कहते हैं कि हिमालय ऊपर उठ रहा है। युवा पहाड़ है और वो चीन और तिब्बत को पीछे धकेल रहा है और अत्यधिक संवेदनशील है। पिछले कई दशकों को देखें तो हिमालय में भूकंप आते रहते हैं। जैसे पूरे हिमालय जैसे कि हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू और कशमीर तक भूंकप आते रहते हैं। 1897 उत्तरी असम का भूकंप माना जाता है, 1950 का भूकंप अरूणाचल में आया और उसने वहां का भूगोल ही बदल दिया। डिबरूगढ़ टाउन तीन मीटर नीचे है और ब्रह्मपुत्र तीन मीटर ऊपर है। सदिया टाउन जो है वो एक जमाने में टाउन था, वहां हमारा एक घर था वो आज ध्वस्त हो गया। तो इस प्रकार 1950 में वो गड़बड़ी हुई उसके साथ ही जैसे कि कांगड़ा का भूकंप है और हमारे उत्तराखंड में 1991 में भूकंप आया। तो उस समय हमारे तीन जिलों में उत्तरकाशी, टिहरी और चमौली में 768 लोग मारे गए थे और वो भूकंप लगभग 6.6 रिक्टर पैमाने का।

हमने सोचा भी नहीं था कि जब उत्तरकाशी में 6.6 का भूकंप आया तो जब 1950 में नाॅर्थ ईस्ट में 8.6 का भूकंप आया तो वहां कितना नुकसान हुआ होगा। हमारे यहां तो 768 लोग मारे गए और वहां तो कितना बड़ा भूकंप आया तो वहां तो बहुत अधिक नुकसान हुआ होगा। इसलिए हमने उस इलाके की 15 दिन की यात्रा की उसमें यह समझने का प्रयास किया कि यदि उत्तराखंड में 6 प्वाइंट का आया तो 768 लोग मारे गए तो वहां पर अपार संपत्ति नष्ट हुई उनके जो मकान आदि थे वो नष्ट हुए। तो हमने वहां बड़े-बूढ़े लोगों को ढूंडा तो उस समय 1991 में वहां की यात्रा की तो वहां हमने एक 80 वर्ष के बूढ़े से पूछा कि आपके यहां क्या हुआ तो वो बोले हमारे यहां भीषण भूकंप आया, मकान टूटे लोग घायल हुए लेकिन उतने लोग मरे नहीं।

यहां केवल 600 लोग मरे। वहां भूकंप आया था 15 अगस्त 1950 को लेकिन 17 अगस्त को क्या हुआ उस समय वहां के मिट्टी के पहाड़ कमजोर थे। वहां की सियान नदी बहुत प्रचंड नदी है और हमारे यहां वो ब्रहमपुत्र कहलाती है तो इसमें क्या हुआ लैंड स्लाइड हुआ और ये नदियां गई। 17 दिसम्बर को अस्थाई बने बांध टूट गए। आधा पाटलीबात खत्म हो गया। कई मीटर ऊंचे पेड़ उनमें तो कुछ 100 मीटर के थे वो सब नष्ट हो गए। इस बारे में भले ही देश को जानकारी न हो पर हमें इसका ज्ञान है और हमने वास्तव में वो सब देखा है। लेकिन वहां लोगों को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ उसका कारण था कि जो वहां के परंपरागत मकान बने थे, परंपरागत ज्ञान के आधार पर सभी तरह का निमार्ण कार्य हुआ था। हमारे यहां बाढ़ों का इतिहास रहा है, एक ओर तो भूकंप है, दूसरी ओर बाढ़ है वो बहुत संवेदनशील है।

दूसरी ओर यदि हम उत्तराखंड में भूकंप और बाढ़ की इतिहास देखें तो यदि हम भागीरथी में जाएं तो संबद्ध 1700 में भागीरथी में एक बांध बना था और उसमें तीन गांव डूब गए। जब आप गंगोत्री में जाते हैं तो भागीरथी का पाट आप देखेंगे तो उसमें 14 किलोमीटर लंबी झील बन गई। उसमें 240 मकान और मंदिर डूब गए थे। गढ़वाल केबारे में तो पता भी है लेकिन टिहरी के बारे में कुछ पता नहीं इस बारे में किसी को कोई खास पता नहीं इस घटना के बारे में हमें वहां के लोगों ने बताया। जैसे सतपुली में भी हुआ उसके बारे में भी लिखा है वैसे ही अवाना में भी तालाब बन गए हैं उसके बारे में भी लोक गीत है। उसमें कहा गया कि कुल तीन गांवों में बारह लोग बचाए जा सके।आपने सुना होगा 1978 में भागीरथी में प्रलयकारी बाढ़ आई थी। उस समय सारे रास्ते बंद हो गए थे। हम लोगों को वहां से नरेन्द्र नगर तक पैदल आना पड़ा था।

जगह-जगह पर तालाब बन गए थे। रास्ते बंद हो गए थे। और उसके बाद भी भागीरथी में लगातार बाढ़ और भू-स्खलन की क्रियाएं होती रहीं। पहले तो 40-50 सालों में बाढ़ आया करती थी लेकिन अब तो जल्दी-जल्दी और कई बार साल-साल ही बाढ़ और भूसखलन की क्रियाएं हो रही हैं। पिछले साल 2012 में भी आपने सुना हुआ यमुना घाटी में कई गांव पूरी तरह से नष्ट हो गए थे। भागीरथी में भट्टादी वाला हिस्सा और भागीरथी के ऊपर की सड़क और वहां के पूरे गांव नष्ट हो गए। लेकिन 1967 में अलखनंदा में आई प्रलयकारी बाढ़ से पहले बदरीनाथ से हेमकुंड साहिब में सरकार की 25 बसें आई थीं, वो वहीं गांव में ही थी जो नष्ट हुई, वहां स्थानीय लोगों की कम से कम 500 एकड़ जमीन नष्ट हुई थी और कई पुल नष्ट हुए।

श्रीनगर की आईटीआई में इस बार की बाढ़ में करीब 11 मीटर का विस्तार हुआ लेकिन उस समय आईटीआई का एक मंजिला भवन नष्ट हो गया था वहां से बच्चे भाग गए थे। वहीं बनियाल कैनाल और हरिद्वार से पथरी तक के इलाके में 3 मीटर ऊंचाई तक सिल्ट जमा हो गई थी। अपर गंगा कैनाल की चौड़ाई कहीं पर 180 मीटर है तो कहीं 200 मीटर वो सिल्ट से भर गई थी। संसद और विधान सभा में उस बाढ़ के बारे में इसलिए हल्ला हुआ जब उन्हें लगा कि मेरठ और सहारनपुर की खेती सिंचाई से वंचित हो गई थी, 20 जुलाई को बाढ़ आ गई थी। आज पूरा देश इस विषय पर चिंतित है और सब लोग वहां मदद के लिए जा रहे हैं लेकिन उस समय कोई नहीं था केवल सर्वोदय से जुड़ी हुई जसोली ग्राम सभा मंडल नाम की एक छोटी सी संस्था थी और हम उनके साथ मिलकर अपनी पीठ पर 25-30 किलो राशन लेकर गांव-गांव गए। जहां-जहां पेड़ काटे गए वहां भूस्खलन हुआ, लैंड स्लाइड हुई और उसके कारण बाढ़ आई। उन सब की बातों को नोट करके राज्य मंत्री के.एनराव को दिया और कहा कि आप नायर की अध्यक्षता में एक कमेटी को स्थापित किया।

लेकिन उनकी रिपोर्ट के बारे में पता नहीं लेकिन जब उसी इलाके में दोबारा पेड़ काटे जाने की बात हुई तो वहां के लोगों ने कहा कि हमने अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर देखा है कि यहां पेड़ कटने के कारण लैंड स्लाइड होते हुए देखा है इसलिए हम पेड़ नहीं काटने देंगे। प्रसिद्ध चिपको आंदोलन मूलतः आपदा के बाद भी उत्पन्न हुआ।

जिसमें कहा गया कि हम अपने पेड़ नहीं कटने देंगें। उसके बाद लोगों ने पेड़ लगाने शुरू कर दिए आज भी जगह-जगह अलखनंदा घाटी में पेड़ लगाने और अपने लिए पानी का प्रबंध करने के कार्यक्रम कर रहे हैं लेकिन उसके बाद 1982 में जैसे बद्रीनाथ से 15 किलोमीटर नीचे अलखनंदा में विष्णुप्रयाग परियोजना बनाई जा रही थी और उसके रास्ते में जो बिहावती नदी, कुशतावती नदी है उसे ब्यूला गंगा कहते हैं उसे हनुमान चट्टी में मिलाया जा रहा था। हमने उसके कारण सवाल उठाया कि भयूला गंगा एवं जो भयूला का जो इलाका है वो स्वयं इनके प्राचीन काल में लिखा हुआ है कि भयूला घाटी अमेरिकी की एक घाटी से भी ज्यादा सुंदर घाटी है हमने कहा कि आप यहां टनल बनाएंगे इसका इस घाटी पर किस तरह से दुष्प्रभाव पड़ेगा और हमने एक नोट तैयार किया और तात्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा जी को चिट्ठी लिखी, बहुगुणा जी को भी एक प्रति दीन और एमएस स्वामीनाथन को एक नोट भी दिया। तो बहुगुणा जी ने मुझे चिट्ठी का जिस तरह से जवाब दिया मैं उसकी अंतिम लाइनें आपको सुनाता हूं। उन्होंने लिखा कि इस तरह से पहाड़ को काट-काटकर एक दिन हम कहीं के नहीं रहेंगे।

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