परिवर्तन के लिए यात्रा

2 Jun 2012
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हमारे वनवासी पहले ही बड़े बांधों के नाम पर उजाड़े जाते रहे हैं और अब बड़ी पूंजी के नाम पर उन्हें बेदखल किया जा रहा है। तिजोरियों वाला ‘इंडिया’ अलग देश है और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता और नक्सलवाद से जूझता ‘हिन्दुस्तान’ एक अलग देश है और दोनों ही के बीच एक गहरी खाई है। एक तरफ हम अपनी सुविधाओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर आराम के साधन जुटा रहे हैं तो दूसरी तरफ लाखों लोग अपनी भूमि और आजीविका के संसाधनों से वंचित हो रहे हैं।

भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या की 16 प्रतिशत है, जबकि भारत भूमि का रकबा विश्व रकबे का मात्र 2 प्रतिशत है और हम हैं कि बड़े उद्योगों, विशेष आर्थिक क्षेत्र (एस.ई.जेड.) और चौड़ी सड़कों इत्यादि के नाम पर अमीरों के फायदे के लिए भूमि बर्बाद करते जा रहे हैं। जो कारखाना 500 एकड़ में बनने वाला है, वहां पांच हजार से दस हजार एकड़ तक भूमि की मांग करते हैं और कमोवेश वे इसे ले भी सकते हैं। बड़े उद्योगपतियों के लिए जमीन लुटाने का अर्थ है, देशवासियों को भूखों मारना। हम सब मानव सभ्यता की बात करते रहते हैं। कहते हैं, इतिहास खुद को दुहराता है। शायद हम उसी की राह देख रहे हैं। समाज के बनने बिगड़ने के हम साक्षी बनते रहते हैं। ये ‘बनना बिगड़ना’ क्या है? यह समझ पाना ही कठिन होता जा रहा है। क्योंकि जिसे हम ‘बनना’ कहते हैं वह उनके दृष्टिकोण में ‘बनना’ ही हो ऐसा आवश्यक नहीं है। ‘बनना’ शब्द रचनात्मक पहल को दर्शाता है और ‘बिगड़ना’ विनाश को।

किसी बसी बसाई या बनी हुई सभ्यता को बिगाड़कर उसी स्थान पर किसी नई चीज का निर्माण करना इसे ‘बनना’ मानना चाहिए या ‘बिगड़ना’ यह तय कर पाना कठिन हो रहा है। सारी मान्यताएं, अवधारणाएं और पैमाने बदल गए हैं। ये बदलाव भी इतनी तेजी से हो रहे हैं कि मौलिकताओं को टिका पाना कठिन होता जा रहा है। जो मौलिक है वो उन्हें पुराना लगता है और पुराना अर्थात उसका नवीनीकरण होना ही चाहिए। नवीनीकरण कैसे होना चाहिए? तो कहते हैं ‘विकास’ हो। ‘विकास’ कैसे हो? जो उनकी दृष्टि से पुराना है, उसे हटाकर उसकी जगह नया खड़ा करना ही उनकी दृष्टि में ‘विकास’ है। इस ‘विकास’ का लाभ एक बहुत ही छोटे तबके को हुआ है और वह बड़ी तेजी से अमीर भी हुआ है।

सवा अरब के हिन्दुस्तान में यह समृद्धि ज्यादा से ज्यादा तीस करोड़ लोगों तक पहुंची बताई जा रही है, इसके बाद के तीस करोड़ लोग संघर्ष के बीच जीवन व्यतीत कर रहे हैं और आखिरी 60 करोड़ लोग अपने मनुष्य होने के अस्तित्व को तलाश रहे हैं। हमारे वनवासी पहले ही बड़े बांधों के नाम पर उजाड़े जाते रहे हैं और अब बड़ी पूंजी के नाम पर उन्हें बेदखल किया जा रहा है। तिजोरियों वाला ‘इंडिया’ अलग देश है और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता और नक्सलवाद से जूझता ‘हिन्दुस्तान’ एक अलग देश है और दोनों ही के बीच एक गहरी खाई है। ऐसे में गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ में जो कहा है वह ध्यान में आता है कि ‘मनुष्य की वृत्तियां चंचल हैं। उसका शरीर जैसे-जैसे ज्यादा दिया जाए वैसे-वैसे ज्यादा मांगता है। ज्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता।

भोग भोगने से भोग की इच्छा बढ़ती जाती है।’ वे यह भी कहते हैं कि ‘सभ्यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के माने हैं, नीति का पालन करना। नीति का पालन करना मतलब है अपने मन और इन्द्रियों को बस में रखना। ऐसा करते हुए हम स्वयं को पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उल्टा है, वो बिगाड़ करने वाला है’ और वहीं देखने में आता है। समझना यही है कि यह सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली और खुद नाशवान है।’ एक तरफ हम अपनी सुविधाओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर आराम के साधन जुटा रहे हैं तो दूसरी तरफ लाखों लोग अपनी भूमि और आजीविका के संसाधनों से वंचित हो रहे हैं। दुर्भाग्य से लगभग सभी राजनैतिक दल इस प्रकार के विकास के साथ हैं, जबकि हममें से ज्यादातर लोग जो न्याय और समानता पर आधारित विकास चाहते हैं, इस एकतरफा विकास प्रक्रिया से सहमत नहीं हैं।

हीराकुंड बांध से विस्थापित आदिवासीहीराकुंड बांध से विस्थापित आदिवासीऐसे वातावरण में एकता परिषद ने ‘जन सत्याग्रह 2012’ की घोषणा की है। 2 अक्टूबर 2011 को कन्याकुमारी से ‘जन सत्याग्रह संवाद यात्रा’ प्रारंभ की गई है। इस यात्रा के दौरान विभिन्न स्थानीय जमीनी संगठनों के साथ संवाद स्थापित किया जा रहा है और उन संघर्षों व संगठनों के साथ मिलकर 2 अक्टूबर 2012 से सामुहिक रूप से आंदोलन किया जाएगा। एक साल में यह यात्रा देश के 324 जिलों में लगभग 75000 कि.मी. की यात्रा तय करेगी और लगभग 500 स्थानीय संघर्षों को जोड़ने का प्रयास करेगी। मुझे भी इस यात्रा में शामिल होने का अवसर मिला। दो राज्यों छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में मैं अपने जैसी आम जनता के सवालों पर उनके साथ खड़ी हो सकी। बांध से विस्थापित लोगों का सवाल हो या कंपनी के द्वारा अधिग्रहित किसानों की जमीन का सवाल, इन सबसे ऊपर सवाल यह है, सरकार द्वारा बनाए गए जमीन से संबंधित कानूनों की सरकार द्वारा की गई अवहेलना का।

यात्रा में रहकर मुझे यह भी जानने को मिला कि हमारे वनवासी भाई के सवाल ही नहीं बल्कि मछुआरा (जैतापुर में सुनामी के कारण) देवदासियों का सवाल (महाराष्ट्र, कर्नाटक में) कारवार जिले में अफ्रीका से आए वनवासी लोगों की भूमि का सवाल, शहर में झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों के सवाल। ये सब सवाल आजादी मिलने के बाद से ही कायम हैं। लेकिन उनके जवाब अभी तक लोगों को नहीं मिले हैं। इन्हीं सब सवालों के जवाब को हासिल करने के लिए ‘जन सत्याग्रह संवाद यात्रा’ ने अपना नारा बुलंद किया है ‘डाल दो चाहे सलाखों में, अब की बार लाखों में।’ यह यात्रा देश की जनता को जगाते हुए। यह बताना चाह रही है कि ‘असली विकास स्थानीय संसाधनों - जल, जंगल, जमीन, तकनीक, श्रम और मानव प्रेरणा पर स्थानीय लोगों के नियंत्रण और अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से उनके असरदार इस्तेमाल पर निर्भर करता है, जिसमें महिलाओं का भी समान रूप से योगदान और हिस्सा हो।’

यह एक ऐतिहासिक अवसर है, जब हम देश में सामूहिक कदम उठा रहे हैं ताकि कार्यक्रमों और नीतियों को हमारे वंचित साथियों के हित में बनाया जा सके। देश की आम अवाम लंबे समय से एक उम्मीद के साथ उस दिन की प्रतीक्षा कर रही है जब उनकी भी आवाज सुनी जायेगी और वे भी देश में सम्मान के साथ जीवन जी सकेंगे।

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