प्रजातियों के संरक्षण से पर्यावरण और मानव जीवन की रक्षा सम्भव

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जब तक देश का हर नागरिक वन्य प्राणियों के अंग, उनकी खाल का उपयोग न करने का संकल्प नहीं लेगा, लोगों में जागृति पैदा करने का अभियान नहीं चलाया जायेगा और वन व वन्य प्राणियों की इस अद्भुत सम्पदा के संरक्षण के लिए ‘जियो और जीने दो’ के अर्थ को समझने व समझाने का प्रयास नहीं किया जायेगा, देश में तब तक कानूनों के जरिये वन्य प्राणी संरक्षण एक सपना ही रहेगा। आज समूची दुनिया में प्रजातियों के अस्तित्व के संकट को लेकर पर्यावरणविद, वनस्पति और जीव वैज्ञानिक खासे चिन्तित हैं। वैज्ञानिकों ने बीते दिनों एक नए शोध में दावा किया है कि करीब 6.5 करोड़ साल बाद दुनिया एक बार फिर महाप्रलय की ओर बढ़ रही है। जहाँ तक जीवों की प्रजातियों की विलुप्ति का सवाल है, जीवों की कई प्रजातियों के विलुप्त होने की रफ्तार में सामान्य से एक हजार गुणा बढ़ोत्तरी हुई है। उनके अनुसार डायनासोर के खात्मे के बाद दुनिया में पहली बार प्रजातियों के विलुप्त होने की रफ्तार इतनी तेज हुई है कि इसकी जद में स्वयं मानव भी आ सकता है। जर्नल साइंस एडवांस में प्रकाशित इस शोध अध्ययन दल जिसका नेतृत्व नेशनल ‘ऑटोनोमस यूनीवर्सिटी आॅफ मैक्सिको’ के ग्रेरार्डो कैबालोस ने किया है, की रिपोर्ट के अनुसार लोग मानते हैं कि कुछ प्रजातियों के विलुप्त होने से मानव अस्तित्व पर कोई खतरा नहीं आयेगा। यह दावा बेमानी है जबकि हकीकत यह है कि पूरी पारिस्थितिकी एक इमारत की तरह है। ऐसे में एक ईंट के कमजोर होने या गिरने से पूरी इमारत के धराशायी होने का खतरा रहता है।

शोधकर्ताओं की मानें तो पृथ्वी के 3.5 अरब वर्ष के इतिहास में अब तक पाँच बार ऐसे मौके आये हैं जब 50 से 96 फीसदी तक जीवों का विनाश हो गया। इसके लिए उल्कापिंड और बड़े ज्वालामुखी विस्फोटों की श्रृंखला जिम्मेदार थी। वर्ष 1900 से अब तक 477 रीढ़दार प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और 75 फीसदी ज्ञात प्रजातियाँ आने वाली दो पीढ़ियों के बीच विलुप्त हो सकती हैं। वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि हमारी धरती पर 87 लाख प्रजातियाँ रहती हैं लेकिन हैरत की बात है कि अभी तक उनमें से 90 प्रतिशत को नहीं खोजा जा सका है। इससे पहले धरती पर 30 लाख से एक करोड़ के बीच वनस्पति और जीव जन्तुओं की प्रजातियाँ होने का अनुमान लगाया गया था।

लेकिन अभी तक करीब 12 लाख प्रजातियों का पता लगा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि शेष का पता लगाया जा सकता है और अगली सदी तक उन्हें वर्गीकृत किए जाने की उम्मीद है। दस साल की परियोजना ‘सेन्स ऑफ मरीन लाइफ’ में 80 देशों के 2700 वैज्ञानिकों ने समुद्र में जीवन की विविधता का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है। जर्नल ‘पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ साइंस बायोलाॅजी’ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जिन प्रजातियों का पता लगा है वे स्तनधारी और पक्षियों जैसे मेरूदंडी हैं। जिन 75 लाख प्रजातियों का पता लगाया जाना है, वह समुद्र में और भू-भाग में हैं। अध्ययन के बारे में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के राबर्ट ने कहा ‘मेरा मानना है कि धरती पर जीवन की विविधता का आकलन पूरा होने में करीब एक सदी लग जाएगी।’

सच है कि जीवों के संरक्षण के बिना मानव के अस्तित्व को खतरा अवश्यंभावी है। जहाँ तक प्रजातियों की विलुप्ति का सवाल है, यह सत्य है कि जब प्रकृति में किसी के लिए खतरा पैदा हो जाता है तो दूसरे का अस्तित्व स्वतः खतरे में पड़ जाता है। प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए पेड़-पौधों का भी होना जरूरी है। घास चरने वाले पशु भी चाहिए और मांस-भक्षी शेर-चीता-बाघ आदि का भी होना जरूरी है। हिरण अपना जीवन निर्वाह पेड़-पौधों की पत्तियों पर करता है और शेर घास खाने वाले ऐसे जीवों पर निर्भर करता है। यदि धरती पर किसी कारणवश पेड़-पौधों के लिए खतरा पैदा हो जाए तो उसके परिणाम स्वरूप वनस्पति के लुप्त होने पर घास-फूस पर निर्भर रहने वाले वन्य जीवोें का तो अस्तित्व ही मिट जायेगा। उस स्थिति में मांस भक्षी भी लुप्त हो जायेंगे, पेड़-पौधों के खत्म होने पर उनका पुर्नजन्म प्रभावित होगा और परिणामस्वरूप धीरे-धीरे वे नष्ट होते चले जायेंगे। मानव शरीर की रचना, उसके शरीर में होने वाली क्रियाएँ व आनुवांशिकी समझने के लिए वन्य प्राणि खासकर स्तनधारियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।

गौरतलब है कि वन्य प्राणियों का कृषि-उत्पादन व हमारे घरेलू पशुओं की नस्लें सुधारने में सहज योगदान है, उस दशा में वन्य प्राणियों के संरक्षण का सिद्धांत नया नहीं है। यह सच है कि जीवों की रक्षा में वनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। परन्तु उनकी अंधाधुंध कटाई, उनके पास मानव बस्तियों का निर्माण, अनियोजित तरीके से वैध-अवैध खनन, सड़कों का निर्माण, रेल पटरियों का बिछाया जाना आदि वनों को उजाड़े जाने के लिए तो जिम्मेवार हैं ही, इनके परिणाम स्वरूप हमारे देश में मौजूद 75,000 वन्य जीव प्रजातियों में से कीटों की 50 हजार, मोलास्क तथा अन्य अकशेरू के प्राणियों की 140, सरीसृप वर्ग की 420, पक्षियों की 1,200 तथा स्तनधारियों की 340 किस्मों में से अधिकांश बड़ी तेजी से लुप्त हो रही हैं। औद्योगिक विकास एवं पर्यावरण विनाश के चलते सन 1900 के बाद जैव प्रजातियों के विलुप्त होने की रफ्तार तेजी से बढ़ी।

आज समूचे विश्व में वन्य प्रजातियों के विलुप्त होने की दर एक घंटे में तीन है। यह इसी तेजी से बढ़ती रही तो इस साल के अंत तक समूची दुनिया की समस्त प्रजातियों का एक चौथाई हिस्सा विलुप्त हो जायेगा। प्रकृति साधनों के अंतरराष्ट्रीय रक्षा संगठन से जुड़े अधिकारियों का यह निश्चित मत है कि पौधों की एक प्रजाति लुप्त होने से कीटों, जानवरों और वन्य पौधों की लगभग 15 से 30 प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं। बीते 100 सालों में वन्य जीवों व पक्षियों की 300 प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं और इस साल के आखिर तक एक हजार पशु-पक्षियों की प्रजातियों के लुप्त हो जाने का खतरा बना हुआ है।

विलुप्त हो रही प्रजातियों को बचाने के काम में लगे अंतरराष्ट्रीय संरक्षण संघ (आईयूसीएन) की रेड लिस्ट के अनुसार इस समय धरती पर जीव जन्तुओं और पेड़-पौधों की लगभग 41 हजार प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं। उसके अनुसार जैव विविधता की दर में निरन्तर हो रही कमी और इंसानी हस्तक्षेप के चलते विलुप्त होने वाली प्रजातियों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है। यदि सरकारों ने सही समय पर कदम नहीं उठाए तो स्थिति और भयावह हो जायेगी। इस दिशा में कार्बन उत्सर्जन में कमी लानी होगी ताकि जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा किया जा सके।

रिपोर्ट के अनुसार आज स्थिति यह है कि प्रत्येक चार स्तनधारियों में से एक, आठ पक्षियों में से एक तथा उभयचरों (जलचरों और थलचरों) की एक तिहाई आबादी खतरे में है और जीव जन्तु ही नहीं, बल्कि पेड़-पौधों पर भी खतरा मंडरा रहा है। यही नहीं पेड़-पौधों की 70 फीसदी प्रजातियाँ आज सकंट का सामना कर रही हैं। चिन्ता यह है कि यदि हालात नहीं सुधरे तो इससे पारिस्थितिकी असंतुलन पैदा हो जायेगा। असलियत है कि जैव विविधता के ह्रास की निरन्तर बढ़ रही दर को रोकने की तुरन्त जरूरत है, ताकि पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की खतरे में पड़ी प्रजातियों को संरक्षित किया जा सके।

असलियत में वन्य जीवों की प्रजातियों को सबसे ज्यादा यदि किसी ने नुकसान पहुँचाया है तो वह है वन्य जीवों की तस्करी और उससे होने वाला भारी मुनाफा। आज विश्व में वन्य जीव तस्करी का अवैध कारोबार 30,000 करोड़ डाॅलर से अधिक है जो अब मादक पदार्थों के कारोबार से कुछ कम और हथियारों के कारोबार के करीब पहुँच चुका है। सौंदर्य प्रसाधनों, औषधि निर्माण तो कहीं घरों की सजावट के लिए हाथी, गैंडा आदि वन्य जीवों के अंगों की बेतहाशा माँग और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मिलता मुँह माँगा दाम इसके प्रमुख कारण हैं।

जब तक देश का हर नागरिक वन्य प्राणियों के अंग, उनकी खाल का उपयोग न करने का संकल्प नहीं लेगा, लोगों में जागृति पैदा करने का अभियान नहीं चलाया जायेगा और वन व वन्य प्राणियों की इस अद्भुत सम्पदा के संरक्षण के लिए ‘जियो और जीने दो’ के अर्थ को समझने व समझाने का प्रयास नहीं किया जायेगा, देश में तब तक कानूनों के जरिये वन्य प्राणी संरक्षण एक सपना ही रहेगा। इस हेतु गठित टास्क फोर्स कहाँ तक अपने उद्देश्य में कामयाब हो पायेगी, यह तो भविष्य ही बतायेगा। देश में जहाँ भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त है, सम्मेलनों-गोष्ठियों से कुछ होने वाला नहीं। चेतावनियों को कुछ समझा ही नहीं जाता। इसके लिए मृत्यु दण्ड का प्रावधान हो, एक देशी वन एवं वन्य जीव संरक्षण राष्ट्रीय नीति बने और व्यापक जन-चेतना के चलते जन-सहयोग इन वन्य प्राणियों का रक्षा-कवच बनने में महती भूमिका का निर्वहन करे, तभी संयुक्त राष्ट्र, ओस्लो सम्मेलन और वन्य जीव संरक्षणविदों-पर्यावरणविदों की आशा-आकांक्षा सफलीभूत हो सकती है। अन्यथा पारिस्थितिकी संतुलन की रक्षा में महती भूमिका निभाने वाले वन्य जीव और इनकी अन्य प्रजातियाँ घटती चली जायेंगी और अंततः लुप्त हो जायेंगी। इससे जहाँ पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, वहीं मानव जीवन को भी गम्भीर नतीजे भुगतने होंगे।

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