प्रकृति और हम

5 May 2018
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महात्मा गाँधी ने भी पर्यावरण की रक्षा करने को सबसे बड़ा धर्म बताया था। इसलिये वह प्राकृतिक और पारम्परिक तौर-तरीकों में ज्यादा यकीन करते थे। वह प्रकृति के साथ चलने के हिमायती थे। बापू के आश्रमों और स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उनके सामाजिक सुधार आन्दोलनों में इसकी झलक साफ दिखाई देती है। अगर हम भारत की बात करें तो भारत ने जलवायु परिवर्तन की वजह से पिछले 15 वर्षों में सबसे गर्म वर्ष देखे हैं।

जलवायु परिवर्तन व जल संकट 21वीं सदी की बड़ी चुनौती है। इस सदी में जब दुनिया अपनी धरती की सेहत के लिये एक बड़े समझौते की ओर बढ़ रही थी, ऐसे में जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते से अमेरिका का पीछे हटना काफी निराशाजनक रहा है। इससे उम्मीद टूटी है। क्योंकि जब अमेरिका जैसे बड़े और अगुआ देश ऐसे समझौतों की अवहेलना करेंगे तो फिर बाकी देशों से क्या उम्मीद की जा सकती है। पहले के अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जहाँ इस समझौते का समर्थन किया था, वहीं अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते से अपने देश को अलग करना सबसे निराशाजनक रहा है।

डोनाल्ड ट्रम्प का कहना है कि इस समझौते से अमेरिका को नुकसान पहुँचेगा और लोगों की नौकरियों पर इसका असर होगा। ट्रम्प का यह झूठ पूरी दुनिया के सामने है। चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के बाद भारत विश्व का चौथा सबसे बड़ा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करने वाला देश है।

वहीं, ट्रम्प के समझौते से अलग होने के फैसले के वक्त फ्रांस के दौरे पर गये भारत के प्रधानमंत्री ने 2015 के ‘पेरिस समझौते’ का पुरजोर समर्थन किया था। उन्होंने ट्रम्प को एक तरह से करारा जवाब देते हुए कहा था कि 5000 साल से भारत पर्यावरण संरक्षण करता चला आ रहा है। उन्होंने कहा भारत में पशुओं, वृक्षों और नदियों को सहेजने की लम्बी परम्परा रही है।

प्रधानमंत्री ने कहा कि जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने के लिये 2015 के पेरिस समझौते के तहत जो भी लक्ष्य तय हैं, वो उनसे भी आगे जाकर जलवायु परिवर्तन से लड़ने को तैयार हैं। प्रधानमंत्री ने पेरिस समझौते का महत्त्व बताते हुए कहा था कि धरती माता के लिये सभी का कुछ-न-कुछ योगदान जरूरी है। उन्होंने पेरिस समझौते को पूरी दुनिया के लिये विरासत बताते हुए कहा कि यह सभी के लिये एक समान है। यह एक उपहार है, जिसे यह पीढ़ी अपनी आने वाली पीढ़ियों को दे सकती है।

सनद रहे कि महात्मा गाँधी ने भी पर्यावरण की रक्षा करने को सबसे बड़ा धर्म बताया था। इसलिये वह प्राकृतिक और पारम्परिक तौर-तरीकों में ज्यादा यकीन करते थे। वह प्रकृति के साथ चलने के हिमायती थे। बापू के आश्रमों और स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उनके सामाजिक सुधार आन्दोलनों में इसकी झलक साफ दिखाई देती है।

अगर हम भारत की बात करें तो भारत ने जलवायु परिवर्तन की वजह से पिछले 15 वर्षों में सबसे गर्म वर्ष देखे हैं। देश में तापमान रुझानों पर गौर करने वाले सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के विश्लेषण में पाया गया है कि देश लगातार और तेजी से गर्म हो रहा है। यह विश्लेषण 1901 से 2017 तक के तापमान का किया गया है। देश की आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिकीय सेहत के लिये यह बात बेहद गम्भीर है।

हम लगातार खराब मौसम का अनुभव कर रहे हैं और हमारा मौसम ऐसा होता जा रहा है जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। बेहद खराब मौसम के कारण नुकसान बढ़ रहा है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसका सबसे ज्यादा असर गरीबों पर पड़ रहा है।

जलवायु परिवर्तन से जुड़ा एक और अहम मुद्दा है जमीन, जिस पर सदियों से विवाद चला आ रहा है और जब जमीन वन्य क्षेत्रों की हो तो विवाद और भी गहरा जाता है। वन क्षेत्रों को लेकर दुनिया भर में सरकारें, आदिवासियों के साथ किसी-न-किसी विवाद में उलझी हैं।

वनों में रहने वाले ये समुदाय सामान्य रूप से ऐसे लोग हैं जो सदियों से अपने वन्य क्षेत्रों को बचाने के लिये लड़ते आ रहे हैं। आदिवासी लोग दुनिया-भर की महज 5 फीसदी आबादी का ही प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन इनके क्षेत्र दुनिया भर में जैव विविधता के लगभग 80 फीसदी हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। साथ ही ये हिस्से प्राकृतिक संसाधनों से भी लैस हैं। लेकिन एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी क्षेत्रों में अब भी मालिकाना हक और इन क्षेत्रों में नियंत्रण से जुड़े नियम-कायदों पर स्पष्टता की कमी है। लेकिन अब जब जलवायु परिवर्तन पर दुनिया भर में चिन्ता बढ़ रही है तो स्थानीय लोग या आदिवासी भी ये मान रहे हैं कि अपने अधिकारों को हासिल करना न केवल उनके समुदायों के लिये महत्त्वपूर्ण है, बल्कि जलवायु संरक्षण के लिये भी अहम है। धरती पर पर्यावरणीय सन्तुलन बनाये रखने में वन बहुत अहम भूमिका निभाते हैं।

जलवायु परिवर्तन के असर की बात करें तो दुनिया-भर के शोध बताते हैं कि इससे आकाश में हलचल बढ़ेगी। ब्रिटेन के एक शोध के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन का असर विमानों की उड़ान पर भी होगा। विमानों को आकाश में अधिक हलचल (टर्ब्यूलेन्स) का सामना करना होगा। इसमें तकरीबन 149 फीसदी की वृद्धि होगी। यही नहीं नन्हीं चींटियों का व्यवहार बदलेगा। चींटियाँ पारिस्थितिकी के सन्तुलन में अहम भूमिका अदा करती हैं।

अध्ययन बताते हैं कि चींटियाँ खेतों में कीड़े-मकोड़ों का सफाया करती हैं और मिट्टी के पोषक तत्वों को बनाये रखने में मददगार साबित होती हैं। इसके अलावा रेगिस्तान में रेत भी कम होने लगेगी। रेगिस्तान में कुछ ऐसे बैक्टीरिया होते हैं जो मिट्टी के क्षरण को रोकने के लिये बायोसिट जैसी मजबूत परत का निर्माण करते हैं लेकिन तापमान बढ़ने से इनका आवास स्थान प्रभावित होगा और मिट्टी का क्षरण बढ़ेगा।

जलवायु परिवर्तन से तापमान में वृद्धि का सबसे बुरा असर स्तनधारी जीवों पर पड़ेगा। इससे उनका आकार घटेगा। एक अध्ययन के मुताबिक लगभग 5 करोड़ साल पहले जब तापमान बढ़ा था तब स्तनपायी जीवों का आकार घटा था, जो भविष्य में भी नजर आ सकता है। जहाजों के रास्ते भी बाधित होंगे। विशेषज्ञों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते बड़े ग्लेशियर टूट सकते हैं, जो समुद्री यातायात प्रभावित करेंगे। असर कितना होगा, इस पर मोटा-मोटी कुछ कहना फिलहाल मुश्किल है। ताप ऊर्जा, तूफानी बादलों के लिये ईंधन का काम करती है।

आशंका है कि अगर तापमान बढ़ता रहा तो आकाश में बिजलियों की कड़कड़ाहट बढ़ जायेगी, जिसके चलते जंगली आग एक समस्या बन सकती है। निष्क्रिय अवस्था में पड़े ज्वालामुखी सक्रिय हो सकते हैं। ग्लेशियर पिघलने से पृथ्वी की भीतरी परत पर पड़ने वाला दबाव घटेगा, जिसका असर मैग्मा चैम्बर पर पड़ेगा और ज्वालामुखियों की गतिविधियों में वृद्धि होगी।

हमारा मन-मस्तिष्क भी बहुत हद तक मौसम पर निर्भर करता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि होगी लोगों में गुस्सा बढ़ेगा। यहाँ तक कि हिंसा की प्रवृत्ति में भी इजाफा होगा। आपको न सिर्फ जल्दी गुस्सा आएगा बल्कि इंसानों में एलर्जी की शिकायत भी बढ़ेगी। तापमान बढ़ने से मौसमी क्रियाएँ बदलेंगी, पर्यावरण का रुख बदलेगा और बदले माहौल में ढलना इंसानों के लिये आसान नहीं होगा।

इस संकट से सामूहिक प्रयासों से ही निपटा जा सकता है। पहाड़ों की हरियाली और नदियों की पवित्रता को बनाये रखना व आने वाली पीढ़ियों को इस मूल मन्त्र से जोड़े रखना अत्यन्त आवश्यक है व कम पानी के उपयोग से बेहतर करने पर विचार की जरूरत है।

जल संरक्षण और संचरण के लिये अधिक-से-अधिक पारम्परिक प्राकृतिक तकनीक का इस्तेमाल होना चाहिए। केवल भारत की ही नहीं बल्कि दुनिया को मिट्टी, हवा, पानी, जल जैसे स्रोतों को बचाकर मानव, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, जल के जीव जिन्दा रह पायेंगे। हर जिम्मेदार व्यक्ति को इस व्यवस्था परिवर्तन एवं साम्राज्यवादी विकास प्रणाली के खिलाफ जो अभियान हैं उसमें शरीक होकर जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरे को टालने में अपनी भूमिका अदा करनी चाहिए।

पेरिस समझौता

पेरिस में दिसम्बर, 2015 सम्मेलन इतिहास में पहली बार दुनिया के सभी देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन (पेरिस समझौते) को कम करने के तरीकों पर एक सार्वभौमिक समझौते को प्राप्त करने के लिये अपने उद्देश्य पर पहुँचा। अगर यह कम-से-कम 55 देशों, जो वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन के कम-से-कम 55 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करते हैं को स्वीकृत, अनुमोदित या स्वीकार कर लिया जाता है तो कानूनी रूप से बाध्यकारी हो जायेगा और 2020 तक कार्यान्वित किया जायेगा।

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग का मतलब है उद्योगों और कृषि-कार्यों से उत्सर्जित होने वाली गैसों से पर्यावरण पर होने वाले नकारात्मक और नुकसानदेह असर। पेरिस समझौता अमेरिका और 194 अन्य देशों से वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने की अपील करता है। इसका लक्ष्य वैश्विक तापमान को 2 डिग्री से नीचे रखना है। साथ ही यह कोशिश करना है कि वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित किया जाये।

मानवीय कार्यों से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को इस स्तर पर लाना की पेड़, मिट्टी और समुद्र उसे प्राकृतिक रूप से सोख लें। इसकी शुरुआत 2050 से 2100 के बीच करना। हर पाँच साल में गैस उत्सर्जन में कटौती में प्रत्येक देश की भूमिका की प्रगति की समीक्षा करना। विकासशील देशों के लिये जलवायु वित्तीय सहायता के लिये 100 अरब डॉलर प्रतिवर्ष देना और भविष्य में इसे बढ़ाने के प्रति प्रतिबद्धता।

यथार्थ और भ्रम

चीन- कार्बन उत्सर्जन के मामले में 23 फीसदी के साथ चीन सबसे शीर्ष पर है।

लक्ष्य- 2014 से पहले चीन ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कोई वादा नहीं किया था। अब उसने अपनी ऊर्जा दक्षता का कोई वादा नहीं किया था। अब उसने अपनी ऊर्जा दक्षता को 2015 तक 40 फीसदी बढ़ाने का वादा किया है।

हकीकत- चीन जिस रफ्तार से अपने उद्योगों का विस्तार कर रहा है और अपने-आपको आर्थिक महाशक्ति बनाना चाहता है, उसे देखते हुए यह लक्ष्य अभी दूर की कौड़ी है। अभी कोई ठोस पहल भी नहीं की है।

अमेरिका- कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका दुनिया में 19 फीसदी के साथ दूसरे नम्बर पर है।

लक्ष्य- 2020 तक 17 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कटौती पर राजी, मगर ठोस प्रयास अभी भी नहीं।

हकीकत- कार्बन कटौती पर अमेरिका का अभी तक कोई साफ नीति नहीं। इस मसले पर रिपब्लिकन और डेमोक्रेट में मतभेद।

यूरोपीय संघ- यूरोप के देश तकरीबन 13 फीसदी कार्बन उत्सर्जन करते हैं। कार्बन उत्सर्जन के मामले में ये तीसरे पायदान पर है।

लक्ष्य- यूरोपीय संघ के 27 देशों ने अपने कार्बन उत्सर्जन में 1990 के नीचे के स्तर पर लाने के लिये 2020 तक 20 फीसदी कमी करने को राजी हुए हैं।

हकीकत- जर्मनी समेत बड़े औद्योगिक देश सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक हैं। यूरोप के कई देशों का मानना है कि अगर विकसित देश समझौते तक पहुँचते हैं कार्बन कटौती बढ़ाकर 30 फीसदी तक की जा सकती है।

भारत- दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक (तकरीबन साढ़े छह फीसदी) है हमारा देश।

लक्ष्य- भारत ने भी किसी कटौती का वादा तो नहीं किया है, मगर अपनी ऊर्जा दक्षता को 20 फीसदी तक बढ़ाने पर सहमत।

हकीकत- भारत में भी नीतिगत स्तर पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये वैश्विक प्रयासों के तहत कोई कारगर नीति नहीं अपनाई गई है।

रूसी संघ- रूस और उससे जुड़े देश मिलकर 6 फीसदी तक कार्बन उत्सर्जन करते हैं।

लक्ष्य- 1990 के स्तर पर लाने के लिये अपने कार्बन उत्सर्जन में 15 फीसदी कटौती को राजी।

हकीकत- रूस का इस मामले में ढुलमुल रवैया रहा है। पुतिन से पहले की सरकारों ने जहाँ इस मामले में थोड़ा लचीला रवैया अपनाया था, वहीं पुतिन की इसमें कोई खास रुचि नहीं है।

जापान- दुनिया का सातवाँ सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश। 3.5 फीसदी से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन।

लक्ष्य- 1990 के स्तर से नीचे लाने के लिये 2020 तक 25 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कटौती पर राजी।

हकीकत- 2011 में आई सुनामी के बाद से जापान इस मुद्दे पर काफी संजीदा है। उसने इस दिशा में पहल भी शुरू कर दी है।

ब्राजील- तकरीबन 3 फीसदी तक कार्बन उत्सर्जन।

लक्ष्य- 1994 के स्तर से कार्बन कटौती का लक्ष्य। 2020 तक वनों की कटाई पर 80 फीसदी की कमी लाना।

हकीकत- दक्षिण अमेरिकी देशों ने इस दिशा में पहल भी करनी शुरू कर दी है। वनों की कटाई पर सख्ती से रोक लगाई जा रही है।

ऑस्ट्रेलिया- इस देश की कार्बन उत्सर्जन प्रतिशतता 1.5 फीसदी के पार जा पहुँची है।

लक्ष्य- वर्ष 2000 के स्तर से 2020 तक 5 फीसदी की कार्बन उत्सर्जन की कटौती का लक्ष्य।

हकीकत- पीएम टोनी एबॉट की सरकार इस मुद्दे पर खासा प्रतिबद्ध है, यूरेनियम बेचने की अपनी नीतियों में पर्यावरण मानकों का खासा ख्याल रखा जा रहा है।

सम्पर्क: जी-257, नानकपुर, मोतीबाग, नई दिल्ली-110021
 

 

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