प्रकृति गंध और ज्ञान गंध

क्या मेघ भी गंध बिखेरते होंगे? मेघों में जल होता है, पृथ्वी अंश नहीं होता। जल का गुण रस है और पृथ्वी का गुण गंध। मेघ गंधहीन होते होंगे शायद। पक्का नहीं जानता। विज्ञान की पोथी में ऑक्सीजन को रंगहीन-गंधहीन बताया गया है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन की गाढ़ी प्रीति ही जल है, पर मेघ की काया की बुनावट में वायु और ताप का भी हिस्सा है। मेघ बरसते हैं, पृथ्वी की गंध में जल रस की प्रीति घुलती है। जल गंधमय हो जाता है और गंध रसमय। मिलने का आनंद भी यही है। प्रकृति का गंध कोष बड़ा है। पृथ्वी अपने जन्मकाल से ही सगंधा है। सभी जीवों, वनस्पतियों और पदार्थों में पृथ्वी का अंश है। सो सबकी अपनी गंध है। देव सुगंध प्रिय हैं। पूजा-अर्चना में सुगंध की महत्ता है। हम मनुष्य भी गंध प्रिय हैं।

प्रत्येक मनुष्य की अपनी प्रिय गंध है। किसी को तीखी गंध भाती है तो किसी को भीनी-भीनी। दारू गंध के प्रेमी भी कम नहीं हैं। गंध पृथ्वीगुण है। पृथ्वी परिवार में लाखों जीव हैं। इन सबकी भी अपनी गंध है। धान के खेतों में एक कीड़ा लगता है। उसकी काया तीखी गंध बिखेरती है। तीखी गंध के कारण ही उसका नाम गंधी पड़ गया। हमने गंधी की गंध का अनुभव किया है।

सुना है कि मानुषगंध भी होती है और प्रेम पगे लोगों में मदनगंध। तुलसी के पौधे की गंध बड़ी जानदार है। बताते हैं कि इसकी गंध से तमाम बीमारियों के जीवाणु डरते हैं। मच्छर दिलचस्प जीव हैं। ललकारते हुए आते हैं, काट लेते हैं, लेकिन गंध से वे भी डरते हैं।

गंध अनुभूति की इंद्रिय नाक है। सूंघने की क्षमता भी अलग-अलग होती है। कुत्तों की घ्राण क्षमता विरल है। वे सूंघकर तमाम निष्कर्ष निकाल लेते हैं। सांप सूंघता है या नहीं, लेकिन गांव में डरे हुए मनुष्यों के बारे में कहावत है कि इसे सांप सूंघ गया है।

वर्षा पृथ्वी गंध को रस देती है। गंध पदार्थ रस प्रवाह का साथ पाकर फैल जाते हैं। मुझे वर्षा की पूरी ऋतु ही गंधमादन लगती है। बादलों को आकाश में खेलते देखकर बड़ा हुआ। वायुयान की यात्राओं में हम ऊपर और बादल नीचे। जलराशि से भरेपूरे। सोचता हूं कि क्या मेघ भी गंध बिखेरते होंगे? मेघों में जल होता है, पृथ्वी अंश नहीं होता।

जल का गुण रस है और पृथ्वी का गुण गंध। मेघ गंधहीन होते होंगे शायद। पक्का नहीं जानता। विज्ञान की पोथी में ऑक्सीजन को रंगहीन-गंधहीन बताया गया है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन की गाढ़ी प्रीति ही जल है, पर मेघ की काया की बुनावट में वायु और ताप का भी हिस्सा है। मेघ बरसते हैं, पृथ्वी की गंध में जल रस की प्रीति घुलती है।

जल गंधमय हो जाता है और गंध रसमय। मिलने का आनंद भी यही है। मैं और तुम प्रीतिरस में मिलते हैं तो “हम” हो जाते हैं। “हम” गहन रसवत्ता है। गंध आपूरण होगा ही। वर्षा सभी प्राणियों को महकाती है। वर्षा ऋतु में गायों के स्थान की महक ध्यान देने लायक होती है। गोबर की महक का क्या कहना? अम्मा गोबर से आंगन लीपती थी।

मिट्टी की गंध गोबर गंध से मिलती थी। समूचा घर हहराता हुआ महकता था। विधायक निवास में अब टाइल्स की फर्श पर झाड़ू लगता है। घर नहीं महकता। कमरा महकाने के लिए बाजार तमाम रसायन लाया है- रूम फ्रेशनर/कार फ्रेशनर आदि।

मनुष्य की गंध पृथ्वी माता की अनुकंपा है। माता सगंधा है तो पुत्र भी संगंधा होंगे। पौराणिक कथाओं के अनेक पात्र और सुंदरियां गंध बिखेरते थे। महाभारत में एक कन्या को मत्स्यगंधा कहा गया है। आधुनिक मनुष्य की काया गंध नहीं देती। दुर्गंध बढ़ी होगी, तभी तो शरीर पर गंध देनेवाले रासायनिक स्प्रे का बाजार बढ़ा है।

दिल्ली के एक मित्र ने मेरे कुर्ते पर स्प्रे किया। मैंने कुर्ता सूंघा। मुझे फिनायल जैसी गंध मिली। उन्होंने बताया कि यह छोटी शीशी अढ़ाई हजार रुपए की है। मैंने गहरी सांस ली। न वे महक रहे थे और न हम। प्रकृति गंध की बात ही दूसरी है। वह जो भी रचती है, पूरे मन से गढ़ती है। प्रकृति अपने उत्पादन में लाभ की इच्छा नहीं करती। इसीलिए वर्षा ऋतु का बेला हहराता है। कनेर अपनी पूरी ऊर्जा के साथ खिलती है और खिलखिलाती है।

बसंत, हेमंत, शिशिर और ग्रीष्म गंध उड़ेलते हैं। रातरानी पूरी रात दुलराती है। मेरे घर के सामने अशोक का पेड़ है। मेरी ही तरह अहंकारी। अकड़ा खड़ा है, लेकिन पूरा-का-पूरा निष्काम है। फूल देता है। लाभ की कामना नहीं करता। औद्योगिक कंपनियां भी सुगंधित पदार्थ बनाती हैं। उनका लक्ष्य लाभ होता है। उनकी सुगंध लाभ है। वे महकते हैं। हमारे हिस्से पश्चाताप की दुर्गंध आती है।

आधुनिक जीवनशैली ने हमारा गंध-बोध भोथरा किया है। गुलाब या रातरानी की गंध हमारे शरीर को सहलाते हुए निकल जाती है। हम गंध अभिभूत होने का आनंद नहीं देते। आम्रवनों से ठाठ मारते हुए गंध बादल उमड़ते हैं। वे जाति, मजहब या बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक का भेद नहीं करते। हम गंध वातायन से नहीं जुड़ते। अपना-अपना गंध-बोध है। कालिदास का गंध-बोध आकाश जैसा ऊंचा था।

इसी गंध-बोध के चलते उनके शब्द भी गंध आपूरित हैं। गंध का बोध सूंघने से होता है। जान पड़ता है कि वे और उन जैसे कवि गंध देखने में भी सक्षम थे। ऋग्वेद के ऋषि गंधानुभूति के शिखर पर थे। इन ऋषियों को घृत घी प्रिय है। यह सुस्वादु है और सगंधा भी। मनुष्य मरणधर्मा है और अग्नि अमर। कहते हैं कि मरणधर्मा मनुष्य अमर अग्नि की उपासना में घी अर्पित करते हैं। अग्नि और घी का संयोग गंध उड़ेलता है।

ऋषि अग्नि से स्तुति करते हैं- हमारे मधुमय यज्ञ को देवों तक पहुंचाओ। यह यज्ञ सामान्य हवन भी हो सकता है। मंत्रों स्तुतियों के साथ घी और अन्य पदार्थों को अग्नि में डालने वाला कर्मकांड भी हो सकता है। जो भी हो, अग्नि यज्ञ की सुगंध और स्तुतियां ही देवों तक ले जाने का काम करते हैं।

शब्द ब्रह्म बताए गए हैं। ब्रह्म परिपूर्णता हैं। परिपूर्णता गंधहीन नहीं हो सकती। शब्द भी गंध आपूरित होते होंगे। शब्दों की प्रीति अलग-अलग होती है, लेकिन हजारों वर्ष की परंपरा में अनेक शब्द अपने अर्थ में सुगंधित भी हो जाते हैं। ओम ऐसा ही है। तुलसी के लिए राम भी ऐसा ही शब्द है। मेरे लेखे ऋग्वेद के अदिति, अग्नि, सविता या त्रयंबक के स्तुति मंत्र गंध से भरेपूरे हैं।

त्रयंबक देव सुगंधिं पुष्टिवर्धनम् कहे गए हैं। छंद शब्द की काया से बनते हैं। छंद विधान से रस उमड़ता है। छंद रस में गंध होनी ही चाहिए। गायत्री छंद ऐसा ही होगा। वृहतसाम् की चर्चा गीता में भी है। लेकिन छंदरस का स्वाद सबको नहीं मिलता, कुछेक ही छंदरस की मस्ती में डोलते हैं। उनमें से भी कुछेक को छंद गंध की अनुभूति होती है। ज्ञान भी गंधहीन नहीं होता। सांसारिक पदार्थों और सरोकारों के ज्ञान की अपनी गंध है और आत्मदर्शन से जुड़े ज्ञान की अपनी। आत्मदर्शन में शब्द नहीं बचते।

अनुभूति का मधुरस और इस मधुरस की मधुगंध ही वाह्यभ्यांतर हहराती है। परमात्मा या ईश्वर के होने या न होने की बहस अंतहीन है, लेकिन अस्तित्व है। अस्तित्व और उसका संचालक रसहीन या गंधहीन नहीं हो सकता।

सृजन शून्य से नहीं होता। गंध अस्तित्व का मधुरतम सूक्ष्मतम तत्व है। समूची गंध का स्रोत या आदि तत्व अक्षय गंध का अमर कोष है। बोली और भाषा भी गंधहीन नहीं होतीं। संस्कृत में गजब का गंध आपूरण है। गंध मादकता संस्कृत की प्रकृति है। संस्कृति का गंध-प्रवाह इसी आपूरण की परिसंपदा है।

गंध का विभाजन सुगंध या दुर्गंध में हुआ है। मुझे यह विभाजन प्रीतिकर नहीं लगता। सु या दु लगाकर गंध जैसी प्राकृतिक और आध्यात्मिक संपदा का विभाजन बेकार है। मुझे पुस्तकों की गंध खींचती है और सींचती भी है। मित्र गंध का क्या कहना? मित्र आगमन की आहट के साथ हमारे चारों ओर विशेष प्रकार की गंध फैल जाती है। क्या इसे मित्रगंध कहना अनुचित होगा? मां- पिता अब नहीं हैं। मां की गंध सारे दुख दूर करती रही है और पिता की गंध आश्वस्तिदायी रही।

ऐसा गंध की अभीप्सा में बहुधा गहरी सांस लेता हूं। आए कहीं से पितृगंध, मातृगंध, मित्रगंध, देवगंध या ज्ञानगंध। ऋग्वेद के ऋषि ने याचना की है- सभी दिशाओं से आएं सद्विचार मेरे पास। ऋषि के स्वर में प्रार्थना करता हूं कि सभी दिशाओं से आए प्रीतिगंध मेरे पास।

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