प्रकृति का अद्भुत उपहार सरुताल

10 Aug 2015
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Saru tal
Saru tal

उत्तराखण्ड हिमालय सदैव प्रकृति प्रेमियों के लिये आकर्षण का केन्द्र रहा है। इस दौरान हम आपको ऐसी वादियों से परिचित कराएँगे जहाँ ना तो कोई होटल है और ना ही कोई फास्ट फूड का रेस्तराँ। बस प्रकृति के गोद में अपने आपको मौजूद पाना ही जीवन की सबसे बड़ी सफलता ही कही जा सकती है। यहाँ देवदार, भोजपत्र, थुनैर, कैल, खरसू, मौरू के लकदक जंगल निश्चित ऊँचाई के पश्चात एक डोर सी खीचें हैं।

ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ एक सीमा रेखा तक भोज पत्र एवं ढेलू-सिमरू ही दिखाई पड़ते हैं, तथा इसके ऊपर का पूरा क्षेत्र नवम्बर-दिसम्बर से मार्च-अप्रैल तक बर्फ की श्वेत चादर से ढँका रहता है। बर्फ पिघलने के साथ ही कुनकुनी धूप पाकर जब यह धरती तपने लगती है, तो मखमली बुग्याल इस धरा पर उग आती है। जो जुलाई-अगस्त तक अपने पूर्ण यौवन में मदमस्त हो जाती है।

असंख्य रंग बिरंगे पुष्पों की सुन्दर वाटिकाएँ यत्र-तत्र महकने लगती हैं। इन सुरम्य स्थलों का चल-चित्र जब मानव के मस्तिष्क पटल पर उभर आता है तो वह कष्टों की परवाह किये बगैर चल पड़ता है।

हालांकि उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले में अनेकों रमणिक स्थल हैं परन्तु कुछ क्षेत्र आज भी शेष दुनिया से बिल्कुल अपरिचित हैं इन्हीं में एक स्थान नौगाँव, पुरोला व मोरी विकास खण्डों की सीमा के केन्द्र में है ‘‘सरूताल’’।

सरूताल में प्रकृति की विलक्षण लीला देखते ही बनती है। ठीक सामने की चट्टानों के नीचे से अदृश्य रूप में ‘‘गड़गड़ाहट’’ की ध्वनि के साथ जलराशि ताल में प्रवृष्ठ होती है। 14000 फीट के ऊँचाई वाले शिखर पर इतना पानी आता कहाँ से है जो सैलानियों के लिये कौतुहल का विषय बना रहता है।

सरूताल से निकलने वाली धारा को स्थानीय लोग स्वरगंगा भी कहते हैं जो संकरी घाटियों से निकलकर अनेकों पानी की धाराओं को समेटते हुए आगे डोगडका नामक स्थान केदारकांठे से आने वाली जलधारा से संगम बनाती है। यहाँ से आगे इसे केदारगंगा के नाम से जाना जाता है। इस तरह सरूताल से निकलने वाली जल धारा गंगाणी नामक स्थान पर यमुना नदी से संगम बनाती है। स्थानीय लोग केदार गंगा को ‘‘बडियाड़ गाड़’’ के नाम से भी जानते हैं।

सरूताल के पास बैठकर कोई भी सैलानी अपनी सृजनात्मक कल्पनाशक्ति के आधार पर कहीं महिला पुरूष की भंगीमाएँ तो कहीं त्रिशूल, कहीं शिव का डमरू तो कहीं नन्दी तो कहीं मूर्ति न जाने कितने रूपों को उकेर देते हैं। कुछ टापू तो यूँ लगते हैं मानो प्राचीन समय के मन्दिर समूह हों। 14000 फीट की ऊँचाई पर स्थित ताल के चारों ओर से सुन्दर बुग्याल हैं।

यहाँ से फाचुकांडी बुग्याल, मानीरकांठा बुग्याल, पुष्ठारा बुग्याल, मालडार बुग्याल, हरकीनदून बुग्याल बिल्कुल आस-पास हैं। साहसिक पर्यटक यहाँ से हरकीदून, डोडीताल रूईसाड़ा ताल, भराटसर, यमुनोत्री, सप्तऋषि कुण्ड आदि स्थानों को निकल जाते हैं। जुलाई से अक्टूबर तक ताल के चारों ओर ब्रह्मकमल, फेन कमल, जंयाण, लेसर आदि दुलर्भ किस्मों के पुष्प खिले होते हैं।

जून से सितम्बर तक सरूताल के पास रतेड़ी बुग्याल, फाचुकांडी बुग्याल, मीरकांठा बुग्याल, पुस्ठारा बुग्यालों में विभिन्न गाँवों से आये पशुचारक अपने सैकड़ों भेड़-बकरियों के साथ रहते हैं। ये पशुचारक अपने रहने के लिये छोटे-छोटे छज्जे बनाए हुए हैं। सरूताल जाने वाले सैलानी इन्हीं छज्जों में रहकर इनका अतिथ्य ग्रहण करते हैं। यह पशुचारक मृदुभाषी, मिलनसार तो होते ही हैं अतएव यहाँ पहुँचे हर पर्यटक का छज्जों में खूब स्वागत सत्कार भी किया जाता हैं। पर्यटकों को यहाँ पर अपने स्लिपिंग बैग आदि के साथ आना पड़ता है।

 

सरूताल के निकट अन्य दर्शनीय ताल

 

 

 

बाकरिया ताल


सरूतालसरूताल से पहले बाकरियाताल स्थित है। इसके पार्श्व भाग में चट्टानों की ढेर सी लगी है। इस ताल की परिधि तीन सौ मीटर की है। वर्षा अधिक होने के कारण परिधि बढ़ सकती है। ताल के चारों ओर असंख्य फूलों की आभा ताल की सुन्दरता को चार चाँद लगाए हुए हैं। यहाँ पर विशाल चट्टानों के नीचे अनेकों जीव जन्तु आश्रय बनाकर रहते हैं।

 

 

रतेड़ी ताल


बाकरिया ताल के पास की धार की बाईं ओर रतेड़ी ताल एवं रतेड़ी बुग्याल हैं। स्थानीय लोग रतेड़ी को रौंतेली जैसे शब्द से भी पुकारते है। अर्थात रौंतेली का तात्पर्य चिन्ताविहीन एवं सुन्दर स्थान से है। इस ताल का आकार छोटा है किन्तु खूबसूरत ढलानों के मध्य होने के फलस्वरूप दर्शकों को मुग्ध कर देता है। इस पहाड़ी ढलान के शीर्ष टापू से नीचे झाँककर देखें तो रतेड़ी ताल के ठीक पास में काणा ताल दो नयनों की भाँति लगता हैं।

 

 

 

घोड़ा दामीण


घोड़े के आकार की पहाड़ी के पीछे मानीरकांठे की ओर यह ताल है। इस ताल में ग्लेशियरों का पानी एकत्र होता है। यहाँ से सुन्दर मानीरकांठे का अनुपम सौन्दर्य अपने आप में किसी रहस्य लोक की तरह प्रकृति प्रेमियों को आकर्षित करता है। यह 16000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।

 

 

 

बड़कोट


देहरादून से बड़कोट नगर 132 किमी. की दूरी पर है। यह यमुनाघाटी का प्रमुख धर्मिक, पर्यटन एवं ऐतिहासिक स्थल है। पौराणिक जनश्रुतियों एवं लोकमान्यताओं के आधार पर बड़कोट में राजा सहस्त्रबाहु की राजधानी थी। बड़कोट गाँव में एक प्राचीन कुण्ड सहस्त्रबाहु कुण्ड के नाम से जाना जाता है। इस कुण्ड में राज परिवार के लोग जलक्रीड़ा, स्नानादि करते थे। यहीं से सरूताल जाने का रास्ता है।

लाखामण्डल के ही जैसे बड़कोट में खुदाई और निर्माण के दौरान कई प्राचीन कुण्ड मिले हैं। जो आज भी मौजूद हैं। यहाँ पर गढ़वाल मण्डल विकास निगम के आवास गृह व अनेकों होटल, रेस्तराँ उपलब्ध हैं। पर्यटको को सभी प्रकार की सुविधा यहाँ पर आसानी से मिल जाती है।

 

 

 

तिलाड़ी


बड़कोट से पाँच किमी के फासले पर यमुना के किनारे ऐतिहासिक स्थल तिलाड़ी है। जहाँ सन् 1927 के वन अधिनियम के विरुद्ध हुए आन्दोलन में सैकड़ों आन्दोलनकारियों को टिहरीे राजा के सैनिकों ने 30 मई 1930 को आन्दोलनकारियों की महापंचायत को गोलियों से भून डाला था। इस स्थान पर प्रतिवर्ष 30 मई को शहीदों के नाम पर सम्पूर्ण यमुनाघाटी के लोग एक भव्य मेले का आयोजन करते हैं। बड़कोट से एक किमी. पहले शरुखेत के पास से तिलाड़ी के लिये हल्का वाहन मार्ग बना है।

 

 

 

राजगढ़ी


बड़कोट से 20 किमी. की दूरी पर करीब 2000 मी. की ऊँचाई पर स्थित राजगढ़ी एक खूबसूरत व रमणीक स्थान है। बड़कोट से देखें तो राजगढ़ी यूँ लगता है मानों देहरादून से मसूरी हो। यहाँ से बन्दरपूँछ की हिमाच्छादित चोटियाँ, यमुना, केदारगंगा का विहंगम दृश्य चारों ओर की वनाच्छादित पहाड़ियाँ और पहाड़ी ढलानों में बसे गाँव, सीढ़ीनुमा खेत मन को प्रफुल्लित कर देते हैं।

सरूतालहिमाच्छादित चोटियाँ तो यूँ लगती हैं मानों हाथ पसार कर छू लें। राजगढ़ी में 18वीं शताब्दी की बनी एक सुन्दर दुमंजिली कोठी है। जो टिहरी के राजा ने बनवाई थी। राजगढ़ी के लिये एक मार्ग नौगाँव गडोली होकर मिलता है। घुम्मकड़ी लोगों के लिये राजगढ़ी के पास ब्याँली नामक स्थान है। जहाँ देवदार का घना जंगल है।

ब्याँली नामक स्थान पर वन विभाग का एक सुन्दर विश्राम गृह है। ब्याँली के इस हरीतिमाच्छादित देवदार के इस घनघोर जंगल में अनेकों विशालकाय वृक्षों का अद्भुत संसार दिखाई पड़ता है। कहीं-कहीं तो देवदार के इन विशालकाय वृक्षों ने ऐसा संसार बनाया हुआ है कि सूर्य की एक भी किरण ज़मीन पर नहीं पहुँच पाती।

 

 

 

राजा रघुनाथ मन्दिर गंगटाड़ी


राजगढ़ी से 6 किमी. की दूरी पर गंगटाड़ी है। यहाँ मन्दिर पर काष्ठ कला की नक्कासी हर समय जीवन्त लगती है। लकड़ी-पत्थर का यह बेजोड़ संगम मन्दिर की आभामण्डल को बढ़ा रहा है। आसपास के गाँव फरी व कोटी में लकड़ी के आवासीय फिरोल भवन (वुड स्टोन की इमारतें) किसी विज्ञान से कम नहीं है क्योंकि यह सभी भवन भूकम्परोधी हैं। इन्होंने 1803 एवं 1991 का विनाशकारी भूकम्प को भी झेला है। लगभग सभी भवन 300-400 वर्ष पुराने हैं। गंगटाड़ी से दो किमी. की दूरी पर केदारगंगा के तट पर एक तप्त जल का कुण्ड भी है।

 

 

 

सरनौल


गंगटाड़ी से सरनौल मात्र 10 किमी. की दूरी पर स्थित है। गाँव सड़क मार्ग से जुड़ा है। देहरादून से नियमित बसें सरनौल तक आती जाती हैं। सरनौल नौगाँव विकासखण्ड का अन्तिम गाँव भी है। गाँव की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। इस गाँव में तीन सौ परिवार रहते हैं। अधिकांश मकान अधिपत्य कला के नमूने ही नहीं लोगों के आशियाना भी यही हैं जो किसी भी प्राकृतिक आपदा, भूकम्प आदि की दृष्टि से सुरक्षित है।

प्रतिवर्ष 4-5 जून को यहाँ रेणुका देवी के नाम से मेला लगता है। बड़ी संख्या में लोग इस मेले में पहुँचते हैं। मेले का मुख्य आकर्षण देवी की ‘परेठ’ है। देवी का पश्वा तेजधार वाले हथियारों के ऊपर नंगे पैर चलकर लोगों को आश्चर्य चकित कर देता हैं। गाँव के पास ‘खिमत्रा’ नामक स्थान पर वन विभाग का विश्रामगृह है। यहीं से एक पैदल पगडंडी जो बड़कोट से सरनौल के बीच है। इस 10 किमी. के फासले पर गंगाणी, ग्राम थान, नंगाणगाँव, खाण्ड, बंचाणगाँव, चपटाड़ी आदि गाँव हैं। जहाँ पर ठेठ ग्रामीण परिवेश को आप अच्छी तरह देख सकते हैं।

 

 

 

सूतड़ी बुग्याल


सरनौल से सूतड़ी बुग्याल पाँच किमी. के फासले पर है। समुद्र तल से सूतड़ी बुग्याल की ऊँचाई 3000 मीटर हैं। यहाँ जाने के लिये पगडंडी घने जंगलों के बीच से होकर गुजरती है। बुग्याल को स्थानीय लोग थातर कहते हैं। यहाँ लंगूरों की टोलीयाँ खर्सू-मौरू के वृक्षों की लम्बी-लम्बी डालियों में उछलते-कूदते दिखाई पड़ते हैं। चौमास अर्थात बरसात में यहाँ स्थानीय पशु चारक अपनी गाय-भैसों के साथ प्रवास में रहते हैं।

खास तो यह है कि सूतड़ी बुग्याल में प्रवास के दौरान पशु चारक देशी घी बनाने का कार्य करते हैं। इस घी की माँग दूर-दूर से आती है। घी में इतनी खुशबू व स्वाद होता है कि एक चम्मच घी से तृप्ति हो जाती है। पास में ही एक भुजताल है। जहाँ सभी पशुचारक प्रवास खत्म करने के बाद दूध, दही, मक्खन, घी आदि को अतिथियों को परोसकर एक भव्य त्यौहार का आयोजन अगस्त-सितम्बर में करते हैं। पास के भुजताल से नीचे घाटी में ‘भीम का छाड़’ अर्थात एक अद्भुत झरना है।

लगभग 200 मी. की ऊँचाई से गिरती यह जलराशि प्रकृति प्रेमियों को एक अलौकिक आनन्द की अनुभूति कराती है। जनश्रुति है कि भीम ने इस चट्टान पर अपनी गदा से जलधारा प्रफुस्ट करके अपनी प्यास बुझाई थी। भुजताल से आगे 4 किमी. के फासले पर लेस्यारा बुग्याल है। इस बुग्याल में लेसर नाम की दुर्लभ प्रजाती है। जिसकी फूलो की खूसबू सूखने के बाद भी बरकरार रहती है। लेस्यारा बुग्याल से आधा किमी. नीचे उतरकर ‘‘चलकुणी उड्यार’’ अर्थात एक विशाल गुफा है।

सरूतालयह गुफा न की पर्यटकों के सहलाने के लिये बल्कि रात्रि विश्राम हेतु भी यह उपयुक्त स्थान है। सरनौल से 15 किमी. आगे चन्दरूडी बुग्याल है जहाँ से नगाधिराज हिमालय का विराट सौन्दर्य को देखकर एक बारगी पर्यटक प्रकृति का ही एक अंग बनना चाहता है। एक ओर यमुना घाटी तो दूसरी ओर केदार घाटी। निश्चित सीमा रेखा तक एक डोर की भाँति दिखाई पड़ते घने वन और उस सीमा से ऊपर रंग-बिरंगे फूलों से सजी वाटिकाएँ ही नहीं वरन् प्रातः इन ऊँचे टापुओं पर विचरण करते विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरों के झुण्ड-के-झुण्ड कुलांचे भरते हुए पल भर में ओझल हो जाते हैं।

इतना ही नहीं हिमालय का सबसे सुन्दर पक्षी मोनाल भी यहीं कहीं आपको दिखाई देगा। भोर होते ही नीचे की घाटी में एकत्र ‘श्वेत कोहरा’ यूँ लगता है मानों बर्फ का विशाल पहाड़ उभर आया हो, किन्तु सूर्य की किरणों का स्पर्श पाकर वह मचल पड़ता है जैसे अपनी दिनचर्या के लिये।

इस यात्रा में जिस स्थान का नाम आप सुनेंगे उसका सम्बन्ध सीधा प्रकृति व पर्यावरण से होता है। चन्दरूडी बुग्यााल से एक किमी. के फासले पर थेंरचुगा नामक स्थान है जहाँ पर आपको जंगली भेड़ हर समय चरते नजर आएँगे। स्थानीय भाषा में जंगली भेड़ को ‘थेर’ कहते हैं। यही वजह है कि उक्त स्थान का नाम थेरचुंगा से विद्यमान है। यहीं से आपका पाला ग्लेशियरों से पड़ जाएगा।

 

 

 

भेड़ पालक


थेरचुंगा के आगे भी एक चौरका रमणीक स्थान है। यहाँ से अनेकों जल धाराएँ, असंख्यक पहाड़ियाँ, ग्लेशियर, घाटियाँ दिखाई पड़ती हैं। यहीं से आगे फाचुकांडी बुग्याल क्षेत्र आरम्भ हो जाता है। थेरचुंगा से फाचुकांडी तीन किमी. के लगभग है। इस यात्रा में आपको जुलाई से सितम्बर तक भेड़ पालको से ज्यादा मुखातिब होना पड़ेगा। इनकी पोशाक देखकर ही इन्हें सहजता से पहचान लिया जाता है। ऊन की चोली, ऊन का चूड़ीदार पजामा, कमर में भी ऊन की रस्सीनुमा पगड़ी, सिर पर टोपी और उसमें सजे प्राकृतिक फूलों के गुच्छे इनकी सहजता को दर्शाते हैं। आकर्षक तो यह है कि वे आगे-आगे चलते हैं और पीछे-पीछे उनकी भेड़-बकरियों की टोलियाँ। सबसे अन्त में इनके वफादार व अंगरक्षक कुत्ते होते हैं।

 

 

 

यहाँ कब जाएँ


यहाँ मार्च से जुलाई एवं अक्टूबर-नवम्बर में ही जाना उपयुक्त है। अगस्त सितम्बर में यहाँ बरसात का मौसम रहता है। दिसम्बर से फरवरी तक यह क्षेत्र बर्फ की चादर ओढ़ लेता है। यहाँ जब भी जाएँ हर समय गरम कपड़ों की व्यवस्था के साथ ही जाएँ। अक्टूबर-नवम्बर तक यहाँ काफी ठंड बढ़ जाती है।

 

 

 

कैसे पहुँचे


दिल्ली से देहरादून तक हवाई, रेल, बस इत्यादि की सेवा हर समय पर उपलब्ध मिलती है। देहरादून से बड़कोट तक उत्तराखण्ड परिवहन निगम की बस एवं शेयर टैक्सी की सेवाएँ ही दिन भर मिलती रहती हैं। देहरादून से बड़कोट 132 किमी. तथा बड़कोट से राजगढ़ी 20 किमी व राजगढ़ी से सरनौल 10 किमी मोटरमार्ग है। बड़कोट से सरनौल तक सुबह-शाम ही बस व ट्रैकर की सुविधा मिलती है। इसके बाद सरूताल आदि स्थानों पर जाने के लिये पैदल रास्ते बने हैं।

 

 

 

कहाँ ठहरे


देहरादून से मसूरी होते हुए जमुनापुल इसके बाद यमुना के किनारे-किनारे नैनबाग, डामटा, बर्नीगाड़, नौगाँव होते हुए बड़कोट नगर पंचायत पहुँचते हैं। यहाँ पर गढ़वाल मण्डल विकास निगम के गेस्ट हाऊस, लोक निर्माण विभाग एवं वन विभाग के गेस्ट हाऊस के अलावा चौहान ऐनेक्सी जैसे अन्य टेंट, हट इत्यादि की सुविधा पर्यटकों के लिये हर समय उपलब्ध रहती है। बड़कोट के बाद राजगढ़ी, सरनौल आदि स्थानों पर भी वन विभाग के सीमित गेस्ट हाऊस हैं परन्तु स्थानीय ग्रामीण लोग पर्यटकों की आवभागत में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं।

 

 

 

 

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