प्रकृति के साथ जीना सीखना होगा हमें

26 Dec 2015
0 mins read

भूकम्पमसूरी और नैनीताल में सैकड़ों मकान सन् 1900 से पहले के बने हुए हैं। अगर यहाँ लगभग 6 रिक्टर या उससे थोड़ा सा बड़ा भूकम्प आता है तो वहाँ कम-से-कम 18 प्रतिशत पुराने जीर्ण-शीर्ण भवन जमींदोज हो सकते हैं।

भूचाल कभी किसी को नहीं मारता है, फिर भी हम डरते भूचाल से हैं और मरते उस मकान से हैं, जिसे हम अपने आश्रय के लिये या सुरक्षित रहने के लिये बनाते हैं। हैरानी का विषय यह है कि जो मकान हमें मारता है या चोट पहुँचाता है, उसके लिये हम विलाप करते हैं और सारा दोष भूकम्प पर डाल देते हैं। अगर हम प्रकृति के साथ जीना सीखें तो क्या भूचाल या क्या बाढ़? हमें कोई भी आपदा कैसे मार सकती है?

30 सितम्बर 1993 को महाराष्ट्र के लातूर क्षेत्र में 6.2 रिक्टर का भूकम्प आता है तो उसमें लगभग 10 हजार लोग मारे जाते हैं और 30 हजार से अधिक लोगों के घायल होने के साथ ही 1.4 लाख लोग बेघर हो जाते हैं, जबकि 28 मार्च 1999 को चमोली में लातूर से भी बड़े रिक्टर 6.8 मैग्नीट्यूट का भूकम्प आता है तो उसमें केवल 103 लोगों की जाने जाती हैं और 50 हजार मकान क्षतिग्रस्त होते हैं। 20 अक्टूबर 1991 के उत्तरकाशी भूकम्प में 786 लोग मारे जाते हैं और 42 हजार मकान क्षतिग्रस्त होते हैं, जबकि वह चमोली के भूकम्प से छोटा केवल 6.1 रिक्टर का ही भूकम्प था। इसी तरह जब 26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज में रिक्टर पैमाने पर 7.7 रिक्टर का भूकम्प आता है तो उसमें कम-से-कम 20 हजार लोग मारे जाते हैं और 1.67 लाख लोग घायल होने के साथ ही 4 लाख लोग बेघर हो जाते हैं, जबकि 11 मार्च 2011 को जापान के टोहाकू क्षेत्र में रिक्टर पैमाने पर 9.00 रिक्टर स्केल का प्रलयकारी भूचाल आने के साथ ही विनाशकारी सुनामी भी आबादी क्षेत्र को ताबाह कर जाती है, फिर भी वहाँ केवल 15,891 लोग मारे जाते हैं। इस दोहरी विनाशलीला के साथ तीसरा संकट परमाणु संयंत्रों के क्षतिग्रस्त होने से विकीर्णन का भी था। अगर ऐसा तिहरा संकट भारत जैसे देश में आता तो करोड़ों लोग जान गँवा बैठते। नेपाल में ही देखिए! वहाँ सबसे अधिक तबाही काठमांडू में हुई है, क्योंकि देश की राजधानी होने के नाते वहाँ आबादी सबसे घनी होने के साथ ही इमारतें भी औसतन अन्य हिस्से की तुलना में ज्यादा और विशालकाय हैं। धरहरा टावर इसका एक उदाहरण है।

अगर आप जापान में भूकम्पों का इतिहास टटोलें तो वहाँ बड़े-से-बड़ा भूचाल भी मानवीय हौसले को डिगा नहीं पाये। जापान में 26 नवम्बर सन् 684 (जूलियन कैलेंडर) से लेकर अब तक रिक्टर पैमाने पर 7 से लेकर 9 रिक्टर तक के दर्जनों भूचाल आ चुके हैं।

आपदा प्रबन्धकों के अनुसार इस परिमाण के भूकम्प काफी संहारक होते हैं। खास कर रिक्टर पैमाने पर 8 या उससे बड़े रिक्टर के भूकम्पों को भयंकर माना जाता है। 9 और उससे अधिक के भूचालों को तो प्रलयंकारी माना ही जाता है। फिर भी जापान में जन हानि बहुत कम होती है। सन् 1950 के बाद के जापान के भूकम्पों पर ही अगर नजर डाली जाये तो सन् 1952 से लेकर अब तक जापान में रिक्टर पैमाने पर 7 से लेकर 9 रिक्टर तक के 31 बड़े भूचाल आ चुके हैं। उनके अलावा 4 या उससे कम रिक्टर के भूकम्प तो वहाँ लोगों की दिनचर्या के अंग बन चुके हैं। इन भूकम्पों में से टोहोकू के भूकम्प और सुनामी के अलावा वहाँ कोई बड़ी मानवीय त्रासदी नहीं हुई। वहाँ 25 दिसम्बर 2003 को होक्कैडो में 8.3 रिक्टर का भयंकर भूचाल आया, फिर भी उसमें मरने वालों की संख्या केवल एक थी। इतने बड़े रिक्टरों वाले 7 भूकम्प ऐसे थे, जिनमें एक भी जान नहीं गई। जाहिर है कि जापान के लोग भूकम्प ही नहीं, बल्कि प्रकृति के कोपों के साथ जीना सीख गए हैं। वहाँ के लोगों ने प्रकृति को अपने हिसाब से ढालने का दुस्साहस करने के बजाय स्वयं को प्रकृति के अनुसार ढाल दिया है।

भूकम्प की संवेदनशीलता के अनुसार भारत को 5 जोनों में बाँटा गया है। इनमें सर्वाधिक संवेदनशील जोन ‘पांच’ माना जाता है, जिसमें सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र का सम्पूर्ण भारतीय हिमालय क्षेत्र है। वैसे देखा जाये तो अफग़ानिस्तान से लेकर भूटान तक का सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र भारतीय उप महाद्वीप के उत्तर में यूरेशियन प्लेट के टकराने से भूगर्भीय हलचलों के कारण संवेदनशील है। इनके अलावा रन आफ कच्छ भी इसी जोन में शामिल है, लेकिन इतिहास बताता है कि भूचालों से जितना नुकसान कम संवेदनशील ‘जोन चार’ में होता है, उतना जोन पाँच में नहीं होता। उसका कारण भी स्पष्ट ही है। जोन पाँच वाले हिमालयी क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है, जबकि जोन चार और उससे कम संवेदनशील क्षेत्रों का जनसंख्या का घनत्त्व काफी अधिक है। यही नहीं हिमालयी क्षेत्र में प्राय: लोगों के घर हजारों सालों के अनुभवों के आधार पर परम्परागत स्थापत्य कला के अनुसार बने होते थे। इस हिमालयी क्षेत्र में जनसंख्या भी काफी विरल होती है। इसलिये यहाँ जनहानि भी काफी कम होती है। त्रिपुरा को छोड़कर ज्यादातर हिमालयी राज्यों का जनसंख्या घनत्त्व 125 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. से भी कम है। अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम का जनसंख्या घनत्त्व तो 50 से भी कम है। उत्तराखण्ड में ही जहाँ उच्च हिमालय स्थित सीमांत जिला चमोली का जनसंख्या घनत्त्व 49 और उत्तरकाशी का 41 है, वहीं मैदानी हरिद्वार का 817 और ऊधमसिंह नगर का 648 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. है। अगर कभी काठमांडू की जैसी भूकम्प आपदा आती है तो भूकम्पीय दृष्टि से अति संवेदनशील सीमांत जिलों से अधिक नुकसान मैदानी जिलों में हो सकता है।

नेपाल त्रासदीहमारे देश के किसी भी हिस्से में जब भी भूकम्प या बाढ़ जैसी दैवीय आपदा आती है तो सरकारी आपदा प्रबन्धन की तैयारियाँ धरी-की-धरी रह जाती है और बाद में एक महकमा दूसरे पर सारा दोष मढ़कर अपने कर्तव्यों को इतिश्री कर लेता है। उदाहरण उत्तराखण्ड की 2013 की जल प्रलय का लिया जा सकता है। हजारों लोगों के मारे जाने के बाद मौसम विभाग का कहना था कि हमने तो राज्य सरकार को भारी वर्षा की चेतावनी देकर पहले ही आगाह कर दिया था। इस पर राज्य सरकार और उसके आपदा प्रबन्धन तंत्र का कहना था कि मौसम विभाग ने अलग से कोई खास चेतावनी देने के बजाय रुटीन वाली चेतावनी दे दी थी, जैसी कि लगभग हर रोज ही बरसात में दी जाती है। अगर मौसम विभाग ने मानसून के समय से पहले आने, मानसून की गति और उसकी नमी के लोड (भार) की भी सही जानकारी दी होती तो यह नौबत नहीं आती। वास्तव में किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि केदारनाथ के ऊपर मानसून गोली की माफिक इतना अधिक नमी का भार लेकर चलेगा और वहाँ बाढ़ आ जाएगी। उस उच्च हिमालयी क्षेत्र में तो वर्षा भी नहीं होती।

देखा जाये तो हमने अभी कोसी की बाढ़, सन् 2004 की सुनामी और लातूर तथा भुज की भूकम्पीय आपदा से सबक नहीं सीखा। हमारे देश में भूकम्पीय संवेदनशीलता के लिये जोनेशन तो कर दिया गया, मगर घातकता का नक्शा अभी तक नहीं बना। जोन पाँच से अधिक जोन चार वाले क्षेत्र भूकम्पीय घातकता की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील हैं। कारण इन क्षेत्रों का जनसंख्या घनत्त्व अधिक होना तथा इन क्षेत्रों में विशालकाय अट्टालिकाओं का होना है। आम आदमी तो सुरक्षा मानकों की उपेक्षा करता ही है, लेकिन सरकार की ओर से भी इस सम्बन्ध में ज्यादा जागरुकता नहीं दिखाई जाती। ज्यादातर राज्यों में स्कूल-कॉलेजों और अस्पतालों का निर्माण भूकम्पीय संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए नहीं किया जाता है। ज्यादातर सरकारी बिल्डिंगों के निर्माण में भी भूकम्परोधी मानकों की उपेक्षा कर दी जाती है। पुराने सरकारी भवन तो मामूली झटके से भरभरा सकते हैं। उत्तराखण्ड में जब देश का पहला आपदा प्रबन्धन मंत्रालय बना था तो यहाँ भवनों के नक्शे पास कराने में भूकम्परोधी मानकों को भी शामिल करने के साथ ही कानून बनाने की घोषणा भी की गई थी, लेकिन ऐसा प्रावधान कभी नहीं किया गया। सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र के बीच के सभी राज्य में अब परम्परागत भवन निर्माण शिल्प के बजाय मैदानी इलाकों की नकल से सीमेंट कंक्रीट के मकान बन रहे हैं, जो कि भूकम्पीय दृष्टि से बेहद खतरनाक है। हिमालयी गाँवों में सीमेंट कंक्रीट के जंगल उग गए हैं।

उत्तराखण्ड का भूभाग भौगोलिक दूष्टि से सीधे यूरेशियन प्लेट या तिब्बत के मजबूत पठार से लगा हुआ है। अगर भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर की और खिसकने से हिमालय के गर्भ में घर्षण या टक्कर से भूगर्भीय ऊर्जा जमा हो रही है तो इससे उत्तराखण्ड समेत 11 हिमालयी राज्यों के लिये खतरा निरन्तर बना हुआ है। उत्तराखण्ड में मसूरी, नैनीताल और देहरादून जैसे नगरों पर सबसे अधिक खतरा मँडरा रहा है। ये सभी नगर जोन चार में आते हैं।

राज्य के आपदा प्रबन्धन विभाग द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि अगर मसूरी और नैनीताल में सैकड़ों मकान सन् 1900 से पहले के बने हुए हैं। अगर यहाँ लगभग 6 रिक्टर या उससे थोड़ा सा बड़ा भूकम्प आता है तो वहाँ कम-से-कम 18 प्रतिशत पुराने जीर्ण-शीर्ण भवन जमींदोज हो सकते हैं। नैनीताल के 13 आवासीय वार्डों के 3110 भवनों पर किये गए ताजा सर्वेक्षण के अनुसार वहाँ बड़े भूकम्प की स्थिति में 396 भवन अति जोखिम वाली श्रेणी 5 और 4 में पाये गए हैं। इनमें से 92 प्रतिशत भवन 1950 से पहले के बने हुए हैं। अगर ये भवन ढह गए तो सरोवन नगरी मलबे में बदल जाएगी।

देहरादून में भी खुड़बुड़ा और चुक्खूवाला जैसे ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ जनसंख्या का घनत्त्व बहुत अधिक है और अगर कभी काठमांडू की जैसी नौबत आती है तो कई दिनों तक रेस्क्यू वर्कर अन्दर के क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाएँगे। उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ की तरह सूबे की राजधानी भी भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील है। इसकी वजह है दून से गुजरने वाले दो बड़े सक्रिय फॉल्ट। ये हैं मैन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी) और मैन फ्रंटल थ्रस्ट (एमएफटी)। भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक दोनों सक्रिय थ्रस्ट राजपुर रोड के आसपास एक-दूसरे से करीब 10-12 किमी. की दूरी से गुजरते हैं।

TAGS
We must learn to live with nature In terms of earthquake

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading