प्रकृति की उदारता को अधिकार न समझें

21 Feb 2015
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मानवीय व प्राकृतिक संसाधनों के मध्य सन्तुलन का उत्कृष्ट उदाहरण नहीं है। इस रिक्तता की चुनौती की भरपाई मानवीय समाज के लिए जटिल प्रश्न है। हरी-भरी सृष्टि पर मानव की कुदृष्टि ने कहर बरपा दिया है। उसने हरियाली में अपनी हेकड़ी दिखाने की अनुचित कोशिश की है। सुख लोलुपता की चकाचौंध में वह इन्द्रियों की सीमा पार कर गया और यह भूल गया कि लौटकर इसी मिट्टी पर कदम रखना है। जब लौटा तब पाया कि हरीतिमा घायल है, दूषित हैं और नई पीढ़ी कोस रही है अपने पूर्वजों को। कहीं हिमखण्ड पिघले रहे हैं, कहीं तूफानी वर्षा हो रही है, कभी भूकम्प का अकल्पित ताण्डव नृत्य हो रहा है, कभी भयंकर वर्षा तो कभी सूखा पड़ रहा है। ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया सक्रिय है। क्या प्रवृत्ति के परिवर्तन को रोकना सम्भव है?

अभी कुछ समय पहले अमेरिका के शोधकर्ताओं थामसन जे. दोहेजी व सूसन क्लेटन ने इस बात की पुष्टि की है कि बढ़ता ताप व जलवायु परिवर्तन मनुष्य को हिंसक बना रहा है। प्रश्न यह है कि मानव को हिंसक बनाने में यदि जलवायु परिवर्तन का हाथ है तो जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कौन है? शरीर विज्ञान के अनुसार यदि शरीर को स्वस्थ रखना है तो उसकी मूलभूत पौष्टिक जरूरतों की प्रतिपूर्ति आवश्यक है।

कई ऐसे युवा मिलेंगे जो अपनी नई उम्र में ही बुढ़ापे जैसी स्थिति में पहुँच जाते हैं। स्वस्थ शरीर के लिए संयम व नियमित दिनचर्या आवश्यक है। ठीक वैसे ही प्रकृति के साथ मानव को सन्तुलित व्यवहार करना आवश्यक हैै। वस्तुतः मानव प्रकृति का ही एक अनुपम घटक है जो मौलिक रूप से स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है किन्तु भौतिक स्वरूप प्रकृति सापेक्ष होने के कारण परस्पर प्रभावित होते हैं।

मानव अपने शरीर के प्राकृतिक संसाधनों को उपयोग किस ढंग से करता है, उससे उसकी स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। महात्मा गाँधी ने कहा था कि प्रकृति के पास मानव की आवश्यकता पूर्ति की क्षमता है किन्तु उसकी तृष्णा की नहीं।

प्रकृति की उदारता को यदि हम अपना अधिकार समझकर उसका उपयोग या उपभोग करने लगें, तो विकृति फैलना स्वाभाविक है। यदि उसकी उदारता को सभी के कल्याण का साधन मानने लगें तो उसके प्रति शोषणवृत्ति समाप्त होगी और प्रकृति के साथ तादात्म्य व सन्तुलन सहज हो जाएगा।

वस्तुतः यह सृष्टि सेवा रूप है और मानव सर्वाधिक विकसित व विवेक सम्मत पर्यावरणीय घटक है। प्रकृति में सभी कुछ पारस्परिक हैं। मानव के शरीर व मन के दूषित होने पर उसका दुष्प्रभाव अन्य पर पड़ सकता है। जैसी दृष्टि होगी वैसी ही सृष्टि दिखलाई देगी।

प्रकृति से प्राप्त हर वस्तु व पदार्थ पर मानव अपना अधिकर समझने लगता है किन्तु उसकी सीमाओं की अनदेखी कर देता है। जल पर मानव अपना अधिकार मानता है किन्तु उसकी उपलब्धता व स्वच्छता के बारे में सोचना नहीं चाहता। आज दुनिया में कई स्थानों पर पानी को लेकर संघर्ष की स्थिति बन चुकी है। रासायनिक कल-कारखानों, बूचड़खानों से उत्सर्जिंत पानी बहकर नदियों में चला जाता है, जिससे वे प्रदूषित हो जाती हैं। यह मानवीय भूल है।

इसी प्रकार वायुमण्डल व भूमि को मानव प्रदूषित करने में लगा है। रेफ्रिजरेटरों, चिमनियों व वाहनों से निकलने वाली क्लोरो फलोरो कार्बन व अन्य ग्रीन हाउस गैसें वायुमण्डल की ओजोन पर्त को निरन्तर क्षति पहुँचा रही हैं। ओजोन पर्त में सीएफसी गैस के अत्यधिक उत्सर्जन के कारण छिद्र का आकार बढ़ता जा रहा है। मानव ने मिट्टी को विभिन्न रासायनिक उर्वरक व कृत्रिम खादों से पाट दिया है। जमीन की गुणवत्ता समाप्त हो रही है।

फसलों व सब्जियों में विषैले तत्व पाए गए हैं जिनके सेवन से अन्ततः मानवीय स्वास्थ्य बिगड़ जाता है और न केवल मानव अपितु अन्य जीव-जन्तुओं का जीवन भी खतरे में पड़ जाता है। गिद्ध व अन्य पक्षी विलुप्ति के कगार पर पहुँच गए हैं। आॅक्सीजन प्रदान करने वाले पेड़-पौधों की संख्या वन-विनाश व शहरीकरण के कारण चिन्ताजनक रूप से कम हुई है। मानव समाज के सन्तुलित पर्यावरण के लिए लगभग 33 प्रतिशत वन होना आवश्यक है।

भारत में अभी 20 से 23 प्रतिशत के बीच वन क्षेेेेत्र हैं। यह मानवीय व प्राकृतिक संसाधनों के मध्य सन्तुलन का उत्कृष्ट उदाहरण नहीं है। इस रिक्तता की चुनौती की भरपाई मानवीय समाज के लिए जटिल प्रश्न है। बढ़ते औद्योगिकीकरण ने प्रदूषण के विभिन्न आयामों को जन्म दिया है और शहरीकरण ने मानवीय समाज को ग्राम्य परिवेश की तुलना में संकीर्ण भी बनाया है।

सामाजिक मनोदशा व्यापकता के स्थान पर व्यक्तिगत सीमा में सिमटती चली गई है और उदारता की धार बोथरी पड़ती गई। प्रकृति की उदारता का मानव ने भरपूर लाभ उठाया। परन्तु बदले में मानव ने प्रकृति को क्या लौटाया?

हरी-भरी सृष्टि पर मानव की कुदृष्टि ने कहर बरपा दिया है। उसने हरियाली में अपनी हेकड़ी दिखाने की अनुचित कोशिश की है। सुख लोलुपता की चकाचौंध में वह इन्द्रियों की सीमा पार कर गया और यह भूल गया कि लौटकर इसी मिट्टी पर कदम रखना है। जब लौटा तब पाया कि हरीतिमा घायल है, दूषित हैं और नई पीढ़ी कोस रही है अपने पूर्वजों को।

वनों में विचरते शेर, हिरण, चीता, भालू, हाथी आदि जानवर तथा विभिन्न प्रजातियों के पक्षियों का संसार सिमटता जा रहा है। वे जाएँ तो जाएँ कहाँ? मानव ही उनका परम शत्रु है। खरगोश व हिरण दुर्लभ होते जा रहे है। पर्यावरण सन्तुलन बनाए रखने में उपयोगी जंगली जानवर का अस्तित्व खतरे में है। भूमि की उर्वरा शक्ति को जीवित रखने वाले ‘केंचुए‘ रासायनिक प्रभाव से नष्टप्रायः हो गए हैं।

अब प्रश्न यह है कि जलवायु परिवर्तन का इन सबसे सम्बन्ध क्या है? मानवीय कृत्यों के परिणामस्वरूप वन-विनाश, प्रदूषण व ओजोन मण्डल में बढ़ते छिद्र के कारण वैश्विक ताप में बढ़ोतरी हुई है जिससे जलवायु परिवर्तन की परिस्थितियाँ बनती गईं। पृथ्वी पर बढ़ते ताप के कारण हिमखण्ड पिघलने की गति बढ़ रही है। इससे समुद्रतटीय जल में वृद्धि होने से छोटे-छोटे द्वीपों के जलमग्न होने और तटीय इलाकों में बसी बस्तियों के उजड़ने का खतरा उत्पन्न हो गया है।

भारत के समुद्रतटीय क्षेत्रों को निस्सन्देह खतरा है। नदियों से भी बाढ़ व विस्थापन की समस्या उत्पन्न हो गई है। भूमिगत परमाणु परीक्षकों एवं निरन्तर उत्खन्न कार्य से धरती की कोख कम्पित हो रही है जिसकी हलचलें भूकम्प, सुनामी के रूप में होती रहती हैं। जलवायु परिवर्तन में ये घटनाएँ सहायक होती हैं और यही जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी है।

सामान्यतया प्रकृति की हलचल को कोई रोक नहीं सकता। परन्तु मानवकृत परिस्थितियों ने जिस प्रकार जलवायु परिवर्तन की चुनौती खड़ी की है, उसमें उसी को सार्थक भूमिका निभानी होगी ताकि उसके दुष्प्रभाव से स्वयं मानव समाज व शेष सृष्टि को बचाया जा सके। प्रकृति के गूढ़ रहस्य मानव बाह्य साधनों से पूर्णतया हल नहीं कर सकता।

आंतरिक एकाग्रता व समग्र दृष्टि से पर्यावरण की विविधता व व्यापकता का अध्ययन किया जा सकता है। समग्र बोध से प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व स्वाभाविक हो जाता है। मानव वर्तमान परिस्थितियों में जलवायु परिवर्तन का केन्द्र बिन्दु है। परन्तु विराट सृष्टि में बाह्य तत्वों की अपनी भूमिका भी है और परस्पर आकर्षण-घर्षण का प्रभाव भी हो सकता हैै। सृष्टि में बदलाव होते रहे हैं और पृथ्वी गृह उससे अछूता कैसे रह सकता है?

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