प्रकृति-संरक्षण की संस्कृति

भारतीय संस्कृति में निहित इन बिंदुओं को यदि नैतिकता-अनैतिकता की सीमा रेखा में न भी बांधे तो भी ये प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की संवाहक प्रतीत होती है और भारतीय चिंतन धारा की यही प्रमुख विशेषता रही है, जो इस प्रदूषण अभिशप्त सदी में हमें अपने अतीत की याद बार-बार दिलाती है। भारतीय चिंतकों की मान्यता थी कि संसाधन हमारी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के उपादान हैं, लूट-खसोट की वस्तु नहीं। हमारी लालसा ने पर्यावरण में भयानक रूप से कुछ ऐसी तब्दीलियाँ कर दी हैं कि वे आज हमारे अस्तित्व की रक्षा के लिए घातक बन बैठी हैं। प्राकृतिक अनुराग और प्रकृति-संरक्षण की चिरंतन, शाश्वत धारा है भारतीय संस्कृति। प्रकृति अनुराग हमारी पुरातन संस्कृति में इस कदर रचा-बसा हुआ है, इस कदर समाया हुआ है कि हम प्रकृति से अपने जुदा अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते। सच भी है, हम प्रकृति के अनिवार्य और अविभाज्य अंग हैं।

हम प्रकृति से और प्रकृति हम से जुदा रह ही नहीं सकती। भारतीय मनीषियों ने समूची प्रकृति को क्या, सभी प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वरूप माना। ऊर्जा के अपरिमित स्रोत को देवता माना-सूर्यदेव भव। वस्तुतः सूर्य हमारा यानी इस ग्रह का जीवनदाता है। बिना उसके वनस्पतियों का और परोक्ष रूप से अन्य जीवों का अस्तित्व असंभव है। तभी तो वैदिक ऋषि कामना करते हैं कि सूर्य से कभी हमारा वियोग न हो - नः सूर्यस्य संदृशे मा युयोथाः। उपनिषदों में सूर्य को प्राण की संज्ञा दी गई।

वस्तुतः सूर्य सभी प्राणियों में, वनस्पतियों में जीवन का संचार करता है। सागरों की गोद में आज से अरबों वर्ष पूर्व जीवन का जो आदि रूप पनपा, उसमें सूर्य रश्मियों ने ही जीवन का संचार किया। तब से निरंतर यह प्रक्रिया जारी है। वनस्पतियां सूर्य रश्मियों से ऊर्जा लेकर अपना आहार तैयार करती हैं और उन्हीं से अन्य पराश्रयी जीव-जंतु अपना भरण-पोषण करते हैं। ऐसे जीवनदाता के रूप में किसी देवी शक्ति के प्रतीक रूप की कल्पना भारतीय मनीषियों ने की तो वह सर्वथा समीचीन थी।

हमारे शाश्वत मूल्यों के संवाहक आज भी यही प्रयास करते हैं कि घर का द्वार पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख हो ताकि सूर्य का प्रकाश संपूर्ण रूप में वहां पहुंच सके। उपनिषदों में वायु में दैवीय शक्ति की अवधारणा निहित है। वायु ही प्राण बनकर शरीर में वास करती है। वेदों में वायु को भेषज गुणों से युक्त माना गया है। एक श्लोक में कहा गया है - ‘हे वायु! अपनी औषधि ले आओ यहां से सब दोष दूर करो, क्योंकि तुम ही सब औषधियों से युक्त हो।’

भारतीय संस्कृति में जल को भी देवता माना गया है। सरिताओं को जीवनदायिनी कहा गया है, कदाचित् इसी नाते आदि संस्कृतियां सरिताओं के किनारे उपजीं, बसीं और बहीं से विस्तार पाती गईं। वर्जनाहीन समाज और निरंतर पतनोन्मुखी जीवनशैली में भले ही मूल्य बदल गए हों, पर हमारी पुरातन संस्कृति में सरिताओं तालाबों, पोखरों में मूत्र-विसर्जन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

इतना ही नहीं, वैदिक ऋषि पवित्र जल की उपलब्धता की कामना करता है। सरोवरों में नहाने से पूर्व परंपरा यह थी कि एक कंकड़ी मारकर गंगा को जगाया जाता है, मानो गंगा सो रही हो, फिर उनका चरण स्पर्श कर जल स्रोत से शारीरिक आचमन किया जाता था, गंगा हमारे लिए मात्र नदी नहीं है, अपितु भारतीय संस्कृति की संवाहिनी भी है।

गंगा अंतः सलिला है, उसका वास हमारे हृदय में है। वह पुण्यतोया है, इसलिए पापहारिणी भी, ऐसा शस्त्रोक्त मत है, पर आज मूल्य विहीन जीवन शैली में इतना अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया है कि राजा भगीरथ के पुरखों का कलुष धोने वाली, मुक्तिदायिनी गंगा शहरों का मल-जल और फ़ैक्टरियों की गंदगी ढोते-ढोते स्वयं इस कदर दूषित हो गई है कि आज वह पीने योग्य नहीं रही, कई बीमारियों का घर बन चुकी है।

हमारी भारतीय संस्कृति में वृक्षों को भी देवता माना गया है। हमारे महान आयुर्विज्ञानियों की धारणा है कि संसार में ऐसी कोई वनस्पति नहीं जिसका सदुपयोग न हो। संभवतः इसी नाते वृक्षों को वंदनीय कह गया है। मत्स्य पुराण में तो यहां तक कहा गया है-दस कुओं के बराबर एक बावड़ी है, दस बावड़ी के बराबर एक तालाब है, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है।

भारतीय वड्मय में तरुवंदना की उदात्त भावना का उत्कर्ष तो अत्यंत विरल है। वृक्षों के प्रति ऐसे अप्रतिम अनुराग की छाया भी किसी अन्य देश की संस्कृति में सर्वथा दुर्लभ है। मनुष्य ईश्वर-भीरु है और धर्मभीरू भी। कदाचित् इसीलिए हमारे पूर्वजों ने सामाजिक वर्जनाओं को अनिवार्य बनाने के निमित्त उन्हें धर्म से संबद्ध कर दिया ताकि ठीक से उनका अनुपालन हो सके। कृष्णा ने गीता में कहा है कि - वृक्षों में मैं पीपल हूं।

कुछ कथित प्रगतिशील लोग इसे हमारी जड़ता और अंध धार्मिकता कहते हैं। अंध धार्मिकता ही सही, लेकिन इसी के कारण हमारे पीपल और बरगद कटने से बच गए। पर्यावरण शोधन के साथ ही बादल-वर्षा वृक्ष और वनस्पतियों का एक नैसर्गिक चक्र है। इसी निरंतरता को बनाए रखने के लिए ऋषियों ने सरिताओं को दूषित करने और वृक्षों को काटने के लिए वर्जनाएं की।

हमारी प्राचीन संस्कृति प्रकृति में दैवी स्वरूप का दर्शन पाती थी, उसकी अर्चना करती थी, प्रकृति को माता की संज्ञा दी गई है, पर आज की मूल्य विहीन जीवनशैली में हम अपनी पहचान भूल गए हैं, मूल्यों की रक्षा का तो प्रश्न ही नहीं और इसी का दुष्परिणाम यह है कि आज मानव और प्रकृति के रिश्ते नापाक हो गए हैं और हमने अपने पर्यावरण को बिगाड़ लिया है। आज के वर्जनाहीन समाज में न तो जल शुद्ध रह गया है, न हवा।

भारतीय संस्कृति में निहित इन बिंदुओं को यदि नैतिकता-अनैतिकता की सीमा रेखा में न भी बांधे तो भी ये प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की संवाहक प्रतीत होती है और भारतीय चिंतन धारा की यही प्रमुख विशेषता रही है, जो इस प्रदूषण अभिशप्त सदी में हमें अपने अतीत की याद बार-बार दिलाती है। भारतीय चिंतकों की मान्यता थी कि संसाधन हमारी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के उपादान हैं, लूट-खसोट की वस्तु नहीं।

हमारी लालसा ने पर्यावरण में भयानक रूप से कुछ ऐसी तब्दीलियाँ कर दी हैं कि वे आज हमारे अस्तित्व की रक्षा के लिए घातक बन बैठी हैं। हमारी अगली पीढ़ी अपने पुरातन गौरवशाली मूल्यों, स्थापनों की विरोधी धारा में जी रही होगी। आइए, ऐसे क्षण में हम अपनी पुरातन थाती और वैदिक ऋषियों की वाणी की रक्षा का शुभ संकल्प लें।

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