परम ऊर्जाः चरम विनाश (भाग - 3)

भाभा एटमिक रिसर्च सेंटर परमाणु ऊर्जा विभाग का एकमात्र शोध और विकास संस्थान है। वह सुरक्षा मानकों का स्रोत है, स्वास्थ्य विभाग तथा रेडियोलाजिकल संरक्षण विभाग का प्रधान कार्यालय है और परमाणु ऊर्जा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों का ‘पालना’ है। यहीं से निकलते हैं देश के भावी परमाणु-वैज्ञानिक। पर इस संस्थान में भी अत्यधिक मात्रा में विकिरण का फैलाव मौजूद है। कोई दस साल पहले की गई आखिरी गिनती में हर साल 4 लोग 5 रेम से ज्यादा विकिरण झेल रहे थे और मानवीय रेम संचय कुल मिलाकर हजार के ऊपर पहुंच गया था। यहां विभागीय कर्मचारियों ने एक ही साल में 22.28 रेम की उच्चतम मात्रा का सेवन किया था। ये आंकड़े 12 साल से भी पहले के हैं, जो नौ साल पहले प्रकाशित हुए थे। उसके बाद तो तथ्य मिलने ही बंद हो गए।

यहां टीएलडी (थर्मो-ल्यूमिलिसेंट डोसीमीटर) तथा फिल्म-बिल्लों के गायब होने, खो जाने या उन फिल्मों को नष्ट करने का सिलसिला शुरू हुआ। फिल्म के ये बिल्ले ही कर्मचारियों के विकिरण-सेवन को दर्ज करते हैं। बिल्ले में लगी फिल्म विकिरण की मात्रा दर्ज कर लेती है। जब ऐसे बिल्ले ही गायब हो जाएं तो किसी भो भला क्या मालूम पड़ेगा कि भाभा सेंटर ने कितने लोगों का स्वास्थ्य बिगाड़ा है।

परमाणु ईंधन चक्र में प्लूटोनियम प्राप्त करने के लिए काम आ चुके परमाणु ईंधन के पुनरुपचार की प्रक्रिया सबसे ज्यादा खतरनाक, समस्याओं से भरी और पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक होती है। रिएक्टरों में काम आ चुके परमाणु ईंधन के पुनरुपचार के लिए बनाए गए किसी भी संयंत्र ने अपनी क्षमता का पांचवां भाग भी पूरा नहीं किया है। दुनिया के पांच बड़े पुनरुपचार संयंत्रों में से चार कुछ भी काम किए बिना होने वाली दुर्घटनाओं का केंद्र बन गए थे।

पुनरुपचार अणुशस्त्रों के फैलाव का भी प्रमुख स्रोत रहा है। यह अणुबम बनाने के दो तरीकों में से एक है और साथ ही कम खर्चीला तथा आसान तरीका माना जाता है। दुनिया में जितने भी पुनरुपचार संयंत्र हैं, वे अक्सर इस बात के लिए बदनाम रहे हैं कि इनमें प्लूटोनियम के उत्पादन की आशंका बताई जाती है और प्रत्यक्ष उत्पादन दिखाया जाता है, वह कभी भी एक-सा नहीं रहा है। दोनों में बड़ा अंतर रहता है। जितना प्लूटोनियम असल में हाथ आना चाहिए, उसमें से अच्छा-खासा हिस्सा बीच में ही कहीं रहस्यात्मक ढंग से गायब हो जाता है। तारापुर का पुनरुपचार संयंत्र ‘प्रेफे’ भी अपवाद नहीं है। लेकिन प्लूटोनियम के पुनरुपचार के विध्वंसात्मक उपयोग के आशंकाएं भी परमाणु बिजली के कारण अंततोगत्वा होने वाली लगभग स्थायी विपत्ति की तुलना में फीकी पड़ जाती है।

परमाणु बिजलीघरों से निकला अति भयानक रेडियमधर्मी कचरा अनंतकाल तक यानी जब तक यह धरती है तब तक, बिलकुल सुरक्षित रूप से जमा करके रखना होगा। है कोई राजनेता या वैज्ञानिक जो इसका दावा कर सकता है? परमाणु ऊर्जा के कट्टर से कट्टर समर्थकों में कोई भी यह नहीं कह सका है कि उस कचरे के निपटान की समस्या का हल मिल गया है।

यह विष आज संसार में 20,000 टन तक की मात्रा में मौजूद है। इसका अधिकांश भाग बिजलीघरों के काम आ चुके ईंधन के हौजों में पड़ा है। उसे भले ही एक किस्म के कांच में बदल दें, जैसे फ्रांसिसी कंपनियां और हमारा परमाणु ऊर्जा विभाग कोशिश कर रहा है, या खास तरह के स्थायी कूड़ाघरों में जमा करें, जैसी पश्चिम जर्मनी की कोशिश है, या समुद्र के नीचे गाड़ दें, तो भी यह कचरा हमेशा के लिए भयंकर आत्मघाती मुसीबत बना रहने वाला है।

परमाणु बिजलीघरों से निकला अति भयानक रेडियमधर्मी कचरा अनंतकाल तक यानी जब तक यह धरती है तब तक, बिलकुल सुरक्षित रूप से जमा करके रखना होगा। है कोई राजनेता या वैज्ञानिक जो इसका दावा कर सकता है? परमाणु ऊर्जा के कट्टर से कट्टर समर्थकों में कोई भी यह नहीं कह सका है कि उस कचरे के निपटान की समस्या का हल मिल गया है।

अमेरिका में थ्री माईल आइलैंड की दुर्घटना के बाद नए परिवर्तनों ने अमेरिका और उत्तरी यूरोप में सुरक्षा व्यवस्था तथा जांच के स्तर को सुधारने के लिए मजबूर किया। इस हिसाब से तो किसी भी दूसरे देश में तारापुर संयंत्र एकदम बंद कर दिया गया होता। ऐसे रिएक्टरों को बंद किया भी गया- हालांकि वे तारापुर की तुलना में कम हानिकारक थे।
तथाकथित कम खतरनाक कचरे (लो-लेवल वेस्ट) से उत्पन्न समस्याओं की तो कल्पना भी नहीं कर सकते। उनका स्थूल आकार ही करोड़ों घन फुट बैठता है। इस कचरे में यूरेनियम का कूड़ा, ईंधन की टूटन, हर साल रिएक्टरों से फेंका जाने वाला कीचड़ और रेडियोधर्मी विकिरण से प्रदूषित कर्मचारियों के कपड़े, जुते, दस्ताने टोपी आदि शामिल हैं। इसे गहरे खड्डे में या समुद्र में गाड़ना भी एक बड़ी आफत है। देर-सवेर यह सब मछलियों आदि के माध्यम से आहार-चक्र में दाखिल होने ही वाला है।

इस कचरे के निपटारे का खर्च क्या आता होगा? अंदाज है कि परमाणु बिजली उत्पादन की लागत के अनुपात में यह खर्च 5-10 प्रतिशत से लेकर 30-60 प्रतिशत तक होगा। अमेरिका में बिजली का उपयोग करने वालों पर प्रति 1,000 मेगावाट घंटे पर एक डालर चार्ज किया जाता है और यह पैसा कचरा निपटाने के काम पर खर्च किया जाता है। वहां के पर्यावरणवादी इसे भी नाकाफी मानते हैं।

हमारे देश में तो मानवीय रेम और लोगों की जान के रूप में प्रत्यक्ष कीमत अदा की जाती है। और अप्रत्यक्ष धन की कीमत साधारण करदाता की जेब से चुकाई जाती है।

पुराने हो चुके परमाणु बिजलीघरों को बंद करने में भी इसी प्रकार की आर्थिक परेशानियां पैदा होती हैं। यह बंद करना शब्द गलत है क्योंकि उसका अर्थ होता है। साधारण रीति से किसी निर्जन मकान में ताला लगा देना। लेकिन दसियों साल तक काम करते रहने वाले परमाणु संयंत्रों के अनेक हिस्सों में रेडियमधर्मिता छा चुकी होती है। बंद करते समय उन्हें कंक्रीट की बहुत मोटी तह वाली एक विशाल कब्र में दफनाकर सदियों तक वायुमंडल से बचाकर रखना पड़ेगा।

एक और उपाय है ‘एंटोबमेंट’ यानी संयंत्र को कंक्रीट ठूंस-ठूंस कर मुहरबंद करना और अनंत काल तक उस पर पहरा बैठाना। यह एंटोबमेंट संभव है सस्ता पड़े लेकिन पर्यावरण के लिए दीर्घकालीन कैसी समस्याएं पैदा करेगा- अभी इसका पूरा-पूरा अंदाज भी नहीं लग सकता है। कुछ चीजें ऐसी हैं, जो एक लाख वर्ष तक रेडियमधर्मी बनी ही रहेंगी। यानी कंक्रीट की उपयोगिता की अवधि उससे पहले कब की खतम हो चुकी होगी। सदियों तक लोग उसका पहरा इतनी मुस्तैदी से देते रहेंगे, यह कहा नहीं जा सकता।

परमाणु बिजलीघरों से निकला अति भयानक रेडियमधर्मी कचरा अनंतकाल तक यानी जब तक यह धरती है तब तक, बिलकुल सुरक्षित रूप से जमा करके रखना होगा। है कोई राजनेता या वैज्ञानिक जो इसका दावा कर सकता है? परमाणु ऊर्जा के कट्टर से कट्टर समर्थकों में कोई भी यह नहीं कह सका है कि उस कचरे के निपटान की समस्या का हल मिल गया है।बंद करने का तीसरा उपाय परमाणु संयंत्र के टुकड़े-टुकड़े कर उसे तोड़ देना और रेडियोधर्मी चीजों को सही स्थान पर पहुंचा देना बताया जाता है। इसमें जो तकनीकी कठिनाइयां आएंगी, उन पर भी ठीक से विचार नहीं हो सका है। इस तरीके से बड़ी मात्रा में विकिरण फैल सकता है। रिएक्टर के कुछ हिस्से को पानी के भीतर विशेष हौजों में दूर-संचालित (रिमोट कंट्रोल) हथौड़े के द्वारा तोड़ना होगा। दूसरी अनेक प्रक्रियाएं कई पारियों में करनी होंगी ताकि काम करने वाले लोगों पर मान्य मात्रा से अधिक विकिरण का प्रभाव न पड़े।

1,000 मेगावाट क्षमता के परमाणु संयंत्र को दफनाने का खर्च 100 करोड़ रुपए से 1300 करोड़ रुपए तक आएगा। यों अभी दफनाने का भी कोई खास अनुभव नहीं है। यह सब अटकलबाजी ही है। अब तक तोड़ा गया सबसे बड़ा संयंत्र अमेरिका में मिन्नेसोटा स्थित 22 मेगावाट क्षमता का एल्क नदी संयंत्र है। पूरी प्रक्रिया में 2 साल और 60 लाख डालर लगे आगे जिन बिजलीघरों को दफनाना होगा, वे तो इससे 50 गुना बड़े और सैकडों गुना अधिक रेडियमधर्मी प्रदूषित संयंत्र हैं।

इससे भी ज्यादा स्पष्ट चित्र शिपिंग पोर्ट संयंत्र का है। इसे तोड़ने पर 6-7 करोड़ डालर लगेंगे। थ्री माइल आइलैंड संयंत्र की सफाई के काम में भी अनेक ऐसी समस्याएं खड़ी हो गई थीं। जिनका पहले जरा भी अंदाज नहीं था। रूस के चेर्नोबिल परमाणु बिजलीघर में हुई दुर्घटना के बाद उसकी सफाई में लगे वैज्ञानिकों को इस नई समस्या की थाह ही नहीं मिल पा रही थी। बताया जा रहा है कि चेर्नोबिल की सफाई रिएक्टर की बनवाई से भी महंगी पड़ी। तब भाड़ में जाए ऐसी सफाई कह कर आप इससे हाथ नहीं झाड़ सकते। ऐसे प्रदूषित बिजलीघरों को ज्यों का त्यों छोड़ कोई देश बच नहीं सकेगा। बंद किए गए बिजलीघर से हर क्षण प्रलय की लहरों पर लहरे निकलेंगी।

परमाणु बिजलीघर कचरे में यूरेनियम का कूड़ा, ईंधन की टूटन, हर साल रिएक्टरों से फेंका जाने वाला कीचड़ और रेडियोधर्मी विकिरण से प्रदूषित कर्मचारियों के कपड़े, जूते, दस्ताने, टोपी आदि शामिल हैं। इसे गहरे गड्ढे में या समुद्र में गाड़ना भी एक बड़ी आफत है। देर-सवेर यह सब मछलियों आदि के माध्यम से आहार-चक्र में दाखिल होने ही वाला है। देश में प्रौद्योगिकी के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के लिए एक आदर्श परिस्थिति निर्माण करने के जितने भी प्रयास हुए हैं, उनमें श्री होमी भाभा की परमाणु ऊर्जा योजना शायद सबसे अधिक महत्वाकांक्षी और खर्चीली रही है। बताया गया था कि इससे 2 लाख मेगावाट परमाणु बिजली मिलेगी जो देश की समृद्धि के सारे द्वारा खोल देगी।

परमाणु ऊर्जा आयोग की इस भयंकर योजना के पीछे एक लंबी विचार श्रृंखला थीः परमाणु ऊर्जा में भावी और अंतिम प्रौद्योगिकी का सार-सर्वस्व निहित है, हमारे जैसे राष्ट्र के लिए ऊर्जा के क्षेत्र में अगर कोई प्रयत्न जरूरी है तो वह विकसित राष्ट्रों की तरह ज्यादा से ज्यादा बिजली पैदा करने का ही है, और फिर परमाणु विद्युत ही एकमात्र सस्ती चीज है। एक प्रौद्योगिकी के रूप में उसकी सफलता सीधे परमाणु विज्ञान द्वारा प्रदत्त ज्ञान पर आधारित है। डिजाइन तैयार करने में, संचालन करने में, सुरक्षा में, सफाई करने में, ऐसे सभी कामों में जो भी समस्याएं आएगी, उन्हें हल कर लिया जा सकता है, और इसलिए परमाणु बिजली कार्यक्रम के लिए चाहे जितना पैसा लगे, उसे तो लगाना ही है। लेकिन इन बातों को परखा तो गया नहीं था, बस देश को उन्नत बना देने की उतावली में स्वीकार कर लिया गया है।

हमारे देश में चाहे जितने प्रकार की बिजली हो, वह आखिर मुट्ठी भर शक्तिशाली वर्धमान समूह के बस की व्यावसायिक ऊर्जा का एक प्रकार है और पूरे समाज में कुल जितनी ऊर्जा काम में आती है, उसका बहुत ही छोटा-सा हिस्सा है। सारे समाज के विद्युतीकरण की, खास कर केंद्रित विद्युत उत्पादन प्रणाली द्वारा कोने-कोने तक बिजली पहुंचाने की मूल कल्पना ही सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से बिलकुल असामाजिक है।

परमाणु समर्थक परमाणु बिजली पर आने वाले भारी खर्च को ऊर्जा में स्वायत्तता और स्वतंत्रता पाने की एक ऐसी कीमत बताते हैं, जो हमें चुकानी ही पड़ेगी। इसमें जो विलंब हो रहा है और दाम में जो अपार वृद्धि हो रही है, उसका कारण यह बताया जाता है कि पोखरण में अणुविस्फोट होने के बाद अमेरिका, केनडा नाखुश होकर वादों से मुकर रहे हैं और विश्व के परमाणु निर्यातकों और आपूर्तिकारों का अग्रणी लंदन क्लब भी हमारा विरोधी बन गया है।

‘धीरे-धीरे सीख लेंगे’ वाली बात में भी कोई दम नहीं है। अमेरिका तक में, जहां परमाणु ऊर्जा का खूब सारा ज्ञान मौजूद है, और पैसे की भी कोई कमी नहीं है यह धीरे-धीरे सीख लेने वाली बात चल नहीं पाई है।

अमेरिका में 1976 के बाद से एक भी नए रिएक्टर के लिए अनुमति नहीं दी गई है। 1975 में 90 से भी अधिक संयंत्र रद्द कर दिए गए और जल्दी ही अमेरिका की परमाणु ऊर्जा ठंडी पड़ने जा रही है। वहां की एक प्रमुख शोध संस्था वर्ल्ड वाच इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर लेस्टर ब्राउन के शब्दों में: “अमेरिका का परमाणु बिजली उत्पादन गिरने लगेगा। तब वहां बन रहे अद्यतन आखिरी संयंत्र पूरा काम करने लगेंगे और 60 और 70 के दशकों में स्थापित पुराने संयंत्र दफनाएं जाने लगेंगे। जिस देश ने संसार को परमाणु विद्युत के युग में प्रवेश कराया, वही संसार को उससे मुक्त कराने में भी अगुवाई करने वाला है।”

परमाणु ऊर्जा पर हमने अपार धन तो गंवाया ही है, उसके साथ-साथ संसाधनों और अवसरों की भी अपार हानि हुई है। परमाणु ऊर्जा पर खर्च किए गए हजारों करोड़ रुपयों को दूसरे ऊर्जा स्रोतों पर लगाया गया होता तो नतीजा बिलकुल अलग होताः हजारों मेगावाट कोयला आधारित बिजली पैदा हो सकती थी, सूरज से चलने वाले लाखों पंप चालू हो सकते थे। हजारों हेक्टेयर जंगल खड़े होते, रोजगार के अनगिनत अवसर पैदा होते, तरह-तरह के क्षेत्रों में सामाजिक और पर्यावरणीय लाभ मिले होते।

पर यह सब नहीं हो पाया। हुआ तो कुछ और ही है। इसे अब न तो हम निगल पा रहे हैं, न थूक ही पा रहे हैं।

स्वर्गीय अनिल अग्रवाल देश के पर्यावरण आंदोलन के अग्रणी साथी रहे हैं। श्री प्रफुल्ल विदवई समाज को छुनें वाले विषयों को उठाते रहे हैं।

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