परमाणु विकिरण और पर्यावरण


परमाणु कचरे से लगातार हानिकारक विकिरण निकलते रहते हैं, जिनसे कैंसर जैसे भयानक रोगों का जन्म होता है। इस विकिरण से वंशानुगत विकृति उत्पन्न होती है। शरीर में माईटोसिस क्रिया बन्द हो जाती है, जिससे रक्त की कमी हो जाती है। इस विकिरण का कुप्रभाव मस्तिष्क, आंतों, रक्त के विभिन्न तत्वों एवं अस्थि मज्जा पर होता है। मस्तिष्क पर प्रभाव होने से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं, व्यक्ति बेहोश हो जाता है और उसकी मृत्यु तक हो जाती है। इस विकिरण के प्रभाव से महिलाएँ बांझ हो जाती है और पुरुषों में नपुंसकता उत्पन्न हो जाती है। इस विकिरण के कारण गर्भस्थ शिशुओं में विभिन्न प्रकार की जन्मजात बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

6 अप्रैल, 1993 को भारतीय समयानुसार दिन के साढ़े ग्यारह बजे रूस के साइबेरियाई नगर ‘तोमस्क’ से 20 किलोमीटर उत्तर ‘तोमस्क-7’ नामक शहर में स्थित परमाणु संयंत्र में एक विस्फोट हो गया। उस विस्फोट से भूमिगत कमरे की दीवारें और छत बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गयीं, जिसके चलते रेडियों धर्मिता का प्रभाव 90 वर्ग किलोमीटर के जंगल में फैल गया। रूसी सरकार के अनुसार 1986 के चेर्नोबिल परमाणु केन्द्र में हुए विस्फोट के बाद यह सबसे बड़ी दुर्घटना है।

रूस की राजधानी मास्कों से करीब 2500 किलोमीटर पूर्व स्थित इस परमाणु संयंत्र में हुआ विस्फोट पूरी दुनिया के अखबारों, रेडियों और टेलीविजन पर मुख्य समाचार के रूप में सामने आया। यद्यपि इस दुर्घटना में कथित तौर पर एक ही व्यक्ति मरा है। अर्थात इस दुर्घटना से वर्तमान समय में मानव जीवन को पहुँची क्षति कोई खास भयावह नहीं दिखाई दे रही है फिर भी इस विस्फोट के साथ ऐसी कौन सी समस्या जुड़ी है कि जिसकी चर्चा सारी दुनिया में बड़ी जोरशोर से की जा रही है।

रूस के परमाणु ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार परमाणविक कचरे के लिये इस्तेमाल में लायी जाने वाली एक टंकी को साफ करने के लिये जब नाइट्रिक एसिड का प्रयोग किया गया तो उसके अन्दर गैस का दबाव बढ़ने लगा। यह दबाव बढ़ते-बढ़ते उस स्तर पर जा पहुँचा कि टंकी फट गयी। फलस्वरूप टंकी को ढकने वाली कंक्रीट की एक तह टूट कर परमाणु संयंत्र के बिजली की तारों से जा लगी। परिणामस्वरूप शार्ट-सर्किट हो जाने के कारण वहाँ आग लग गयी और काफी बड़े क्षेत्र में फैल गयी।

परमाणविक संयंत्र में विस्फोट के चलते लगी इस आग को बुझाने के लिये यद्यपि भारी संख्या में अग्निशमक दस्ते लगा दिये गये, किन्तु उन लोगों को जानलेवा रेडियोधर्मी विकिरणों की कितनी मात्रा झेलनी पड़ी इसकी पक्की जानकारी अभी तक नहीं मिल पायी है। फिलहाल अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण संगठन ‘ग्रीन पीस’ के अनुसार इस विस्फोट में प्लूटोनियम की भागीदारी नहीं थी। इसलिए पर्यावरण में फैली रेडियोधर्मिता जानलेवा नहीं होनी चाहिए। फिर भी आस-पास के गाँवों पर विकिरण के खतरे मंडरा रहे हैं अतः ‘ग्रीन पीस’ ने इस परमाणु संयंत्र को तुरन्त बंद कर देने का आग्रह किया है।

रेडियोधर्मी विकिरणों का मानव शरीर पर कितना घातक प्रभाव पड़ता है यह उन विकिरणों की मात्रा पर निर्भर करता है जो मानव शरीर में प्रवेश कर जाती हैं। रेडियोधर्मी विकिरणों का सर्वाधिक घातक पहलू यह है कि ये विकिरण आँखों को दिखाई नहीं देते, लेकिन शरीर के अन्दर गोली की तरह प्रवेश कर जाते हैं। फिर इनके प्रवेश से शरीर के बाहरी भाग पर कोई निशान नहीं पड़ता, परन्तु शरीर के अन्दर बड़े घातक प्रभाव होते हैं। यदि विकिरणों की बहुत अधिक मात्रा शरीर में प्रवेश कर जाये तो आदमी की मृत्यु तुरन्त हो जाती है, यदि इन विकिरणों की कुछ अधिक मात्रा शरीर में प्रवेश कर जाये तो लोगों की मृत्यु विकिरण जन्य रोगों के चलते कुछ दिनों या महीनों में हो जाती है और यदि विकिरणें कम मात्रा में शरीर में प्रवेश करती हैं तो मानव शरीर के डी.एन.ए. अणुओं में टूट-फूट हो जाती है जो कालान्तर में कैंसर का रूप धारण कर लेती हैं। यदि ये विकिरणें ओवम या स्पर्म को तोड़ देते हैं तो पैदा होने वाली संतानें अंग विहीन यानी विकलांग हो जाती है। अर्थात विकिरण से प्रभावित व्यक्ति के जन्में बच्चे का कोई न कोई अंग गायब होता है।

परमाणु विद्युत केन्द्रों में काम करने वाले लोगों को सदा ही रेडियोधर्मिता का खतरा बना रहता है, क्योंकि लाख सुरक्षा के इन्तजाम करने तथा सावधानियाँ बरतने के बावजूद कभी-न-कभी कोई-न-कोई गलती हो ही जाती है, जिसका परिणाम बड़ा भयानक होता है। विश्व में अनेक दुर्घटनाएँ हुई हैं। इनमें से दो सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। चेर्नोबिल और थ्री माइल आइलैण्ड परमाणु केन्द्रों की दुर्घटनाएँ।

26 अप्रैल, 1986 को रूस के चेर्नोबिल परमाणु संयंत्र में हुई दुर्घटना किसी से छिपी नहीं है। उस परमाणु बिजली घर की भट्ठी (रिएक्टर) संख्या में हुए एक विस्फोट से भीषण आग लग गयी थी और रेडियोधर्मी पदार्थ प्लांट से बाहर निकल पड़े थे। यद्यपि उस दुर्घटना में केवल चार लोगों की ही मृत्यु हुई थी, लेकिन कम-से-कम 100 से अधिक लोगों के शरीर में रेडियोधर्मी विकिरणें काफी मात्रा में प्रवेश कर गयी थीं, क्योंकि उस दुर्घटना के चलते आस-पास के वातावरण में रेडियोधर्मिता की मात्रा सामान्य से करीब 2000 गुना अधिक हो गयी थी। इसके चलते उस क्षेत्र की पूरी आबादी यानी लगभग एक लाख लोगों को रेडियोधर्मिता से बचाने के लिये दूसरे स्थान पर बसाना पड़ा था। साथ ही उन लोगों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की गयी थी। फिर भी कई लोग कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो गए। इतना ही नहीं, उस क्षेत्र में स्थित खाद्य सामग्रियाँ रेडियोधर्मिता के प्रभाव के कारण उपयोग के लायक नहीं रही। भविष्य में रेडियोधर्मी विकिरणों का मानव स्वास्थ्य पर और क्या प्रभाव पड़ेगा, इसके विषय में अब भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।

चेर्नोबिल दुर्घटना के करीब 17 साल पहले अमरीका के ‘थ्री माइल आइलैण्ड’ स्थित एक परमाणु केन्द्र में एक धमाका हुआ था जिसके चलते आस-पास के वातावरण में भारी मात्रा में रेडियाधर्मी गैसों का प्रवेश हो गया। फलस्वरूप पेन्सिलवानिया के हैरिस-वर्ग के 3,00,000 निवासियों को वहाँ से हटाना पड़ा था। वास्तव में अनेक प्रकार के सुरक्षा उपायों के बावजूद परमाणु बिजली घरों तथा नाभिकीय आयुद्धों को उत्पादित करने वाले संयंत्रों की सबसे बड़ी समस्या है इनसे निकलने वाले रेडियाधर्मी राख या कचरे का निपटारा। अब प्रश्न उठता है कि रेडियोधर्मी कचरा या परमाणु कचरा क्या है? परमाणु बिजली घरों के रिएक्टरों (भट्ठियों) में यूरेनियम, प्लूटोनियम और थोरियम जैसे रेडियोधर्मी पदार्थों का प्रयोग ईंधन के रूप में किया जाता है, जिनसे एक ओर तो ऊर्जा की विशाल मात्रा प्राप्त होती है और दूसरी ओर अवशेष के रूप में राख प्राप्त होती है जो स्वयं भी रेडियोधर्मी होती है। इसी राख को ‘परमाणु कचरा‘ कहते हैं।

परमाणु बिजलीघरों की औसत आयु 25 से 30 वर्षों की होती है। इसके बाद यह काम लायक नहीं रह जाता, क्योंकि नाभिकीय विखण्डन (Nuclear Fission) से प्राप्त न्यूट्रानों के चलते भट्ठी की अन्दरूनी सतहों पर वर्षों तक पड़ने वाले न्यूट्रानों की बौछार उसे पतली और भुरभुरी बना देती है। फलतः भट्ठी को ढकने वाली कंक्रीट की दीवार कमजोर पड़ जाती है और सुरक्षा की दृष्टि से काम के लायक नहीं रह जाती। इसके बाद भट्ठी (रिएक्टर) का प्रयोग करने पर उसमें दरारें पैदा हो सकती हैं, जिनसे होकर रेडियोधर्मी रिसाव पैदा होगा। परिणामस्वरूप आस-पास के वातावरण में रेडियोधर्मिता बहुत अधिक हो जायेगी। अतएव इस खतरनाक स्थिति के उत्पन्न होने के पहले ही परमाणविक भट्ठी से काम लेना बंद कर देना पड़ता है। इसे ही रिएक्टर की मौत या ‘डीकमिशनिंग‘ कहते हैं। अपने जीवन काल की अवधि में सम्पूर्ण रिएक्टर की मौत या ‘डीकमिशनिंग’ कहते अन्य अनेक कल-पूर्जे रेडियोधर्मी बन जाते हैं। इन्हें खुला नहीं छोड़ा जा सकता तथा किसी भी रासायनिक एवं जैविक विधि से इन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता यह परमाणु कचरे वायुमण्डल और भूमि में रेडियोधर्मिता फैला सकते हैं। जो वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं और मनुष्यों के लिये प्राणघातक सिद्ध हो सकती है। तत्पश्चात समस्या आती है रेडियोधर्मी राख एवं कचरों को सावधानीपूर्वक सुरक्षित स्थान में दफनाने की।

सामान्यता रिएक्टर को बंद करने का व्यय इसकी लागत का लगभग 10-12 प्रतिशत बैठता है। हमारे देश के तारापुर परमाणु केन्द्र बंद करने की स्थिति में इसके मलवे को सुरक्षित दफनाने के लिये लगभग 45 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। यदि किसी दुर्घटना के कारण एकाएक किसी रिएक्टर को बंद करना पड़े तो व्यय और भी बहुत अधिक बढ़ जाता है। साथ ही इस आपातकालीन स्थिति में रिएक्टर को युद्ध स्तर पर बन्द करना पड़ता है।

परमाणविक भट्ठियों में इस्तेमाल होने वाले यूरेनियम और प्लूटोनियम के नाभिकीय विखण्डन से कई प्रकार के रेडियोधर्मी तत्व पैदा होते हैं, जिनसे निकलने वाले घातक रेडियोधर्मी विकिरणों के चलते इन्हें दफनाने में कई प्रकार की समस्याएँ सामने आती हैं। इनमें से कुछ रेडियोधर्मी तत्व तो ऐसे होते हैं जिनकी रेडियोधर्मिता लाखों-करोड़ों-अरबों वर्षों तक बनी रहती है। ऐसा सभी रेडियोधर्मी तत्वों के नाभिकों के टूटने की गति समान नहीं होने के कारण होता है। कुछ रेडियोधर्मी तत्वों के नाभिक अति तीव्र वेग से विखंडित होकर कुछ ही क्षणों में समाप्त हो जाते हैं। तो कुछ तत्वों के नाभिक अत्यधिक धीमी गति से विखंडित होते रहते हैं और हजारों-लाखों वर्षों तक घातक किरणों का उत्सर्जन करते रहते हैं। प्रत्येक रेडियोधर्मी तत्व एक निश्चित समय में विघटित होकर आधा रह जाता है। इस अवधि को उस तत्व की अर्द्ध-आयु कहते हैं। कुछ रेडियोधर्मी तत्वों की अर्द्ध-आयु निम्नलिखित तालिका में प्रदर्शित हैः

तत्व

अर्द्ध-आयु

बेरियम-141

18 मिनट

आयोडिन-137

21 घण्टे

स्ट्रौशियम-90

28 वर्ष

सेसियम-136

33 वर्ष

प्लूटोनियम

24,410 वर्ष

रूबिडियम-87

61 अरब वर्ष

 

रेडियोधर्मी कचरे का निपटारा


सारी दुनिया के देश रेडियोधर्मी राख और कचरे का निपटारा सागर में बहुत गहरे या भूमि के अन्दर बहुत नीचे दबाकर करते हैं। इस प्रक्रिया में परमाणु कचरा (रेडियोधर्मी राख) को सतर्कतापूर्वक स्वचालित यंत्रों या रोबोट (मशीनी मानव) की सहायता से भट्टियों (रिएक्टरों) से बाहर निकाला जाता है। इसमें से प्लूटोनियम जैसे उपयोगी रेडियोधर्मी तत्वों को अलग कर लिया जाता है। हमारे देश में इसे अलग करने का कारखाना ट्राम्बे (बम्बई) में है। उपयोगी तत्वों को अलग कर लेने के बाद भी इस राख में अनेक अनुपयोगी रेडियोधर्मी तत्व रह जाते हैं। राख के जिन तत्वों की रेडियोधर्मिता लाखों-करोड़ों वर्षों तक कायम रहती है, उन्हें एक विशिष्ट कारखाने में घनीभूत करके काँच के साथ मिलाकर इस्पात के सिलिण्डरों में बंद कर दिया जाता है। हमारे देश में इस कार्य को करने के लिये एक कारखाना तारापुर में है और अन्य दो कारखाने ट्राम्बे तथा कलपक्कम में निर्माणधीन हैं। विकिरण से बचने के लिये स्वचालित यंत्रों या रोबोट की सहायता से परमाणु कचरे को इस्पात के सिलिण्डरों में सावधानीपूर्वक भरकर उनको चारों ओर से कंक्रीट द्वारा मजबूती से से सील कर दिया जाता है और सागर में बहुत गहरे या जमीन के अन्दर बहुत नीचे दफनाकर इनसे छुटकारा पा लिया जाता है। हमारे देश में तारापुर के पास ही इन सिलिण्डरों को दफन करने के लिये भूमिगत तहखाना बनाया गया है, जिसकी कंक्रीट की मोटी दीवारें इस्पात की चादरों से ढक दी गयी हैं। इसके निर्माण में आठ वर्ष लगे हैं और दो अरब रुपये की लागत आयी है। भारत के परमाणु बिजली घरों के रेडियोधर्मी दीर्घजीवी कचरे को अब इसी कंक्रीट के तहखाने में रखा जाता है और यहाँ कड़ा पहरा रहता है। इस तहखाने में सदैव हवा भेजी जाती है जिससे कि रेडियोधर्मी कूड़े से निकलने वाली ऊष्मा बाहर निकल सके। यह व्यवस्था केवल पच्चीस वर्षों तक ही काम करेगी, उसके बाद इस मलवे को निकालकर किसी ऐसी जगह दफनाना होगा, जहाँ उसे कोई स्पर्श नहीं कर सके और यह मिट्टी तथा पानी में रेडियोधर्मिता नहीं फैला सके। लेकिन कहाँ मिलेगा ऐसा स्थान?

इस तरह हम पाते हैं कि रेडियोधर्मी राख के निपटारे के उपर्युक्त उपाय इस समस्या का दीर्घकालीन समाधान हैं। स्वीडन, समुद्रतल से 50 मीटर नीचे दफनाने की योजना पर कार्य कर रहा है जबकि फ्रांस पृथ्वी तल पर कंक्रीट से घिरे हुए विशाल टीले की योजना पर कार्य कर रहा है। पृथ्वी के अन्दर रखे गए इस मलवे में भूगर्भीय जल के रिस जाने की सम्भावना बनी रहती है, जिससे पानी के रेडियोधर्मी हो जाने से ‘मानव अस्तित्व’ ही खतरे में पड़ सकता है। एक अन्य प्रस्ताव के अनुसार पृथ्वी में एक मीटर व्यास की तीन किलोमीटर गहरी सुरंग खोदकर परमाणु कूड़े के सिलिंडरों को उसमें डालते रहने का है। पृथ्वी से डेढ़ किलोमीटर की गहराई पर इस सुरंग को सील किया जा सकता है। लेकिन भूगर्भीय समस्या यहाँ भी है।

यह ठीक है कि विश्व की विद्युत ऊर्जा की बढ़ती मांग का समाधान परमाणु बिजलीघरों से काफी हद तक पूरा हो रहा है। यही कारण है कि विद्युत ऊर्जा की आपूर्ति हेतु आज संसार के अनेक देशों में नाभिकीय विखण्डन पर आधारित परमाणु बिजली घर बनाये जा रहे हैं। विश्व में सन 1971 में केवल 120 परमाणु बिजली घर थे, जिनसे 300 टन रेडियोधर्मी अपशिष्ट (कचरा) पैदा होता था। सन 1980 तक इनकी संख्या 350 से अधिक और सन 1980 तक इसकी संख्या 1500 हो गयी। एक अनुमान के अनुसार सन 2000 तक इनकी संख्या 3000 हो जायेगी, जिनसे 50,000 टन रेडियोधर्मी अपशिष्ट पैदा होंगे। वर्तमान समय में केवल अमरीका में ही 111 परमाणु बिजली घर हैं।

इतना ही नहीं सन 1960 और 1988 के बीच लगभग 70 परमाणु रिएक्टरों को बंद किया जा चुका था। यदि इन परमाणु रिएक्टरों की आयु लगभग 30-35 वर्ष मानकर गणना की जाये तो इस सदी के अन्त तक लगभग 125 रिएक्टरों को बन्द करना अनिवार्य हो जायेगा। किन्तु यह कार्य अत्यधिक कठिन एवं खर्चीला है। किसी भी रिएक्टर को बंद करने की क्रिया के अन्तर्गत पहले उपयोगी और अनुपयोगी रेडियोधर्मी भागों को अलग करना पड़ता है। बाद में अलग किये गये अनुपयोगी रेडियोधर्मी भागों को उनकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग करके सील कर दिया जाता है। इस कार्य में वर्षों का समय तथा करोड़ों का व्यय होता है।

इस तरह हम पाते हैं कि इन परमाणु बिजली घरों से पर्यावरण प्रदूषण लगातार तेजी से बढ़ता जा रहा है। वर्तमान समय में ही रेडियोधर्मी कचरे का निपटारा एक विकट समस्या बन गयी है। परमाणु ऊर्जा उत्पन्न करने वाले दुनिया के 28 देश इस समय परमाणु कचरे के निपटारा की इस गम्भीर समस्या से ग्रसित हैं। सन 2000 तक यह समस्या कैसा विकराल रूप धारण कर लेगी, इसका अन्दाजा आप खुद ही लगा सकते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि परमाणु ऊर्जा आज विश्व का बहुत ही बड़ा ऊर्जा-साधन है। लेकिन तमाम सुरक्षाओं के बावजूद परमाणु संयंत्रों में दुर्घटनाओं की सम्भावना हमेशा मौजूद रहती है। कोई भी परमाणु संयंत्र ऐसा नहीं है। जिसके बारे में यह कहा जा सके कि यह पूर्णतया निरापद है। ऐसे में सारी दुनिया के देशों को एकजुट होकर और अधिक परमाणु बिजली घर स्थापित करने के विरुद्ध खड़े हो जाने चाहिए और ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोतों से अधिकाधिक ऊर्जा प्राप्त करने पर सारा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

शिव मन्दिर के बगल में बाकरगंज बजाजा गली बांकीपुर, पटना-800004

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