परम्परागत सिंचाई के साधनों से क्यों विमुख हैं हम


आजकल कावेरी के जल के बँटवारे से जुड़ा विवाद चर्चा का विषय बना हुआ है। वैसे तो देश में इस विवाद के अलावा भी दूसरे राज्यों में जल के बँटवारे को लेकर बहुतेरे विवाद चर्चा में हैं। इनमें कृष्णा नदी जल विवाद, नर्मदा नदी जल विवाद, गोदावरी नदी जल विवाद, सतलुज-यमुना लिंक नहर विवाद और मुल्ला पेरियार बाँध से जुड़े विवाद प्रमुख रूप से चर्चित हैं। इनको लेकर राज्यों में आज भी टकराव कायम है।

विडम्बना है कि केन्द्र के हस्तक्षेप के बावजूद भी इनका हल आज तक निकल नहीं सका है। इसके पीछे राज्यों की कृषि के लिये सिंचाई हेतु अधिक-से-अधिक पानी लेने की चाहत ही वह अहम कारण है जिसके चलते ये विवाद आज तक अनसुलझे हैं।

नतीजन इसकी खातिर अक्सर राज्यों के बीच कानून-व्यवस्था बनाए रखने की समस्या आ खड़ी होती है जो कभी-कभी विकराल रूप धारण कर लेती है। समझ नहीं आता कि लोग नदी जल के ऊपर ही क्यों आश्रित हैं। वे यह क्यों नहीं सोचते कि वह तो सबका है।

उस पर वह अपना ही एकाधिकार क्यों समझते हैं। उसी के लिये क्यों वे एक-दूसरे की जान के प्यासे हो जाते हैं जबकि पहले हमारे यहाँ खेती की सिंचाई के लिये लोग अधिकतर तालाब, पोखर, कुएँ आदि परम्परागत साधनों का ही इस्तेमाल किया करते थे। इतिहास इसकी गवाही देता है। लेकिन आज हम उससे विमुख होते जा रहे हैं। मौजूदा जल संकट और उससे जुड़े विवाद इसके जीवन्त प्रतीक हैं।

2000 साल से भी अधिक पुराना शृंगवेरपुर तालाबगौरतलब है कि तालाबों का चलन हमारे यहाँ काफी पुराना है। बारिश के या किसी झरने के पानी को रोककर इकट्ठा करने के लिये तालाब बनाए जाने के प्रमाण हमारे यहाँ पौराणिक काल से मिलते हैं। देश में इस तरह के हजारों तालाब आज भी मौजूद हैं। वह बात दीगर है कि सरकारी उपेक्षा और अतिक्रमण के चलते उनमें से हजारों का अस्तित्व आज नहीं है। लेकिन खण्डहर कहीं-कहीं उनके होने का प्रमाण जरूर देते हैं।

कुछेक दशक पहले उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के समीप शृंगवेरपुर में तकरीब 2000 साल से भी अधिक पुराना तालाब मिला। लगता है यह वही तालाब है जहाँ से भगवान श्रीराम ने अपने 14 साल के वनवास की शुरुआत की थी। यह वही जगह है जहाँ से उन्होंने निषादराज गुह की नाव से गंगा पार की थी। एक अन्य प्रमाण पम्पासर तालाब का रामायण में मिलता है। बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के किनारे पम्पासागर तालाब शायद वही पम्पासर तालाब है।

यह तो रही इतिहास की बात, तालाब बनवाने में हमारे देश में देसी रियासतों और राजाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आधुनिक राज के दौर में तो राजाओं और रियासत काल के दौरान बनाए तालाबों के अस्तित्व को ही मिटाने का काम हुआ है। यह भी कि आजादी के बाद के दौर में नए तालाब खुदवाने की बात तो दूर रही, पुराने तालाबों की देखभाल करने में भी भारी उपेक्षा बरती गई। इसे झुठलाया नहीं जा सकता।

अंग्रेजी राज को लें, उसके प्रारम्भिक दौर में अनेकों बरतानी विशेषज्ञ न केवल हमारी परम्परागत सिंचाई पद्धति को देखकर दंग रह गए, बल्कि उन्होंने तालाबों से की जाने वाली हमारी प्राचीन परम्परागत सिंचाई प्रणाली की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की। लेकिन उन्हीं के राज में उनके ही द्वारा इसकी उपेक्षा का जो दौर शुरू हुआ, फिर वह लगातार बढ़ता ही गया।

दुख इस बात का है कि आजादी के बाद भी वह सिलसिला बराबर जारी रहा और नेतृत्व ने इस ओर ध्यान देने का कभी कोई प्रयास ही नहीं किया। विडम्बना देखिए कि आज का लोकतांत्रिक ढाँचा भी उसी आधुनिकता वाली नींव पर टिका है। सच्चाई तो यह है कि इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है।

देश के दक्षिणी राज्यों में सिंचाई प्रणाली की बात करें तो पाते हैं कि मद्रास प्रेसिडेंसी के दौर में उस समूचे इलाके में तालाबों से की जाने वाली सिंचाई की व्यवस्था अद्भुत थी। 1860 के दौर में किये एक अध्ययन में इसको असाधारण व्यवस्था की संज्ञा देते हुए इसकी प्रशंसा की गई है।

उस समय के एक अपूर्ण आलेख से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि मद्रास प्रेसिडेंसी के कम-से-कम 14 जिलों में 43,000 तालाबों पर काम चल रहा है और वहाँ पर 10,000 तालाबों के निर्माण का काम पूरा हो चुका है। इस तरह इस इलाके में कुल मिलाकर 53,000 तालाब हैं।’ ‘इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ द सेमिएरिड ट्रॉपिक्स’ की एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि देश में तालाबों से सिंचाई के प्रमाण हर जिले में अलग-अलग हैं।

उसके अनुसार देश के अधसूखे और उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र खासकर दक्षिण भारत में जैसे तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश के तटवर्ती जिले, दक्षिण मध्य कर्नाटक, तेलंगाना और पूर्वी विदर्भ के अलावा मध्य भारत में तालाबों की संख्या ज्यादा है।

तालाबों का चलन हमारे यहाँ काफी पुराना है। बारिश के या किसी झरने के पानी को रोककर इकट्ठा करने के लिये तालाब बनाए जाने के प्रमाण हमारे यहाँ पौराणिक काल से मिलते हैं। देश में इस तरह के हजारों तालाब आज भी मौजूद हैं। वह बात दीगर है कि सरकारी उपेक्षा और अतिक्रमण के चलते उनमें से हजारों का अस्तित्व आज नहीं है। लेकिन खण्डहर कहीं-कहीं उनके होने का प्रमाण जरूर देते हैं। कुछेक दशक पहले उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के समीप शृंगवेरपुर में तकरीब 2000 साल से भी अधिक पुराना तालाब मिला।

उत्तर भारत के संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध जिसे अब उत्तर पूर्वी प्रदेश कह सकते हैं और राजस्थान की अरावली पर्वत माला के पूर्व में अधिकांशतः सिंचाई तालाबों से ही की जाती थी। यह सही है कि मद्रास प्रेसिडेंसी में 1882-83 के बाद से तालाबों से सिंचाई के काम में बढ़ोत्तरी तो नहीं हुई, लेकिन उस इलाके में फसलों का क्षेत्र लगभग आठ गुणा ज्यादा बढ़ा। जबकि सौ साल पहले 50 फीसदी से ज्यादा तालाबों से सिंचित क्षेत्र का रकबा था लेकिन आज उपेक्षा के चलते घटकर वह कुल 10 फीसदी से भी कम रह गया है।

गौरतलब है 1880-1890 के बीच निजाम हैदराबाद ने रियासत में बहुत बड़ी तादाद में तालाब बनवाए। 1895-96 के बीच वहाँ तालाबों से सिंचित जमीन तकरीब 4000 हेक्टेयर थी जो 1905 में बढ़कर 55,000 हेक्टेयर हो गई। 1940 तक वह बढ़कर 364,000 हेक्टेयर पहुँच गई। जबकि इसमें निजी तालाबों से सिंचित जमीन शामिल नहीं है।

पहली पंचवर्षीय योजना में टूटे तालाबों की मरम्मत पर खास जोर दिया गया। उसके लिये तकाबी, कर्जे और अनुदान के लिये बहुत बड़ी रकम मुहैया कराई गई थी। नतीजन 1958-59 तक पूरे देश के कुल सिंचित क्षेत्र में तालाबों से सिंचित जमीन का रकबा 21 फीसदी तक हो गया। लेकिन 1978-79 के बीच यह घटकर 10 फीसदी ही रह गया। इसी प्रकार तालाब से सिंचित रकबा भी 1958-59 से 1964-65 तक बढ़कर 48 लाख हेक्टेयर हुआ जो 1979 तक घटकर केवल 39 लाख हेक्टेयर रह गया।

तमिलनाडु को लें, एक समय इसे तालाबों का राज्य कहा जाता था। दूसरे सिंचाई आयोग ने यहाँ 27,000 तालाब होने का अनुमान लगाया था। लेकिन आयोग के अनुसार वहाँ के अधिकतर तालाब उपेक्षा के शिकार थे।

चितलापक्कम एरीकृषि विशेषज्ञों की मान्यता है कि तालाबों से सिंचाई आर्थिक दृष्टि से लाभदायक के साथ ज्यादा उत्पादक भी है। पूर्व कृषि आयुक्त डीआर भूंबला के अनुसार पानी के अच्छे प्रबन्ध के लिये तालाब ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं और 750 मिलीमीटर से 1,150 मिलीमीटर बारिश वाले मध्यम स्तर के इलाकों में नहर सिंचाई व्यवस्था का यह सबसे अच्छा विकल्प है।

अनुसन्धानों ने सिद्ध किया है कि ऐसी स्थिति में यदि फसलों को तालाबों से अतिरिक्त पानी मिल जाता है तो प्रति हेक्टेयर एक टन से ज्यादा पैदावार बढ़ती है। फिर बाढ़ रोकने में भी तालाब बड़े मददगार होते हैं। उनसे कुओं में पानी आ जाता है जिससे पीने के पानी की समस्या का भी समाधान होता है और बारिश के दिनों में अतिरिक्त पानी की निकासी की सुविधा भी हो जाती है।

महाराष्ट्र और कर्नाटक के ज्वार पैदा करने वाले इलाकों में तालाब से सिंचाई करने से ज्यादा फायदा हो सकता है। सच है कि नए तौर-तरीकों और तकनीक का ढिंढोरा पीटने के बावजूद आज भी बहुतेरे इलाकों में इन्हीं तालाबों के बल पर ग्रामीण व्यवस्था टिकी हुई है। तात्पर्य यह कि आज लद्दाख जैसी जगह पर जहाँ हर घर के हर खेत को पानी पहुँचाने का काम परम्परागत तरीके से होता है, ऐसी हालत में नदियों के पानी के भरोसे रहना कहाँ तक न्यायसंगत है।

आज कहा जा रहा है कि तमिलनाडु में कावेरी का समुचित पानी न मिलने से सांबा की फसल बर्बाद हो रही है और कर्नाटक का कहना है कि बाँध में पानी कम होने से सिंचाई और पीने के पानी का संकट गहरा गया है, ऐसी स्थिति में परम्परागत जल संसाधनों का उपयोग ही अच्छा विकल्प है। जल संकट का यही एक उचित समाधान है। इस पर हमें गम्भीरता से सोचना होगा।

 

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