परम्पराओं-मान्यताओं की उपेक्षा का परिणाम है पर्यावरण विनाश


विश्व पर्यावरण दिवस, 05 जून 2016 पर विशेष


Environment Day, 2016 Special

आज सर्वत्र पर्यावरण क्षरण की चर्चा है। हो भी क्यों न, क्योंकि आज समूचे विश्व के लिये यह सवाल चिंता का विषय है। इसके बारे में विचार से पहले हमें इतिहास के पृष्ठों को पलटना होगा। देखा जाए तो प्राचीनकाल से ही हमारे जीवन में परम्पराओं-मान्यताओं का बहुत महत्त्व है।

हमारे पूर्वजों ने धर्म के माध्यम से पर्यावरण चेतना को जिस प्रकार हमारे जन-जीवन में संरक्षण प्रदान किया, वह उनकी गहन व्यापक दृष्टि का परिचायक है। परम्पराएं संस्कृति के क्रियान्वित पक्ष की सूक्ष्म बिंदु होती हैं। हमारी संस्कृति वन प्रधान रही है। उपनिषदों की रचना भी वनों से ही हुई है। हिमालय, उसकी कंदरायें योगी-मुनियों की तपस्थली रहे हैं जहाँ उन्होंने गहन साधना कर न केवल जीवन दर्शन के महत्त्व को बतलाया बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि वन हमारे जीवन की आत्मा हैं।

वृक्ष-पूजन की परम्परा पर्यावरण संरक्षण का ही तो प्रतीक है। उसे धर्म और आस्था के माध्यम से अधिकाधिक मात्रा में संरक्षण देना इसका प्रमाण भी है कि वृक्ष का जीवन में कितना महत्त्व है। वट, पीपल, खेजड़ी, तुलसी आदि की उपादेयता-उपयोगिता इसका जीवंत प्रमाण है।

देव पूजन में तुलसी पत्र का उपयोग आवश्यक कर उसको प्रतिष्ठा प्रदान करना पर्यावरण को स्वच्छ और सुभाषित रखने के उद्देश्य का परिचायक है। वनस्पति की महत्ता आदिकाल से स्थापित है। इसे पर्यावरण चेतना के अभिन्न अंश के रूप में प्रमुखता दी गई है। अन्य जीवों के समान इसमें भी सुख-दुख की अनुभूति की क्षमता मौजूद है। इसे दशाब्दियों पूर्व सिद्ध भी किया जा चुका है।

मान्यतानुसार सांयकालोपरांत वनस्पति को तोड़ना तो दूर, उसे छूना भी पाप माना जाता है। इसके बारे में हमारे ज्ञान की व्यापकता का विस्तृत वर्णन-दर्शन आर्युवेद में मिलता है। उसमें वनस्पति के औषधीय गुणों का वृतांत, उसके किस भाग का किस प्रकार,किन परिस्थितियों में प्रयोग किया जाए और उसका क्या प्रभाव पड़ता है, का सिलसिलेवार वर्णन है।

जीवों को हमने देवी-देवताओं के वाहन के रूप में स्वीकार कर उन्हें पूजा भी है और उन्हें संरक्षण प्रदान कर विशिष्ट स्थान दिया है। इनमें प्रमुख हैं मृत्युंजय महादेव भगवान शिव के नंदी, शक्ति की प्रतीक माँ दुर्गा का सिंह, देवी सरस्वती का हंस, देवराज इंद्र के ऐरावत हाथी जबकि आदिदेव गणेश के तो हाथी स्वयं प्रतीक हैं।

इनकी महत्ता न केवल पूजा-अर्चना में बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी अहम है। यह पर्यावरण को संतुलित कर विकास को दिशा प्रदान करने में सहायक की भूमिका निभाते हैं। जल देवता के रूप में प्रतिष्ठित और नदियाँ देवी के रूप में पूजनीय हैं। इनको यथा सम्भव शुद्ध रखने की परम्परा और मान्यता है।

प्राचीनकाल में वानप्रस्थ आश्रम की परम्परा जहाँ व्यक्ति को जीवन के समस्त कार्य संपन्न कर वनगमन करना स्वस्थ, सुखी एवं चिंतामुक्त रहने का, वहीं जीवन के अनुभवों को समाज के हित में उपलब्ध कराने का अवसर प्रदान करती थी। बाल्यकाल में माँ की गोद में उसके स्नेह तले बड़े होने के बाद आश्रम में शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करना, फिर सामाजिक-गृहस्थ दायित्व निर्वहन के उपरांत अंत में प्रकृति की गोद में विश्राम पर्यावरण के प्रति प्रेम का ही परिचायक है।

अहम बात यह कि पूर्व में लोग आसमान देख आने वाले मौसम, भूमि को देख भूजल स्रोत और पक्षी, मिट्टी और वनस्पति के अवलोकन मात्र से भूगर्भीय स्थिति और वहाँ मौजूद पदार्थों के बारे में बता दिया करते थे। यह उनकी पर्यावरणीय चेतना के कारण सम्भव था। यह प्रमाण है कि पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता हमारी परम्पराओं-मान्यताओं का अभिन्न अंग रही है।

असलियत यह है कि आजादी के बाद देश के भाग्यविधाताओं ने तेज विकास को ही सबसे बड़ी जरूरत माना। इस दौरान देश ने चहुमुखी प्रगति भी की और दुनिया के शक्तिशाली मुल्कों की पांत में शामिल होने में कामयाबी भी पायी। लेकिन उस विकास की देश को पर्यावरण विनाश के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ी।

इसमें मानवीय स्वार्थ ने अहम भूमिका निभाई। सरकार दावे कितने भी करे, असलियत में विकास का परिणाम आज सर्वत्र पर्यावरण विनाश के रूप में हमारे सामने मौजूद है। असल में दिनोंदिन बढ़ता तापमान पर्यावरण प्रदूषण का ही परिणाम है।

हमने पर्यावरण के साथ खिलवाड़ तो किया ही, अपनी पुरातन मान्यताओं और परम्पराओं को भौतिक सुख-संसाधनों की चाहत और पाश्चात्य जीवन शैली के आकर्षण में तिलांजलि दे दी जिसका दुष्परिणाम हम भोग रहे हैं। इसलिए अब भी समय है। अब तो चेतो। पर्यावरण के अनुकूल संतुलित विकास ही इसकी पहली और अंतिम शर्त है, तभी हम पर्यावरण की रक्षा करने में कामयाब हो पायेंगे।

दरअसल जंगलों का वीरान होना, हरी-भरी पहाड़ियों का सूखा-नंगा हो जाना, नतीजतन जंगलों पर आश्रित वनवासियों का रोजी-रोटी की खातिर महानगरों की ओर पलायन करना, पारिस्थितिकी तंत्र का गड़बड़ा जाना, वन्यजीवों का विलुप्ति के कगार तक पहुँच जाना, जीवनदायिनी नदियों का प्रदूषण के चलते इतना प्रदूषित हो जाना कि उनका जल पीने लायक भी न रहे, वह गंदे नाले और कचरा विर्सजन का माध्यम भर बन कर रह जाएँ, वरुण देवता के आश्रयस्थल जलस्रोतों की दुर्दशा नरककुण्डों से भी बदतर हो जाये, कृषि, होटल उद्योग और नगरीय ज़रूरतों की पूर्ति की खातिर अत्याधिक जल का दोहन जारी रहना, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकले विषैले रसायनयुक्त अपशेष-कचरे, उर्वरकों-कीटनाशकों के अत्याधिक प्रयोग से भूजल के प्राकृतिक संचय व यांत्रिक दोहन के बीच के संतुलन बिगड़ने से पानी के अक्षय भंडार माने जाने वाले भूजल स्रोत के संचित भंडारों के सूखने से ऐसी हालत हो जाये कि 50 फीसदी भूजल प्रदूषित हो पीने लायक भी न बचे और भूजल का स्तर दिन-ब-दिन नीचे गिरता चला जाये, जीवन देने वाली वायु प्रदूषण के कारण प्राणघातक बन सबसे बड़े स्वास्थ्य संकट में से एक बन जाये, जो दिल के रोगियों के लिये जानलेवा हो, वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर से दिमाग की तंत्रिकाएं प्रभावित होने से अल्जाइमर होने, 30 फीसदी के अस्थमा की चपेट में आने और तकरीब 12 फीसदी लोगों की आँखें खराब होने का खतरा मंडरा रहा हो, इसके कारण बच्चों और बूढ़ों को बेहद खतरनाक स्थिति का सामना करना पड़े, यही नहीं आम आदमी की सेहत के लिये भी संकट बन गया हो, गाँव तो गाँव देश की राजधानी के लोगों के फेफड़े जहरीली हवा से बेदम हो रहे हों, अकेले 2015 में वायु प्रदूषण से पूरी दुनिया में 70 लाख और भारत में 6 लाख 45 हजार मौतें हुई हों, यह सब अपनी प्राचीन परम्पराओं-मान्यताओं की उपेक्षा और उसी विकास का ही तो दुष्परिणाम है।

यही नहीं आज तापमान में बदलाव के चलते दुनिया में 69 करोड़ बच्चों पर खतरा मंडरा रहा है और विकासशील देशों में कम वजन के बच्चे पैदा हो रहे हैं। हमारे देश में सदानीरा गंगा और अन्य नदियों के आधार भागीरथी बेसिन के गोमुख सहित दूसरे प्रमुख ग्लेशियरों पर संकट के बादल मंडरा रहे हों, हिमाच्छादित क्षेत्रों में हलचल बढ़ने से हजारों-लाखों वर्षों से जमी बर्फीली परत तक पिघलने लगी हो, बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ने के कारण ग्लेशियर दिनोंदिन कमजोर होते जा रहे हों, इससे आने वाले 50 सालों में गोमुख ग्लेशियर समाप्ति के कगार पर पहुँचने वाला हो, इसके परिणामस्वरूप नदियों के थमने के आसार दिखाई देने लगे हों, वाष्पीकरण की दर तेज होने के कारण खेती योग्य जमीन सिकुड़ती जा रही हो, खेत मरुस्थल में बदलते जा रहे हों, बारिश की दर में खतरनाक गिरावट के चलते कहीं भयंकर सूखा और कहीं भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ रहा हो, कहीं बिजली और कहीं पानी के भयावह संकट से जूझना पड़ रहा हो, लोग पीने के पानी के लिये तरस रहे हों और त्राहि-त्राहि कर रहे हों, आखिर इस तबाही के लिये कौन जिम्मेवार है।

जाहिर है देश के भाग्यविधाताओं और नीति-नियंताओं के साथ इसके लिये हम भी दोषी हैं। क्योंकि हमने पर्यावरण के साथ खिलवाड़ तो किया ही, अपनी पुरातन मान्यताओं और परम्पराओं को भौतिक सुख-संसाधनों की चाहत और पाश्चात्य जीवन शैली के आकर्षण में तिलांजलि दे दी जिसका दुष्परिणाम हम भोग रहे हैं। इसलिए अब भी समय है। अब तो चेतो। पर्यावरण के अनुकूल संतुलित विकास ही इसकी पहली और अंतिम शर्त है, तभी हम पर्यावरण की रक्षा करने में कामयाब हो पायेंगे। अन्यथा नहीं।

लेखक से सम्पर्क - आर.एस.ज्ञान कुँज, 1/9653-बी, गली नं-6, प्रताप पुरा, वेस्ट रोहताश नगर, शाहदरा, मोबाइल: 9891573982, ई-मेल: rawat.gyanendra@rediffmail.com /rawat.gyanendra@gmail.com
 

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