प्रणामियों की गंगा भी हो गई मैली

11 Dec 2015
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आज भी इस सम्प्रदाय के मानने वाले श्रद्धालु जब यहाँ आते हैं तो वे स्नान, आचमन के साथ–साथ इसका जल अपने साथ भी ले जाते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे कि उत्तर भारत के लोग गंगा का पानी अपने घरों के लिये ज़रूर लाते हैं। बाद के दिनों में लोग इसे कुढ़िया नदी भी कहते थे। कुढ़िया यानी कोढ़ ठीक करने वाली। इसका पानी इतना हितकर हो गया था कि कोढ़ और अन्य बीमारियाँ भी इसके प्रभाव से ठीक हो जाया करती थी। यहाँ प्राणनाथ का बड़ा मन्दिर भी है और इसमें कृष्ण के बाल गोपाल रूप की आराधना की जाती है।

दुनियाभर में प्रणामी सम्प्रदाय मानने वाले लाखों लोगों की आस्था का प्रतीक और उनमें गंगा की तरह पूजनीय मानी जाने वाली मध्य प्रदेश की किलकिला नदी भी इन दिनों उपेक्षा का शिकार होकर इस हद तक मैली हो चुकी है कि इसमें स्नान तो दूर आचमन तक करने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है।

इसका पानी यहाँ तक प्रदूषित हो चुका है कि लोग अब इसे छूने से भी परहेज करने लगे हैं। आज भी हर साल यहाँ हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुँचते हैं लेकिन वे नदी की गन्दगी देखकर मन-ही-मन दुखी होते हैं।

इस नदी का महत्त्व इसलिये भी बढ़ जाता है कि पन्ना टाइगर रिजर्व में रहने वाले हजारों छोटे–बड़े जंगली पशु–पक्षियों के लिये भी लम्बे समय तक पीने का पानी उपलब्ध कराती है। इस भरे–पूरे जंगल के एक बड़े हिस्से से यह नदी गुजरती है। लेकिन अब इस नदी का स्वरूप धीरे–धीरे विकृत होता जा रहा है।

अब हालात इतने बदतर हैं कि जगह–जगह जलकुम्भी ने नदी के पानी को पूरी तरह से ढँक दिया है। कई जगह गाद-ही-गाद रह गई है तो कहीं शहर और कस्बों की नालियों का गन्दा पानी ही इसमें मिल रहा है। यह अधिकांश स्थानों पर नदी से गन्दे नाले में बदल चुकी है। गन्दे पानी के डबरों की तरह कई जगह कीचड़ के पानी में सूअर घूमते रहते हैं। यह नदी बरसात खत्म होते ही गंदले नाले में तब्दील होना शुरू हो जाती है।

यह तो आज की बात है लेकिन इतिहास और परम्परा में इसका बहुत नाम है। पन्ना जिले में इस नदी का बहुत महत्त्व है। यहाँ के लोग इसे गंगा की तरह पवित्र नदी मानते हैं। इसे लेकर इलाके और प्रणामी सम्प्रदाय के मानने वालों में कई किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। प्रणामी सम्प्रदाय करीब 400 साल पहले से चला आ रहा है।

असल में निजानन्द सम्प्रदाय के प्राणनाथ को मानने वाले ही अपने आपको प्रणामी मानते हैं और दुनिया भर में फैले इनके अनुयायियों की तादाद लाखों में बताई जाती है। ऐसा माना जाता है कि चार सौ साल पहले प्राणनाथ खुद यहाँ पहुँचे थे और उन्होंने ही इस नदी का उद्धार किया था। इसी नाते से इस सम्प्रदाय के लोगों के लिये यह आज भी गंगा की तरह समझी जाती है।

पन्ना जिले के बहेरा कस्बे के पास छापर टेक पहाड़ी से निकलकर टाइगर रिजर्व के जंगल से होते हुए यह नदी करीब 45 किमी तक तो किलकिला के नाम से ही पहचानी जाती है लेकिन इसके बाद यह अपना नाम भी बदल लेती है। अपना नाम बदल लेने वाली ऐसी नदी बिरले ही होगी। यहाँ लोग इसे माहौर नदी के नाम से पहचानते हैं। और फिर इसके आगे करीब 5 किमी का सफ़र तय करके यह केन नदी में विलीन हो जाती है।

प्रणामी सम्प्रदाय से जुड़े कृष्णदास बताते हैं कि इस नदी का उद्धार 388 साल पहले भारतीय संवत 1684 (सन् 1627 में) प्राणनाथ ने ही किया था। बताते हैं कि वे शिष्यों सहित यहाँ यात्रा करते हुए रुके थे और इस नदी के प्रदूषित होने पर मन-ही-मन दुखी हुए। उन्होंने यहाँ स्नान की इच्छा जताई लेकिन यहाँ के गोंड आदिवासियों ने नहाने से मना किया और बताया कि इसका पानी जहरीला हो चुका है।

बाद में उन्होंने अपनी तपशक्ति से मात्र पैर के अंगूठे के स्पर्श भर से ही इसे निर्मल कर दिया था। यह स्थान आज भी अमराई घाट के नाम से पहचाना जाता है। इसी सम्प्रदाय के स्वामी लालदास के लेख के मुताबिक़ उस वक्त यह नदी इतनी जहरीली हो गई थी कि इसके ऊपर से यदि कोई पक्षी गुजर जाता तो वह इसके प्रभाव से काला होकर कुछ ही दिनों में दम तोड़ देता था।

यदि कोई घोड़ा इसका पानी अनजाने में ही पी लेता तो उसके संक्रमण से घुड़सवार की भी मौत हो जाया करती थी। यह बातें कितनी और किस हद तक सही है, यह तो शोध का विषय है लेकिन हाँ, इतना तय है कि नदी की यह अवस्था देखकर प्राणनाथ का मन भर आया और उन्होंने इसे साफ़– स्वच्छ करने का बीड़ा उठाया था।

प्राणनाथ बाद के दिनों में इस किलकिला नदी से इतने आत्मीय हो गए कि वे यहीं बस गए। अब यह उनके रहने का प्रभाव था या नदी संरक्षण की उनकी पहल कि यहाँ रहने के दौरान नदी इतनी पवित्र और निर्मल हो गई कि इसे तीर्थ की तरह का सम्मान मिलने लगा।

प्राणनाथ खुद हर दिन इसमें स्नान के साथ ही अपने दिन की शुरुआत करते थे और इसी कारण इसका महत्त्व गंगा की तरह हो गया।

आज भी इस सम्प्रदाय के मानने वाले श्रद्धालु जब यहाँ आते हैं तो वे स्नान, आचमन के साथ–साथ इसका जल अपने साथ भी ले जाते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे कि उत्तर भारत के लोग गंगा का पानी अपने घरों के लिये ज़रूर लाते हैं। बाद के दिनों में लोग इसे कुढ़िया नदी भी कहते थे। कुढ़िया यानी कोढ़ ठीक करने वाली। इसका पानी इतना हितकर हो गया था कि कोढ़ और अन्य बीमारियाँ भी इसके प्रभाव से ठीक हो जाया करती थी।

यहाँ प्राणनाथ का बड़ा मन्दिर भी है और इसमें कृष्ण के बाल गोपाल रूप की आराधना की जाती है। यहाँ ख़ासतौर पर कृष्ण की बंशी और उनके मुकुट की पूजा होती है। ये मानते हैं कि प्राणनाथ कृष्ण के ही रूप थे। हर साल शरद पूर्णिमा पर यहाँ देश–विदेश से बड़ी तादाद में श्रद्धालु पहुँचते हैं और प्रणामियों की गंगा मानी जाने वाली किलकिला नदी में स्नान करते हैं। इस दिन सूबे की सरकार इलाके में सरकारी छुट्टी भी घोषित करती है।

बात को आगे बढ़ाते हुए विष्णुप्रसाद शर्मा बताते हैं कि इसका एक और महत्त्व है कि प्रणामी समुदाय के किसी भी श्रद्धालु का अन्तिम संस्कार भले दुनिया में कहीं भी क्यों न होता होगा पर आखिर में उसके परिजन यहीं इसी नदी के किनारे ले आते हैं और उन अवशेषों को यहाँ दफनाया जाता है।

मानते हैं कि इससे प्राणी को मुक्ति मिलती है। यह परम्परा कई पीढ़ियों से चली आ रही है। शायद इसके मूल में नदी से नाता जोड़े रखने का ही संकल्प रहा होगा। हर श्रद्धालु की यही अन्तिम इच्छा रहती है कि किसी तरह उसकी मिट्टी न सही कम-से-कम शरीर के अंश तो किलकिला नदी के पानी में विलीन हो सके। जैसे कि बाकी लोग इलाहाबाद के संगम में अस्थियाँ प्रवाहित करते हैं। राजस्थान के दूरस्थ इलाकों से भी श्रद्धालु अपने परिजनों के अवशेष लेकर यहाँ पहुँचते हैं।

स्थानीय लोगों तथा नगरपालिका ने यहाँ किलकिला नदी को साफ़ करने का जतन भी किया पर इसका कोई असर यहाँ दिखाई नहीं देता है। कुछ महीनों पहले यहाँ से जलकुम्भी हटाने की मुहिम शुरू तो की गई थी लेकिन यह यथोचित नहीं हो सकी और समय के साथ–साथ फिर वही हालात बन गए हैं।

बारिश के बाद जैसे–जैसे नदी का पानी सिकुड़ने लगता है, वैसे–वैसे पानी गन्दा होने लगता है। वहीं इसमें मिलने वाले गन्दे नालों का अब तक कोई हल नहीं निकाला जा सका है। इस कारण शहर और कस्बों की गन्दगी इसमें मिल जाती है।

आश्चर्य है कि एक तरफ दूर–दूर से लोग इसके पानी को अमृत मानकर यहाँ आते हैं लेकिन स्थानीय प्रयासों में इतनी कोताही कि धीरे–धीरे इसका अस्तित्व ही खत्म होने की कगार पर पहुँच गया है। जरूरत है इस नदी को बचाने की, धार्मिक दृष्टि से ही नहीं। इस इलाके के पर्यावरण को बचाने के लिये।

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