प्रतिमा विसर्जन और जल प्रदूषण

8 Oct 2011
0 mins read

प्रतिवर्ष हजारों कि.ग्रा. मिट्टी तालाब के गहरेपन को कम करती है। साथ ही पानी भरने की क्षमता भी कम करती है। मूर्तियों के साथ जाने वाला प्लास्टर ऑफ पेरिस तालाब के जल में पहुंचकर उसे छोटे छोटे छिद्रों को बंद कर देता है। जिससे तालाब की रिचार्जिंग क्षमता कम हो जाती है। तरह-तरह के आईल पेन्ट, तारपीन, मिट्टी तेल जल में अशुद्धि पैदाकर उसे उपयोग के लायक रहने नहीं देते।

हमारे यहां तालाबों की बहुलता रही है जिससे यहां का भूजल स्तर भी काफी अच्छा रहा है लेकिन पिछले कुछ दशकों में तालाबों की संख्या में न केवल आश्चर्यजनक रूप से कमी आयी है बल्कि वे कम गहरे तथा प्रदूषित भी होते जा रहे हैं। पानी के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यहां तक हमारे शरीर में भी करीब अस्सी प्रतिशत पानी है। हम प्रदूषित जल का सेवन करने में, उपयोग करने में हिचकते हैं तो हमारे सरोवर जिनका प्राणाधार ही जल है, उसमें रहने वाले वनस्पति, जलचर उस आधार के प्रदूषण से उसमें किस प्रकार तिल-तिल कर मरते होंगे, इसकी कल्पना बड़ी आसानी से की जा सकती है। विकास तथा शहरीकरण के दौर में अनेक बड़े-बड़े तालाब पाट कर काम्पलेक्स बनाने, तालाब की भूमि पर अतिक्रमण करने के कारण काफी तालाब शहादत को प्राप्त हो चुके हैं, वहीं कुछ सामाजिक परम्पराओं के गलत उपयोग के कारण भी तालाब प्रदूषित तथा पटते जा रहे है। कुछ तालाब जलकुम्भी फैलने, अतिक्रमण, आसपास की फैक्ट्रियों के खतरनाक रसायनों के प्रवाहित करने से बीमार हो रहे है।

छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ वर्षो से तालाबों की सफाई का मामला काफी जोर-शोर से उठा है जिसमें करोड़ों रुपए खर्च करके तालाबों की सफाई हो रही है लेकिन तालाबों में साफ-सफाई रहना व प्रदूषण मुक्त रखने के लिए समाज के सभी वर्गों का एक जूट होना सार्थक ढंग से प्रयास करने से ही संभव है। तालाबों में प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण कारण उसमें डाले जाने वाले विभिन्न सामग्रियां हैं जो विभिन्न अवसरों पर डाले जाते है। इसमें धार्मिक अवसरों, शोभा यात्राओं में प्रवाहित किये जाने वाले पदार्थों की संख्या भी कम नहीं है। हम सब धार्मिक नागरिक कहलाना पसंद करते हैं। जिसके कारण विभिन्न धर्मों में पूजा व उपासना की अलग-अलग मान्यताएं विकसित होती चली गई है। सभी धर्मावलंबियों में आस्था के प्रदर्शन की सार्वजनिक एंव व्यक्तिगत रूचि बढ़ती जा रही है। विभिन्न अवसरों में न केवल मूर्तियां बनती हैं बल्कि ताजिए भी बनते हैं। जब ये बनते हैं, तो निश्चित अवधि के बाद विसर्जित भी होते हैं।

समय बीतने के साथ न केवल इनकी संख्या बढ़ती जा रही है बल्कि प्रतिस्पर्धा में इनका आकार-प्रकार व सुन्दरता में वृद्धि के लिए रंग रोगन का प्रयोग बढ़ता जा रहा है क्योंकि प्रतियोगिता का जमाना है। कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता लेकिन साल दर साल जब उत्साह से प्रतिमाएं व ताजिए जब शहरों के सरोवरों में विसर्जित किये जाते हैं। वे सरोवर काफी दिनों तक भक्ति के इस दर्द भरे प्रभाव से भयभीत रहते हैं। पहले जब सार्वजनिक उत्सवों की यह परम्परा स्थापित हुई थी तब तालाब बड़े व गहरे हुआ करते थे। नदियों के बहाव तेज होते थे। तब न ही इतनी भीड़ होती रही तथा न ही इतनी मूर्तियां व ताजिए। तब भक्तगण मूर्तियां भी छोटी बनाते थे तथा उन्हें रंगने के लिए प्राकृतिक रंगों का ही सहारा लेते थे। अत: इन छोटी मूर्तियों को बड़े नदी, तालाब उन्हें आसानी से अपने में बिना किसी नुकसान के अपने में समाहित कर लेते थे लेकिन आज की परिस्थितियां भिन्न हैं। तालाब सिकुड़ते जा रहे हैं प्रतिमाएं व आस्था के धार्मिक प्रतीक बड़े होते जा रहे है।

मुर्तियों के विसर्जन से फैलता प्रदूषणमुर्तियों के विसर्जन से फैलता प्रदूषण'' कहा जाता है कि जल के बिना जीवन सूना'' इसलिए हमें अपनी प्राकृतिक धरोहरों अपने सरोवरों, तालाबों, जल स्रोतों की भलाई के संबंध में भी विचार करते रहना चाहिए। तालाबों में प्रदूषण का एक बहुत बड़ा एवं महत्वपूर्ण कारण उनमें मूर्तियों व ताजियों का विसर्जन भी है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के ही प्रमुख तालाब बूढ़ा तालाब में प्रतिवर्ष सिर्फ गणेशोत्सव में विसर्जन के अवसर पर डाले जाने वाले पदार्थों में हजारों किलोग्राम मिट्टी, ऑयल पेन्ट, मिट्टी तेल, तारपीन तेल, प्लास्टिक, पॉलीथीन, लकड़ी, प्लास्टर ऑफ पेरिस, बांस, बहुतायत से रहे। इसके साथ ही सिन्दुर, अभ्रक, धागे, कपड़े, सिक्के, तेल, खराब पदार्थ भी शामिल है। बूढ़ा तालाब में ही विसर्जित किये जाने वाली सामग्री का आकलन जब हमने किया तो अचंभित रह गये। मूर्तिकारों व सजावट कर्ताओं से चर्चा में पता चला। शहर में करीब दस हजार मूर्तियां निर्मित की जाती है जो कि एक किलोग्राम से पांच सौ किलोग्राम तथा अधिक भी होती हैं करीब 300 स्थानों पर सार्वजनिक गणेशोत्सव में मूर्तियां स्थापित की जाती हैं।

जिनमें विसर्जन से करीब चौबीस हजार कि.ग्रा. मिट्टी तथा प्लास्टर ऑफ पेरिस, ढाई हजार लीटर आईल पेन्ट, हजार लीटर तारपीन तेल, मिट्टी तेल प्रयोग किया जाता है। इसके साथ ही हजारों कि.ग्रा. पैरा, लकड़ी, बांस, रस्सियां, कांच, पॉलीथिन, प्लास्टिक, थर्मोकोल भी पानी में विसर्जित होते हैं। कुछ रसायन पदार्थ जैसे अभ्रक, सिन्दुर, तेलीय पदार्थ, फेवीकोल, कीले भी प्रतिमा के साथ विसर्जित हो जाती हैं। जिससे तालाब का पानी एकदम से प्रदूषित हो जाता है। जलाशयों में जल का प्रमुख स्रोत बरसात का संचयित जल होता है जिसमें बहाव नहीं होता तथा उसका उपयोग स्थानीय लोग वर्ष भर करते हैं। जल के बिना हम जीवित नहीं रह सकते। देव दर्शन के लिए मनुष्य यहां-वहां भटकता रहता है जबकि जल हमारे लिए प्रत्यक्ष देवता स्वरूप है तथा पूज्यनीय है लेकिन विभिन्न प्रदूषणकारी पदार्थों के तालाब में जाने से तालाब का जल उसके वनस्पति, उसके जलचर बीमार हो जाते हैं क्योंकि सीमित क्षेत्र होने से उसके जल का बहाव नहीं होता तथा वहां डाले गये पदार्थ धीरे-धीरे वहीं विराजमान कहकर किसी न किसी रूप से अस्तित्व बनाये रखते हैं।
 

सामाजिक संस्थाएं जन जागरण का कार्य में लग जायें तो वह दिन दूर नहीं कि जब हम अपने ताल-तालाबों को प्रदूषण से बचा सकने में सक्षम हो सकेंगे। सुना है धर्म की रक्षा के लिए लोग बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने में नहीं हिचकते। आज की परिस्थितियों में जब जलस्तर लगातार गिरता जा रहा है, पानी की कमी के किस्से जगह-जगह सुनाई दे रहे हैं। संचयित जल का महत्व बढ़ता जा रहा है। तब तालाब में संचयित अमूल्य जल की प्रदूषण से रक्षा करने से बड़ा धर्म कोई नहीं हो सकता।

प्रतिवर्ष हजारों कि.ग्रा. मिट्टी तालाब के गहरेपन को कम करती है। साथ ही पानी भरने की क्षमता भी कम करती है। मूर्तियों के साथ जाने वाला प्लास्टर ऑफ पेरिस तालाब के जल में पहुंचकर उसे छोटे छोटे छिद्रों को बंद कर देता है। जिससे तालाब की रिचार्जिंग क्षमता कम हो जाती है। तरह-तरह के आईल पेन्ट, तारपीन, मिट्टी तेल जल में अशुद्धि पैदाकर उसे उपयोग के लायक रहने नहीं देते। प्लास्टिक, कांच, थर्मोकोल, पॉलीथीन, प्लास्टिक की रस्सियां जैसी वस्तुएं पानी में घुलनशील नहीं है तथा न ही इन्हें मछलियां व अन्य जीव जन्तु खा सकते हैं। यदि वे उन्हें खा भी लेते हैं तो उनका और भी बुरा हाल होता है। अभ्रक आर्सेनिक, सिन्दुर लेड, कपूर क्रोमियम, जस्ता मैगनीज, अगरबत्ती आदि तालाब के पानी के प्राकृतिक गुण को समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इस प्रकार प्रदूषित पानी से न केवल मनुष्यों बल्कि पशुओं को भी विभिन्न प्रकार के रोग, संक्रमण हो जाते हैं जिनमें स्नायु रोग, एलर्जी, खुजली, पेट रोग प्रमुख है।

एक सर्वेक्षण में तालाब के पानी का उपयोग करने वाले लोगों ने इस बात की पुष्टि की है तथा रविशंकर वि.वि. यूनि. रायपुर में पूर्व में किये गये अध्ययन में भी पानी में भारी संक्रमण तथा शीशे व पारे सहित रासायनिक अशुद्धियों का प्रमाण दिया गया था। सार्वजनिक व धार्मिक कार्यक्रमों में सरोवरों के प्रदूषण की समस्या सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि देश के अनेक नगरों की समस्या बन रही है। कुछ वर्ष पूर्व मुम्बई में गणेशोत्सव में ही किये जाने वाले विसर्जन के संबंध में एक पत्रिका ने छापा कि विसर्जन के बाद समुद्र तट पर करीब 50 हजार से अधिक थैलियां तैरती हुई पायी गई। वहीं जिद न्यास ट्रस्ट ने अपने अध्ययन में बताया था कि सिर्फ मुम्बई में गणेश विसर्जन के जरिए 175 मीट्रिक टन का कार्बनिक कचरा पानी में छोड़ा जाता है। उसी तरह कोलकाता विश्वविद्यालय के जीव रसायन विभाग ने सन् 90 से 95 के बीच हुगली नदी में प्रदूषण की स्थिति का अध्ययन करके बताया था। जलस्रोत विसर्जन काल में ही सर्वाधिक प्रदूषित होते है। उन्होने कोलकाता में 9 टन प्रदूषक कारणों की मात्रा बताई थी। जिसमें पारा, सीसा, क्रोमियम, मैगनीज जैसी धातुएं शामिल थी।

सन् 1999 में छपी एक खबर में भोपाल, हैदराबाद, बड़ोदरा के झील में प्रतिमाओं व ताजिए के विसर्जन से प्रदूषण की जानकारी दी गई थी। मूर्तियों के साथ पूजन सामग्रियों का तालाबों में विसर्जन भी प्रदूषण बढ़ाने में सहायक है जो पॉलीथीन की थैलियों में भरकर फेंका जाता है। धर्म पर आस्था रखना अच्छी बात है लेकिन धार्मिक सीमाओं का पालन करते हुए अपने आसपास के वातावरण, पर्यावरण की भी सुरक्षा रखना और भी अच्छी बात है। इसमें परिवर्तनशील बातों को खुले हृदय से स्वीकार किया जाना चाहिए। समय के अनुसार से हर रीति-रिवाज में परिवर्तन वांछनीय है जिन्हें स्वीकार किया जाना सभी धर्मों व नागरिकों के लिए आवश्यक है। हमें अपने प्रिय सरोवरों पर बढ़ते प्रदूषण के खतरों को गंभीरता से लेना होगा। क्योंकि यह सामाजिक जीवन में जुड़ा बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। विसर्जन के वैकल्पिक स्थानों व उपयोग पर चर्चा की जा सकती है। प्रतिमाओं में प्लास्टर ऑफ पेरिस की जगह साधारण मिट्टी का उपयोग किया जाये तथा हानिप्रद रसायनों, ऑयल पेन्ट, तारपीन से नहलाने की बजाय प्राकृतिक रंगों का उपयोग मूर्ति सजावट में कर सकते हैं। ऐसा प्रयास मुम्बई में शुरू हुआ है।

पूजा सामग्री को पॉलीथिन में भरकर प्रवाहित करने की बजाय उसे पृथक रूप से एकत्र कर उसे बाद में खाद के रूप में उपयोग कर सकते हैं। उजैन में तो विद्वत परिषद ने बाकायदा धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन कर उसमें से नागरिकों को जानकारी दी कि जल देवता का प्रदूषण करना शास्त्र संगत नहीं है। जल स्रोत हमारे पूर्वजों जैसे वंदनीय है। अब जबकि तमाम शहरों में प्रदूषण के खिलाफ आवाजें उठ रही हैं। पर्यावरण प्रेमी एक साथ सामने आ रहे हैं। सामाजिक संस्थाएं जन जागरण का कार्य में लग जायें तो वह दिन दूर नहीं कि जब हम अपने ताल-तालाबों को प्रदूषण से बचा सकने में सक्षम हो सकेंगे। सुना है धर्म की रक्षा के लिए लोग बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने में नहीं हिचकते। आज की परिस्थितियों में जब जलस्तर लगातार गिरता जा रहा है, पानी की कमी के किस्से जगह-जगह सुनाई दे रहे हैं। संचयित जल का महत्व बढ़ता जा रहा है। तब तालाब में संचयित अमूल्य जल की प्रदूषण से रक्षा करने से बड़ा धर्म कोई नहीं हो सकता।
 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading