पर्यावरण अनुकूलन : एक सामयिक चर्चा

यह तो सर्वदा सत्य है कि मानव सभ्यता का विकास हुआ है। इस विकास का मुख्य मापदंड है-औद्योगिक विकास। औद्योगिक विकास के साथ-साथ मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए अनेक वस्तुओं का उत्पादन तो कर लिया लेकिन उस विकास का दुष्परिणाम यह हुआ कि विकसित समाज में वह अस्वस्थ एवं प्रतिकूल वातावरण में रहने के लिए मजबूर है। आज की स्थिति यह हो गई है कि मानव अपने द्वारा बनाई गई मशीनों का स्वयं गुलाम बन गया है।

जीवन का मूल आधार है पर्यावरण। पर्यावरण का संतुलन प्रकृति, संस्कृति एवं विकृति के त्रिक पर आश्रित है। प्रकृति नियति का नैसर्गिक स्वरूप है। संस्कृति जीवन-शैली है। संस्कृति ही मानव में देवत्व उभारती है। विकृति वस्तुतः संस्कृति एवं प्रकृति दोनों की विलोम स्थिति है। विकृति के फलस्वरूप समाज में असुरता बढ़ने लगती है। प्रकृति को संवारना संस्कृति है, जबकि इसको बिगाड़ना विकृति।

संस्कृति के अंतर्गत ही तकनीकी विकास होता है। तकनीक विकास का क्रम सुविधाओं और आवश्यकताओं के लिए दिन-प्रतिदिन आगे बढ़ता गया। संस्कृति के अंतर्गत एक तथ्य पर सदैव बल दिया जाता रहा कि समाज और प्राकृतिक वातावरण के मध्य एक पारिस्थितिक संतुलन रहे। यही पारिस्थितिक संतुलन आदर्श पर्यावरण है। यदि संतुलन बिगड़ने लगे तो इसका अर्थ हुआ - पर्यावरण दूषित हो रहा है। प्रदूषण के मुख्यत: कारक हैं- सभ्यता का अति विकास, यांत्रिकता का अनावशयक विकास, पर्यावरण बोध रहित तकनीकी विकास, जनसंख्या विस्फोट, वनस्पतियों का विनाश, अनावश्यक औद्योगिक विस्तार, परमाणु बम का प्रयोग, मशीनों की अनिवार्यता, रसायनों का बढ़ता प्रयोग एवं मानसिक विकार।

प्राणिजगत् के लिए संतुलित वातावरण अत्यंत आवश्यक है, लेकिन पर्यावरण को प्रदूषित एवं असंतुलित करने के जिन उपर्युक्त कारकों को रेखांकित किया गया है, उन सभी का मुख्य कारण मानव समुदाय ही है। अदूरदर्शिता, स्वार्थ, सुविधा-भोग, जनसंख्या-विस्फोट आदि ने पर्यावरण को प्रदूषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

पर्यावरण और सृष्टि के बीच एक घनिष्ठ संबंध रहा है। सृष्टि-परिवर्तन के प्रभाव से पर्यावरण में भी परिवर्तन होता है। यदि परिवर्तन जीव-जगत् के लिए अनुकूल होता है तो यह कहा जाता है कि वे हमारे लिए ग्राह्य है। यदि परिवर्तन से प्राणी को प्रतिकूलता प्रतीत होती है तो वे अग्राह्य हैं। यही प्रतिकूलता प्रदूषण इंगित करती है।

वर्तमान में पर्यावरण का जो स्वरूप है, वह निश्चित रूप से प्रदूषित पर्यावरण का रूप है। इसलिए यह सामयिक चुनौती है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त कैसे रखा जाए?

पर्यावरण से संबंधित भारतीय विचारधारा


पर्यावरण के प्रति सजग रहने के लिए मानव को सनातनकाल से संप्रेरित एवं प्रशिक्षित किया जाता रहा है। वैदिककाल से ही मानव संतुलित एवं अनुकूल पर्यावरण की अपेक्षा करता आ रहा है। ‘वात अवातु भेषजम्,’ ‘ शंभु मयोभु नो हृदे’ और ‘प्रण आयुषिंतारिषत्’ में यही कामना है कि वातावरण में चारों ओर जीवनप्रद रोग निवारक वायु ही बहे, यही वायु हमारे लिए सुखदायी, कल्याणकारी एवं आनंददायी हो तथा जीवनदायिनी एवं आरोग्यकारिणी रहते हुए समाज को पोषित करे, स्वस्थ रखे।

यज्ञ को ऋतुओं का संचालक माना गया है।,’अग्निमीडे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्’ से स्पष्ट संकेत मिलता है कि अग्नि स्थापित कर उसमें हवि प्रदान कर ऋतु चक्र को अनुकूल रखा जा सकता है। पर्यावरण में अनुकूलता स्थापित करने के लिए प्रदूषणरोधक एवं प्रदूषणशोधक आदि उपक्रम करने की संप्रेरणा दी जाति रही है मानव समुदाय को। भारतीय संस्कृति में वायु, जल मृदा एवं वृक्ष को देवरूप मानते हुए इनकी आराधना की गई है। जिस प्रकार देवमूर्ति की पूजा- अर्चना की जाती है, उसी प्रकार प्रकृति के तत्वों को पूजने की परंपरा है। प्रकृति पूजन वस्तुत: वातावरण को मानव समुदाय के लिए उपयुक्त एवं अनुकूल बनाने का प्रयास है। नदी को गंदा न करके जल को छानकर पीने वातावरण को दुर्गंध रहित रखने आदि हजारों निर्देश अंकित हैं, भारतीय ग्रंथों में-

नाप्सु मूत्रं पुरीषं वाष्टीवनं समुत्सृजेत्।
अमेध्यलिप्तमन्यद्वा लोहितं वा विषाणि वा।।


यह मनुस्मृति का उद्धरण है। इसमें प्रदूषण रोकने संबंधी निर्देश हैं कि पानी में मल-मूत्र, थूक अथवा दूषित पदार्थ, रक्त या विष का विसर्जन न करें। ऋग्वेद के ये सूत्र पर्यावरण को अनुकूल रखने की दृष्टि से ही अंकित हैं-

‘माकाकंबीरमुद् वृहो वनस्पतिशस्तीर्वि हि नीनशः’

अर्थात् वृक्षों को मत उखाड़ो (काटो), वे प्रदूषण रोकते हैं।

‘प्रहं मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम्’

अर्थात मैं मृगों के आश्रयदाता वन की प्रशंसा करता हूं।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के प्रति सजग रहने तथा उसे अनुकूल रखने के लिए एक समग्र दर्शन है। इसी मूलदर्शन को अपनाने की आज आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

पारिस्थितिकीय संतुलन का सिद्धांत


स्वस्थ तथा अनुकूल पर्यावरण में ही सुखद जीवन निर्वाह की आशा की जा सकती है, लेकिन वर्तमान सदी में जिस प्रकार से औद्योगिक विकास हुआ है, उससे विश्व के सामने पर्यावरण-संरक्षण की समस्या विकटतर हो गई है। पारिस्थितिकीय असंतुलन से प्राकृति प्रकोप के भीषण संकट उत्पन्न हो रहे हैं। विकास के नाम पर एकपक्षीय नियोजन एवं कार्यान्वयन हो रहे हैं। विकास के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली स्थितियों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसी का दुष्परिणाम है कि आज विश्व पारिस्थितिकीय असंतुलन का सामना कर रहा है। विवेकांध औद्योगीकरण से प्रकृति का निर्मम दोहन हुआ है। कल-कारखानों के अपशिष्ट-निस्तारण के फलस्वरूप नदियां प्रदूषित हुई, वायुमंडल प्रदूषित हुआ तथा मृदा व अन्याय प्रदूषित हुए। इस प्रकार अनेक प्रदूषणों से पारिस्थितकीय संतुलन बिगड़ गया।

पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखना एक सतत् क्रियात्मक प्रक्रिया है। पारिस्थितिकीय संतुलन के मुख्य अवयव हैं – वायु, जल, मृदा, वनस्पतियां, जीव-जंतु, मानव समुदाय तथा प्रौद्योगिकी। प्रकृति की संतुलित पारिस्थितिकी के किसी भी घटक से यदि उसकी लोच सीमा से अधिक छेड़-छाड़ किया जाएगा तो पारिस्थितकी असंतुलित हो जाएगी और पर्यावरण प्रदूषित हो जाएगा। यदि किसी कारखाने का अपशिष्ट नदी में बहाया जाएगा तो नदी एक सीमा तक ही सहन करेगी। उससे अधिक होन पर नदी प्रदूषित हो जाएगी तथा प्राणीजगत् पर कुप्रभाव पड़ने लगेगा। यही समझ पारिस्थितिकी का एकीकृत सिद्धांत कहलाता है। इसी सिद्धांत पर पारिस्थितिकीय जाल के अंतर्गत वायु, जल, मृदा, वनस्पतियां, जीव-जंतु मानव समुदाय तथा प्रौद्योगिकी एक-दूसरे से जुड़ी हैं।

पारिस्थितिकीय जाल


चूंकि मानव पारिस्थितिकी के अन्य घटकों से सीधा जुड़ा होता है, इसलिए वह पारिस्थितिकी का प्रधान घटक माना जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पारिस्थितिकीय संतुलन को मानव के सापेक्ष में ही परिभाषित किया जा सकता है या किया जाता है। मानव के आंतरिक गुणधर्मों का भी बहुत अधिक महत्व है। मानव के आंतरिक गुणधर्मों के आधार पर ही सामाजिकता, नैतिकता, मनःस्थिति, राजनीति, अध्यात्म शक्तियां, अर्थ-क्षमता, संस्कृति आदि परिभाषित होती हैं और निर्धारित होती हैं।

पर्यावरण अनुकूलन हेतु कतिपय विचार


यह तो सर्वदा सत्य है कि मानव सभ्यता का विकास हुआ है। इस विकास का मुख्य मापदंड है-औद्योगिक विकास। औद्योगिक विकास के साथ-साथ मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए अनेक वस्तुओं का उत्पादन तो कर लिया लेकिन उस विकास का दुष्परिणाम यह हुआ कि विकसित समाज में वह अस्वस्थ एवं प्रतिकूल वातावरण में रहने के लिए मजबूर है। आज की स्थिति यह हो गई है कि मानव अपने द्वारा बनाई गई मशीनों का स्वयं गुलाम बन गया है। यदि समय रहते इस पर समुचित विचार नहीं किया गया तो पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने या बनाए रखने की समस्या जटिलतर हो जाएगी। अब विचारक इस समस्या के प्रति संवेदनशील दिखने लगे हैं। यह एक शुभाग्रह है। प्रदूषित पर्यावरण को अनुकूल बनाने के लिए कुछ विचारक इस बात पर बल देने लगे हैं कि सभ्यता के विकास को यदि नकार दिया जाए तो पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने में सरलता रहेगी। इसका आशय हुआ कि अंतरिक्ष-युग से लौटकर आखेट युग में जिया जाए। कुछ अन्य विचारकों की राय है कि प्रकृति स्वतः भी इस दिशा में कार्य करती है। ईंधन ऊर्जा की अंधाधुंध खपत से ईंधन का संकट पैदा हो जाएगा और समाज मजबूरी में प्रदूषण के स्रोत कल-कारखाने, वाहन आदि बंद हो जाएंगे। दोनों विचारों में एक समानता है कि प्रदूषण को पूर्णतः समाप्त करने की बलवती इच्छा है। इस प्रकार के विचार को पश्चगमन कहते हैं। चूंकि मानव की सदा से यही उत्कंठा रही है कि वह प्रकृति में हलचल पैदा कर नई-नई संभावनाओं को विकसित करे। मानव की इस प्रकृति से ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चगमन का विचार अर्थपूर्ण नहीं है, लेकिन यह सर्वथा संभव है कि प्रदूषण नियंत्रण कर पर्यावरण को अनुकूल रखा जा सकता है। इसी क्रम में एक विचार प्रसारित हो रहा है कि तकनीक का अति-विकास ही मानव को प्रदूषण रहति पर्यावरण दे सकेगा। पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले कारकों को पुनः मानवोपयोगी बनाकर समाज को उपलब्ध कराया जाए, जिससे प्रदूषण की समस्या सुलझाई जा सके।

प्रदूषण के कतिपय रूप और उनका प्रभाव


यह तो निर्विवाद है कि पर्यावरण अनुकूलन के लिए प्रदूषण को समाप्त करना होगा। प्रदूषण के कई रूप मौजूद हैं- कुछ प्रत्यक्ष रूप में तथा कुछ अप्रत्यक्ष रूप में। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, रासायनिक प्रदूषण आदि प्रत्यक्ष प्रदूषण है। जबकि मानसिक विकृति, ओजोन परत का छिद्रण, हरितालय-प्रभाव (Greenfield Offer) आदि प्रदूषण के अप्रत्यक्ष रूप हैं। प्रदूषण के विभिन्न रूपों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-

(क) वायु प्रदूषण – मानव जीवन की प्रथम आवश्यकता है वायु जिसकी प्रतिक्षण जरूरत है, लेकिन वायु अनेक कारणों से प्रदूषित होकर मनुष्य के लिए अनुपयोगी बनती जा रही है। मुख्य रूप से वायु को प्रदूषित करने वाले कारक हैं- कीटनाशक रसायन, कल-कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला काला धुआं, सड़कों पर चलने वाले वाहनों से निकलने वाला धुआं, गंदगी के ढेर, बढ़ती हुई जनसंख्या, घटती हुई वनस्पतियां। वायु विभिन्न गैसों का संतुलित अनुपात वाला मिश्रण है। अनुपात का संतुलन बिगड़ जाने से वायु की अनुकूलता समाप्त हो जाती है, वह विषैली हो जाती है और इसका कुप्रभाव न सिर्फ मानव, बल्कि वनस्पति पर भी पड़ता है। वायु प्रदूषण के मुख्य अवयव हैं- सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड धूम्रकण आदि। वायु प्रदूषण के ही दुष्परिणाम हैं कि आदमी श्वास – तंत्र के रोगों (ब्रांकाइटिस) का शिकार हो रहा है। इमारतों की संरचनाओं में क्षरण (स्टोन कैंसर) आदि होने लगे हैं। फसलों एवं पशुओं पर फ्लोराइड से हानि पहुंच रही है। वायु प्रदूषण की मात्रा थोड़ी होती है तो वायु का शुद्धिकरण वायु की गति, ताप, वर्षा तथा सूर्य-रश्मियों आदि से स्वतः हो जाता है। इसलिए विषैले पदार्थों का इतना तनुकरण होना चाहिए, जिससे वातावरण एवं शुद्धिकरण-क्षमता की सीमा के अंतर्गत आ जाए। वायु प्रदूषण वृक्षों के कटान के फलस्वरूप भी होता है। अतः पेड़ों का रोपण एवं पोषण वायु प्रदूषण समाप्त करने का एक आवश्यक पहलू है। इसके अतिरिक्त वायु प्रदूषण को रोकने के लिए प्रदूषण वृद्धि करने वाले कारकों एवं अभिकारकों पर वैधानिक शर्त आरोपित करनी चाहिए।

(ख) जल प्रदूषण- वायु के बाद मानव के लिए सबसे ज्यादा उपयोगी एवं आवश्यक अवयव है जल। जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। जीवन-निर्वाह के लिए निर्मल एवं पेयजल की आपूर्ति आवश्यक है। जल प्रदूषण के मुख्य कारक हैं – घरों से निकलने वाला कूड़ा-कचरा एवं अपशिष्ट पदार्थ, फैक्ट्रियों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ आदि। जल प्रदूषण का दुष्परिणाम यह होता है कि जल का ताप, उनका रंग, उसकी गंध एवं रेडियोधर्मिता में अंतर आ जाता है । जल की हाइड्रोजन-आयन सांद्रता (ची) क्षारीयता आदि परिवर्तित हो जाती है। जल प्रदूषण के फलस्वरूप जीवाणुओं एवं विषाणुओं का संक्रण फैलने लगता है, जिससे महामारी फैल जाती है। पीलिया, डायरिया आदि बीमारियां जल प्रदूषण के कारण फैलती हैं। जल प्रदूषण का दुष्प्रभाव फसलों एवं मिट्टी पर भी पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए फैक्ट्रियों को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि अपशिष्ट युक्त पानी को स्वच्छ कर ही निस्तारित किया जाए। जल आपूर्ति के लिए बिछाई गए पाइपों के जोड़ उचित ढंग से जोड़े जाएं। क्लोरीकरण से जल शुद्ध किया जाना चाहिए।

(ग) मृदा प्रदूषण – मृदा आवश्यक पदार्थ है, जिसका उपयोग जीवन में कई तरह से किया जाता है। मृदा का सबसे बड़ा उपयोग खेती में किया जाता है। मृदा प्रदूषण का दुष्प्रभाव वायु, जल एवं फसल पर पड़ता है। यह अंततः मानव समुदाय को कुप्रभावित करता है। मृदा प्रदूषण के मुख्य कारक हैं- कीटनाशक दवाइयां एवं अपशिष्टों के रसायनों, प्रदूषित जल, रेडियोधर्मिता आदि।

(घ) ध्वनि प्रदूषण- आज कोलाहलपूर्ण वातावरण से मानव परेशान है। इसका एकमात्र कारण है – ध्वनि प्रदूषण। जो ध्वनि गीत-संगीत के रूप में कर्ण-प्रिय लगती है, वही प्रदूषण बनकर जानलेवा बन रही है। ध्वनि प्रदूषण का सीधा दुष्प्रभाव कर्ण एवं मस्तिष्क पर पड़ता है और इससे पाचन-तंत्र भी बिगड़ता है। ध्वनि प्रदूषण वस्तुतः ध्वनि की अत्यधिक मात्रा और उसकी तीव्रता है। यदि ध्वनि की तीव्रता मानव की सहन-शक्ति से बढ़ जाती है तो वह ध्वनि प्रदूषित कहलाती है। प्रदूषित ध्वनि शारीरिक एवं मानसिक तनाव पैदा करती है। मानव औसत रूप से अधितकम 40 डेसिबल ध्वनि को सहन करने की सामर्थ्य रखता है। उससे अधिक तीव्रता वाली ध्वनि प्रदूषित ध्वनि कहलाती है। ध्वनि प्रदूषण के कारण हैं-लाउडस्पीकर, वाहनों एवं रेलगाड़ियों की सीटी एवं उसकी गति से होने वाली तेज ध्वनि इत्यादि। ध्वनि सीमा के अनुसार इंजन, टेलीफोन, मिक्सी, रेलगाड़ी, मोटरगाड़ी एवं वायुयान, पटाखे आदि ध्वनि प्रदूषण के मुख्य अभिकारक हैं। ध्वनि अवशोषक की परिकल्पना एवं विकास का उचित प्रयास किया जाना चाहिए।

(ङ) रासायनिक प्रदूषण- कुछ रासायनिक कण मानव के लिए हानिकारक होते हैं। वे मुख्य रूप से सीसा, जस्ता, लोहा, कैडमियम, फ्लोराइड, निकल, क्लोरीन, बेरियम आदि हैं। ये वायु,, जल, मृदा आदि को प्रदूषित कर मानव-मस्तिष्क में विकार पैदा करते हैं। इनके दुष्परिणाम से यकृत और वृक्क भी प्रभावित होते हैं।

(च) रेडियोधर्मी प्रदूषण- रेडियोधर्मी गैसें ही इसके मुख्य स्रोत हैं। परमाणु कचरे से वायु, जल, मृदा आदि प्रदूषित होती हैं। रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण ही एनीमिया, ल्यूकोनिया, कैंसर तथा नपुसंकता आदि बीमारियां फेलती हैं या फैल रही हैं। रेडियोधर्मी प्रदूषण के अन्य स्रोत ये भी हैं – न्यूक्लीयर रिएक्टर, प्रायोगिक उत्प्रेरक, रेडियोधर्मी आइसोटोप्स की सहायता से निर्मित दवाइयां एवं परमाणु-बम परीक्षण आदि।

(छ) मानसिक प्रदूषण – मानसिक प्रदूषण वस्तुतः मानसिक विकार है। इसके ही दुष्परिणाम हैं- आतंक, परमाणु बम का वायुमंडल में परीक्षण, रेडियोधर्मी कचरों का अनियोजित निस्तारण, कल-कारखानों के अपशिष्टों को बिना उपचार किए खुला बहा देना, तीव्र आवाज का प्रयोग, लाउडस्पीकरों इत्यादि को तेज ध्वनि में बजाना आदि। मानसिक प्रदूषण वस्तुतः अन्य प्रदूषणों का उत्प्रेरक एवं समर्थक है। पर्यावरण अनुकूलन के प्रति सार्थक दृष्टिबोध का न होना मानसिक प्रदूषण का दुष्परिणाम है। इच्छाशक्ति का ह्रास होना, सामाजिकता के बोध में कमी आना, नैतिक दृष्टिकोण का न होना, आदि मानसिक विकार के लक्षण हैं। अध्यात्मबोध मानसिक विकार दूर करने में सहायक होता है। अंधविश्वास मानसिक प्रदूषण को बढ़ाता है। अंधविश्वास के फलस्वरूप पर्यावरण अनुकूलन के प्रति प्रतिबद्धता में कमी आती है।

(ज) ओजोन परत में छिद्रण- ओजोन परत वायुमंडल के ऊपरी भाग में एक आवरण है, जिसका निर्माण ऑक्सीजन और सूर्य रश्मियों की क्रिया द्वारा होता है। मानव को इसके बारे में सर्वप्रथम सन् 1785 में ज्ञान हुआ। यह आवरण वस्तुतः पृथ्वी के 25-30 कि.मी. ऊपर होता है। यह परत प्राणी जगत् के लिए ईश्वर का वरदान है। सूर्य की पराबैंगनी रश्मियों एवं अन्य विकिरणों से, जो प्राणियो के लिए घातक होती है, यह परत बचाती है। ओजोन परत वस्तुतः प्राणी जगत के लिए रक्षा-कवच है। लेकिन मानव सभ्यता एकपक्षीय विकास कर अपने रक्षाकवच को ही कमजोर बना रही है। विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों के कारण ओजोन परत में छिद्रण हो रहा है। इससे प्राणी जगत् को घातक विकिरणों का दुष्प्रभाव झेलना पड़ेगा। आज त्वचा कैंसर तथा अंधापन जैसी बीमारियों ओजोन परत छिद्रण का ही दुष्परिणाम हैं। ओजोन परत छिद्रण के मुख्य कारक हैं- क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी)।

(झ) हरितालय प्रभाव- भूमंडलीय ताप में हो रही निरंतर वृद्धि प्राणी जगत् के लिए खतरे की घंटी है। पिछले सौ वर्षों में भूमंडलीय औसत ताप में लगभग 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। ऋतुओं में परिवर्तन होने लगा है। भूमंडल का तापमान बढ़ना तथा हरियाली का लुप्त होना ही हरितालय प्रभाव के लक्षण हैं। इस प्रभाव के कारण प्राणी का जीवन ही नष्ट होने लगेगा। हरितालय प्रभाव के लिए मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य 39 गैसें, जिनमें-मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरा-फ्लोरो कार्बन आविमुख्य हैं, मुख्य रूप से उत्तरदायी कारक हैं।

प्रदूषण-नियंत्रण से संबंधित आधारभूत अवधारणाएं


यह तो स्पष्ट है कि यदि पर्यावरण-अनुकूलन के लिए समय रहते प्रयास नहीं किया गया तो प्राणी-जगत पर संकट के बादल और घने हो जाएंगे तथा मानव के ज्ञान एवं अनुसंधान की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह लग जाएंगे। यद्यपि विश्व के विचारक इस दिशा में प्रयत्नशील हैं, फिर भी कुछ सर्वमान्य आधारभूत सिद्धातों के अनुरूप आवश्यक कदम उठाने पड़ेंगे। प्रदूषण नियंत्रण क समस्याएं तीन स्तरीय हैं- विश्व स्तरीय राष्ट्र स्तरीय तथा स्थानीय। ओजोन परत छिद्रण, हरितालय प्रभाव, वायु प्रदूषण, मानसिक प्रदूषण आदि राष्ट्रीय समस्याएं हैं। विश्व स्तरीय परमाणु बम का परीक्षण रोकने के लिए प्रयास होने चाहिए। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, मानसिक प्रदूषण आदि राष्ट्र-स्तरीय समस्याएं हैं। इनके नियंत्रण के लिए राष्ट्र स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए। जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, मानसिक प्रदूषण आदि स्थानीय समस्याएं हैं। इसी दिशा में कुछ मूलभूत विचार सिद्धांत स्वरूप में रखे गए हैं, जिनका कार्यान्वयन प्रदूषण नियंत्रण के लिए किया जाना चहिए।

(क) लागत-लाभ सिद्धांत- न्यूनतम लागत और अधिकतम लाभ प्रबंधन का लक्ष्य होता है। इसलिए मानव समुदाय को न्यूनतम स्वास्थ्य स्तर बरकरार रखते हुए लागत-लाभ स्थिति का विश्लेषण कर प्रदूषण-नियंत्रण की दिशा में समुचित निर्णय लेना चाहिए। यदि लागत और लाभ की समतुल्यता पर मानव के अपेक्षित स्वास्थ्य-स्तर को बरकरार रखा जाए तो इस सिद्धांत का पालन करना मानवोचित होगा।

(ख) प्रदूषण-मानक सिद्धांत- इस सिद्धांत की अवधारणा है कि विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्टों के प्रदूषण को मानवानुकूल बनाकर उन्हें बाहर नदी या वायुमंडल में छोड़ा जाए। इस सिद्धांत के अंतर्गत ‘शून्य प्रदूषण’ की अवधारणा नहीं है, बल्कि ‘अनुकूल वातावरण’ (जल+वायु+मृदा) की मौलिकता है। यह एक व्यावहारिक एवं माननीय सिद्धांत है।

(ग) प्रदूषण-दंड सिद्धांत- प्रदूषण नियंत्रण परिषद जैसी शासकीय संस्था बनाकर वैधानिक दंड के प्रावधान द्वारा प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में पहल की जानी चाहिए। इस दिशा में कुछ अधिनियम भी हैं, जिनके अंतर्गत प्रदूषण के लिए दंड दिया जा सकता है। जल (प्रदूषण बचाव एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 तथा उपकर अधिनियम 1977, वायु (प्रदूषण बचाव एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 तथा नियम 1982, खान एवं खनिज संपत्ति (विनियम एवं विकास) अधिनियम, 1947 वन संरक्षण अधिनियम 1980, भू-क्षरण अधिनियम 1955 वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम आदि इसी सिद्धांत का प्रतिफलन हैं।

(घ) अध्यात्म एवं नैतिक दृष्टिकोण सिद्धांत- अध्यात्म का मूल दर्शन है ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’, ‘सर्वे संतु निरामया’, ‘सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद दुःख भाग्भवेत्’। इसी मूल दर्शन पर पूरी नैतिक शिक्षा परिभाषित है। व्यक्ति को सुख भोगने का अधिकार तो है, लेकिन दूसरे को बिना कष्ट दिए। आज विलासी युग में व्यक्ति एवं समाज ऐश्वर्यपूर्ण जीवन भोगना चाहता है, लेकिन इसकी परवाह उसे नहीं रहती है कि इस दुष्परिणाम समाज के अन्य लोगों को तथा स्वयं को भुगतना पड़ेगा, इसलिए नैतिक दृष्टिकोण स्थापित करने में प्रत्येक राष्ट्र, प्रत्येक समुदाय, प्रत्येक राजनीतिज्ञ एवं प्रत्येक इकाई को संकल्पबद्ध होना पड़ेगा। पर्यावरण अनुकूलन के लिए समग्र दर्शन के सिद्धांत को महत्व दिया जाना चाहिए। इसी सिद्धांत को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने शब्दों में इस प्रकार कहा है, ‘भौतिक सुख पाने के लिए आजकल भीतरी चरित्र की बलि चढ़ा दी गई है..असली शिक्षा वह है, जो संपूर्ण मानव तैयार करे। ऐसी शिक्षा की जड़ें भारत की पुरानी परिपाटी में हैं।’

(ङ) जनसंख्या नियंत्रण का सिद्धांत – यह सर्वविदित है कि जनसंख्या विस्फोट पारिस्थिततिकीय असंतुलन का सबसे बड़ा कारक है। इसलिए जनसंख्या नियंत्रण कर प्रदूषण नियंत्रण का प्रबंधन किया जाना चाहिए।

उपसंहार


उपर्युक्त चर्चा से यह बात साफतौर पर सामने आई कि उपभोक्तावादी व्यवस्था चकाचौंध में जीने की चाहत प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन पर्यावरण एवं प्रदूषण नियंत्रण के प्रति उदासीनता प्रदूषण नियंत्रण के प्रति अप्रतिबद्धता, आध्यात्मिक दर्शन एवं नैतिक शिक्षा के प्रति लापरवाही, पर्यावरण के प्रति अबोधता, कचरा-निस्तारण में लापरवाही इत्यादि बातें ‘पर्यावरण-अनुकूलन’ की दिशा में समुचित विचार न करने के लिए उकसाती हैं, यद्यपि पर्यावरण अनुकूलन की दिशा में नित नई-नई विचार धाराएं प्रवाहित हो रही हैं, फिर भी उसमें तीव्रता लाने के लिए दृढसंकल्प होना पड़ेगा।

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