पर्यावरण और विकास की जंग

7 Jun 2012
0 mins read

प्रतिमत


बड़े बांधों का विरोध लगातार करने वाले सुंदरलाल बहुगुणा भी छोटी जल विद्युत परियोजनाओं को इस दृष्टि से उपयोगी मानते हैं विशालकाय बांध परियोजनाओं पर उनका मत है कि यह विस्थापन की समस्या के साथ-साथ पारिस्थितिकीय असंतुलन भी पैदा कर देंगी। भूस्खलन, भूकंप और अन्य खतरे बढ़ेगे। लेकिन दूसरी ओर यह भी जरूरी है कि पलायन रुके, बसावट बनी रहे, हिमालय भी बना रहे। इसके लिए कोई ऐसा रास्ता खोजना होगा जो कि पर्यावरण और विकास की जंग लड़ने वालों की मान्य हो।

उत्तराखंड में बिजली परियोजनाओं के पक्ष में जनमत बनता दिख रहा है। मुख्यमंत्री द्वारा जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण आवश्यक बताए जाने से लोग उनके पक्ष में खड़े होते दिख रहे हैं। इनमें समाजसेवी, साहित्यकार, बुद्धिजीवी एवं आम लोग भी शामिल दिख रहे हैं। साहित्यकार पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी एवं स्वैच्छिक संस्था रूलेक के प्रमुख पद्मश्री अवधेश कौशल एवं गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. ए.एन. पुरोहित भी समर्थकों की सूची में सबसे ऊपर नजर आ रहे हैं। अवधेश कौशल एवं लीलाधर जगूड़ी तो केंद्र सरकार के परियोजना विरोधी रवैये के विरोध में अपने पद्म-सम्मान लौटाने तक की घोषणा कर चुके हैं। बुद्धिजीवियों का कहना है कि अपने राष्ट्रीय मिशन के तहत प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह वर्ष 2012 के अंत तक हर घर को रोशनी देने की घोषणा कर चुके हैं। राहुल गांधी भी कलावती का उदाहरण देकर पूरे देश को अंधेरे से उजाले की ओर लाने का संकल्प संसद में व्यक्त कर चुके हैं। इसी के तहत परमाणु ऊर्जा विधेयक संसद में पारित किया गया है। ऐसे में इनके नेतृत्व की यूपीए सरकार को यह तय करना है कि वह अपने आश्वासनों पर खरा उतरे और बिजली परियोजनाओं को गति प्रदान करे।

हालांकि स्वामी सानंद (प्रो. जी.डी. अग्रवाल) गंगा पर जलविद्युत परियोजनाओं के विरोध में धरने पर बैठे हैं और उनके साथ अनेक साधु-संत भी गोलबंद होने लगे हैं। इन लोगों का मानना है कि जल विद्युत परियोजनाओं से गंगा व उसकी सहायक नदियों की जलधारा खत्म हो जाएगी। जब पानी नदी में न बहकर सुरंगों में बहेगा तो न गंगा की अविरल धारा बचेगी और न ही उसके जल का निर्मल बने रहने का गुण। ऐसे में इन लोगों ने उत्तरकाशी में गंगोत्री और गोमुख तक के क्षेत्र को पूरी तरह जलविद्युत परियोजनाओं से मुक्त रख इसे ईको सेंसेटिव जोन के रूप में विकसित करने की मांग रखी है। इनके साथ खड़े लोगों में इस बात को लेकर क्रोध है कि स्थानीय परंपराओं और परंपरा से जुड़े स्थलों की जानकारी से अनभिज्ञ लोग आखिर इस क्षेत्र के विकास की रूप-रेखा कैसे तैयार कर सकते हैं?

एक तरफ साधु-संत स्वामी सानंद के साथ अविरल गंगा के लिए विद्युत परियोजनाओं को रोकने की मांग कर रहे हैं वहीं विकास की पैरवी कर रहे लोग इनके दावों को झुठलाने में लगे हैं। स्वयं प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का तर्क है कि राज्य की नदियों से 27 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता है। जबकि हम महज 3,600 मेगावाट बिजली पैदा कर रहे हैं। उनका मानना है कि क्षमता के मुताबिक बड़े पैमाने पर ऊर्जा पैदा करने पर राज्य आत्मनिर्भर हो सकेगा और राज्य को धन की कमी भी नहीं आएगी। वे उत्तराखंड को ‘ऊर्जा राज्य’ के रूप में भारत का पावर हाउस मानते हैं। ऐसे में उन्हें गंगा की धारा के कम हो जाने का तर्क देकर परियोजनाओं का विरोध करने वाले स्वीकार नहीं हैं। वे कहते हैं कि हम गंगा के मायके में रहने वाले लोग स्वयं गंगा-भक्त हैं लेकिन गंगा के पानी का उपयोग वैज्ञानिक विधि से पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाए करना गलत नहीं है।

पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी भी मुख्यमंत्री से सहमत हैं। उनका कहना है कि पर्यावरण एवं विकास में साम्य स्थापित कर बिजली परियोजनाओं का निर्माण एक बेहतर विकल्प है। लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा होंगे और इससे राज्य से युवाओं का पलायन रुकेगा। पलायन के कारण सूने पड़े सीमांत क्षेत्र फिर से आबाद हो जाएंगे। जबकि परियोजनाओं का विरोध करने वाले लोगों का तर्क है कि उत्तराखंड में प्रस्तावित बांध परियोजनाओं से 25 लाख लोग प्रभावित होकर बेघर हो जाएंगे। यह संख्या राज्य की कुल आबादी का करीब-करीब एक-चौथाई है।

उत्तराखंड के सीमांत क्षेत्र में एक निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाउत्तराखंड के सीमांत क्षेत्र में एक निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनादूसरी तरफ अवधेश कौशल इस तर्क को हास्यास्पद बताते हैं। उनका मानना है कि जहां-जहां फिलहाल परियोजनाएं प्रस्तावित हैं उन क्षेत्रों में आबादी काफी छितराई हुई है मसलन वहां आबादी का घनत्व बेहद कम है। ऐसे में यह तर्क राज्यहित में चलाई जा रही परियोजनाओं को खामख्वाह बंद कराने का बहाना मात्र है। दरअसल, विकास और स्वरोजगार के अभाव की वजह से राज्य से पलायन हो रहा है। सीमांत क्षेत्रों में लोगों के पास जरूरत भर की सुविधाएं भी मौजूद नहीं हैं। लोगों के पास रोजगार के साधन ही नहीं है। पर्यावरण की आड़ लेकर साधु-संतों की बरगलाने वाले यह तर्क दे रहे हैं कि जलविद्युत परियोजनाओं से गंगा सूख रही है, जबकि हकीकत यह है कि इन परियोजना से एक बूंद पानी भी बेकार नहीं होता। टर्बाइन चलाने के लिए नदियों के जल को बस टनल (सुरंगों) होकर गुजारना भर पड़ता है। टर्बाइन का गति प्रदान करने के बाद पानी पुनः नदी में ही चला जाता है। टनलों से गंगा का पानी गुजरने के बाद उसमें किसी तरह का नुकसान नहीं होता।

केंद्र सरकार ने वर्ष 2008 में स्वामी सानंद के अनशन के सामने झुककर राज्य की उत्तरकाशी जिले की तीन परियोजनाओं, पाला मनेरी (480 मेगावाट क्षमता), लोहारी नागपाला (600 मेगावाट क्षमता) एवं भैरो घाटी (381 मेगावाट क्षमता) को बंद करा दिया था। ये तीनों परियोजनाएं राज्य सरकार के स्वामित्व में बन रही थी। इन परियोजनाओं पर राज्य सरकार 80 करोड़ रुपए पाला मनेरी में 120 करोड़ रुपए भैरो घाटी में और 1,200 करोड़ रुपए लोहारी नागपाला में खर्च कर चुकी थी। यह राज्य की जनता का पैसा था जो इन परियोजनाओं के लिए लगाया जा रहा था लेकिन पर्यावरण की आड़ लेकर साधु-संतों ने इसे धर्म के नाम पर डुबो दिया।

केदारनाथ सीट से कांग्रेस की विधायक शैलारानी रावत के अनुसार, ‘इन परियोजनाओं से जो क्षति पहुंचनी थी, पहुंच चुकी है। अब परियोजनाओं का लाभ राज्य के लोगों को मिलना था लेकिन इन्हें सरकार ने धर्म की आड़ में अपना धंधा चमकाने वालों की भेंट चढ़ा दिया।’ उन्होंने केदारनाथ यात्रा पर पिछले दिनों यात्रा के दौरान मरे नौ श्रद्धालुओं को याद करते हुए कहा कि इन लोगों के अंतिम संस्कार के लिए इस हिम क्षेत्र में पर्याप्त लकड़ियां तक उपलब्ध नहीं थीं। यहां विद्युत शवदाह गृह की मांग सभी करते हैं लेकिन बिना बिजली की उपलब्धता के यह मांग पूरी की जाए तो कैसे? विधायक शैलारानी रावत के अनुसार परियोजनाओं को शीघ्र चालू करने की अनुमति केंद्र को शीघ्रातिशीघ्र दे देनी चाहिए। जिला पंचायत देहरादून की अध्यक्षा मधु चौहान के अनुसार, ‘गंगा में बढ़ते प्रदूषण की चिंता तो फिर भी समझ में आती हैं लेकिन बांधों के दुष्पपरिणामों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की राजनीति समझ से परे है। आखिर बांधों से ही तो राज्य को ‘ऊर्जा प्रदेश’ बनाया जा सकता है। राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष सुशीला बलूनी आशंका जाहिर करती हैं कि नदी बचाओ आंदोलन से जुड़े जो लोग आज परियोजना विरोधी मुद्दे उछाल रहे हैं, वे विदेशी सहायता मसलन, ऑक्सफोर्ड एक्शन एंड वाटर एड जैसी संस्थाओं से प्रायोजित हो रहे हैं। इनका उद्देश्य अपना राजनीतिक हित और धन की प्राप्ति है। राज्य के लोगों या राज्यहित की इन्हें कोई परवाह नहीं है।

सेना के अवकाश प्राप्त लेफ्टिनेंट जनरल एच.बी. काला ने तो धार्मिक नेताओं को चुनौती तक दे डाली है कि वे अपने इस रवैये पर खुली बहस में हिस्सा लें और अपना तर्क सार्वजनिक तौर पर रखें। उन्हें इस बात का अफसोस है कि करोड़ों रुपए खर्च हो गए पर मुट्ठी भर धार्मिक संगठनों के आगे सरकार ने जनहित की परियोजनाएं बंद कर दीं। टिहरी जिला पंचायत अध्यक्ष रतन सिंह गुनसोला के अनुसार यदि बंद हुई जल-विद्युत परियोजनाएं चालू की जाएं तो राज्य के हजारों युवा इनमें रोजगार पा सकेंगे। पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने तो पीपलकोटी और विष्णुघाट जलविद्युत परियोजना को शीघ्र शुरू कराने की मांग की है। 44 मेगावाट की इस परियोजना के समर्थन में पिछले 29 अप्रैल को स्थानीय लोगों ने भी प्रदर्शन किया था। पर्यावरण व विकास की जंग में विकास को अब पहाड़ों पर आवाज मिलने लगी है। इसके अगुवा बनकर स्वयं सूबे के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उभरे हैं।

गंगा और सहायक नदियों पर लगभग सौ जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इनसे पहाड़ के लोग विकास एवं पलायन पर रोक की उम्मीद कर रहे हैं। धीरे-धीरे अब इन परियोजनाओं में अड़ंगा लगाने वाले साधु-संतों के खिलाफ जनमत तैयार होने लगा है। रुड़की प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की रिपोर्ट में राज्य में जलविद्युत ऊर्जा पैदा करने की क्षमता 20 हजार मेगावाट आंकी गई है। दरअसल, ऐसे राज्य में जहां खेती योग्य जमीन की प्रतिशतता मात्र 13.7 है वहां जलविद्युत जैसी परियोजनाओं से ही रोजगार और धन-संग्रह के उपक्रम पैदा किए जा सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य सरकार व उसके उपक्रम के तहत 2,800 मेगावाट की 32 परियोजनाएं, केंद्र सरकार के उपक्रम के तहत 7,300 मेगावाट की 25 परियोजनाएं और निजी उद्यम के द्वारा 2,100 मेगावाट की 38 परियोजनाओं पर काम किया जा रहा है।

मजे की बात यह भी है कि उत्तराखंड जहां गंगा व सहायक नदियों का स्रोत है वहीं प्रदूषण सबसे कम है। उत्तर प्रदेश पहुंचते-पहुंचते गंगा व उसकी सहायक नदियां गटर में तब्दील हो जाती है। कानपुर और बनारस में तो गंगा भयावह रूप से प्रदूषित नजर आती है। विडंबना यह है कि स्वामी सानंद स्वयं कानपुर के ही हैं लेकिन उन्हें अपने शहर में गंगा का प्रदूषण नजर नहीं आता। जाहिर है, उत्तरकाशी और चमोली या उत्तराखंड के सीमांत क्षेत्रों की जलविद्युत परियोजनाओं के प्रति उनका विरोध स्थानीय लोगों की समझ से परे है। राज्य के मुख्यमंत्री ही नहीं, आंदोलनकारी दल उक्रांद समेत भाजपा में भी इन परियोजनाओं के निर्माण को लेकर सहमति बनती नजर आ रही है। पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी का कहना है कि गंगा स्वच्छ रहे इसकी गारंटी के साथ यदि बिजली परियोजनाएं बनाई जाती हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है? जबकि पर्यावरणविद सुरेश भाई का कहना है कि गंगा जब सुरंग से होकर बहेगी तब उसके जल का प्राकृतिक गुण निश्चित तौर पर बदल जाएगा।

बहरहाल, नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी की पिछले माह की बैठक में परियोजनाओं को लेकर सभी पक्ष आमने सामने देख प्रधानमंत्री ने यह बैठक स्थगित कर दी थी। पर्यावरणविदों एवं धार्मिक संगठनों का दबाव परियोजना के विरोध में है तो परियोजनाओं के समर्थन में सरकार और तामाम राजनीतिक पार्टियां खड़ी नजर आ रही हैं। वहीं आम जनता का कहना है कि परियोजनाओं के बिना राज्य की आर्थिक स्थिति का भविष्य कैसा होगा? क्योंकि उनके पास न तो खेती की जमीन है और न ही विकास के मौके। राज्य का 65 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित है और वहां विकास कार्यों के लिए स्वीकृति बनाना भी टेढ़ी खीर साबित होती है। ऐसे में आम लोग इन परियोजनाओं के पक्ष में पूरी तरह से समर्थन का मूड बनाते दिख रहे हैं।

हिमालय में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बन रही सुरंगहिमालय में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बन रही सुरंगहालांकि बताते चलें कि जोशीमठ में चल रहे तपोवन विष्णुघाट परियोजना के दौरान पिछले दिनों नदी के प्रवाह के लिए सुरंग बनाते वक्त अचानक भूगर्भीय जल के आगमन से वैज्ञानिक चकित रह गए। निर्माणाधीन सुरंग में 600 लीटर प्रतिसेकेंड की रफ्तार से निकल रहे जल ने अभियंताओं सहित आस-पास के लोगों को भी चिंता में डाल दिया। बाद में भूगर्भ वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया कि जोशीमठ का इलाका बर्फ की विशाल चट्टान पर स्थित है। संभव है कि भूमि के नीचे चार से पांच विशाल झीलों का अस्तित्व हो। बहरहाल, 520 मेगावाट की इस परियोजना में रन ऑफ द रीवर के तहत बिजली पैदा होगी। जिसके लिए जोशीमठ शहर के नीचे 12 किलोमीटर लंबी सुरंग बनाई जा रही है। यह पैनी सेंजग, ऊणीमठ, औली, रविग्राम, चौंजरी, भेरग, परसारी, डांडी, रामगढ़ी, करछों, तुगासी और कर्छी जैसे गांवों के नीचे से होकर गुजर रही है। यह कार्य जल्द ही पूरा होने वाला है और इसके बाद बीएचईएल यहां टर्बाइन लगाएगी।

चिपको नेता चंडीप्रसाद भट्ट भी सुरंग में अचानक शुरू हुए जलप्रवाह से चिंतित होकर मांग कर रहे हैं कि इस क्षेत्र का भूगर्भिय अध्ययन उच्च कोटि के वैज्ञानिक करें।

बड़े बांधों का विरोध लगातार करने वाले सुंदरलाल बहुगुणा भी छोटी जल विद्युत परियोजनाओं को इस दृष्टि से उपयोगी मानते हैं कि यहां से पलायन रोकने के लिए लोगों को रोजगार और विकास के साधन सौंपने ही होंगे। हालांकि विशालकाय बांध परियोजनाओं पर उनका मत है कि यह विस्थापन की समस्या के साथ-साथ पारिस्थितिकीय असंतुलन भी पैदा कर देंगी। भूस्खलन, भूकंप और अन्य खतरे बढ़ेगे। लेकिन दूसरी ओर यह भी जरूरी है कि पलायन रुके, बसावट बनी रहे, हिमालय भी बना रहे। इसके लिए कोई ऐसा रास्ता खोजना होगा जो कि पर्यावरण और विकास की जंग लड़ने वालों की मान्य हो।

कम नहीं हैं उत्तराखंड में पर्यावरण के पैरोकार


एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड के 16 हजार गांवों में लगभग 45 हजार से अधिक एनजीओ काम कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश पर्यावरण के पैरोकार हैं। देश-विदेश से करोड़ों रुपए इन संगठनों द्वारा बटोरे जा रहे हैं। उत्तराखंड को ऊर्जा राज्य बनाने का सपना भले ही दिखाया जा रहा है लेकिन हकीकत यह है कि यहां की कोई भी परियोजना शुरू होने से पहले ही आड़ंगो का शिकार हो जाती है। जानकारों का मानना है कि ये अडंगे जानबूझ कर अपना हित साधने के लिए लगाए जाते हैं। जो सरकारी परियोजनाएं कागजों में बनी हैं उनमें लगभग 500 परियोजनाएं यहीं की नदियों के लिए हैं। यदि इन पर अमल हुआ तो लगभग 700 किलोमीटर लंबी सुरंगे बनेंगी। इन सुरंगों से ही नदियों का जल टर्बाइनों तक पहुंचेगा। जाहिर है, नदियों के परंपरागत रास्ते विल्पुत होंगे और जैवविविधता में फर्क आएगा। कहते हैं कि गंगोत्री से लकेर उत्तरकाशी के बीच ही गंगा विलुप्त हो जाएगी।

एक परियोजना के कारण बदरीनाथ से जोशीमठ के बीच अलकनंदा के कुछ किलोमीटर तक गायब होने की स्थिति से लोग दो-चार हो ही चुके हैं। बदरीनाथ के निकट बेगवान अलकनंदा जेपी द्वारा निर्मित एक परियोजना द्वारा कई किलोमीटर तक सुखा दी गई है। इसी को आधार बनाकर साधु-संन्यासी यह तर्क देते हैं कि यदि हिमालय में ही गंगा को बहने से रोकेंगे तो उसका अस्तित्व सुरक्षित कैसे रहेगा। ऐसे में विकास और पर्वायवरण के प्रश्नों से आस्थावान लोग जूझ रहे हैं। इस द्वंदू ने बाहरी व स्थानीय का झगड़ा भी पैदा किया है। पर्यावरण व धार्मिक आस्था की ढाल लेकर गंगा पर परियोजनाएं रोकने के हिमायती और परियोजनाओं के समर्थक स्थानीय लोगों के बीच रस्साकशी और तेज होगी। फिलहाल तो नदियां कलकल बह रही हैं।

बांध से मत्स्य प्रजाति खतरे में


अलकनंदा की धारा में कर्णप्रयाग तक महाशीर मत्स्य क्षेत्र है तो ऊपरी अक्षांश के जोशीमठ तक स्नोट्राउट मत्स्य प्रजनन क्षेत्र है। इस क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाएं निश्चित तौर पर यहां के जलजीवन की इस महत्वपूर्ण कड़ी को तोड़ सकती है। महाशीर के इलाके में विश्व बैंक की सहायता से बन रही टीएचडीसी की 4,200 करोड़ की पीपलकोटर परियोजना के पूरा होने के बाद महाशीर का क्या होगा? हालांकि इस आशंका के मद्देनजर फिश पास जैसी योजनाएं चलाने की बात बांध के निर्माण में लगी कंपनियां कह रही हैं तथापि वैज्ञानिकों को चिंता है कि जलविद्युत परियोजनाओं क कारण मछलियों की कई प्रजातियां संकट में पड़ जाएंगी।

वैसे ही स्नोट्राउट के लिए भी तपोवन विष्णुघात परियोजना ने संकट खड़े किए हैं। इस खतरे से जूझना आसान नहीं है। सीधे-सीधे कहें तो उसेला नामक मछली निर्माणाधीन परियोजना के कारण अपने प्राकृतिक आवास क्षेत्र में ही अपनी सत्रह समान-सी प्रजातियों के साथ नष्ट हो जाएंगी। वैसे भी भारतीय उपमहाद्वीप में उसेला की कम ही प्रजातियां अब बची हैं। पश्चिमी चीन में इसकी 61 प्रजातियां अब भी मिलती हैं। इन प्रजातियों की खासियत यह है कि यह तेज बहाव वाली नदियों, ग्लेशियरों के पानी में ज्यादा फलती-फूलती हैं। बांध बनने से जल क्षेत्र में पैदा हुए बदलाव इनके रहन-सहन को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं, वैज्ञानिकों को यह चिंता सता रही है। इन मछलियों की संरचना हिमालय की वेगवती धाराओं के अनुकूल है अतः धारा में आए गुणात्मक बदलाव इनके अस्तित्व का संकट पैदा कर सकते हैं।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading